श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:
ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १० ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) १२
पासुर ११ –
तन् पोन्नडि अन्ऱि माट्रोन्ऱिल् ताज़्ह्वु सेय्या
अन्बर् उगन्दिट्टदु अणु एनिनुम् – पोन् पिऱज़्हुम्
मेरुवाय्क् कोळ्ळुम् विरैयार् तुज़्हाय् अलन्ग्कल्
मारि माक् कोण्डल् निगर् माल्
शब्दार्थ –
तन् पोन्नडि अन्ऱि माट्रोन्ऱिल् ताज़्ह्वु सेय्या अन्बर् – श्रीमन्नारायण के ऐसे प्रपन्न भक्त जो भक्ति से परिपूर्ण है जिनको अपनी पर्वाह और अन्य लाभों की चिन्ता ना करते हुए केवल भगवान के चरण कमलों की चाह है। उगन्दिट्टदु अणु एनिनुम् – भगवान श्रीमन्नारायण को समर्पित वस्तु चाहे एक परमाणु के सामान छोटा हो | विरैयार् तुज़्हाय् अलन्ग्कल् मारि माक् कोण्डल् निगर् माल् – तिरुमाळ श्रीमन्नारायण जो तुलसी के हार से सुशोभित है, जिनका वर्ण बारिश के पानि से भरपूर काले बादल के वर्ण के समान है | पोन् पिऱज़्हुम् मेरुवाय्क् कोळ्ळुम् – (वह) उन समर्पित वस्तुवों को रत्नों से भर पूर मेरु पर्वत की तरह स्वीकार करते है
भूमिका –
नवें पासुर “आसिल् अरुळाळ” मे, स्वामि अरुळळपेरुमाळ एम्बेरुमानार ने समझाया की कैसे भगवान श्रीमन्नारायण उन लोगों के हृदय मे निवास करते है जिनको भगवान और पिराट्टि के अलावा अन्य चाह नही है।अब दसवें पासुर “नालुम्उलगै” मे, स्वामि ने समझाया की कैसे श्रीमन्नारायण उन लोगों के हृदय मे रहते जो भगवान ने चरणकमलों के अतिरित भौतिक विषयों मे आसक्त है।इस पासुर मे, स्वामि आगे बड़ते हुए समझाते है की कैसे भगवान के शुद्ध भक्तों के द्वारा निष्कलंक भक्ति भाव से समर्पित वस्तुओं (चाहे वह कितना भी छोटा हो) को कैसे भगवान श्रीमन्नारायण स्वीकार करते है। स्वामि कहते है की भक्त द्वावा समर्पित छोटी सी चीज़ को भगवान श्रीमन्नारायण कैसे अत्यन्त प्रेम-भावना से स्वीकार करते है। ठीक इसी तरह “पोय्यामोळि” इस बात को दोहराता है “तिनै तुणैनन्रिसेयिनुम्पनैतुणयागकोळवर्पयन्तेरिवार्”. कम्बनाऽताळ्वार “उयम्दर्वरुकुउदवियोप्पवे” से उस भगवान को संबोधित करते है जिन्होने अपने चरण कमलों से इस पूरे विष्व को परिमित किया था।
भावार्थ –
तन्पोन्नडिअन्रि – “तन्” उस हालात / स्थिति को दर्शाता है जहाँ भगवान श्रीमन्नारायण स्वाभाविक रूप से हर एक जिवात्मा मे बिना किसी कारण से उपस्थित है। “पोन्नडिअन्रि” श्री मन्नारायण के दिव्य भव्य सुंदर वांछनीय चरण कमलों से संदर्भित है।यहा “तन्पोन्नडि” मायने प्रत्येक जीव को उनके चरण कमलों का बराबर का हक है। “पोन्नडि” मायने ऐसे चरण कमल जो सुंदरता और आनन्द लेने-देने मे सर्वोच्च है।
माट्रोन्रिलताळवुसेय्यान्बर – पूर्वोक्त वाक्यांश मे बताया गया है की श्रीमन्नारायण के दिव्य चरण कमल अत्यन्त सुन्दर है और प्रत्येक जीव को उन चरण कमलों पर बराबर का आधिकार है। अतः यह वाक्यांश उन लोगों के बारें मे बताता है जिनके लिये श्रीमन्नारायण के दिव्य चरण कमल ही सब कुछ है और इनके अतिरित वे किसी अन्य विषयों मे आसक्ति नही है। “माट्रोन्रु” शब्द का अर्थ भौतिक जगत की संपत्ति है जिसके माध्यम से एक बद्ध जीव विषयासक्त होकर आनन्द लेता है जैसे कैवल्य जिसमे एक जीव खुद की आत्मा की खुशी का आनन्द लेता हो इत्यादि। “तळवु” शब्द मायने अपमान जनक अंदाज़ से और इसका अर्थ है – “निम्नश्रेणिसेसंबन्धितकुछभी” । यह शब्द श्री मन्नारायण के चरण कमलों के अतिरित प्रत्येक वस्तुओं को प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ मे तिरुवाय्मोलि के २. १०.२ पासुर “सदिरिळमडवार्ताळिचियैमदियादु” का उल्लेख योग्य है। तिरुवाय्मोलि के इस पासुर का “ताळ्चि” शब्द और हमारे पासुर का “ताळवु” शब्द का एक ही अर्थ है। यही विचार “ताळ्चिमाट्रुएन्गुम्तविर्तु” वाक्यांश से प्रतिपादित है – “अळ्वार कहते है श्रीमन्नारायण के चरण कमलों के अतिरित किसी भी अन्यवस्तुओं मे आसक्ति’ यह अधम प्रवृत्ति दर्शाता है” । अतः हम साबित कर सकते है की ऐसा भागवतों का समुदाय है जो कदाचित भी श्रीमन्नारायण के चरण कमलों के अतिरित किसी भी अन्य विषयों मे तल्लीन नही होते है।
उगन्दिट्टदु– “उगपु” शब्द मायने खुशी / खुशहालि और “इट्तदु” शब्द मायने “दूसरोंकेदेना” । अतः यह पूर्ण शब्द का अर्थ है – “वह चीज़ जो बहुत खुशी से दिया गया हो” ।इस संदर्भ मे पूर्वाचार्य कहते है – दो प्रकार के सेवक होते है।पहला जो शास्त्रों के आधार पर सेवा कर रहा है। वह (सेवक) केवल सेवा करने हेतु ही सेवा कर रह है क्योंकि उसे सेवा करने को कहा गया है। इसके विपरीत मे दूसरा (सेवक) है जो अपने प्रेम भक्ति-भावना से सेवा कर रहा है।उदाहरण मे पूर्वाचार्य कहते है – एक पत्नि अपने पति के लिये जो भी करती है वह शास्त्रों के नियमानुसार ही होता है और जिसके माध्यम से वह अपने पति से कैसे बर्ताव करे यह जानती है। तिरुवळ्ळुवर इस संदर्भ मे कहते है – “तर्कातुतर्कोन्डान्पेनि” यानि जब एक पति अपनी पत्नि के खातिर सारे काम-काज़ करता है वह पत्नि के प्रति अत्यधिक प्रेम भावना को दर्शाता है। एक भक्त को इस प्रकार का सेवक होना चाहिये बजाय शास्तों द्वारा विवश होकर सेवा नही करना चाहिये। सेवा सदैव भगवान श्रीमन्नारायण के प्रति शुद्ध प्रेम और भक्ति से करनी चाहिये। इसी कारण श्रीनम्माळ्वार अपने तिरुवाय्मोळि “उगन्दुपनिसेय्दु” पासुर मे यह बताते है।
उट्रेन् उगन्दु पणि सेय्दु उन पादम्
पेट्ट्रेन्, ईधे इन्नम्वेण्डुवदेन्दाई
कट्टार्मरै वानर्गल्वाळ तिरुपेरार्कु
अट्ट्रार्अडियार्तमकु अल्लल्निल्लावे (१०.८.१०)
अतः ऐसे भक्त जो अपने अपरिमित निष्कलंक प्रेम भक्ति भाव को श्रीमन्नारायण के लिये प्रकट करते है , वह चाहे कितना भी कम हो, भगवान श्री मन्नारायण सिर्फ़ इसी का आनन्द लेते है और कुछ नही।
पोन्पिरळुम्मेरुवाय्कोळ्ळुम् – श्री मन्नारायण सदैव परिपूर्ण प्रेम से समर्पित वस्तुओं का सम्मान मेरू जितना विशाल पर्वत से करते है जो विशेष अनमोल रत्नों औ रमणियों से भर पूर है और जो इनके कारण चमक्ता है। अगर वह (भगवान) ऐसे होते की सम्पदा से सम्पन्न होने लिये उन्हे इन सबकी ज़रूरत है, तो वह भक्तों द्वारा समर्पित भेंट से पूर्णता को प्राप्त करते । अतः वह धनवान होने के लिये इन तुछ अल्प चीज़ों के लिये तरसते। इस कारण “अल्पतनम्” शब्द से संबोधित किया जाना चाहिये अर्थात जो ऐसे तुछ लघुना समझ वस्तुओं के प्रति तरस्ते है। परन्तु वास्तव मे, वह ऐसे नही है। वह परिपूर्ण है, वह आत्माराम है, निष्कलंक है, जो दोष रहित है। अतः स्वाभाविकरूप से उन्हे यह आवश्यक्ता नही की वे ऐसे किसी पर निर्भर हो और ऐसे चीज़ों के लिये तरसे की वह अपने दोषों का नाश करे या धनवान हो। अतः उनके भक्त चाहे कितने कम मात्रा मे भेंट दे भगवान पूर्ण संतुष्टि से स्वीकार करते है और इसका सम्मान मेरु पर्वत के बराबर करते है। इस प्रकार के भगवान श्री मन्नारायण का वर्णन अगले परिच्छेद मे है।
विरैयारतुळायलन्ग्कल्मारिमाक्कोण्डाल्निगरमाल् – श्रीमन्नारायण हि ऐसे पूर्ण पुरुषोत्तम है जो तुलसि माल से विराजमान होकर खडे है। जिनके शरीर का वर्ण काले बारिशवाले बादलो के वर्ण के समान है। “विरै” मायने सुगंधित , “अलन्ग्कल्” मायने माला, “मारि” मायने बारिश, “मा” मायने बडे, “कोण्डल्” मायने बादल।
तत्वसार – चूंकि वह जो परिपूर्ण है से वर्णित है, जिसके प्रति शुद्ध भागवत अपने हृदय और बुद्धि मे उनके दिव्य चरण कमलों के सिवा य अन्य को नही रखते, ऐसे भगवान उन भक्तों को विभिन्न आभूषणों से सुसज्जित अपना दिव्य सुंदर रूप की सौंदर्यता को अधिकाधिक रूप से दर्शाते है। अतः इस प्रकार वह अपने भक्तों को अपने प्रति आकर्शित कर चिपकाये हुए रखते है जिसके कारण उन भक्तों की भक्ति अत्यधिक रूप से बढती जाती है। अन्ततः इस पासुर का सही अन्वय क्रम इस प्रकार से है – “विरैयार्तुळाय्अलन्ग्कल्मारिमाक्कोण्डल्निगर्माल्तन्पोन्नडि अन्रिमाट्ट्रोन्रिल्ताळ्वुसेय्याअन्बर्उगन्दिततडु अणुएनिनुम्पोन्पिरळुम्मेरुवाय्क्कोळ्ळुम् ” जो सही सार दर्शाता है।
अडियेन् केशव रामानुज दासन्
Source: https://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-11-than-ponnadi/
archived in http://divyaprabandham.koyil.
pramEyam (goal) – https://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org