पूर्वदिनचर्या – श्लोक – २२

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक २१                                                                                                       श्लोक २३

श्लोक २२

ततस्सार्धम् विनिर्गत्य भृत्यैर्नित्यानपायिभिः ।
श्रीरङ्गमङ्गलं दृष्टुं पुरुषं भुजगेशयं ॥ २२

शब्दार्थ ततः              – द्वयमहामंत्र का उपदेश देने के बाद,
श्रीरङ्गमङ्गलम्         – (जो) श्रीरङ्गनगर का नियंत्रण करता हो,
भुजगेशयं                   – (जो) आदिशेष का सहारा लेते हुए उस पर सोते है,
पुरुषं                          – पेरियपेरुमाळ (पुरुषोत्तम),
द्रष्टुम्                        – देखे गए,
नित्यानपयिभिः भृतयैः – जो कोइल अण्णन और अन्य शिष्यों के संगत से अवियोज्य है,
विनिर्गत्य                   – अपने आश्रम (मट्ठ) से शुरु हुए

भावार्थ (टिप्पणि) – यहा “श्री” शब्द का अर्थ समान्यतः श्रेष्ठता को बतलाता है परन्तु यह शब्द इस संदर्भ मे श्रीरंगनगर का विशेषण होते हुए श्रीरंगनगर की श्रेष्ठता को दर्शाता है । रंगम् मायने “श्री” अतः श्रीरंगम् कहा गया है । क्या अरंगनगर पेरियपेरुमाळ ( जो शयित रूप मे स्थित है ) की वजह से विख्यात है ? पेरियपेरुमाळ की वजह से विख्यात नही है । पेरियपेरुमाळ जो अपने स्वेच्छा से श्रीरंग मे स्थित है जो अपने भक्तों को महत्ता प्रदान करते है इसी कारण श्रीरंग विख्यात है । इसी संदर्भ मे श्रीवरवरमुनि ने अज्ञात अनुमोदक के श्लोक “क्षीरपदेर्मण्डलत्पनोहि योगिनाम् हृदयद्यपि रतिनगतो हरिर्यत्र तस्मात् रंगमितिस्मृतं” को पेरियाऴ्वार के पेरियतिरुमोऴि (४.८.१) के टिप्पणि मे प्रस्तुत करते है । इस श्लोक मे अज्ञात अनुमोदक कहते है – भगवान अपने इच्छा से श्रीरंग मे स्थित है और इस स्थान से उन्हे इतना लगाव है की वे इस स्थान मे सदैव निवास करना चाहते है बजाय योगियों के हृदय मे, क्षीरसागर मे, सूर्यमण्डल इत्यादि मे । इसी कारण यह भगवान का निवास स्थान हुआ अतः श्रीरंगनगर से जाना गया है । पूर्वाचार्यों के आधार पर हमे यह सोचना चाहिये की भगवान स्वयम श्रीरंगनगर को विख्यात कर रहे है और हम सभी वैष्णवों को इसका आनंद लेना चाहिये ।  सच कहे तो दोनो अर्थ महत्व और विशेष है । यहा “पुरुषः” शब्द के तीन अर्थ है । पहला – पुरति इति पुरुषः अर्थात पहला शब्द व्युत्पत्ति है । पुरुषः का वाचनिकमूल “पुरु अग्रगमने” है जिसका अर्थ है – भगवान सृष्टि के सृजन के पहले भी मौज़ूद है और उसके बाद भी । अतः इस वाचनिकमूल शब्द का अर्थ “इस सृष्टि के सृजन का स्वरूप” है ।

दूसरा – पुरि चेते इति पुरुषः अर्थात जो हृदय मे निवास करता है । तीसरा – पुरोषोनति इति पुरुषः अर्थात जो बिना आरक्षण के पर्यात मात्रा मे हर एक चीज़ को प्रदान करता है । अतः यह औदार्य को प्रकाशित करता है । कहा गया है की पूर्वोक्त अर्थों का समावेश अऴगिय मणवाळपेरुमाळ है । विशिष्टवर्ग के लोगों का कहना है की – आदिशेष पर शयन करना आधिपत्य का प्रतीक है । यहा ध्यान दिया जाना चाहिये की – श्रीवरवरमुनि श्रीरंगनगर के अधिपती श्रीरंगनाथ का आश्रय केवल श्रीरामानुजाचार्य के आनन्द के लिये ही कर रहे है और किसी के खातिर नही । कहते है – हमारा परछाई ही ऐसा एक मात्र है जो हमसे अवियोज्य है और अन्धकार मे खुद की परछाई छिप जाती है परन्तु इस श्लोक मे कहा गया है की श्रीवरवरमुनि के शिष्य उनका त्याग अन्धकार मे भी कभी नही करेंगे । अतः कुछ इस प्रकार से अन्नप्पनगरस्वामि ने श्रीवरवरमुनि के शिष्यों के आचार्यभक्ति के वैभव का वर्णन किया है ।

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