यतिराज विंशति – श्लोक – ११

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १०                                                                                                                   श्लोक  १२

श्लोक  ११

पापे कृते यदि भवन्ति भयानुताप लज्जा: पुन: करणमस्य कथं घटेत |
मोहेन मे न भवतीय भयादिलेश: तस्मात् पुन: पुनरघं यतिराज कुर्वे |११|

यतिराज                          : श्रीरामानुज!
पापे कृते                          : जब पाप किया जाता है, तब
यदि भयानुताप लज्जा:     : यदि भय अनुताप और लज्जा हों तो
अस्य पुन: करणं              : इस पाप का फिर भी करना
कथं घटेत मे                    : कैसे घटेगा ? मुझे तो
मोहेन इह                        : अज्ञान के कारण पाप करने में
भयादि लेश:                    : भय आदि का थोड़ा सा अंश भी
न भवति तस्मात् अघं      : नहीं होता इसलिये पाप को
पुन: पुन: कुर्वे                  : बार-बार करता हूँ |

अज्ञान से भरे इस संसार में पाप करना कोई अद्भुत विषय नहीं, इसलिए पाप हो जाने की चिन्ता तो मुझे नहीं| ‘हाय! मैंने पाप कर लिया| इससे इस लोक तथा परलोक में मेरी क्या दशा होगी?’ इस तरह का भय, अनुताप और लज्जा हो तो यह किये हुए पाप का कुछ प्रायश्चित होगा, बाद में जान बूझ कर पाप करने से हमें रोकेगा| लेकिन मुझको पापों के विषय में जरा भी न भय है, न अनुताप है और न लज्जा| इसका कारण है विवेक का अनुभव| पाप से रोकने वाले अनुताप आदि के अभाव से बार-बार पाप करता ही रहता हूँ| अपने पापों की अधिकता को उपरोक्त शब्दों में श्रीरामानुज की सेवा में निवेदन कराते हैम की मुझे ऐसे पापी को आपकी कृपा के सिवाय दूसरी कोई गति नहीं|

श्रीवत्साङ्कमिश्र ने पिल्लै-पिल्लै आल्वान् से जो कहा था वह इस श्लोक के पूर्वार्ध से मेल खाता है| वह ऐतिह्य यों है; श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरत्ताल्वान्) के कई शिष्यों में पिल्लै-पिल्लै आल्वान् एक थे| आभिजात्य आदि गुणों से कुछ ऊँचे होने के कारण वे भागवतों से विनयहीन होकर बरताव करते थे| इसे देख कूरेशजी ने सोचा; हाय! इसका यह भागवतापचार बहुत ही हानिकारक है| वह तो इसके ज्ञान अनुष्ठान सबको नष्ट करके स्वयं बलवान होकर अन्त में इसका ही सर्वनाश कर डालेगा| इसलिए इसे पाप से बचना चाहिए| एक दिन पुण्यकाल में स्नान करने के बाद कूरेशजी ने उससे पूछा, “क्या तुम मुझे कोई दान नहीं दोगे जब कि इस पुण्यकाल में सभी कुछ न कुछ दान कराते हैं?” उसने उत्तर दिया, “स्वामिन्! मैं दान क्या दे सकता हूँ जब मेरा सब कुछ आप ही का है|” तब कूरेशजी ने कहा, “अच्छा, तब मेरे हाथ में उदकदान कर दो कि मैं आगे मनो वाक् काय तीनों से भागवतों के प्रति अपचार किये बिना सावधानी से रहूँगा|” उसने भी वैसा ही कर दिया| आगे चल कर एक दिन पूर्व वासना से भागवत का अपचार हो गया| उससे भी भयभीत हो और कूरेशजी के सामने जाने में लज्जित होकर अपने ही घर में ठहर गया| हमेशा की तरह जब यह कूरेशजी के यहाँ नहीं आया तब कूरेशजी ने स्वयं उसके घर जाकर पूछा, क्या बात है? उसने कहा, ” आज मेरे से एक भागवत के प्रति अपचार हो गया| मालूम होता है कि इस शरीर के साथ जब तक रहता हूँ तीनों करणों से अपचार के बिना जीवन बिताना असंभव है| मैं क्या करुँ?” यह कह कर दु:ख से भूमि में गिरकर कूरेशजी के चरणों से लिपट गया| इसका पश्चात्ताप देखकर कूरेशजी खुश हुए और बोले, “मन से अपचार होने पर यदि अनुताप होता है तो ईश्वर उसको क्षमा कर देते है| इस डर से कि खुले त्पोर पर किसी का अपचार करने से राजा का दण्ड मिलेगा तुम शरीर से किसी को नहीं सताओगे| अब वाक् एक ही रह गया है| उसे वश में रख कर सावधानी से रहो” || ११ ||

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