ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १२

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १                                                           ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १३

                                                                             पासुर (१२)

krishna-tied-to-grinding-mortar

माराय् इनैन्द मरुदम् इरत्तवऴ्न्द
सेराररविन्दस्च सेवडियै – वेराग
उळ्ळादार ओण्निधियै तन्तिडिणुम् तान् उवन्दु
कोळ्ळान् मलर् मडन्दै कोन्

 

शब्दार्थ –

मलर्मडन्दै कोन् – भगवान श्रीमन्नारायण पद्म (कमल) मे रहने वालि (श्री महालक्ष्मि) के राजा (स्वामि) है | माराय् इणैन्द मरुदम् – जुडवें राक्षसों (असुरों) के एकमात्र शत्रु भगवान हैं और ये राक्षस एक शाप के कारण मरुद वृक्ष के रूप मे जुड गए | इरत्तवऴ्न्ड – ये राक्षस जो मरुद रूपी वृक्ष मे निवसित थे । वृक्षों के बींच भगवान श्रीमन्नारायण के रेंगने की वजह से जड़ सहित उखड कर विपरीत दिशा मे गिर गए | वेराग उळ्ळदार् ओण्निधियै ईन्दिदिनुम् – यह ज़रूरि नहि है की “लोगों द्वारा भगवान को समर्पित किया गया धन को भगवान स्वीकार करेंगे” क्योंकि यह विचार अनुचित है और भगवान के ऐसे | सेरार् अरविन्दम् सेवडियै – (जिनके चरण कमल कीचड मे खिलने वाले एक लाल रंग के कमल के जैसे है) चरण कमलों का आश्रय ना लेते है | तान् उवन्दु कोळ्ळान् – निश्चित रूप से भगवान श्रीमन्नारायण हृदयपूर्व उन लोगों का समर्पण कदाचित भी स्वीकार नही करेंगे |

भूमिका

जिन लोगों को भगवान श्रीमन्नारायण के कमल चरणों के प्रती आसक्ति नही होती है, और भगवान श्रीमन्नारायण से लौकिक विषयों की परिपूर्णता मे आसक्ति रखते हुए भेंट समर्पित करते है भगवान सदैव हृदयपूर्वक ऐसे समर्पणों का तिरस्कार करेंगे ।

विवरण

माराय् इणैद मरुदम् इरत्तवऴ्न्द – यमलार्जुन वृक्ष जो अभिन्न और जुडवें थे जिन्होने भगवान श्रीकृष्ण को अपना शत्रु मान लिया था, ऐसे वृक्षं के बींच मे श्री कृष्ण के रेंगने से जड़ समेत उखड कर गिर गए ।

पहले की घटना – एक बार माँ यशोदा श्री कृष्ण को बिस्तर मे लेटाकर यमुना नदी मे स्नान करने हेतु चली गई । उनके जाने के पश्चात श्री कृष्ण को भूंख लगी । कहा गया है की हर रोज़ माँ यशोदा श्री कृष्ण को दूध पिलाति थी और इस कारण अपनी माँ को अपने समीप न पाकर परेशान श्री कृष्ण ने पास मे स्थित पहिये को लात मारा । लात मारने की वज़ह से पहिये मे निवसित असुर तुरन्त मर गया ।

शापग्रस्त नलकूवर और मणिग्रीव (जो जुडवे मरुद वृक्षों के रूप मे नन्दगोप के आंगन मे स्थित थे), का उद्धार भगवान ने अपने दामोदर लीला मे किया । यह लीला के पहले – श्री कृष्ण घर के पास रहने वालि गोपिकावों के घर से माखन चुरा कर माखन का आनन्द ले रहे थे । यह जानकर वे सारी गोपिकायें माँ यशोदा से श्री कृष्ण के इस स्वभाव पर शिकायत करती है । एक एक कर सारे वृन्दावन के निवासियों के शिकायत सुनकर और यह बर्दाश्त नही कर पाते हुए तुरन्त श्री कृष्ण को घर मे स्थित एक ओखलि से बान्ध देती है और अपने कामकाज मे जुट जाति है । श्री कृष्ण बाल्यावस्था मे होने के कारण उनको समझ नही आया की वे अब क्या करें । वे अपने आंगन की ओर ओखलि को अपने साथ घसीटते हुए ले गए और ले जाते हुए वे दो वृक्षों मे बींच मे फँस गए । ओखलि चौड़ा होने के कारण से उन दो वृक्षों के बींच मे से घुस नही पाई । श्री कृष्ण ने बलपूर्वक प्रयत्न किया और इसी प्रयत्न मे उनके दिव्य जांघ दोनो वृक्षों को रगड़े और इसी कारण दोनो वृक्ष उखडकर गिर गए । असुर रूपी गौणदेवता के पुत्र जो मरुदरूपि वृक्षों मे निवसित थे उनका नाश इस प्रकार हुआ । एक और दृष्टि कोन से देखा जाये तो हमारे आऴ्वारों को यह लगा की ये अभिन्न विशाल वृक्ष केवल कंस के विश्वसनीय राक्षस थे जो कंस की आज्ञा से भगवान श्री कृष्ण को मारने हेतु नन्दगोप के आंगन मे प्रकट हुए और जिनका नाश श्री कृष्ण ने स्वयम किया । अतः अगर कोई किसी के खातिर श्री कृष्ण का विरोधी बन जाए अन्ततः उनको श्री कृष्ण के हाथों मे परास्त होना पडेगा और शत्रु चाहे कोई भी हो भगवान श्री कृष्ण निश्चित रूप से उनका विनाश करेंगे ।

सेराररविन्दस्च सेवडियै – श्रीमन्नारायण भगवान के चरणकमलों का रंग एक ताज़ा खिले हुए कमल के जैसा है जो अभी अभी सरोवर / तालाब मे प्राकृतिक समायोजन से खिला हो । सेवडि अर्थात लाल रंग के चरणकमल । यहा द्रविद भाषा के व्याकरण (यएपुलि कोडल्) के अनुसार उनके चरणकमल केवल लाल रंग को ही नही दर्शाते है परन्तु इस सौन्दर्य से सम्युक्त प्रत्येक लक्षण जैसे शीतलता, महक इत्यादि को भी दर्शाते है । श्री पराशर मुनि श्री विष्णुपुराण मे इस लीला का वर्णन करते है और इस लीला मे भगवान श्री कृष्ण के लाल आखों के सौन्दर्य की स्तुति करते है जब श्री कृष्ण भगवान ओखलि की ओर मुढते हुए गिरे वृक्षों को देख रहे थे । यद्यपि श्री अरुळळमामुनि ने भगवान के लाल आखों की स्तुति न करते हुए उनके लाल चरणकमलों की स्तुती किये जिसे श्री मणवाळमामुनि ने उल्लिखित पासुर के व्याख्यान मे कहे |

पोरुन्दिय मामरुदिन् इडै पोय वेम्
पेरुन्तागै उन् कऴल कणिये पेदुत्रु
वरुन्दि नान् वासग मालै कोन्डु उन्नये
इरुन्दु इरुन्दु एत्तनै कालम् पुलम्बुवने – तिरुवाय्मोऴि ३-८-१०

कहते है – श्री नम्माऴ्वार भी भगवान के ऐसे चरणकमलों का आश्रयानन्द लेना चाहते थे जिन चरणकमलों से उन्होने उन दो वृक्षों मे स्थित नलकूवर और मणिग्रीव का उद्धार किया । (पोन्नमाय् मा मरुदिन् नडुवे एन् पोल्लामणिये – इत्यादि पासुर से)

वेराग उळ्ळादार – यहा उन लोगों का उल्लेख है जिनके के लिये श्रीमन्नारायण के चरणकमल ही सर्वश्रेष्ट और अत्यानन्ददायक है और जो अन्य लौकिक विषयों मे अनासक्त है ।

ओण्निधियै तन्तिडिनुम् – यदि पूर्वलिखित लोग भगवान को महत्तम धन भेंट मे दे

तान् उवन्दु कोळ्ळान् मलर्मडन्दै कोन् – श्री कृष्ण (तिरुवुकुम् तिरुवागिय सेल्वन्) जो साक्षात भगवान श्रीमन्नारायण है, ऐसे भगवान खुद श्रीमहलक्ष्मी (पेरियपिराट्टि) को भी “तिरु” देते है (यानि श्री महालक्ष्मी को अपने चरणकमलों का सेवा का सौभाग्य देते है) । अतः भगवान सम्पूर्ण ( परिपूर्ण/आत्माराम – श्रीमद्भागवतम् १.७.१० ) है । अपनी परिपूर्णता को निभाने / पूर्ण करने के लिये भगवान अन्य जीवों से कुछ भी अपेक्षा नही करते है । इसीलिये कहते है की ऐसे लौकिक लोगों का भेंट भगवान हृदयपूर्वक स्वीकार नहि करते | अगर भगवान सम्पूर्ण (परिपूर्ण) नही होते तो यह निश्चित है की वे समर्पित धन को स्वेछा और सर्वोच्च तृप्ति से स्वीकार करते । चूंकि भगवान परिपूर्ण है इसीलिये हम यह कह नही सकते की भगवान हृदयपूर्वक ऐसे समर्पित धन को स्वीकार करेंगे । हलांकि कहा गया है की – भगवान भक्तों के विचार धारणा को ध्यान मे रखते हुए समर्पित धन को हृदयपूर्वक स्वीकार करते है । इस पासुर के अनुसार हम यह कह सकते है की – भगवान उन लोगों के ऐसे समर्पण को केवल स्वीकार करने हेतु ही स्वीकार करते है परन्तु वस्तविकता मे इसके पींछे कोई सुख और आनन्द नही है । चूंकि भगवान एक ही है जिनपर प्रत्येक जीव निर्भर है, अतः ऐसे जिवों का समपर्ण भगवान स्वीकार करते है । अगर भक्त भगवान को हृदयपूर्वक भेंट (जो चाहे कुछ भी हो – पत्र, पुष्प, फल, धन, मन, तन इत्यादि) समर्पित करता है, उसी के अनुसार भगवान अत्यधिक खुश होकर उस भक्त से भी ज़्यादा हृदयपूर्वक होकर उस भेंट को स्वीकार करते है । इसी कारण से ऐसे इस भावना को हमारे माता-पिता के भावना से तुलना किया गया है । जिस प्रकार माता-पिता अपने मान्य स्वभाव के सन्तान के द्वारा समर्पित सब कुछ स्वीकार करते है और कभी कभी अमान्य स्वभाव के बच्चे के भेंट को भी स्वीकार करते है उसी प्रकार की भावना भगवान मे भी प्रतीत होता है क्योंकि आखिरकार भगवान एक जीव के लिये माता-पिता है ।

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-12-maray-inaindha/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

Leave a Comment