उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ६६

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुरम् ६४ – ६५

पासुरम् ६६

छियासठवाँ पासुरम्। वे अपने हृदय को उत्तर देते हैं, जिसने संभवतः उनसे प्रश्न किया कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसे पिछले पाशुरों में बताई गई अवधारणाओं के उदाहरण के रूप में पृथक किया जा सके।

पिन्बु अऴगराम् पॆरुमाळ् सीयर् पॆरुन्दिवत्ताल्
अन्बु अदुवुमट्रु मिक्क आसैयिनाल् – नम्पिळ्ळैक्
कान अडिमैगळ् सॆय् अन्निलैयै नन्नॆञ्जे
ऊनमऱ ऎप्पॊऴुदुम् ओर्

पिन्बऴगराम् पेरुमाळ् जीयर् (पश्चात सुंदर देशिक स्वामी) ने परमपद धाम कि इच्छा न रखते हुए,‌ जो कि एक विशाल स्थान है, अपने आचार्य नम्पिळ्ळै (श्री कलिवैरिदास स्वामी) के प्रति उनके अपार स्नेह के कारण उनकी उचित सेवा‌ की। हे हृदय! इस अवस्था के विषय में, बिना किसी दोष के निरंतर चिंतन करो। पश्चात सुंदर देशिक स्वामी श्री कलिवैरिदास स्वामी के प्रिय शिष्य थे। यद्यपि वे श्री कलिवैरिदास स्वामी के समय में जीयर् (जिसने संसार का‌ सबकुछ त्यागकर संन्यासाश्रम स्वीकार किया हो, संन्यासी) थे, फिर‌ भी वे श्री कलिवैरिदास स्वामी के दिव्य रूप की सेवा करते थे। एक बार‌ जब जीयर् की स्वास्थ्य बिगड़ी तो वहाँ के एक वैद्य के पास जाकर कुछ औषध लिया और स्वास्थ्य सुधार ली। इस पर चर्चा आरंभ हो गई कि क्या एक श्रीवैष्णव, विशेष रूप से एक संन्यासी के द्वारा औषध लेकर‌ अपने शरीर‌ का‌‌ पालन करना उचित है। कुछ लोगों ने इस पर अलग-अलग राय दीं। एक आचार्य ने कहा कि जीयर् का‌ श्रीरङ्गम् के भगवान रंङगनाथ जी को छोड़ने का मन नहीं है। किसी और ने कहा कि जीयर् का श्रीरङ्गम् छोड़ने का मन नहीं है, तो किसी और‌ ने कहा कि जीयर् का नम्पिळ्ळै की कालक्षेप गोष्ठी (उपन्यास सुननेवालों की सभा) को छोड़ने का हृदय नहीं है। सब नम्पिळ्ळै के पास गए और उनसे जीयर् का औषध सेवन कर शरीर पर‌ ध्यान देने का कारण पूछा। कारण जानने के लिए नम्पिळ्ळै ने जीयर् को आमंत्रित किया और औषध सेवन करने का वास्तविक उद्देश्य पूछा। जीयर् ने उत्तर दिया कि जब नम्पिळ्ळै कावेरी नदी में स्नान करके लौटते हैं, तब उनके पीठ से टपकते पसीने की बूँदों को देखने का सौभाग्य जीयर् को प्राप्त होता है और वे इसे नहीं खोना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने औषध का सेवन किया। इस प्रकार अपने आचार्य के प्रति उनकी भक्ति प्रकट हुई। श्रीवरवरमुनि स्वामी यहाँ दर्शाते हैं कि जिस प्रकार श्री मधुरकवि स्वामी श्री शठकोप स्वामी (नम्माऴ्वार्) के लिए थे और श्री आन्ध्रपूर्ण स्वामी (वडुग नम्बि) रामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) के लिए थे, उसी प्रकार जीयर् नम्पिळ्ळै के लिए थे।

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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