ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २०

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १९                                                              ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २१ 

पाशुर २०

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 विरुप्पुरिनुम् तोण्डर्क्कु वेण्डुम् इदम् अल्लाल्
तिरुप्पोलिन्द मार्बन अरुल सेय्यान – नेरुप्पै
विडादे कुलवि विल वरुन्दिनालुम
तडादे ओलियुमे ताय?

शब्दशः अर्थ

विरुप्पुरिनुम् तोण्डर्क्कु वेण्डुम् इदम् अल्लाल् – एक भक्त उसकी अच्छाई की खातिर   निरर्थक वस्तू कि लालसा करता हैं फिर भी | तिरुप्पोलिन्द मार्बन – वह जिसके छाती पर पेरिया पिराट्टी (लक्ष्मी अम्माजी) हैं। अरुल सेय्यान – इन अनावश्यक वस्तु नहीं देते, इसके समान की  | नेरुप्पै विडादे कुलवि विल वरुन्दिनालुम – वह बच्चा जो अग्नि के चमक के कारण उसे छुना चाहता हैं और उसके दुष्परिणाम जाने बगैर वह रोता हैं कि वह उस अग्नि को पकड़ नहीं सकता, क्योकिं| तडादे ओलियुमे ताय? एक माता (भगवान श्रीमन्नारायण के जैसे) बच्चे को अग्नि से दूर ही ढकलेगी। हैं ना?

संक्षेप :

इस पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी एक तथ्य के दृष्टान्त को एक उदाहरण के साथ बताते हैं। वह कहते हैं भगवान श्रीमन्नारायण अपने भक्तों को वह सभी वस्तु नहीं देंगे जो वह मांगते हैं। वह अपने भक्तों को कभी भी वह कौन सी भी वस्तु नहीं देंगे जो उसके लिए हानिकारक हैं। वें सब उस वस्तु को ही अच्छा समझकर उसी की चाहना करेंगे। यद्यपि भगवान श्रीमन्नारायण जो उन वस्तुओं के दुष्परिणामों को जानते हैं वह उस वस्तु को उनको नहीं देंगे। यह तथ्य इस पाशुर में एक उदाहरण के साथ समर्थन किया गया है।

अर्थ :

विरुप्पुरिनुम्: भगवान श्रीमन्नारायण के भक्त जन जीवन में कुछ ऐसी वस्तुओं कि चाहना करते हैं जो निरर्थक / तुच्छ हैं। अगर यह सब वस्तुए वह नहीं देंगे तो उनके लिये बड़ा दु:खदाई होगा यह जानते हुए भी कि वें सभी भगवान से यह सभी वस्तुओं को बड़ी मेहनत से मांगते हैं। “विरुप्पुरिनुम्” शब्द यह वर्णन करता हैं कि भगवान के भक्त किस अधिकतम परिणाम तक प्रतिपादन कर सकते हैं।

तोण्डर्क्कु: एक समूह कि प्रजा जो भगवान श्रीमन्नारायण के सच्चे भक्त हैं। “तोण्डु” शब्द का दोनो अर्थ हो सकता हैं “दास” और “सेवा-भाव”। इधर तो केवल सेवा-भाव ही दर्शाता हैं। जिन्हें सेवा भाव में रुचि हैं वहीं “भक्त” कहलाते हैं। अत: जिन्हें भगवान श्रीमन्नारायण कि सेवा करने में रुचि हो उन्हेंही “तोण्डर” कहकर बुलाते हैं।

वेण्डुम् इदम् अल्लाल्: “इदम्” यह तमिल शब्द संस्कृत पद “हितम” का समानान्तर हैं। इसका मतलब यह हैं कि उपर बताये गये सभी एक भक्त के लिए आवश्यक हैं। भक्त जन जो चाहते हैं उन्हें दो वर्ग में किया जा सकता हैं अर्थात वह जो उन्हें सब कुछ पसन्द हो और वह जिसकी उसे आवश्यकता हैं। “इदम्” पिछले को दर्शाता हैं। अत: यह पद “वेण्डुम् इदम् अल्लाल्” यह संबोधीत करता हैं कि वह जो उनके उच्च जीवन के लिए अनावश्यक हैं। “अल्लाल्” यह एक अस्वीकार सूचक हैं और अत: वह यह सब बतलाता हैं जो भक्तों के उच्च जीवन के लिए जरूरी नहीं हैं।

तिरुप्पोलिन्द मार्बन: यह उसको संबोधीत करता हैं जिसके पास प्रकाशमान और चमकीला वक्षस्थल हो क्योकिं अम्माजी वहाँ विराजमान हैं। भगवान श्रीमन्नारायण के वक्षस्थल को चमक / रौनक अम्माजी के साथ जुड़े रहने के कारण ही मिली हैं। आल्वार कहते हैं “करुमाणिक्क कुन्द्रतु तामरै पोल तिरुमार्बु, काल, कन, कै, चेवाई उंधियाने” और “करुमाणिक्क मलई मेल, मणि तदन्तामरै कादुगल पोल, तिरुमार्बु वाई कण कै उन्धि काल उदयादैगल सेय्यपिरान”। इस पाशुर में यह देखा जा सकता हैं कि भगवान के अन्य अंगो कि तरह, उनका वक्षस्थल भी बहुत चमकीला और जगमगाता हैं। यह एक बहुत अच्छी देखने लायक बात हैं कि सूची में उनके  वक्षस्थल (तिरुमार्बु) का सबसे पहिले वर्णन किया गया हैं। श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं “अलर मेल मन्गै उरयुम मार्बु”, अत: क्योकिं पेरिया पिराट्टी (अम्माजी) भगवान के वक्षस्थल  पर विराजमान हैं, उनके दिव्य चमक भगवान के पूरे वक्षस्थल पर फैली हैं और इसीलीए वह बहुत सुन्दर और चमकीली दिखती हैं।

“मैयार करुंगण्ण्ल कमला मलार मेल
चेय्याल तिरुमार्विनिल सेर तिरुमाले
वेय्यार चुदराझी संगमेन्धुम
कैय्या! उन्नै काणा करुधुम एन कण्णे!!!” – (तिरुवैमोझि ९,४,१)

इस पाशुर में भगवान के वक्षस्थल  को अम्माजी के साथ होने के कारण चमक का मूल ऐसा समझाया गया हैं। अत: “तिरुवाल पोलिन्ध मार्बन” भगवान के वक्षस्थल कि सुन्दरता को दर्शाया गया हैं। यह अम्माजी का संग भी समझाया हैं। अत: जो सच्चाई यहा समझाई गयी हैं कि दोनों (भगवान और अम्माजी) हमेशा एक साथ ही रहते हैं और वें हमेशा अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए तत्पर हैं।

अरुल सेय्यान: भक्त जन कुछ वस्तु के लिए भगवान के पास उसका प्रतिपादन करते हैं परन्तु भगवान उन्हें वह नहीं देंगे। कारण कि भगवान जानते हैं कि वह वस्तु उन सब के कुछ भी काम कि नहीं हैं। तथापि भक्त जन अपने सीमित सोच के कारण यह करते हैं और कुछ वस्तु मांग भी लेते हैं जो कि वें सोचते हैं कि उनके लिए अच्छा हैं। यह तो भगवान कि निर्हेतुक कृपा हम सब पर हैं कि वह हमारी यह प्रार्थना उस समय अस्वीकार कर देते हैं और इसलिए भगवान हम जो मांगते हैं वह वस्तु अस्वीकार कर देते हैं।

अरुलुधल: इस का अर्थ हैं देना। भगवान के भक्त कितना भी प्रार्थना करें परन्तु भगवान उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर देते हैं वह उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं करते क्योकिं भगवान इसका दुष्परिणाम जानते हैं। इस तथ्य को एक उदाहरण के साथ आगे समझाया गया हैं:

नेरुप्पै विडादे कुलवि विल वरुन्दिनालुम तडादे ओलियुमे ताय?: एक खेलता हुआ बालक हैं। वह थोड़ी दूर पर अग्नि देखता हैं और उसकि रोशनी और चमक देखकर आश्चर्यचकित हो जाता हैं। वह यह नहीं जानता कि अग्नि उसके शरीर को नुकसान पहुचाने वाली हैं। तथापि अग्नि कि चमक से आकर्षक होकर वह उसके तरफ जाता हैं और वह उसे हाथ में लेकर खेलना चाहता हैं। उस बालक कि माँ उसके पास हैं और उस पर कड़ी नजर रखी हैं। क्या वह माँ उस बालक को उस अग्नि के पास जाकर उसके साथ खेलने देगी जब कि वह बालक उस अग्नि के पास आगे बढ़ रहा हैं? निसंदेह वह उस बालक को जाने से रोकेगी। उसी तरह भगवान श्रीमन्नारायण जो सब का परिणाम जानते हैं अपने भक्त को वह सब कुछ नहीं देंगे जो वे उनसे मांगते हैं। कितना भी वह भक्त जन कोशीश कर ले परन्तु भगवान का स्पष्ट उत्तर रहेगा “नहीं”।

 

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-20-viruppurinum-thondarkku
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