स्तोत्र रत्नम – श्लोक 51 से 60 – सरल व्याख्या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

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श्लोक 51 – आळवन्दार् कहते हैं “दयालु और दया पात्र के बीच का यह संबंध, आपकी ही दया से स्थापित किया गया था प्रभो, ऐसे होने के नाते, आपको ही, परित्याग किये बिना, मेरी रक्षा करना चाहिए” |

तदहं त्वदृते न नाथवान्
मदृते त्वं दयनीयवान् न च |
विधिनिर्मितमेतदन्वयं
भगवन् ! पालय मा स्म जीहप: ||

हे भगवान जो ज्ञान पूर्ण हो! इस प्रकार, न मुझे आपके सिवा और कोई भगवान है, और न मेरे सिवा आपके दया का लक्ष्य बनने का और कोई पात्र है| आपकी ही दया से स्थापित किया गया इस संबंध की रक्षा आपको करनी चाहिए और उसका परित्याग नहीं करना चाहिए |

श्लोक 52 – एम्पेरुमान् आळवन्दार् से कहते हैं, “मेरा संरक्षण उन आत्माओं के गुणों के अनुसार होगा; अपने स्वभाव को सुनिश्चित करके तुम मेरे प्रति आत्म समर्पण करो|” जैसे नम्माऴ्वार् “सिऱप्पिल वीडु” में कहते हैं, उसी प्रकार आळवन्दार् भी कहते हैं, “मुझे ऐसा कोई निर्बंधन नहीं है, यह वस्तु (मैं) जिसे आत्मा कहते हैं, आपके दिव्य चरण कमलों में समर्पित हो चुका है |”

वपुरादिषु योऽपि कोऽपि वा
गुणतोऽसानि यथा तथाविध: |
तदयं तव पादपद्मयो:
अह्मद्यैव मया समर्पित: ||

मैं शरीरों (इत्यादि) में जो भी हूँ, और विशेषता से जो भी प्रकृति से हूँ [स्वरूप – प्रकृति; गुण – लक्षण]; [मुझे ऐसा कोई निर्बंधन नहीं है] इसलिए, यह वस्तु जिसे आत्मा कहते हैं, इसी समय आपके दिव्य चरण कमलों में समर्पित हो चुका है|

श्लोक 53 – एम्पेरुमान् दयापूर्वक सोचते हैं, “मैं आळवन्दार् को कैसे व्यग्र रहने दे सकता हूँ?” और पूछते हैं, “तुम कौन हो और किससे अपने आप को समर्पित किया था ?” आळवन्दार् अपने स्वरूप के बारे में दृढ़ निश्चय के साथ, जैसे तिरुवाय्मोऴि २.३.४ में कहा गया है, “यनदावि आवियुम् नी….यनदावि यार्? यानार्?” कहते हैं, “तुमने अपनी ही संपत्ति को स्वीकार किया है; आत्म समर्पण [स्वयं की निवेदन करना] भी आत्म अपहरण [आत्मा को चुराने] के समान है” और अपने आप को आत्मसमर्पण करने पर पश्चताप करते हैं|

मम नाथ ! यदस्ति योऽस्म्यहं
सकलं तद्धि तवैव माधव |
नियतस्वमिति प्रबुद्धधी:
अथवा किं नु समर्पयामि ते ||

हे एम्पेरुमान्, जो सर्वोच्च स्वामी हो (सबके स्वामी) और लक्ष्मीनाथ हो (श्री महालक्ष्मी के दिव्य पति)! जो कुछ भी मेरे स्वामित्व में है और मैं जो अस्तित्व में हूँ, सब कुछ तुम्हारा है| यह जानकार मैं तुम्हें क्या समर्पण कर सकता हूँ?

श्लोक 54 – आळवन्दार् एम्पेरुमान् से कहते हैं, “मैं इस आत्म समर्पण को नहीं रोक रहा हूँ जो कि आत्म अपहरण के समान है, क्योंकि तुम ही ने अपने अहैतुक कृपा से शेषत्व (तुम्हारे प्रति मेरे दासत्व) स्वभाव को प्रकाशित किया है , कृपया मुझे परमभक्ति के तीन स्तरों को भी प्रदान करो ताकि यह ज्ञान मेरे उद्देश्य (तुम्हारी सेवा) में प्रयोग हो सके|”

अवबोधितवानिमां यथा
मयि नित्यां भवदीयतां स्वयम् |
कृपयैतदनन्यभोग्यतां
भगवन् ! भक्तिमपि प्रयच्छ मे ||

हे भगवान! जैसे आपने इस दासत्व स्वभाव को अपने अहैतुक कृपा से मेरे अंदर निर्देशित किया, उसी प्रकार कृपया आपके प्रति भक्ति की मिठास को भी प्रदान करो जो किसी और में नहीं है |

श्लोक 55 – भगवान की कृपा से अत्यधिक भक्ति पाने के बाद , भगवान के प्रति शेषत्व तक रोकने के बदले, आळवन्दार् , भगवान से तदीय शेषत्व (भागवतों के प्रति शेषत्व ) का भी प्रार्तना करते हैं |

तव दास्यसुखैकसङगिनां
भावनेष्वस्त्वपि कीटजन्म मे |
इतरावसथेषु मा स्म भूत्
अपि मे जन्म चतुर्मुखात्मना ||

जो कैंकर्य के आनंद में व्यस्त हैं , उनके दिव्य महलों (घरों) में , मैं एक कीड़े का जन्म लेना चाहता हूँ | दूसरों के घरों में ब्रह्मा का जन्म भी मुझे नहीं चाहिए |

श्लोक 56 – आळवन्दार् कहते हैं, “क्या मुझे एक वैष्णव के घर में जन्म लेने का गौरव भी आवश्यक है? आप मुझे ऐसे योग्य बनाइये कि जब वे मुझे देखें तो मेरी उपेक्षा करने के बदले, वे मेरी तरफ विशेष रूप से कृपा करें, यह समझकर कि ‘वह मेरा है’|”

सकृत् त्वदाकारविलोकनाशया
तृणीकृतानुत्तमभुक्तिभिः |
महात्मभिर्मामवलोक्यतां नय
क्षणेऽपि ते यद्विरहोऽतिदु:सह: ||

मुझे ऐसे योग्य बनाइये कि वे महान श्रीवैष्णव मुझे दया से देखें, जिनका विरह आपको असहनीय है, जो सभी आनंद और स्वतंत्रता होते हुए भी, अपके दिव्य रूप को एक बार देखे तो उन सभी को घास के पत्ती के समान मानते हैं|

श्लोक 57 – पिछले पाशुर में स्वामी आळवन्दार् शेषत्व (दासत्व) की परम अवस्था पर ध्यान कर रहे थे, जो की तदीय शेषत्व (भागवतों के प्रति दासत्व) है| इस श्लोक में वे उन चीजों के प्रति अपनी घृणा को प्रकट करते हैं जो शेषत्व से बाहर हैं और एम्पेरुमान् से प्रार्थना करते हैं, “कृपया उनको हटाओ|”

न देहं न प्राणान् न च सुखमशेषाभिलषितं
न चात्मानं नान्यत् किमपि तव शेषत्वविभवात् |
बहिर्भूतं नाथं क्षणमपि सहे यातु शतधा
विनाशं तत् सत्यं मधुमथन ! विज्ञापनमिदम् ||

हे मेरे भगवान्! वे सारी चीजें जो आपके कैंङ्कर्य संपत्ति में समर्पित न हो, मैं एक क्षण के लिए भी उनको सहन नहीं करूँगा- मेरा देह, प्राणवायु, वे सारे सुख जिनकी सामान्यतः सारे लोगों को अभिलाषा है और मेरी आत्मा जो शेषत्व से रहित है; (ये सारी वस्तुएँ जो शेषत्व रहित हैं) मिट जाएँ| हे मेरे भगवान् जिसने मधु (राक्षस) का वध किया! यही सत्य है; यही मेरा निवेदन है|

श्लोक 58 – एम्पेरुमान् जानने के लिए उत्सुक हो जाते हैं, “इस संसार में जहाँ कई अशुभ पहलू हैं जैसे भगवद अपचार (भगवान के प्रति अपराध) इत्यादि जो मुझे क्रोधित करते हैं, कैंङ्कर्य के लिए बाधाओं से मुक्त होना, उनके प्रति विरुचि प्राप्त करना, तुम उन अशुभ पहलू के विनाश की प्रार्थना कर रहे हो, जो कि योगियों के लिए भी प्राप्त होना कठिन है!” आळवन्दार् कहते हैं, “मैं, आपके असीमित दिव्य गुण जो असीमित अमंगल पहलू का नाश कर सकते हैं, उन पर ध्यान देकर उसके बारे में सोचता हूँ |”

दुरन्तस्यानादेरपरिहरणीयस्य महतो
निहीनाचारोऽहं नृपशुरशुभ स्यास्पदमपि |
दयासिन्धो ! बन्धो ! निरवधिकवात्सलयजलधे
तव स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभी: ||

हे मेरे भगवान, जो दया के सागर हो! जो मेरे सभी प्रकार के संबंध हो! जो अनंत मातृ वात्सल्य के सागर हो! मैं, महा पापों जिनका न कोई आरम्भ है न अंत और जिनको हटाना असंभव है, उनका निवास स्थान होते हुए भी मैं, तुम्हारे दिव्य गुणों को बार बार याद करने के कारण, बिना कोई भय के, इस प्रकार अभिलाषा रखता हूँ|

श्लोक 59 – एम्पेरुमान् पूछते हैं, “क्या तुम सच में मेरी अभिलाषा करते हो, जैसे तुमने पहले श्लोक में कहा [इच्छामि]?” आळवन्दार् उत्तर देते हैं, “मैं जो मंदबुद्धि हूँ , आपके दिव्य उपस्थिति में यह अभिव्यक्त नहीं कर सकूँगा कि मेरी अभिलाषा, आपकी गरिमा के बराबर है| आप ही मेरे मन को सुधारें, मेरी अभिलाषाओं को स्पष्ट करनेवाले शब्दों को स्वीकार करें, और ऐसा करें कि वास्तव में मुझमें ऐसी अभिलाषाएँ उत्पन्न हो|”

अनिच्छन्नप्येवं यदि पुनरितीच्छन्निव रजस् –
तमश्छन्नस्छद्मस्तुतिवचन भङगीमरचयम् |
तथाऽपीत्थंरूपं वचनवलम्ब्यापि कृपया
त्वमेवैवंभूतं धरणीधर मे शिक्षय मन: ||

हे भगवान! जिसने धरती को उठाया! यह सेवक (मैं) रजो गुण (वासना) और तमो गुण (अज्ञानता) से ढँककर जिसे कोई अभिलाषा न होते हुए भी, अगर मैं कपटपूर्ण ढंग से भी ऐसे शब्दों का प्रयोग करके, जिनमें वास्तव में अभिलाषा है उन लोगों की तरह आपकी प्रशंसा करूँ, फिर भी इसे ही एक कारण मानकर, आपकी कृपा से, आप ही मेरे हृदय को सुधारिए|

श्लोक 60 – जब एम्पेरुमान् पूछते हैं, “तुम्हें अभिलाषा भी नहीं है, और तुम यह चाहते हो कि मैं तुम्हें अभिलाषा
दिलवाकर दयापूर्वक रक्षा करूँ- मैं ऐसा क्यों करूँ?” स्वामी आळवन्दार् अपरिहार्य संबंध को समझाते हैं [उनके और एम्पेरुमान् के बीच]।

पिता त्वं माता त्वं दयिततनयस्त्वं प्रियसुहृत्
त्वमेव त्वं मित्रं गुरुरसि गतिश्चासि जगताम् |
त्वदीयस्त्वद्भृत्यस्तव परिजनस्त्वद्गतिरहं
प्रपन्नश्चैव सत्यहमपि तवैवास्मि हि भर: ||

सारे संसार के लिए आप पिता हैं, आप माता हैं, आप प्रिय पुत्र हैं; दयालु मित्र हैं, विश्वसनीय मित्र हैं (जिनके साथ गुप्त विचार भी साझा जा सकता है), आप ही आचार्य हैं; आप उपाय (साधन) हैं और उद्देश्य (उपेय) भी आप हैं; मैं आपका हूँ; आपका सेवक; आपका दास; जिसे केवल आप ही एकमात्र उपाय और उपेय हैं; ऐसे होते हुए क्या मैं केवल आपकी संरक्षण का पात्र नहीं हूँ?

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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