यतिराज विंशति – श्लोक – १४

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १३                                                                                                                                      श्लोक  १५

श्लोक  १४

वाचामगोचर महागुणदेशिकाग्राचकूराधिनाथ कथिताखिल नैच्यपात्रम् |
एषोऽहमेव न पुनर्जगतीद्वशस्तद्रामानुजार्य ! करूणैव तू मद्गतिस्ते|| १४ ||

आर्य   रामानुज      : रामानुज! सब वस्तुओं में
वाचामगोचर हागुणदेशिकाग्रचकूराधिनाथ कथित अखिलनैच्यपात्रम्  : जिनके महागुण सबकी प्रशंसा से बाहर हैं, जो सब आचार्यों में श्रेष्ठ हैं ऐसे श्रीकूरनाथजी से वर्णित सभी नीचताओं का एकमात्र पात्र जगति एषः अहम् एव इस संसार में सिर्फ मैं एक ही हूँ
ईद्वश:                  : पुन: न ऐसा दोषयुक्त दूसरा कोई नहीं (इसलिये)
ते करूणा:              : तु  आपकी करूणा की तो
मद्गति:                : एव   मैं एक ही गति हूँ |

अपने स्तवों में श्रीवत्साङ्कमिश्र जो नैच्यानुसन्धान कराते हैं वे सब सचमुच मुझमें ही हैं, मेरे जैसा नीच इस संसार में दूसरा कोई नहीं| इसलिए आपकी कृपा को छोड़ कर मेरे लिये और कोई शरण (उपाय) नहीं हैं|

यहाँ श्रीकूरत्ताल्वान् को वाचामगोचरमहागुणदेशिकाग्रच विशेषण दिया गया है| यह बहुत ही उचित है, क्योंकि उनके समकाल में ही कहा जाता था की परमात्मा के गुणों का वर्णन भी सफलता से कोई कर जाता है, श्रीरामानुज के गुणों का भी पूरा पूरा वर्णन कोई कर पायेगा, लेकिन कूरेशजी के गुणों का वर्णन आदिशेष से भी नहीं किया जा सकता| यह रामानुजनूत्तंदादि की कूरेश सम्बन्धी गाथा से भी स्पष्ट है| ऐसे गुणयुक्त कूरेश भी भगवान की स्तुति में प्रवृत्त होकर उनकी स्तुति कम और अपना नैच्यानुसन्धान अत्याधिक करके ही ठहरे| यह नैच्यानुसन्धान वैकुण्ठस्तव तथा वरदराजस्तव के पिछले भाग में देखा जा सकता है| वास्तव में उस नैच्यानुसन्धान का वे तो पत्र नहीं| हमारे अनुसन्धान ही के लिए उन्होंने अपने ऊपर आरोपित करके कहा था| इसलिए मेरी रक्षा के लिए आपकी कृपा के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं|

करूणैव तु मद्गतिस्ते ते करूणा – आपकी करूणा, मद्गति:- मुझको शरण मानने वाली है, अर्थात् आपकी करूणा मुझे छोड़ कर और किसी के पास तो सफल नहीं होगी|

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