Author Archives: narasimhantsl

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १०

Published by:

 

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक)  ९                                                                         ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १

पासुर१०

998931_10153082622610375_989954565_n

नाळुम् उलगै नलिगिन्र वाळरक्कन्
तोलुम् तलैयुम् तुणित्तवन्तन्ताळिल्
पोरुन्दादार् उळ्ळत्तुप् पू मडन्दै केळ्वन्
इरुन्दालुम् मुळ् मेल् इरुप्पु

शब्दार्थ

नाळुम् उलगै नलिगिन्र वाळरक्कन् – (ऐसा) व्यक्ति जो इस जगत के प्राणियोंको कष्ट देता है , उसके हाथमे चंद्रहास नामक तलवार है।; तुणित्तवन्तन् तोलुम् तलैयुम्  – पूर्वोक्त व्यक्तित्व रावन है जिसके दस सरों और बीस भुजाओं का पृथक |; पू मडन्दै केळ्वन् – श्री सीताके पति श्रीरामचंद्रने किया |; ताळिल् पोरुन्दादार् उळ्ळत्तु – हलांकि ऐसे लोग जो भगवान श्रीरामचंद्रको अपने हृदयमे स्थित है उनका आश्रय नहि लेते है | ;इरुन्दालुम् मुळ् मेल् इरुप्पु  – फिर भी श्री रामचंद्र उनके हृदयमे निवास करेंगे यद्यपि वे कांटेदार कांटेपर निवास कररहे हो |;

भूमिका – ऐसे व्यक्तियों के हृदयमे भगवान खुशीसे निवास नहि करते जिनको भगवान के अलावा अन्य विषय वस्तुओं मे रुचि है और इसी की इच्छा रखते है। पूर्वपासुरमे,  स्वामि अरुळल पेरुमाळ एम्बेरुमानार ने बताया की कैसे भगवान अपना स्वधाम छोडकर खुशीसे अपने शुद्ध भक्तों के हृदयमे रहनेके इच्छुक है। हलांकि इसपासुरमे वे कहते है – भगवान ऐसे भक्तोंमे हृदयमे केवल रहनेके खातिर ही रहते है जो विषयासक्त है, और उन्हे उतनी खुशी नही होती जितना शुद्ध भक्तोंके हृदयमे निवास करनेसे उन्हे होती है।

भावार्थ

नाळुम् उलगै नलिगिन्र – लंकापति रावन दुष्टता का साकार रूप है। यहा “नाळुम्उलगैनलिगिन्र” वाक्यांश “रावन कितना दुष्ट है” का वर्णन करता है। वह ऐसा व्यक्ति था जिसने सामाजिक लोगोंको पीडित केवल एक रोज़ या कुछ समयके लिये किया परन्तु प्रत्येक दिन बडते क्रम पर किया। उससे पीडित केवल कुछ सामाजिक लोग नहि परन्तु पूरा विश्व था। अतः रावन ने अपना प्रचन्ड क्रोध कोइ ब्रह्माण्ड के प्रत्येक जीवपर अत्याचार के रूपमे प्रकाशित किया।

वाळरक्कन् – वाळयानितलवार और अरक्कन्यानिरावन। रावनने शिवकी घोर कठिन तपस्या की जिसके फलस्वरूप मे उसे चंद्रहास नामक तलवार दी गई। उसी तलवार की बदौलत वहअ पराजय होकर अपने दुशमनोंको पराजित किया। इसी का वर्णन कम्ब अपने कम्बरामायण मे इस प्रकार करते है – “संकरन्कोदुत्तवाळुम्” ।

तोळुम्तलयुम्तुणित्तवन् – इस वाक्यांश मे स्वामि यह प्रकाश डाल रहे है की – श्रीरामचंद्रने दुष्ट रावन के दस सिरों और बीस भुजाओंको भिन्न भिन्न कर दिये। इसी संदर्भ मे स्वामि नम्माळ्वार कहते है – “नील्कडल्सूळिलंगि कोन्तोळ्गळ्तलै तुनि सेय्दान्ताळ्गळ्तलयिल्वान्गिनाळ्कडलैकळिमिन्”। इसका तात्पर्य इस प्रकार है – जब कभी दो व्यक्तियों के बींच मे युद्ध फूट पडता है, तो यह स्वाभाविक है की एक कमज़ोर होता जाता है और दूसरा बलशालि होता जाता है। जब बलशालिको अपने प्रतिद्वन्दि पर काबू होने का एहसास होता है और अतः निश्चित रूप से विजय प्राप्त कर सकता है तब वह अपने प्रतिद्वन्दि को कोई ऐसा मौका नही देना चाहता है की वह वापस सुस्वस्थ होकर उससे लडे। अन्ततः बलशालि अपने प्रतिद्वन्दि और उससे संबन्धित सेना का पूर्ण रूप से नष्ठ करने की इच्छा रखता है। हलांकि इधर सर्व शक्तिमान श्रीरामचंद्र पूर्वोक्त भावना से युद्ध नही लडे। इसके विपरीत मे भगवान श्रीरामचंद्र ने रावन को अनेक अवसर दिये जिस से वह अपनी गलती को स्वीकार कर उनके शरण मे आये। अतः उन्होने रावन के दस सिरों और बीस भुजाओं को भिन्न कर के कहे – “आज के लिये बस इतना, अभी तुम घर जाओ और कल फिर आकर लडना ” । श्रीरामचंद्र कृपा से भर पूर थे परन्तु दुष्ट रावन ने उनके चरण कमलों का आश्रय नही लिया। इस प्रकार हमारे आळ्वारोंने श्रीरामचंद्र के ऐसे विषेश गुणों का गुणगान किये है।

स्वामि तिरुमंगैआळ्वार कहते है –

तान् पोलुम् एन्ड्रेज़्हुन्दान् दरणियालन्
अदु कण्डु दरित्तिरुप्पन् अरक्कर् तण्गल्
कोन् पोलुम् एन्ड्रेज़्हुन्दान् कुन्ड्रम् अन्न
इरुपदु तोळुडन् तुणित्त ओरुवन् कण्डीर् (पेरियतिरुमोळि..)

 तलैगल् पत्तुम् वेट्टि ताल्लिल्
पोज़्हुतु पोग विलयाडिनार्पोल् कोन्ड्रवन्  (अज्ञातरचयिता)

सरन्गलै तुरन्दु विल् वलैत्तु इलन्गै मन्नवन्
सिरन्गल् पत्तरुत्तु उदिर्त्त सेल्वर् मन्नु पोन्निडम्

पूमडन्दैकेळ्वन् – माँ सीता के पति श्रीभगवान (श्रीरामचंद्र) है जो सुन्दर, जवान, सदैव प्रकाशित कमलों के बींच मे रहती है। रावन का नाश केवल इस विश्व के लोगों पर अत्याचार करने से नही परन्तु श्री रामचंद्र और माँ सीता को अलग करने से भी हुआ है। पूर्वोक्त उत्तरवर्ति कारण से ही श्रीरामचंद्र के हाथों से रावन और उसकी पूरी सेना का नाश हुआ। स्वामि तिरुमंगैआळ्वार इसी का वर्णन पेरिय तिरुमोळि के पासुर मे बताते है –

सुरि कुज़्हल् कनिवै तिरुविनै पिरित्त कोडुमयिल् कडुविसै अरक्कन्
 एरि विज़्हितिलन्ग मणि मुडि पोडि सेय्दु इलन्गै पाज़्ह्पडुपदर्कु एण्णि  (पेरियतिरुमोळि..)

इस संगम पर हमे यह  संदेह हो सकता है की श्रीरामचंद्र स्वार्थी थे क्योंकि दुष्ट रावन और उसकी सेना का नाश केवल उनकी पत्नि के अपहरण के कारण किया गया है। यह अगर सही दृष्टिकोण से नही देखा जाए तो पूर्ण रूप से कह सकते है की यह कार्य केवल स्वार्थ के आधार पर किया गया है। इसके विपरीत मे अगर देखा जाए तो हमे श्रीरामचंद्र के उदारता और विशाल विचारों को देखना चाहिये। पूर्वाचार्य कहते है – माँ सीता (पिराट्टि) के नही होने से केवल भगवान के नुकसान के साथ इस पूरे विश्व का नुकसान है क्योंकि यह विश्व उनके आधार पर जीवित है।श्री सीतापिराट्टि की वज़ह से हीp-10-1 भगवान कारुण्य, दया इत्यादि गुणों से संपन्न होते है और अगर वे नही होते तो हम जिवात्मा एँक भी शरणागति नही कर पायेंगे।भगवान हमारी रक्षा तभी कर सकते है जब पिराट्टि उनके साथ होती है।यह हम अनेक उदाहरणों मे देख सकते है।गौर करिये – श्री मद्रामायण मे जितने भी हत्यायें हुई है वे सारे तभी हुए जब श्रीपिराट्टि भगवान के साथ नही थे। उदाहरण मे वालि, कर, दूशण, रावन, कुम्भकर्ण, निकुम्भ इत्यादि का वद्ध श्रीपिराट्टि के गैर मौज़ूदगि मे हुआ। इसी विपरीत मे देखें तो काकासुर नाम का राक्षस जो कौवा का रूप धारण किया था उसने श्रीपिराट्टि के स्थनों पर वार किया। इसके पश्चात श्रीपिराट्टि के स्थनों से खूँन बहने लगा जब श्रीपेरुमाळ विश्राम कर रहे थे। श्रीपिराट्टि भगवान के विश्राम को भंग नही करना चाहती थी परन्तु जब भगवान उठे तो उन्हे ज्ञात हुआ की श्रीपिराट्टि पर एक राक्षस ने वार किया और पयालन होगया। यह जानकर भगवान ने उस राक्षस को दण्ड देना उचित समझा। भय भीत राक्षस इधर उधर उडा परन्तु उसको बचाने कोई देव, दानव, ऋषि नही आये और इस विपरीत परिस्थिति मे अन्ततः श्रीपिराट्टि के चरण कमलों का आश्रय लिया।भगवान ने भी इस राक्षस को बचाने से इनकार कर दिया।श्री पिराट्टि अपने कारुण्यभाव से हस्थक्षेप करते हुए अपने पति श्रीरामचंद्र को मना ये की इस राक्षस को माफ़ कर दे क्योंकि प्रत्येक जीव उन्ही की संतान है। अतः “लोगों को बचाने की ज़रूरत और इस के लिये पिराट्टि की ज़रूरत” इस विचार से श्रीरामचंद्र ने रावन का वद्ध किया क्योंकि उसने श्रीराम और श्रीसीतादेवी को अलग किया।

तन्ताळिल्पोरुन्दादार्उळ्ळत्तु :- स्वामि अरुळळपेरुमाळएम्बेरुमानार दो प्रकार के लोगों का वर्णन करते है जो भगवान के चरण कमलों का आश्रय लेते है। इसके बावज़ूद ये लोग वे किधर है यह भूलकर भौतिक विषयों मे आसक्ति रखते है। “पोरुन्दुदल्” मायने “उपयुक्त/बराबरी” । अगर कोई जीव भगवान के शरणगत मे है तो यह कैसे संभव है की वह जीव भगवान के अतिरित अन्य भौतिक विषयों मे आसक्ति रखते है ? यह स्पष्टतः विपरीत अर्थ को दर्शाता है अतः इसका अर्थ “अनुपयुक्त” है। इसका कारण स्पष्ट है की उस जीव ने पूर्णतः भगवान का शरण नही लिया या वह भौतिक विषयासक्त है और भगवान के चरण कमलों के प्रति रुचि नही है।

इरुन्दालुम् – सब कुछ और सभी ( चित, अचित वस्तुओं ) का संबन्ध भगवान से है।यह संभव नहि की ऐसी कोई चीज़ य ऐसा कोई जीव का संबन्ध भगवान से नहि हो। भगवान हमारे अंदर है यानि जिवात्मा के अंदर है जो बहुत ही सूक्ष्म है। वह इस विश्व मे प्रत्येक जीव राशि जैसे पशु, पक्षि मे है। वह इस भौतिक जगतमे अग्नि, पृथ्वी, आकाश, पानि, हवा इत्यादि है। वह हमारि बोली (अक्षरों) मे मौज़ूद है जिसे हम बोलने,  लिखने, सोचने मे उपयोग करते है। वह ऐसे शब्दों के अर्थ प्रदान करते है और वह इन्ही शब्दों से वर्णित है। वह सबसे परे है। वह विचार, कर्म, कारण, समस्या, हल और क्या नही है। वह इधर है , उधर है , दुष्ट रावन मे भी है जिसका वर्णन पहले ही किया गया है। भगवान केवल भगवान ने नाते ही पोरुन्दादार से संबोधित लोगों के हृदय मे निवास करते है। परन्तु भगवान के शुद्ध भक्तों मे विषय मे उन्हे उनके हृदय मे निवास करने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह आनन्द उनके स्वधाम मे रहने से भी अत्यधिक है।

मूळ्मेलिरुप्पु – ज़्यादातर लोग जो भगवान के अतिरित सब कुछ और कुछ भी सोचते है, उनके हृदय मे वह निवास करते है जैसे केवल एक कांटे दार कांटे पर निवास कर रहे हो। उन्हे यह पसंद नही और उन लोगों के प्रति प्यार की भावना नही है परन्तु केवल निवास करने हेतु वह उनके हृदय मे निवास करते है।

p-10-2

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-10-nalum-ulagai/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org

pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ९

Published by:

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक)  ८                                                                                        ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १०

पाशूर ९

Lord-Vishnu

 

आसिल् अरुलाल् अनैत्तु उलगुम् कात्तलिक्कुम्
वास मलराल् मणवालन् – तेसु पोलि
विण्णट्टिल् साल विरुम्बुमे वेरोन्ड्रै
एण्णादार् नेन्चत्तु इरुप्पु ।

शब्दार्थ

आसिल् = दोष रहित (सकाम भाव से कोई कार्य करना दोष है) ; अरुळाल् = प्रेम से ; अनैत्तुलगुम् कात्त = सभी लोकोंकी रक्षा करते हैं ; ळिक्कुम् = इच्छा पूर्ण करना; वास मलराळ् मणवाळन् = पद्मजा लक्ष्मीजी के पति (श्रिय:पति) ही भगवान हैं  ; तेसु पोलि विण्णाट्टिल्  = जो श्री वैकुंठधाम में प्रकाशमान हैं ;नेन्ज्चत्तु इरुप्पु = और जीवोंके हृदयमें विराजते हैं ; साल विरुम्बुमे = जो ठीक उसी तरह ; वेऱोन्ऱै एण्णादार् = श्रीमन्नारायण अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं और श्रीमन्नारायण के अतिरिक्त और कोई फल नहीं

भूमिका

भगवान से भगवान की नित्य सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मांगता ऐसा एक शरणागत आश्रित जीव जब भगवान को मिल जाता है तब भगवान को जो आनंद होता है उसका वर्णन पिछले पाशूरमें श्री देवराजमुनी स्वामीजी करते हैं। इस पाशूरमें और भी आगे बढ़कर श्री देवराजमुनी स्वामीजी आश्रितोंके हृदयमें बिराजनेवाले भगवान के आनंद की इसके भी आगेकी स्थिती का वर्णन करते हैं। हृदयमें प्रवेश करनेसे पहले भगवान हमारे हृदयकी परीक्षा करते हैं की यह हृदय केवल भगवान का ही विचार करता है या और किसी सांसारिक वस्तु का भी विचार करता है। अगर भगवान को इस बात का भरोसा हो जाता है की यह जीव भगवान के व्यतिरिक्त और किसी भी वस्तु को नहीं चाहता है तो वें वहाँ आनंदपूर्वक नित्य बिराजते हैं।

विवरण

आसिल् अरुळाल्: जब कोई किसी बदले की ईच्छा से कुछ करता है तो वह मदद कृत्य हो तो भी दोषपूर्ण हो जाता है। अरुळ से भगवान की करुणा का वर्णन होता है। भगवान हमे सबकुछ देते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहतें। परीमेएलालगर स्वामीजी “अरुळ” का अर्थ समझाते हुए कहते हैं, हमें सभी जीवोंके प्रति निष्कारण करुणा होनी चाहिए। यही स्वरूप है। हम साधारणत: हमारे बालबच्चे, माता-पिता, पत्नी, बंधु, आदि संबन्धित व्यक्तिओंसे प्रेम करते हैं। हम उसी तरह का प्रेम किसी अंजान व्यक्ति की तरफ नहीं प्रदर्शित करतें। परिवार जनोंका प्रेम संबंध से आता है। और अंजान व्यक्ति से कोई ऐसा संबंध नहीं होने के कारण हम उनपर प्रेम नहीं करतें। परंतु, भगवान और उनके सच्चे आश्रित के लिए सभी जीवोंकी तरफ निष्पक्ष प्रेम होना यह सबसे महत्त्वपूर्ण गुण होता है। वें किसी भी व्यक्ति के किसी गुण के कारण प्रेम नहीं करते और ना ही किसी दोष के कारण तिरस्कार भी करते हैं। अगर वे गुण दोष देखते हैं तो प्रेम और करुणा का प्रदर्शन अपने आपमें दोषपूर्ण है। ऐसा दोषपूर्ण प्रेम हम जीवात्मा प्रदर्शित करते हैं, जबकि भगवान हमपर सच्चा प्रेम करते हैं, वें हमसे बदले में कुछ नहीं चाहते हैं।

अनैत्तुलगुम्:  ब्रह्माण्ड में १४ लोक हैं, पृथ्वी समेत ऊपर ७ और पृथ्वी के नीचे ७। ऊपर के ७ लोक हैं, “भूर्लोक”, “भूवर्लोक”, “स्वर्लोक”, “महर्लोक”, “जनलोक”, “तपोलोक”, और “सत्यलोक”। हमारे नीचेके सात लोक हैं, “अतललोक”, “सुतललोक”, “वितललोक”, “तलातललोक”, “महातललोक”, “रसातललोक”, और “पाताललोक”। यह समूह “अण्डम्” कहलाता है। भगवान अपना निष्पक्ष प्रेम इन १४ लोकोंके सभी जीवोंके लिए प्रदर्शित करते हैं। अगर भगवान कुछ कारण के लिए प्रेम रखते हैं तो वह प्रेम दोषपूर्ण हो जाएगा। परंतु भगवान हम सबके लिए एक सरीखे हैं और वे हममे कोई भेदभाव नहीं करतें।

कात्तळिक्कुम्:  भगवान हमारी रक्षा कराते हैं। रक्षा का अर्थ बहोत ध्यान पूर्वक समझके समझना चाहिए क्योंकि रक्षा का अर्थ साधारणत: गलत लगाया जाता है। हम जो मांगते हैं वह सब कुछ देना प्रेम नहीं है। रक्षा का अर्थ है की जो वास्तव में अति आवश्यक हो वह देना। जो आवश्यकता है वह प्रिय भी है और जो प्रिय है वह आवश्यक हो यह जरूरी नहीं है। हम समझते हैं की भगवान रक्षा नहीं करतें क्योंकि वह हमारी इच्छा पूर्ण नहीं करते हैं। इसीलिए हमारे बड़े क़हते हैं की “हमे जो भगवान की तरफ से मिला है उसमे हम हमेशा समाधान रखना चाहिए और भगवान को धन्यवाद करते रहना चाहिए। हमारी रक्षा कैसे करनी है यह उनसे अच्छी तरह और कोई नहीं जानता।

वास मलराळ् मणवाळन्: श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं, “वेरि माराअद पूमेल् इरुप्पाळ्”। भगवान श्री लक्ष्मीजी के पति हैं जो कमाल पर बिराजमान हैं और जिनकी सुंदरता एक क्षणमात्र के लिय भी क्षय नहीं होती। जब भगवान हमारी रक्षा करते हैं तो श्री लक्ष्मी अम्माजी भी उनके साथ बिराजमान होती हैं तभी वो हमारी रक्षा करते हैं नहीं तो नहीं कर सकतें। अत: श्री लक्ष्मी अम्माजी का रक्षा करनेका कार्य भी भगवान जितना ही महत्त्वपूर्ण है। श्री लक्ष्मी अम्माजी पुरुषकार बनकर भगवान की हमारी ओर की करुणा गुण को वृद्धिंगत करती हैं। और तो और वें उनमें सबसे पहली हैं जो हमारी भगवान से हुयी रक्षा देखकर प्रसन्न होते हैं।

तेसु पोलि विण्णाट्टिल्: यह श्री वैकुंठधाम श्री परमपदधाम के लिए कहा गया है। हर एक मोक्ष प्राप्त जीव यहाँ आते हैं। नित्य सूरी यहाँ का नित्य परमानंद लूटते रहते हैं। यहाँ काल/समय का प्रभाव नहीं होता। कोई वृद्ध अथवा व्याधिग्रस्त नहीं होता। हर कोई अपने इच्छा अनुसार कैंकर्य कर सकते हैं। यहाँ कैंकर्यमें कोई बाधा नहीं है। संक्षिप्त में, यह सर्वोच्च सर्वोत्कृष्ट स्थान है।

साल विरुम्बुमे*: भगवान को एक स्थान परमपद से भी ज्यादा प्रिय है। वें यहाँ रहना परमपद में रहने से भी अधिक चाहते हैं। यहाँ “विरुम्बुमे” में एकार के उपयोग से अधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया है।

वेऱोन्ऱै एण्णादार् नेन्ज्चत्तु इरुप्पु: “साल विरुम्बुमे” में वर्णित यह स्थान है भगवान के शरणागतोंका हृदय। ऐसे शरणागत प्रपन्न कहे जाते हैं, जो भगवान के अतिरिक्त और किसी चीज को नहीं चाहतें और नहीं मांगतें। श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं, “उण्णुम् सोऱु, परुगुम् नीर्, तिन्नुम् वेऋइलै एल्लाम् कण्णन्” अर्थात्, श्रे कृष्ण भगवान आल्वारोंका अन्न, जल, तुलसी (सर्व सुख) हैं। ऐसे शरणागतोंके हृदयमें भगवान को अति आनंद प्राप्त होता है। इतना आनंद भगवान को अपने परमपदधाममें रहनेमें भी नहीं आता है। भगवान आश्रितोंसे कुछ नहीं चाहते हैं। उन्हे ऐसे आश्रित मिल जाएँ जो भगवान से भगवान के सिवा और कुछ नहीं चाहते तो वें अति आनंदित हो जाते हैं और ऐसे आश्रितोंके हृदयमें रहने को उत्सुक रहते हैं।

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-9-asil-arulal/

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org