प्रमेय सारम् – श्लोक – ९

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

प्रमेय सारम्

श्लोक  ८                                                                                                  श्लोक  १०

श्लोक  ९

प्रस्तावना:

पिछले ८ पाशुरों में “उव्वानवरूक्कु” से प्रारम्ब होकर “वित्तीम ईझवु” तक श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी तिरुमन्त्र(ॐ नमो नारायणाय) के तथ्य के विषय में बात किये है जिसे तीन विभागों में बाटा गया है। इस पाशुर में यह कहा गया है कि हम सब को अपने आचार्य जिन्होंने हमें तिरुमन्त्र सिखाया है उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण का अवतार मानना चाहिये। जैसे शास्त्र में बताया गया है हमें पूर्ण सम्मान के साथ उनकी सेवा करनी चाहिये और उसका एहसास होना चाहिये। इस पाशुर में श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी दो समूह के लोगों को अंकित करते है और उसके जोखिम और इनाम के बारें में बात करते है। पहिले समूह के लोग अपने आचार्य का सन्मान कर उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण का अवतार मानते है और दूसरे समूह के लोग उनका अनादर करते है।

तत्तम इरै यिन वडिवेन्रु तालिणैयै
वैत्तवरै वणग्ङियिरा – पित्तराय
निन्दिप्पार्क्कु उण्डेर नीणिरयम नीदियाल
वन्दिप्पार्क्कु उण्डिलि यावान

अर्थ:

अवरै                        : आचार्य के प्रति
तालिणैयै वैत्त          : जिन्होंने अपने शिष्य के सिर पर अपना चरण कमल रखकर उसकी नासमझ को दूर किया
वडिवेन्रु                    : हमें उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण ही मानना चाहिये
तत्तम इरै यिन         :  और उनका “हमारे भगवान” जैसे उत्सव मनाना चाहिये
वणग्ङियिरा             : मनुष्य जो ऐसा नहीं करते है और उनका निरादर करते है
पित्तराय                 : जो आचार्य के सच्ची महिमा को समझ नहीं सकते है
निन्दिप्पार्क्कु          : और उन्हें एक साधारण मनुष्य समझकर नकार देते है
एरा नीणिरयम उण्डु : नरक प्रतिक्षा करता है जहाँ से स्वतन्त्र होना नामुमकिन है
नीदियाल                : परन्तु जो उनकी पुजा करता है जैसे शास्त्र में बताया गया है
वन्दिप्पार्क्कु           : और उनको पूर्ण सम्मान के साथ सम्मान करना
लिया वान              : एक जगह है जहाँ से आना नामुमकिन है वह प्रतिक्षा कर रहा है और इसलिये पुर्नजन्म नहीं है
उण्डु                      : यह निश्चय है

स्पष्टीकरण:

तत्तम इरै यिन वडिवेन्रु: “थम थम” मूल शब्द का व्याकरणिक रूपांतर है “तत्तम” शब्द। “तत्तम इरै यिन वडिवेन्रु” पद का अर्थ “भगवान का रुप”। भगवान श्रीमन्नारायण सबके लिये सामान्य है। जब एक व्यक्ति अपने भगवान कि पुजा करता है तब वह उन्हें “मेरे भगवान श्रीमन्नारायण” ऐसे संबोधित कर सकता है क्योंकि वह सब के अंतरयाम में विराजमान है (देवताओ में भी जिनकी एक साधारण मनुष्य पुजा करता है)। यह भगवान श्रीमन्नारायण सबके स्वामी है। वह अपनेआप को आचार्य ऐसे कहते है और मनुष्य रुप लेते है जो सबको सुलभता से प्राप्त होते है और हमारे अज्ञानता को मिटाते है जो हमारे में आगया है। शास्त्र यह दिखाता है कि सबको यह समझना चाहिये कि हमारे आचार्य और कोई नहीं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण है।

तालिणैयै वैत्तवरै: यह हमे ज्ञानसारम का ३६वां पाशुर देखने को कहता है जो “विल्लार मणि कोलिक्कुम” से शुरू होता है। उस पाशुर में “मरुलाम इरूलोड मत्तगत्तुत तन ताल अरूलालै वैत्त अवर” पद है। यह उन आचार्य के बारें में कहता है जो अपने शिष्य के माथे पर उसके पापों को मिटाने के लिये अपना श्रीचरण कमल रखते है। वहीं अर्थ इस पद में भी कहा गया है जो आचार्य कि कृपा के विषय में चर्चा करता है।

वणग्ङियिरा – पित्तराय: बिना ऐसे आचार्य का सत्य स्वभाव और महानता जाने बिना कुछ जन ऐसे भी है जो अपने आचार्य के पास नहीं जाते है और उनके चरणों के शरण नहीं होते है। इसके उपर वें उन्हें साधारण मनुष्य समझते है और नकार देते है। सच्चाई यह है कि आचार्य के चरण कमल हमारे थोड़े से भी अंधकार को मिटा देते है जो यहा देखा जा सकता है “चायै पोल  पाड़ वल्लार  तामुम  अणुक्कर्गळे ”।

एक समय कुछ जन श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी के पास गये और इस पद का स्पष्टीकरण करने को कहते है। इस पद का अर्थ “जो श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुमोझी के अन्तिम १० पाशुर गाते है जैसे “परछाई भगवान को प्रिय है”। वह समूह के लोग श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी से पूछते है कि श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी का यह कहने से कि “परछाई के जैसे गाना का क्या मतलब है” जैसे इस पद में कहा गया है “चायै पोल  पाड़ वल्लार ”। श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी उन्हें उत्तर देते है “अडियन को इसका अर्थ पता नहीं है क्योंकि अडियन ने इन पाशुरों का अर्थ अपने आचार्य श्रीरामानुज स्वामीजी से नहीं सिखा। हालाकि श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी ने क्यों गाया इसके लिये कोई व्याख्या होनी चाहिये। मेरे आचार्य श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीगोष्ठीपूर्ण स्वामीजी से मिलने हेतु तिरुक्कोटीयूर के लिये प्रस्थान कर दिये है। इसलिये इस समय अडियन उन्हें नहीं मिल सकता है”। यह कहकर वें अन्दर चले गये और अपने आचार्य कि चरण पादुका अपने सिर पर रखा। उसी समय उन्हें इसका समाधान मिल गया। श्रीगोविंदाचार्य स्वामीजी ने उत्तर दिया “मित्रों!!! क्या आपने नहीं सुना श्रीरामानुज स्वामीजी ने मुझसे क्या कहा। हमें यह पद इस तरह गाना चाहिये “पाड़ वल्लार -चायै पोल तामुम  अणुक्कर्गळे ”। अब इसका अर्थ इस तरह है जो यह श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुमोझी के १० पाशुर को गाता है वह इतना प्रिय और समीप हो जाता है जैसे शरीर के लिये परछाई”।

इस पाशुर के अन्त में आचार्य को सामान्य व्यक्ति समझने के नुकसान से बारें में चर्चा कि गयी है।

निन्दिप्पार्क्कु उण्डेर नीणिरयम: “येरा” शब्द का अर्थ अजय है और “नील” सदैव है। “नीरयम” नरक है और इसलिये यह पद “येरा नील नीणिरयम” अजय नरक जहाँ एक व्यक्ति को आजीवन बांध दिया जाता है यह दर्शाता है। यह स्थान उन जनों के लिये है जो अपने आचार्य का निरादर करते है गलत शब्द का उपयोग करके और उन्हें दूसरे साधारण मनुष्य के जैसे सम्मान देते है। यह नरक नियमित नरक से भिन्न है जहाँ यम शासन करते है। जिस नरक में यम शासन करते है एक समय के पश्चात वहाँ के लोग मुक्त हो जाते है जैसे इस पद में कहा गया है  “नरगमे सुवर्गमागुम ”। हालाकि नरक जो इस पाशुर में कहा गया है भिन्न और खास है और जहाँ से कोई वापस नहीं आता है।

अत: हम यह कह सकते है कि व्यक्ति जो अपने आचार्य को साधारण मनुष्य समझते है कभी मुक्त नहीं होती है। नाहीं मुक्त होने के लिये इन्हें कोई ज्ञान प्राप्त होता है। वें इस संसार में निरंतर जन्म लेते रहेंगे। तिरुवल्लूर इसे इस तरह समझाते है “उरंगुवदु  पोलुम  साक्काडु  उरंगी  विळिप्पदु  पोलुम  पिरप्पु ”। इसका अर्थ यह है कि जन्म और मरण उसी तरह है जैसे निद्रा से उठकर फिर सो जाना।

नीदियाल वन्दिप्पार्क्कु उण्डिलि यावान: जैसे ज्ञान सारम के पाशुर में कहा गया है “तेनार  कमल  तिरुमामगळ  कोळुनन  ताने  गुरुवागि  तन्नरुळाल  मानिडर्का इन्नीलाते तोंदृदलाल ”, कि हमें अपने आचार्य को भगवान श्रीमन्नारायण का अवतार समझना चाहिये और जैसे शास्त्र में कहा गया है उन्हें पूर्ण सम्मान देना चाहिये। ऐसे लोगों के लिये पुर्नजन्म नहीं है क्योंकि वें इस संसार बन्धन से मुक्त हो जाते है।

“नीदि” आचार्य कि पूजा करने कि एक विधी है और वन्दित्तल यानि पुजा करना है। “उण्डिलि यावान” परमपदधाम को संबोधित करता है जहाँ से कोई वापस नहीं आता है। अत: हम आचार्य कि महानता को जान सकते है और उनके चरण कमल कि शरण हो सकते है। हमें इससे अधिक और कुछ जानने कि आवश्यकता नहीं जैसे श्रीमधुरकवि स्वामीजी इन पदों में कहते है “तेवु  मत्रु  अरिएन ”। उन्हें श्रीशठकोप स्वामीजी के चरण कमल के सिवाय और कुछ भी पता नहीं था। जो लोग यह करते है वें परमपदधाम को जाते है और नित्यसुरी के संगत में रहते है और भगवान का अनुभव करते है। ऐसे जन जिनमें ऐसी आचार्य भक्ति है वें पुन: इस संसार में जन्म नहीं लेते है।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

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