ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १४

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १३                                                          ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १५

 

पासुर  १४satya

 

बूदङ्गळ् ऐन्दुम् पोरुन्दुडलिनार् पिरन्द
सादङ्गळ् नान्किनोडुम् सङ्गतमाम्पेतङ्गोण्डु
एन्न पयन् पेरुवीर् एव्वुयिर्कुम् इन्दिरै कोन्
तन्नडिये काणुम् सरण्

अर्थ

बूदङ्गळ् ऐन्दुम् पोरुन्दुडलिनार् पिरन्द  – यहाँ पर जन्म लिये सभी मनुष्यों का शरीर पाँच प्रकार के तत्त्वों से बना हैं – धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश। सादङ्गळ् नान्किनोडुम् सङ्गतमाम् – और सभीको चार प्रकार के वर्ण में अलग अलग किया गया हैं – ब्रामण, राजा, व्यापारी और किसान (चौथे वर्ण को देखते हुए) और सभी से यह आशा रखते हैं की वह एक ही स्वर में इसका पालन करेंगे। पेतङ्गोण्डु एन्न पयन् पेरुवीर् – फिर भी, यह भेद उपयोगी और मूल्यहीन हैं क्योंकि | एव्वुयिर्कुम् इन्दिरै कोन् तन्नडिये काणुम् सरण् – सभी जीवात्माओं को भगवान श्रीमन्नारायण के ही चरणों के शरण होना होगा ज्यो की श्री लक्ष्मीजी(तिरुमामगळ्) के स्वामी हैं ।

प्रस्तावना

यहा एक प्रश्न आता हैं: “जब तक कोई भी पुरूष या स्त्री इस संसार में जीवित हैं वह वर्ण के भेद भाव में टकराता रहेगा। कोई भी इससे बच नहीं सकेगा और वह जब तक इस संसार में हैं उन्हीं के पीछे जाते रहेगा”। श्री देवराज मुनि इस पाशुर में यह कहकर जवाब देते हैं कि “इन वर्णों का कोई उपयोग नहीं हैं” और आगे बढ़कर यह भी कहते हैं कि सभी जीवात्माओं को केवल ज्यो की श्री लक्ष्मीजी(तिरुमामगळ्) के स्वामी हैं उन्ही की चरणों के ही शरण होना हैं।

स्पष्टीकरण

बूदङ्गळ् ऐन्दुम् पोरुन्दुडलिनार् पिरन्द – श्री परकाल स्वामीजी (तिरुमड्गैयाल्वार स्वामीजी) कहते हैं “मन्जुसेर्वानेरिनीर्निलम्कालिवैमयकिनिन्द्रान्जुसेर् आकै”. थिरुवल्लूवर  कहते हैं, ” सुवैओळिऊऱुओसैनाट्रमिव्वैन्धिन्वगैतेरिवान्कतेउलगु ” उपर लिखे गये छोटी दो सारों का यह मतलब हैं कि तत्त्व जैसे धरती, जल, अग्नि, वायु और आकाश यह सब मिलकर ही शरीर बनता हैं। जिस तरह यह शरीर पाँच तत्त्वों से बना हैं इससे हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि शरीर और आत्मा के बीच में कोई सम्बन्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, शरीर बहुत से रूपांतरों से निरन्तर गुजरता हैं जैसे कि एक मनुष्य के जीवन मे नव जन्म, तरुण, युवा और वृध्द अवस्था देखी जा सकती हैं। इसके ऊपर यह अस्थाई हैं और इससे घृणा करनी चाहिये। अत: यह स्पष्ट हैं कि आत्मा के लिए शरीर एक अस्थाई निवास करने का स्थान हैं।

सादङ्गळ् नान्किनोडुम् – यहा पर चार वर्ण हैं जिसमे ब्राम्हण, राजा(क्षत्रीय), व्यापारी(वैश्य), किसान (क्षुद्र) शामिल हैं। “सादङ्गळ्” का मतलब वर्ण हैं। यह चारों वर्णों का जन्म उपर बताए हुए पाँच तत्त्वों के मिश्रण से हुआ हैं।

नान्किनोडुम् सङ्गतमाम्पेतङ्गोण्डु – इन चारों वर्णों के अन्दर ही बहुत से अंगिनत छोटे भाग हैं जो उनमें ही ऊँच-निच के भेद भाव को उत्पन्न करते हैं। “ब्राम्हणोँ” के विषय में एसी अवस्था हैं जैसे “ब्रह्मचार्यं”, “इल्लराम”, “वानप्रस्थम” और “थूरवरम”। और यह भेद-भाव केवल “ब्राम्हणोँ” तक सीमित नहीं हैं बल्कि सभी वर्णों में भी हैं। परिमेलझ्हगर एक पद के जरिए पकड़ लेते हैं “नाल्वगइनिलाइथाई वर्णम थोरुंवेरुपातुदमईन”

एन्न पयन् पेरुवीर् – श्री देवराज मुनि इस जगत के लोगों से यह पुछते हैं कि वह इस भेद-भाव से क्या परिणाम निकालते हो। और उनके प्रश्न के जवाब में यह उभरकर आया कि इस भेद-भाव से कोई भी लाभ उत्पन्न नहीं हो सकता। और इससे यहीं विषय उभरता हैं कि सभी वर्णों में भेद-भाव “मैं” और “मेरा” यहीं रचते और फैलाते हैं जो कि अंत में आत्मा के लिए हानिकारक हैं।

“पाटबेधम” के कारण “एन्न पयन् पेरुवीर् के बदले में एक परस्पर पद भी हैं और दूसरा पद हैं “एन्नपायङ्केदुव्ल्र” जिसे कुछ लोग पालन भी करते हैं। इस सिखने कि पाठशाला में “केदुवल” एक विलिचोल (संभोधनम) हैं जो श्री देवराज मुनि के पास खड़े हुए मनुष्यों कि तरफ ईशारा करते हैं। यह अनुमान लगाया जाता हैं कि श्री देवराज मुनि उन सब से वार्तालाप कर रहे हैं जो उन्हें “केदुवल” नाम से संबोधित कर रहे हैं।

एव्वुयिर्कुम् इन्दिरै कोन् तन्नडिये काणुम् सरण् इस पद “एव्वुयिर्कुम्” से यह समझा जायेगा कि यह सब के लिए हैं। जैसे कि वें कहते हैं कि “वेण्डुधल्वेडामैइलान्”, ” इन्नारिनैयारेन्ड्रवेऱुपादुइल्लामल् “, भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमल जो श्री लक्ष्मीजी(तिरुमामगळ्) के स्वामी, सभी के लिए एक और जैसे हैं। यह सभी जीवों का शरण हैं और सभी जीव उनके ही चरणों कि शरण लेते हैं। इससे यह समझा जाता हैं कि क्योंकि सभी जीव भगवान श्रीमन्नारायण के ही चरणों के शरण हैं, उन जीवों में कोई भी भेद-भाव नहीं हैं क्योंकि सभी का उद्देश एक ही हैं। उन में कोई भेद-भाव नहीं हैं और जो भी भेद-भाव शरीर से उत्पन्न होते हैं उससे कोई मतलब नहीं हैं। सभी जीव अपने नित्य स्वामी भगवान श्रीमन्नारायण के दास हैं। स्वामी भूतयोगी आल्वार कहते हैं कि:

“अदु नन्रिदु तीदैन्रू ऐयप्पडादे
मदु निन्र तण तुलाय मार्वन
पोदु निन्र पोन् अम् कलले
मुन्नम् कललुम् मुडिन्दु || ८८ ||

–       मून्राम् तिरूवन्दादि

यह पद “पोदु निन्र पोन् अम् कलले” का मतलब हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमल सबके लिए साधारण हैं। यहीं कारण हैं कि जो भी भगवान के मंदिर में आता हैं उसके सिर पर शठारी (शठकोप) रखते हैं। “शठारी” को नम्माल्वार (श्री शठकोप स्वामीजी) समझा जाता हैं जो भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों का प्रतिनिधीत्व करते हैं।

Source: 
http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-14-buthangkal-aindhum/

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