आर्ति प्रबंधं – ३

श्री:  श्रीमते शठकोपाय नम:  श्रीमते रामानुजाय नम:  श्रीमद्वरवरमुनये नम:

आर्ति प्रबंधं

<< पासुर २

emperumanar-1

उपक्षेप

पहले दो पासुरों में, मणवाळ मामुनि श्री रामानुज के महानता का विवरण किये। इस पासुर से मामुनि अपने आर्ति को प्रकट करना प्रारंभ करते हैं। विशेषरूप से इस पासुरम में वे श्री रामानुज को अपने एकमात्र , सर्व सम्बंधी मानते हैं। परंतु यह अवस्था परिपक्व होने केलिए, प्राकृतिक शरीर विरोधी है तथा हटना चाहिए। मणवाळ मामुनि प्रश्न करते हैं कि यह विरोधी हटा क्यों नहीं ?

पासुर ३

तन्दै नट्राय् तारम् तनयर् पेरुञ्जेल्वम्
एन्रनक्कु नीये एतिरासा इंद निलैक्कु
ऐराद इव्वुडलै इन्रे अरुत्तरुळप्
पाराददु एन्नो पगर्

शब्दार्थ

एतिरासा – हे यतिराजा !
एन् तनक्कु – मेरे लिए
नीये – केवल तुम ही हो मेरे
तन्दै – पिता
नट्राई – नल ताय – वात्सल्य (दोष को अनुग्रह मानने वाला गुण ) पूर्ण मेरी माँ
तारम् – मेरी धर्म पत्नी
तनयर् – मेरा संतान
पेरुञ्जेल्वम् -पेरुम सेल्वम – मेरा महत्समपत्ति
इंद – (परंतु ) यह
निलैक्कु – यह विशेष सोच (में निरंतर क़ायम नहीं रख पा रहा हूँ)
ऐराद इव्वुडलै – क्योंकि यह सोच इस प्राकृतिक शरीर के संग नहीं रह सकता
पगर – कृपया बताओ
एन्नो – किस कारण
पाराददु – कृपा न किया तथा
अरुळ – मुझे आशीर्वाद न किया
इन्रे – तुरंत
अरुत्तु – मेरे इस शरीर का नाश करके और

सरल अनुवाद

श्री रामानुज से मणवाळ मामुनि (वरवरमुनि), उनके प्राकृतिक शरीर को हटा देने वाली अनुग्रह का अपात्र का कारण पूँछते हैं। यह संभावित होने पर ही, उनकी जो अविरल (अहो रात्र ) सोच हैं , वह निरंतर अनुभव हो सकती हैं। मणवाळ मामुनि श्री रामानुज को अपने माता ,पिता, धर्म पत्नी, संतान, नित्य संपत्ति और सर्वत्र समझते हैं। पर इस प्राकृतिक संसार में जीवित रहते समय तक, यह सोच अनित्य है। इस भाव को नित्य बनाने केलिए ही मणवाळ मामुनि श्री रामानुज से प्रश्न करते हैं कि, उनके संघटन में न स्वीकार करने की कारण क्या हैं।

स्पष्टीकरण

मणवाळ मामुनि श्री रामानुज को यतियों के नेता (यतिराज ) संबोधित करते हैं। यहाँ “सेलेय कण्णियरुम पेरुञ्जेल्वमुम नन मक्कळुम मेलात्ताय तन्दैयुम अवरेयिनि आवारे (तिरुवाईमोळि ५. १. ८ ) ” और “त्वमेव माता च (शरणागति गद्यम )”, दो दृष्टांत दिए जाते हैं। मणवाळ मामुनि कहते हैं कि पेरिय पेरुमाळ (श्री रंगं) को श्री रामानुज अच्छाईयाँ देने वाले पिता, निष्कलंक प्रेम देने वाली माता, सुख देने वाली पत्नी, धार्मिक पुत्र तथा सर्वत्र देने वाला निधि माना गया है । नम्माळ्वार के प्रति श्री आळवन्दार का श्लोक  “माता पिता युवतय: (स्तोत्र रत्न ५)”, के अनुसार वे नम्माळ्वार को अपना सर्वत्र समझें। मणवाळ मामुनि  श्री रामानुज के प्रति ऐसी समतुल्य भावना को प्रकट करते हैं कि श्री रामानुज ही उनके (मणवाळ मामुनि के) सर्वस्व हैं । यही उनकी अवस्था हैं ।

किन्तु उनको यह एहसास होता हैं कि इस अवस्था की नित्यता के लिये यह शरीर विरोधी है । उनको श्री रामानुज से प्रश्न यह है कि, शरीर को विरोधी समझने वाले उसी क्षण में, इस प्राकृतिक शरीर को हटाकर वे (श्री रामानुज ) अनुग्रह क्यों नहीं करते हैं। उन्हें (मामुनि को) अनुग्रह/आशीर्वाद करने में उनको (श्री रामानुज को ) कोई संकट/संकोच हैं, यह संदेह (मामुनि को) हैं |

इस पासुर में , “नट्राई”, विशेषण को “नल्ल +ताय” समझना चाहिए। अर्थात, वात्सल्य (दोष को भी देन मानने वाला गुण ) गुण संपन्न। कविता नियम के अनुसार यह विशेषण “नल्ल”, इस पासुर में उपस्तिथ पिता, धर्म पत्नी, संतान तथा संपत्ति आदि का भी विवरण हैं।

अडियेन प्रीती रामानुज दासी

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/06/arththi-prabandham-3/

संगृहीत- http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

0 thoughts on “आर्ति प्रबंधं – ३”

Leave a Comment