प्रमेय सारम् – श्लोक – ८

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

प्रमेय सारम्

श्लोक  ७                                                                                                      श्लोक  ९

श्लोक  ८

प्रस्तावना:

इस ग्रंथ में श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी पहिले ३ पाशुर में “ॐ” शब्द के अर्थ का विवरण देते है “उव्वानवर”, “कुलम ओन्रु” और “पलङ्गोण्डु”। अगले ४ पाशुर यानि “करूमत्ताल”, “वलि यावदु”, “उल्लपडि:” और “इरै इरुवर्क्कुम” में “नम:” शब्द के अर्थ पर चर्चा करते है। इस पाशुर में “नारायण” शब्द के अर्थ पर बात करते है।

“नारायण” शब्द का अर्थ जो यहा बताया गया है वों यह है कि सब को भगवान श्रीमन्नारायण का दास बनकर रहना चाहिये और उनकी सेवा करनी चाहिये। यही सब से उच्च बात है जो सब को प्राप्त हो सकती है। इस “नारायण” शब्द के अर्थ में बहुत से परत है। जिसमें भगवान श्रीमन्नारायण को श्रेष्ठ मानकर आनन्द प्राप्त करने कि, उनके दर्शन प्राप्त करने कि, यह तथ्य को ग्रहण करने कि की उनको छोड़ ओर कही आनन्द नहीं है, उनकी सेवा करना और अन्त में उनकी सेवा कैसे करन इसकी अतोषणीय प्यास है। यह सब “नारायण” शब्द में भरा हुआ है। यहीं इस पाशुर में समझाया गया है।

वित्तम इळवु  इन्बम तुन्ब नो य वीकालम
तत्तम अवैये तलै अलिक्कुम – अत्तै विडीर
इच्चियान इच्चियादु एत्त एलिल वानत्तु
उच्चियान उच्चियानाम

अर्थ:

वित्तम              : धन
इळवु                 : हानि
इन्बम               : खुशी
तुन्ब                 : दु:ख
नो य                 : रोग
वीकालम           : बुढ़ापे का समय और परिणाम स्वरूप मृत्यु
तत्तम अवैये     : हर एक के कर्म के आधार पर
तलै अलिक्कुम  : दर्द और लाभ सही समय पर उसका अभ्यास किया जायेगा
विडीर               : कृपया छोड़िये
अत्तै                : उसके बारें विचार
इच्चियान         : वह जो उसे पसन्द नहीं करता है जैसे भगवान श्रीमन्नारायण का आनन्द छोड़ और कुछ नहीं
इच्चियादु         : दूसरे लाभ की और नहीं देखेगा
एत्त                : वह अपने स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण कि हीं प्रशंसा करेगा
एलिल वानत्तु  : सुन्दर परमपद धाम में
उच्चियान        : जहाँ भगवान श्रीमन्नारायण सबसे उपर है
उच्चियानाम    : जिसके सर पर ऐसे अच्छे गुण ऐसा व्यक्ति

स्पष्टीकरण:

“नारायण” पद के विषय में समझाने के वक्त उदाहरण जैसे “इळय पेरुमाळै पोले इरुवरुमान सेर्थियिले  अडिमै सेयगै मुरै।  (श्रीलक्ष्मणजी के जैसे सेवा करना जिन्होने दोनों श्रीराम और माता सीता कि सेवा की)”, “अत्थै नित्यामाग प्रार्थित्थे पेरा वेणुम” (उनकी सेवा के लिये निरन्तर पुछते रहना)”, “उनक्के नाम आटचेय वेणुम  (आप और केवल आपकी हीं सेवा करना)”।

श्रीरामायण में “कैंकर्य” का विचार श्रीलक्ष्मणजी के द्वारा हीं बताया गया था। उन्होंने श्रीराम को अपना भाई नहीं माना। बल्कि उन्हें भगवान का स्थान दिया। कम्बनाटाळ्वार  कहते है कि

“एंदैयूम यायुम एम्बिरानुम एम्मुनुम
अंदमिल पेरुंगुणतु इरामन आदलाल
वंदनै अवन  कळल वैत पोदु आदलाल
सिंदै वेंग कोदुन्थूयर् तीरगिलेन ”
–           कम्बरामायणम् , अयोध्याकाण्डम् , पल्लि पडलं  58)

श्रीराम को ही अपने संपूर्ण रिश्तो के रूप मानकर, उनकी प्रति कैंकर्य को अपनी कर्थव्य समझ कर श्री लक्ष्मण श्रीराम के अनुगमन किये।

“आगददु अनराल उनक्कु अववनम् इव्वयोथि
माकादल  इरामन नाम मन्नवन वैयम ईंदुम
पोग उयिरतायर नम पॊङ्गुळल सीतै एँऱे
एकै इनि इव्वयिन  नित्रलुम  येदं ”
–           कम्बरामायणम् ,अयोध्याकाण्डम् ,नगर नीँगु पडलम 146)

“पिन्नुम पगरवाळ ,”मगने इवन पिन सेल: तम्बी
एँनुमपडी अनृ अड़ियारिन इवळ सेय्दि
मन्नुम नगरके इवन वन्दिडिन वा अदु अन्रेल
मुन्नम मुड़ि एन्रनळ  वार वळी सोर निंराळ
–           कम्बरामायणम् ,अयोध्याकाण्डम् ,नगर नीँगु पडलम 147)

उपर बताये पद माता सुमित्रा (श्रीलक्ष्मणमन्नी जी की माताजी) के शब्द है। यहा पर जो ध्यान देने वाला जो पद है वह “अड़ियारिनिन एवल् सेय्दि ”। श्रीलक्ष्मणजी ने सिवाय श्रीरामजी के सभी के साथ सभी सम्बन्ध छोड़ दिये और उनके पिछे चले गये। उन्होने उनकी सेवा केवल 14 वर्ष तक नहीं बल्कि सारी उमर की। जीवात्मा को कैसे रहना यह उसकी परिभाषा है। यह अवसर बादमें और भगवान श्रीमन्नारायण से प्राप्त करना होगा। तिरुपावै जो सब वेदों का मूल माना जाता है कहता है “एट्रैक्कुम एलेळ पिरविक्कुम उट्रोमे आवोम उमक्के नाम आट सैवोम मत्रै नम कामंगळ माट्र ” श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी कहते है “उनक्कु पणि सेईदिरुक्कुम तवमुडयेन ”। श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “ओळिविल कालमेल्लाम उड़ानाइ वळूविला अडिमै सैय्य वेंडुम नाम ”। श्रीपरकाल स्वामीजी कहते है “आळुम पणियुं अडियेनै कोंडान ” और  “उनक्काग तोंडु पट्ट नल्लेनै ”।

अत: हमारे पूर्वज इसीको अपने जीवन का उद्देश मानते थे यानि भगवान कि निरन्तर सेवा करना। उनके जीवन में उन्होने कभी भी धन संचय में आनन्द का पर्व नहीं मनाया नाहीं धन खो जाने पर दु:ख मनाया। आल्वारों के सिखाये अनुसार धन का त्याग करना चाहिये। यह कई पाशुरों में देखा जा सकता है। “वेंडेन मनै वाळ्कैयै ”, “कूरै सोरु इवै वेण्डुवदिल्लै  ” और “नीळ सेल्वम  वेण्डादान ” कुछ उदाहरण है। वह श्रीकृष्ण को हीं सब कुछ मानते थे और उनकी सेवा करना यही उनका एक हीं लक्ष्य था। धन और सेहत के फायदे या नुकसान को लेकर उनकी सेवा करने हेतु किसीका हृदय भटकना नहीं चाहिये । इस पाशुर में श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी कहते है उस व्यक्ति को कैसे रहना चाहिये।

वित्तम : खुशी जो धन जैसे सोना, चाँदी, और उसके जैसे से प्राप्त होती है।

इळवु : दु:ख जो उस धन के गवाने से प्राप्त होता है जो अस्थाई है। तिरुवल्लूवर ऐसे धन कि निन्दा करते है “निल्लादवत्रै  निलयिन  एनृ  उणरुम  पुल्लरिवाण्मै  कड़ै ”।

इन्बम: आनन्द उन वस्तु से प्राप्त होता है खुशी उत्पन्न करता है।

तुन्ब: शोक जो उन वस्तु से प्राप्त होता है जो दु:ख देते है।

नो य: रोग जो शरीर पर हमला करते है।

वीकालम: अन्तिम समय में मृत्यु शय्या पर।

तत्तम अवैये: उपर बताये हुए सब के कारण है उनके उनके कर्म।

तलै अलिक्कुम: यह कर्म अपना खतरा प्राप्त करने को शुरू कर देता है और किसी व्यक्ति को सही समय पर पारितोषीक प्रदान करता है जब भी वह प्रारब्ध बटोरता है। जब भी कोई पैदा होता है वह उसके पूर्व जन्म के कर्मानुसार पैदा होता है। कर्म के परिणाम को अनुभव करना चाहिये। कोई भी बच नहीं सकता है। तिरुवल्लूर इसके बारें में दूसरे लेख में इस तरह कहते है “ऊळ ”। वह कहते है “आकॊळार  तोंरूम  असैविन्मै कैपोरुळ  पोकॊळार  तोंरु मडि ”। जब किसी व्यक्ति को धन प्राप्त होता है तो वह उसको उसके काम के कारण प्राप्त होता है। उसी तरह जब वह उसे खोता है तो वह अपने कर्मानुसार खोता है। वह और भी कहते है  “पेदै  पडुक्कुम  इळवॊळ  अरिवगत्रु   आगळूळ उत्र कडै । एक व्यक्ति के पास कितना भी ज्ञान हो परन्तु अगर वों धन को खोता है तो जो भी ज्ञान उसने अर्जित किया है उसके बचाव में नहीं आयेगा। वह तात्पुर्तिक के लिये उसके कर्मों के कारण खो देगा। उसी तरह अगर कोई अनपढ़ है और धन कमाना शुरु करता है, उसके कर्मानुसार वह ज्ञान भी प्राप्त  करना शुरु करता और उसे अधिक धनवान बनता है। अत: ज्ञान के बढ़ने और कम होने का कारण और कुछ नहीं कर्म है। हालाकि हमें यह ज्ञात रहना चाहिये कि धन संबन्धित कर्म और ज्ञान संभन्धित कर्म दोनों भिन्न है, हालाकि एक जगह दोनों मिलते है। यह भी देखना चाहिये कि कर्म अच्छे को बुरा बना देता है और इसका विपरित भी। तिरुवल्लूरजी ने इसके बारें में बहुत विस्तार पूर्वक कहा है। इसका सारांश यह है कि जो ज्ञानी है उसे कर्म के उपर नीचे के बारें में सोचने कि कोई जरूरत नहीं है।

अत्तै विडीर: श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी यह उपदेश देते है कि हमें सुख दु:ख के तरफ ध्यान नहीं देना चाहिये यह और कुछ नहीं हमारे कर्म के फल रुप है। वह जो इन कर्मों के परिणाम से घबराता नहीं है वह सच में भगवान श्रीमन्नारायण कि सेवा करने में सफल है। यह पाशुर के दूसरे भाग में समझाया गया है।

इच्चियान: यह वों व्यक्ति है जिसे सांसारिक धन में कोई रुचि नहीं है। केवल ऐसा व्यक्ति हीं भगवान श्रीमन्नारायण कि सेवा करने में सक्षम है। श्रीभक्तिसार स्वामीजी कहते है “अडक्करुम  पुलंगळ  ऐंधड़क्की  आसाइयामवै  तोड़करुत्तु  वन्दु निन तोळिर कण निन्र एन्नै ”।

इच्चियादु एत्त: जो भगवान कि सेवा करता है उसे वापस उनसे कुछ अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, चाहे वह परमपदधाम हो या कोई कैंकर्य। सेवा के पीछे कोई कारण नहीं होना चाहिये। जैसे श्रीमधुरकवि स्वामीजी कहते है “पाविन इन्निसै पाड़ि तिरिवन ”, सेवा करना हीं लाभ है और इसलिये इसके पीछे कोई इच्छा नहीं होनी चाहिये। “पयन तेरिन्दुणर  ओन्रिमयाल  तीविनएं  वाळा  इरुन्दोळिन्देन  कॆळ्नाळेल्लाम  करंदुरूविल अम्मानै  अन्नानृ पिन तोडरंधा  आळियनकै  अम्मानै एतादु अयर्तु  (तिरुवंदादी )। यहाँ “येतुदल ” शब्द मुख के जरिये यानि गाकर भगवान के प्रति सेवा को दर्शाता है। इसे ऐसे गिनना चाहिए जिसमे मन और शरीर शामिल हो इसीतरह मन और शरीर से की गई सेवायें भी। इसलिये सेवा हृदय, मुख और शरीर का उपयोग करके करना चाहिये।

एलिल वानत्तु उच्चियान उच्चियानाम: पिछले प्रकरण में समझाये हुए जैसे कोई व्यक्ति हो तो उसका उत्सव भगवान श्रीमन्नारायण द्वारा उनके धाम परमपद में मनाया जायेगा। वह ऐसे व्यक्ति को अपने साथ अपने धाम में लेकर जायेंगे। “एळिल  वानत्थु ” परमपदधाम है जिसे  “विण तलै ” ऐसा भी संबोधित किया जाता है। भगवान जो वहाँ विराजमान है उन्हें वैकुण्ठनाथ कहते है जिन्हें “विण्मीदु इरूप्पाई   ” भी कहते है। वहीं भगवान को अब “एळिल  वानत्थु उच्चियान ” कहते है। “एळिल वानं ” वह स्थान है जिसे “मोक्ष भूमी” या “परमाकाक्षम” या “सबसे उच्च स्थान” कहते है। वह जो इस उच्च स्थान पर सबसे उपर है उसे “उच्चियान” कहते है। इसलिये “एलिल वानत्तु उच्चियान” वैकुण्ठनाथ है। ऐसे वैकुण्ठनाथ भगवान उसके माथे पर विराजमान होते है, उस भक्त पर जो उनकी निर्हेतुक सेवा करता है और उनकी सेवा करता है केवल सेवा करने हेतु और कुछ नहीं। ऐसे व्यक्ति को “उच्चियान उच्चियानाम” कहते है। यहाँ तमिळ व्याकरण विधि के अनुसार चौथी कारक (नाँगाम वेट्रुमै उरुबु ) में यह  “उच्चियानुक्कु उच्चियान ” होगी .

अन्त में हम यह देख सकते है कि जो भगवान कि निर्हेतुक सेवा करते है वें कभी धन के नुकसान या फायदे के विषय में नहीं सोचते है। वों यह जानते है कि यह सब कर्मानुसार है और इसे हमें भोगना हीं है। इस परिस्थिति में वें भगवान से कभी कुछ नहीं मांगते है। वें भगवान कि सेवा कुछ पाने हेतु नहीं परन्तु केवल उनकी सेवा भक्ति हेतु करते है। ऐसे भक्त जब परमपद पहूंचते है तो भगवान उन्हें अपने माथे पर विराजमान कर उत्सव मनाते है। इसलिये यह हम सब को सलाह है कि हम भगवान कि निर्हेतुक सेवा करें और यह तभी संभव है जब हम कर्म के प्रभाव से सांसारिक वस्तु में न पडे।

बिना कुछ मांगे भगवान कि पुजा करनी चाहिये। भगवान कि पुजा करना ही सेवा है। मुख से पुजा करना भी तीन में से एक तरह कि सेवा है। बाकि दो सेवायें भी एक मन द्वारा और दूसरी शरीर द्वारा। मुख का होना केवल भगवान कि स्तुति करना है और कुछ नहीं। दिव्य प्रबन्ध से कुछ अंश नीचे बताये गये है।

१.         वाय अवनै अल्लदु वाळ्तादु  (209)
२.         नाक्कु निन्नै अल्लाल अरियादु  (433)
३.         येतुगिंरोम नातळुम्ब  (1863)
४.         नातळुम्ब नारायणा  एन्रळैत्थु  (561)
५.         इरवु नण्पगलुम  विडादु एनरुम येतुदल  मनम वैमिनो  (2954)
६.         पेसुमिन कूसमिन्रि  (3681)
७.         वायिनाल पाड़ि  (478)

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

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