ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १३

श्री:
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श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

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पासुर (१३)

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पण्डे उयिर् अनैत्तुम् पंगकयत्ताळ् नायगर्के
तोण्डम् एनत्तळिन्ड तूमनत्तार्क्कु – उण्डो ?
पल कत्तुम् तम् उडम्बैप्पार्तु अबिमानिक्कुम्
उलगत्तवरोडु उरवु

शब्दार्थ

पण्डे उयिरनैत्तुम् – क्या कर्तव्यनिष्ठ चित जिवात्माए सदैव | पंगयत्ताळ् नायगर्के तोण्डम् एनत्तेळिन्ड – (क्या वे) शुद्ध चित्त और यतार्थ तत्वज्ञान जानकर श्री लक्ष्मी नाथ के आनन्दित सेवक है ? उरवो उण्डो – (क्या) ऐसे सम्बंधित थे ? तम् उडम्बैप्पार्त्तु अबिमानिक्कुम् – ऐसे लौलिक व्यक्ति जो जन्म वर्ण के आधार पर घमण्डि है (भौतिक शरीर के प्रती अत्यासक्त) |पल कत्तुम् – (क्या) वे सुशिक्षित विद्वान (ज्ञानि) के तरह दिखाई देते है

भूमिका

पासुर मे कहा गया है की ऐसे भगवान के प्रपन्नभक्त है जो केवल भगवान के चरणकमलों के प्रती आसक्त होकर भगवद्-भागवत कैंकर्य मे संलग्न है । अगर ऐसे प्रपन्नभक्त के सम्बंध/सम्पर्क, ताल्लुक निज़ी लौकिक रिश्तेदारों, दोस्तों इत्यादि से है तो क्या ऐसे भक्तों के कैंकर्य मे यह संभव नही की इस संभन्ध से उनको कठिनाई तो नही ? यह पासुर इस प्रश्न का उत्तर देते हुए दर्शाता है – हलांकि यह संभव है की ऐसे लौकिक संभन्ध से प्रपन्नभक्तों के कैंकर्य मे कठिनाई होगी परन्तु अगर प्रपन्नभक्तों को सच्चे ज्ञान का आभास है (जिवात्मा का आधारभूत तथ्य) तो निश्चित रूप से वे ऐसे अमान्य संभन्धों के प्रती अनासक्ति होगी और आनन्ददायक भगवद्-भागवत कैंकर्य मे संलग्न होंगे ।

विवरण

पण्डे – “पण्डे” शब्द “उयिर्” और “तोण्डम्” शब्दों के साथ संयुक्त होता है तो “पण्डे उयिर् तोण्डम्” वाक्य उपलब्ध होता है । यहा पर जीवात्माओं का स्वाभाविक स्वरूप बतलाया गया है – ज्योकि स्वाभावतः जीवात्मा श्रीमन्नारायण का सेवक है और श्रीमन्नारायण ऐसे जिवात्माओं के आधारभूत है । विशेषतः यह स्वाभाविक स्वरूप अभी उत्पन्न/जागरुक नही हुआ है । यह कालातीत समय से था और यह अटूट स्वाभाविक स्वरूप (जिवात्मा और परमात्मा(श्रीमन्नारायण) (सेवक और स्वामि) के बींच का संबन्ध) का ना तो कोई शुरुवात है और ना अंत है ।

तोण्डम् एनत्तळिन्ड तूमनत्तार्क्कु – इस वाक्यांश मे, स्वामि अरुळळमामुनि ऐसे कुछ लोगों के समूह का वर्णन करते हुए वे उनको “तूमनत्तार्क्कु” शब्द से संबोधित कर रहे है । वे कहते है – ऐसे लोगों को तिरुमंत्र का अर्थ पता है और अतः समझते है की एक जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण का आज्ञाकारी सेवक है और किसी के पराधीन नही है । यह विचार जो वेदों का सरांश और संक्षिप्त अर्थ है यही तिरुमंत्र मे निहित है ।

उण्डो – क्या (ऐसे संबन्ध) नही है ? इस शब्द मे स्वामि प्रश्न पूछ रहे है – क्या (संबन्ध) नही है (उण्डो) ? इस प्रश्न का संदर्भ उत्तरवर्ति पासुर मे “उरवु” शब्द से की गई है । अतः उण्डो और उरवु शब्दों को जोडकर “क्या ऐसा संबन्ध है” इत्यादि प्रश्न उत्पन्न होता है जिसका उत्तर स्पष्टतः “नही” है ।

पल कत्तुम् तम् उडम्बैप्पार्त्तु अभिमानिक्कुम् – पल कत्तुम् मायने शास्त्रों और वेदों मे प्रस्तुत की गई कई विषयग्राहि तत्वों को सीखना इत्यादि । तम् उडम्बु – भौतिक शरीर से संबंधित है । उदाहरण देते हुए स्वामि कहते है – भौतिक शरीर एक ऐसा जगह है जहा एक जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण से ब्रह्मचर्य नियम जुडा हुआ है उसी प्रकार लोग अपने वर्ण के प्रती अत्यासक्त होकर, भौतिक शरीर को देखते हुए बहुत गर्व से अपने वर्ण से सम्बंधित संबंध को दर्शाते है और इसि विचारों से अपने आप को बहुत ऊँच महान मानते है ।

उलगत्तवरोडु उरवु – उद्घृत है ऐसे लौकिक लोग जो अपने वर्ण से अत्यासक्त होकर वर्ण के आधारपर अपने आप को महान ऊँच मानते है ।

तूमनत्तार्क्कु – यहा हमे तूमनत्तार्क्कु, उरवु, उण्डो इन तीन शब्दों को जोडकर कहना है – ऐसे लोग जिन्हे हम तूमनत्तार्क्कु से संबोधित करते है, ऐसे लोगों का संबंध लौलिक व्यक्तियों से साथ होगा जो केवल भौतिक शरीर से अत्यासक्त वर्ण के आधारपर गर्वित है ?  स्वामि अरुळळ मामुनि कहते है – कदाचित यह संभव नही की ऐसे तूमनत्तारक्कु लोगो का संबंध लौलिक व्यक्तियों के साथ होगा ।

आंतरिक विवरणार्थ

ओम् ( अ, , म् ) – यह शब्द प्रणव से जाना गया है । इस शब्द ने एक जीवात्मा और परमात्मा (भगवान श्रीमन्नारायण – जो ‘अ’ शब्द का अर्थ है) के बींच के संबंध का खुलासा किया है । यह शब्द जीवात्मा को परमात्मा के पराधीन होने का आधारभूत तथ्य को दर्शाता है । जीवात्मा को ‘म्’ शब्द से संबोधित किया गया है । यहा ‘म्’ शब्द से संबोधित जीवात्माओं मे उन जीवात्माओं का वर्णन है जो चित है (विवेक) और अविवेक (अचित) जिवात्माओं का वर्णन नही है । ये जीवात्माये ज्ञान और आनंद के साकार है और अपने स्वामि भगवान श्रीमन्नारायण के पराधीन सेवक है । ऐसे लोग जिन्हे ‘म्’ शब्द का तथ्यार्थ पता है उनको तूमनत्तारक्कु शब्द से संबोधित किया गया है । ऐसे तूमनत्तार लोगों का संबंध लौलिक विषयों मे आसक्त लोगों के साथ कदाचित भी नही होगा । ऐसे लोग जिन्हे ‘म्’ शब्द का अर्थ नही पता हो उनके लिये भौतिक शरीर ही सब कुछ है और आत्मा-शरीर मे भेद करने मे असक्षम है । ऐसे लौलिक लोगों को बहुत गर्व/अभिमान होता है की वे ऐसे उच्छ वर्ण मे पैदा हुए है । इसी कारण ऐसे विभिन्न विचार के लोगों के बींच मे संबंध कदाचित नही होगा । यहा हमे एक संदेह हो सकता है की अगर शायद तूमन्नत्तार लोगों का भेंट ऐसे लौलिक लोगों के साथ हो तो वे उनके प्रती कैसे बरताव करेंगे या क्या कहेंगे ? इसी को दर्शाते हुए स्वामि अरुळळमामुनि से एक घटना को उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत किया है –

दक्षिण भारत मे तिरुवहीन्दिरपुरम् नामक स्थान है । उस स्थान मे विल्लिपुत्तूर पगवर नाम के एक ब्राह्मण संयासि निवास कर रहे थे । वह एक ऐसे प्रसिद्ध संयासि थे जिन्होने यह विचार की हर एक चीज़ जिसके माध्यम से भगवान श्रीमन्नारायण को प्राप्त कर सकते है उन सभी का त्याग कर दिया क्योंकि उन्हे मालूम था की ये सारे कभी उपाय नही कहलायेंगे परन्तु श्रीमन्नारायण के चरणकमल ही उपाय और उपेय है । कहते है की वे हर रोज़ नदी के दूसरे ओर जाकर नहाते थे और कदाचित भी उन्होने नदी के समीप तट पर नहाने का प्रयास नही किया क्योंकि वहा स्मार्थ ब्राह्मण नहाते थे । यह किस्सा बहुत दिनो तक चलता रहा । एक दिन ये ब्राह्मण इकट्ठित होकर विल्लिपुत्तूर पगवर स्वामि से पूछे – स्वामि, आप नदी के दूसरे ओर नहाने क्यों जा रहे है बजाय आप नदी के निकट तट पर नहा सकते है जहा हम सभी नहाते है और इस प्रकार से आप क्यों परे मानकर हम सभी से दूरी बनाये है ? इसके उत्तर मे विल्लिपुत्तूर स्वामि ने कहा – हे ब्राह्मणों !! हम लोग भगवान श्री विष्णु ( श्रीमन्नारायण ) के सेवक है परन्तु आप श्रीमान ऐसे ब्रह्मण है जो वर्ण के आधार पर अपना धर्म का अनुसरण कर रहे है । इसी कारण मुझे ऐसे संबंधों मे रुची नही है और यह कदाचित भी संभव नही हो सकता है । श्रीमन्नारायण के सेवक होने की वजह से हमारे और आपके बींच मे दोस्ती , रिश्तेदारि, नाता इत्यादि नही हो सकता है ।

इस प्रकार स्वामि अरुळळ मामुनि ने अपने ज्ञान सार नाम ने ग्रंथ के टिप्पणि मे इस घटना का वर्णन किया है ।

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source:
http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-13-pande-uyir-anaiththum/
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