सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग १

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शृंखला

<<सप्त गाथा (सप्त कादै) – अवतारिका (परिचय) – भाग २

अवतारिका(परिचय)

जैसे कि हरीत स्मृति ८-१४१ में कहा गया है “प्राप्यस्य ब्रह्मनो रूपम् प्राप्तुश्च प्रत्यगात्मन:। प्राप्त्युपायम् पलम् प्राप्तेस्तथा प्राप्ति विरोधी च। वदन्ति सकला वेदा:सेतिहास पुराणका:। मुनयश्च महात्मानो वेद वेदार्थ वेदिन:।।” (इतिहास और पुराण सहित सारे वेद, वे महान ऋषि जो वेदों के पाठ और अर्थ को जानते हैं, अर्थ पञ्चकम् के विषय में प्रवचन करते हैं – ब्रह्म की प्रकृति जिस तक पहुँचना है, जीवात्मा की प्रकृति जो ब्रह्म को प्राप्त करती है, ब्रह्म की प्राप्ति का साधन, ब्रह्म की प्राप्ति के बाद लाभ और बाधाएँ जो प्राप्ति को रोकती हैं) विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै का विचार है कि जो प्रत्यक्ष और दयापूर्वक

अर्थ पञ्चकम् की व्याख्या करते हैं जिसे वेद वाक्यों (वेदों के कथन) में समझने के लिए उभारा जाता है और जो सत्य पर केंद्रित है, तिरुमंत्रम् के तीन शब्द जो वेदों के सार हैं और जो आऴ्वारों के पासुरों में अच्छे अर्थ के साथ व्यवस्थित हैं, वे सदाचार्य (सच्चे आचार्य) हैं, और दयापूर्वक वैसी व्याख्या करते हैं (पासुरों में)। 

पासुर

अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम् आविक्कुम् अन्दरङ्ग
सम्बन्दम् काट्टित् तडै काट्टि- उम्बर्
तिवम् एन्नुम् वाऴ्वुक्कुच् चेर्न्दनेऱि काट्टुम्
अवन् अन्ऱो आचारियन्

शब्द-अर्थ

अम्-सुन्दर।
पोन्-पवित्र।
अरङ्गर्क्कुम् -पेरिय पेरुमाळ् के लिए, जिन के लिए श्रीरंगम् ही मन्दिर है।
आविक्कुम् -आत्मा के लिए तीन स्तर हैं अर्थात् बद्ध (बाध्य), मुक्त (विमुक्त) और नित्य (स्थायी)।
अन्दरङ्ग सम्बन्धम्- अनन्यार्ह शेषत्वम् का घनिष्ठ सम्बन्ध (भगवान का अनन्य दास होने के नाते)।
काट्टि- प्रकट करना।
तडै काट्टि- लक्ष्य, साधन, भगवान के प्रभुत्व और भगवान के प्रति स्वयं की अनन्य दासता के सम्बंध के विचारों में आने वाली बाधाओं को प्रकट करना।
उम्बर् तिवम् एन्नुम् –  जहाँ नित्यसूरियों का अधिकार है उस धाम में नित्य कैङ्कर्य करना ।
वाऴ्वुक्कु- उत्तम जीवन के लिए।
सेर्न्द-अनुकूल।
नेऱि- प्रपत्ति जो साधन है।
काट्टुम् अवन् अन्ऱो- जो तिरुमंत्रम् की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
आचार्यन्- वास्तविक आचार्य ।

सरल व्याख्या

क्या अर्थपञ्चकम् को प्रत्यक्ष करने वाले अर्थात् (१)पेरिय पेरुमाळ् जिनके मन्दिर के रूप में सुन्दर, पवित्र श्रीरङ्गम् है। (२)आत्मा जो तीन वर्गों में हैं अर्थात् बद्ध (बद्ध), मुक्त (मुक्त) और नित्य (सदा मुक्त) और ऐसे पेरिय पेरुमाळ् के प्रति अनन्यार्ह शेषत्व का निकटतम सम्बन्ध (३) लक्ष्य, साधन, भगवान की सर्वोत्तमता और ऐसे भगवान के प्रति स्वयं की अनन्य दासता सम्बन्धित विचारों की बाधाएँ (४) प्रपत्ति जो लक्ष्य के अनुकूल साधन है, और (५) लक्ष्य अर्थात्  उत्तम जीवन का निर्वाह नित्य कैङ्कर्य करने का जो नित्यसूरियों के पास तिरुमंत्रम् के माध्यम से है, क्या वे एक सदाचार्य नहीं हैं?

व्याख्यानम् (टिप्पणी)

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम्……-पिळ्ळै लोकाचार्य ने करुणापूर्ण समझाया कि जो कोई कृपापूर्वक अर्थ पञ्चकम् का निर्देश देता है वह आचार्य हैं जैसे कि मुमुक्षुप्पडि ५वें सूत्र में है “सम्सारिगळ् तङ्गळैयुम् ईश्वरनैयुम् मऱन्दु…….”. विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै उनके कथनानुसार कहते हैं “काट्टुम अवन् अन्ऱो आचारियन्”; इससे यह ज्ञात होता है कि वे पिळ्ळै लोकाचार्य के दिव्य चरणों का पूर्णतया अनुसरण करते हैं। एक ही शब्द का समान रूप से उच्चारण करते रहना हमारे प्रवर्तकों का एक विशेष गुण है।

जिस प्रकार वादिकेसरि कारिका में कहा गया है “उक्तार्थ विशदीकार युक्तार्थान्तर बोधनम्।मतम् विवरणम् तत्र महितानाम् मनीषिणाम्।।” [माननीय प्रवर्तकों का सिद्धांत है कि व्याख्यान (टिप्पणी) बताई गई अवधारणा को स्पष्ट करने और उपयुक्त विचारों को वर्णित करने के लिए है], तिरुमंत्र का पहला शब्द, प्रणवम् (आउम), तीन शब्दांशों में विभाजित है; ये उस प्रणवम् में दिखाए गए अर्थों को समझने में सहायक है; दयापूर्वक मन्त्र शेषम् (तिरुमंत्र का अवशेष) को, जिसमें दो शब्द हैं, ऐसे विशिष्ट अर्थों का प्रत्यक्षीकरण कर्ता मानना; इसलिए प्रणवम् को तिरुमंत्रम् के अन्तिम दो शब्दों में विस्तृत किया गया है। 

तैत्तिरीय उपनिषद् में कथित है “तस्य प्रकृति लीनस्य य: परस्स महेश्वर:” (महान भगवान तिरुमंत्र के अर्थ हैं)”, अकारो विष्णु वाचिन:” (अक्षर “अ” विष्णु को इङ्गित करता है), तिरुच्चन्दविरुत्तम् ४ “तुळक्कमिल् विळक्कमाय्” (अकारम् द्वारा इङ्गित किए ग‌ए, जो अविनाशी हैं) और संस्कृत व्युत्पत्ति विज्ञान में “अवरक्षणे” (रक्षण)। इस पर विचार करते हुए, विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै अपने दिव्य हृदय में रखते हैं (१)अकार विभक्ति-सहित (क्रिया के साथ) स्पष्ट रूप से सर्वेश्वरन् की व्याख्या कर रहा है जो श्रिय:पति (श्रीमहालक्ष्मी के स्वामी) हैं और उनके रक्षकत्व (संरक्षक होने के जैसे) और शेषित्व (प्रभुत्व) और वहां अव्यक्त मङ्गळ गुण हैं जो उनकी सुरक्षा में सहायक हैं, और (२) नारायण पदम् जो तिरुमंत्र को विस्तृत करता है, और वे करुणापूर्ण कह रहे हैं “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्……”।   

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् -पेरिय पेरुमाळ् जो सबके रक्षक हैं, सबके स्वामी हैं और मङ्गळ् गुणों से सुसज्जित हैं जैसे कि शरणागतों की शरणस्थली होने के कारण श्रीरंगम् के इस सुंदर, पवित्र महान नगर के स्वामी हैं। ऐसे श्रीरंगम् पेरिय पेरुमाळ् के लिए भोग्यम् (मधुर) और पावनम् (पवित्र) दोनों है क्योंकि इसे तेन्नगरम् (सुन्दर अरङ्गम्) और पोन्नगरम् (पवित्र/अभीष्ट अरङ्गम्) कहा जाता है, उसी प्रकार जैसे श्रीमथुरा को “शुभा” (शुभ) और “पापहर” (जो पापों को समाप्त करता है) कहा जाता है। मिठास का कारण है प्रचुर मात्रा में पानी, छाया और उपजाऊ भूमि का विद्यमान होना जैसे पेरियाऴ्वार तिरुमोऴि ४.८.७ में उद्धृत है “तेऴिप्पुडैय काविरि वन्दडि तोऴुम् सीररङगम्” (सुन्दर श्रीरङ्गम् जहाँ मङ्गळकारी कावेरी नदी आती है और उनके दिव्य चरणों को स्नेह स्पर्श करती है)। पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.८.४ “तेन् तोडूत्त मलर्च् चोलैत् तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जहाँ फूलों के उपवन मधुमक्खियों से भरे हुए हैं) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.१०  “इनिदागत् तिरुक्कण्गळ् वळर्गिन्ऱ तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जहाँ पेरिय पेरुमाळ् करुणापूर्ण आनन्द सहित विश्राम कर रहे हैं)। प्रकृति को शुद्ध करने का कारण अन्धकार को दूर करने की क्षमता और आत्म प्रकाश के कारण है जैसे कि पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.६ में कहा है कि “तिसै विळक्काय् निऱकिन्ऱ तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जो प्रकाश के पुञ्ज के रुप में है) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.७ “सेऴुमणिगळ् विट्टेरिक्कुम” (जहाँ उत्तम रत्न दीप्तिमान हैं)। जैसे पेरिय पेरुमाळ् में उभय लिङ्गत्वम (दो समरूप अर्थात् सभी मङ्गळगुणों का नाम और अमङ्गळ के विपरीत होना), यह श्रीरंगम् का भी यही भाव है; एम्पेरुमान् का स्वभाव है कि अपने सगुणों को उनको प्रदान करना जो उनसे सम्बन्धित हैं।

एम्पेरुमान् की विशेषता एक विशेष दृष्टिकोण से होनी चाहिए जैसे “अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम्” (वह जो श्रीरङ्गम् के जैसे सुन्दर और स्वर्ण में विद्यमान है); जिस प्रकार भागवतों की पहचान भगवान द्वारा होती है जैसे तिरुवाय्मोऴि ५.६.११ में उद्धृत है “तिरुमाल् अडियार्गळ्” (श्रीमन्नारायण के भक्त), एम्पेरुमान् का परिचय उनके दिव्य देशों द्वारा भी होता है। श्री रामायण के सुन्दर काण्ड में २८.१० यह कहा गया है “रामानुजम् लक्ष्मण पूर्वजन्च” (लक्ष्मण, श्रीराम के अनुज और उनके बड़े भाई, श्रीराम)

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् -यहाँ सुंदरता और पवित्र प्रकृति का श्रेय स्वयं पेरिय पेरुमाळ् को दिया है जैसे कि नाच्चियार् तिरुमोळि ११.२ में उद्धृत है “एन् अरङ्गत्तु इन्नमुदर् कुऴल्ऴ्गर् वायऴगार्” (मधुर रस, श्रीरङ्गम् में श्रीरङ्गनाथ जिनके सुन्दर केश और सुन्दर ओष्ठ हैं) और तिरुनेडुन्दाण्डगम् १४ “अरङ्गमेय अनन्दणनै” (शुद्ध जीव जो श्रीरङ्गम् में दृढ़ता पूर्वक निवासी हैं)। इसके साथ, उनके उभय लिङ्गत्वम – सभी मंगल गुणों से युक्त और सभी अमंगल दोषों के विपरीत होने पर बल दिया गया है। क्योंकि यह उभय लिङ्गत्वम सर्वोच्च है, विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै इसे पेरिय पेरुमाळ् की विशेषता प्रस्तुत कर रहे हैं। दो विशेषताओं के साथ “अम् पोन्”  विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै भी करुणापूर्वक श्रीमहालक्ष्मी के पुरुषकार भावम् (संस्तुति करने की भूमिका) को इङ्गित करते हैं, जो कि श्रीवचनभूषणम् ७ “पुरुषकारमाम्बोदु कृपैयुम पारतन्त्रैयुम् अनन्यार्हत्वमुम् वेणुम्” [पुरुषकार करते समय, कृपै(दया), पारतन्त्रयम् (पूर्ण शरणागत) और अनन्यार्हत्वम् (किसी और के लिए विद्यमान नहीं) की आवश्यकता है],आदि क्योंकि पिराट्टि को भगवान के स्वरूप में निहित देखा जाता है, जो “अरङ्गर्क्कु” में इङ्गित है, जैसे कि लक्ष्मी तन्त्र “अहन्ता ब्रह्मणस्तस्य” (मैं ब्रह्म की चेतना में हूँ) और मुमुक्षुप्पडि १३१ “इवळोडे कूडिये वस्तुविनुडैय उण्मै” [केवल उसके (पिराट्टि) साथ मिलकर उसका (भगवान का) अस्तित्व है]।

वैकल्पिक व्याख्या

“अम् पोन्” सुंदरता से प्राप्त आकर्षण को इङ्गित करता है। ऐसा आकर्षण दोनों में विद्यमान है – कोयिल् (श्रीरङ्गम्) जैसे कि “कामदम् कामकम् काम्यम् विमानम् रङ्गसम्ज्ञिकम्” कहा गया है (यह श्रीरंगम् विमान हमारी कामनाएँ पूर्ण करेगा, कामना उत्पन्न करेगा और कामना के योग्य होगा) और पेरिय पेरुमाळ् में, जैसा कि श्रीरङ्गराजस्तवम् ६७ में कथित है “सक्यम् समस्त जन चेतसि सन्धतानम्” (सभी लोगों को आकर्षित करने का कारण उनके अङ्ग हैं जो वर्चस्व और सादगी को दर्शाते हैं)। कोयिल् को अरङ्गम् (श्रीरङ्गम्) कहते हैं क्योंकि यह धाम पेरिय पेरुमाळ् का आनन्दवर्धक है जैसा कि कहा गया है “रतिङ्गतोयतस् तस्मात्ङ्गमित्युच्यते बुधै:” (ज्ञानी पुरुषों द्वारा यह धाम श्रीरङ्गम् नाम से पहचाना जाता है, क्योंकि यहाँ स्नेह विद्यमान है)।

आगे के भाग में देखते हैं…

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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