प्रमेय सारम् – श्लोक – १०

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

प्रमेय सारम्

श्लोक  ९ 

श्लोक  १०

प्रस्तावना:

पहिले के पाशुरों में यह चर्चा हुई कि आचार्य स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण के अपरावतार है। ३९वें पाशुर में यह पद “तिरुमामगळ कोळुनन ताने गुरुवागि ” बहुत ध्यान देने योग्य है।

आचार्य के स्तुति के बारें में बात करते हुए श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी इसके महत्त्व को समझाकर समाप्त करते है।

इरैयुम उयिरुम इरुवर्क्कु मुलल
मुरैयुम मुरैये मोलियुम – मरैयै
उणर्त्तुवारिल्ला नाल ओन्रल्ल आन
उणर्त्तुवार उण्डान पोदु

अर्थ:
इरैयुम                         : श्रीमन्नारायण जिन्हें “अकार” या “अ” ऐसे दर्शाया गया है
उयिरुम                       : जीवात्मा जो “मकार” या “म” ऐसे दर्शाया गया है
इरुवर्क्कु मुलल मुरैयुम : उनके मध्य में सम्बन्ध (जैसे पहले दर्शित हैं, तमिळ व्याखरण के अनुसार चौती कारक कि विधि यहाँ उपयोग ) और कुछ नहीं “भगवान होना” या “सेवक होना”
मुरैये मोलियुम           : इस सम्बन्ध को प्रकाशित करने की योग्यता रखना
मरैयै                         : क्या तिरुमन्त्र जिसे वेदों का तथ्य माना गया है
उणर्त्तुवारिल्ला नाल   : किसी समय में जब कोई भी (आचार्य भी नहीं) समझाने वाला नहीं है
ओन्रल्ल                     : जीवात्मा और परमात्मा उनका उत्पन्न होना कोई अर्थ नहीं करता है और व्यर्थ है (वें सोचे कि वे है और उनका होना नहीं होने के समान है)
उण्डान पोदु                : परन्तु जब एक आचार्य
उणर्त्तुवार                  : तिरुमन्त्र का अर्थ समझाते है
आन                          : वह दोनों में प्राण आ जाता है

स्पष्टीकरण:
इरैयुम उयिरुम इरुवर्क्कु मुलल मुरैयुम: इस ग्रंथ के पहिले पाशुर में जो “अव्वानवर” से प्रारम्भ होता है श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी “अ” का अर्थ समझाते है और किसे वो संबोधित करता है। वह और कोई नहीं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण है। आगे के पदों में उन्होंने “म” का अर्थ समझाया। इस संसार के स्वर में जो कुछ भी और सब कुछ स्थापित करते है और वें कोई नहीं भगवान श्रीमन्नारायण है। इस अस्तित्व को जीवात्मा कहते है। भगवान श्रीमन्नारायण और जीवात्मा के मध्य में जो सम्बन्ध है उसे “उव्वानवरूक्कु मव्वानवर” ऐसा दर्शाया गया है। इसका अर्थ सभी जीवात्मा परमात्मा श्रीमन्नारायण के लिये है। एक कहावत है “परमात्मा का जीवात्मा” यानि “पिता का बेटा” है। “अकार” कि चौथी कारक से अर्थ बनती हैं के जीवात्मा परमात्मा केलिए है.

यह तमिळ व्याखरण ग्रन्थ नन्नूल में उपस्थित हैं . “अव्वानवरकु” में प्रस्तुत “कु” की अर्थ समझने केलिए नन्नूल की अंश देखते हैं।    वह कहती हैं :

“नांगावदर्कु  उरुबागुम  कुव्वे
कोडै पगै नेर्चि  तगवु  अदुवादल
पोरुट्टू मुरै  आदियिन  इन्दर्कु  इदु पोरुळे ”

यहाँ हम देख सकते हैं कि,” कु” का अर्थ हैं  सीधा सम्बंध, (इसका उससे). अथवा तमिळ व्याखरण के अनुसार “अव्वानवरुक्कु मव्वानवर ” का अर्थ  “मव्वानवर अव्वानवर के  हैं ” हैं.

मुरैये मोलियुम – मरैयै: उपर बताया हुआ सम्बन्ध वेदों में, तिरुमन्त्र, में स्पष्ट समझाया गया है। ज्ञान सारम के ३१वें पाशुर में (वेदं  ओरु  नांगिन  उत्पोदिन्द  मेइप्पोरुळुम ) वेदों में पूर्ण रूप से तिरुमन्त्र का अर्थ समझाया गया है।

उणर्त्तुवारिल्ला नाल ओन्रल्ल: यह जीवात्मा और परमात्मा के मध्य में जो सम्बन्ध है यह कोई एक समय में नहीं किया गया है। यह निरन्तर के लिये है। हालकि जब तक जीवात्मा इस सम्बन्ध को नहीं समझता है (आचार्य कृपा द्वारा) और हालाकि दोनों उत्पन्न है उनका होना नहीं के बराबर है।

आन उणर्त्तुवार उण्डान पोदु: “आन” एक क्रिया है। इसका अर्थ जीवात्मा और परमात्मा उत्पन्न होना तभी प्रारम्भ होते है जब कोई उन्हें इस सम्बन्ध के बारें में बताते है। आचार्य के सिवाय कौन यह कार्य कर सकते है। केवल आचार्य हीं स्पष्ट रूप से यह सम्बन्ध प्रकाशित कर सकते है जैसे तिरुमन्त्र में बताया गया है। इस ग्रन्थ के पहिले पाशुर में “उव्वानवर  उरैत्थार ” द्वारा यही कहा गया है। यह सबसे बड़ा कार्य आचार्य हम मनुष्य के लिये करते है। श्रीशठकोप स्वामीजी इस कार्य को “अरियादन अरिवित्थ अत्था ” ऐसा बुलाते है। श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी इसे  ऐसे समझाते है “पीदग आडै पिरानार  पिरम  गुरुवागि  वंदु ”। अत: आचार्य कि बढाई और महिमा को समझाया गया है।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

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