उपदेश रत्तिनमालै – सरल व्याख्या – पासुरम् ६४ – ६५

। ।श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमत् वरवरमुनये नमः। ।

उपदेश रत्तिनमालै

<< पासुरम् ६२ – ६३

पासुरम् ६४

चौंसठवां पासुरम्। वे अपने हृदय से कहते हैं कि यद्यपि आचार्य ही परम लाभ हैं, अर्थात उन्हें प्राप्त करना चाहिए और उनके साथ रहकर आनंद लेना चाहिए, किन्तु किसी शिष्य के लिए उनके आचार्य से अलग होने की संभावना नहीं है। 

तन् आरियनुक्कु तान् अडिमै सॆय्वदु अवन्
इन्नाडु तन्निल् इरुक्कुम् नाळ् – अन्नेर्
अऱिन्दुम् अदिल् आसै इन्ऱि आचारियनैप् 
पिऱिन्दिरुप्पार् आर् मनमे पेसु
 

यह समझ लेने के पश्चात भी, कि एक शिष्य अपने आचार्य का कैंङ्कर्य तभी तक कर सकता है जब तक आचार्य इस संसार में हैं, क्या कोई शिष्य,‌ इसमें बिना किसी इच्छा की, अपने आचार्य से पृथक रह सकता है? ऐ हृदय! कृपया मुझे बताओ। 

एक शिष्य अपने आचार्य का कैंङ्कर्य तभी तक कर सकता है जब तक आचार्य जीवित हैं। एक बार जब आचार्य परमपद प्राप्त कर लेते हैं, तब शिष्य सीधे उनकी सेवा करने का अवसर खो देता है। इसलिए जब तक आचार्य हैं, तब तक उनकी सेवा करनी चाहिए। पिछले पासुरम् में दिए गए स्पष्टीकरण के अनुसार श्रीवरवरमुनि स्वामी ने इसका पालन किया था। हमारे पूर्वाचार्य भी अपने आचार्य की सेवा इसी प्रकार से करते रहे। 

पासुरम् ६५ 

पैंसठवां पासुरम्। आचार्य और शिष्य की गतिविधियों को दिखाते हुए श्रीवरवरमुनि स्वामी कहते हैं कि इन्हें व्यवहार में देखना कठिन है।

आचारियन् सिच्चन् आरुयिरैप् पेणुमवन्
तेसारुम् सिच्चन् अवन् सीर् वडिवै – आसैयुडन् 
नोक्कुम् अवन् ऎन्नुम् नुण्णऱिवैक्केट्टु वैत्तुम्
आर्क्कुम् अन्नेर् निऱ्-कै अरिदाम् 

आचार्य अपने उपदेशों और कार्यों के माध्यम से शिष्य की प्रतिष्ठित आत्मा की रक्षा करेंगे। तथापि जिस शिष्य ने आचार्य से तेजोमय ज्ञान प्राप्त किया है, वह अपनी सेवाओं के माध्यम से ‌आचार्य की दिव्य रूप की संरंक्षण करेगा, जिसकी महानता है‌ कि भगवान स्वयं उस देह की कामना करते हैं। भले ही किसी ने परंपरागत अपने पूर्वाचार्यों से इस ज्ञान को पाया हो, यद्यपि यह सुनने में अच्छी है, किन्तु इसके अनुसार कर्म करना कठिन है। 

अडियेन् दीपिका रामानुज दासी

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