रामानुस नूट्रन्ददि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या – पाशुर 101 से 108

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रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या

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पाशुर १०१: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं श्रीरामानुज स्वामीजी की मिठास उनके पवित्रता से भी उच्च हैं। 

मयक्कुम् इरु विनै वल्लियिल् पूण्डु मदि मयन्गित्
तुयक्कुम् पिऱवियिल् तोन्ऱिय एन्नै तुयर् अगऱ्ऱि
उयक्कोण्डु नल्गुम् इरामानुस एन्ऱदु उन्नै उन्नि
नयक्कुम् अवर्क्कु इदु इळुक्कु एन्बर् नल्लवर् एन्ऱु नैन्दे

अब मैं आपकी यह स्तुति कर रहा हूं कि “अज्ञानप्रद पुण्यपाप नामक दो प्रकारके कर्म रूपी बेडीमें फंसाकर, (उससे) विवेक को नाशकर भ्रम पैदा करनेवाले संसार में जन्म लेनेवाले मेरे दुःख दूरकर, कृपया मेरा उद्धार करनेवाले हे श्रीरामानुज स्वामिन्।” परंतु सत्पुरुष कहते हैं कि यों स्तुति करना, प्रेमपूर्वक आपका ही नित्यध्यान करनेवाले द्रुतहृदयों के लिए अनुचित है। श्रीरामानुज स्वामीजी के पावनत्व व भोग्यत्व नामक दो धर्म होते हैं। पावनत्व माने भक्तों के पाप मिटाकर उनको पवित्र बनाना, और भोग्यत्व माने नित्य अनुभव करने योग्य मधुर रहना। रसिक लोगों का यह मंतव्य है कि इन दोनों में पावनात्व की अपेक्षा भोग्यत्व का अनुसंधान करना ही श्रेष्ठ है। क्योंकि पावनत्व का अनुसंधान करने वाला कुछ स्वार्थका ख्याल करता है, अर्थात् अपने पाप मिटाने की इच्छा करता है; भोग्यत्व के अनुसंधान में यह स्वार्थभावना नहीं रहती। अतः हाल में अमुदनार कह रहे हैं कि मैंने श्रीस्वामीजी के पावनत्व का ही जो बहुत अनुसंधान किया यह कुछ अनुचित- सा लगेगा। इसका यह तात्पर्य नहीं कि पावनत्व का अनुसंधान सर्वथा अनुचित है। क्योंकि श्रीस्वामीजी के सभी गुणों का चिन्तन करना आवश्यक है ही। और गुरुजी ने जो हमारे पापों को समूल मिटा दिया, उसका अनुसंधान नहीं करने पर हम कृतघ्न भी बनेंगे। अतः एक दृष्टि से यह काम करना पड़ता है और दूसरी दृष्टि से इस पर जोर डालना कुछ अनुचित सा प्रतीत होता है।

पाशुर १०२: श्रीरंगामृत स्वामीजी स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी से उनके उदार गुण का कारण पूछते हैं ताकि वें इस संसार में उनके ओर बढ़ सके।

नैयुम् मनम् उन् गुणन्गळै उन्नि एन् ना इरुन्दु एम्
ऐयन् इरामानुसन् एन्ऱु अळैक्कुम् अरु विनैयेन्
कैयुम् तोळुम् कण् करुदिडुम् काणक् कडल् पुडै सूळ्
वैयम् इदनिल् उन् वण्मै एन् पाल् एन् वळर्न्ददुवे

(हे गुरुजी!) मेरा मन आपके गुणों का ही ध्यान करता हुआ पिघल जा रहा है; मेरी वाणी सुदृढ़ अध्यवसाय के साथ यों पुकार रही है कि, “हे हमारे नाथ श्री रामानुज स्वामिन् !” मुझ महापापी के हाथ भी (आपके लिए) अंजलि कर रहे हैं; आँख(आपके) दर्शन पाना चाहती हैं । समुद्र-परिवृत इस विशाल पृथ्वीतल पर मुझ पर ही आपकी दया जो इस प्रकार फैल रही है, इसका कारण क्या होगा ?

पाशुर १०३: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि उनकी इंद्रीया श्रीरामानुज स्वामीजी की ओर शामिल हो गई क्योंकि वें बड़ी कृपा से अपने कर्मों से मुक्त हो गये और उन्होंने उन्हें बहुर अमूल्य ज्ञान प्रदान किया।

वळर्न्द वेम् कोबम् मडन्गल् ओन्ऱाय् अन्ऱु वाळ् अवुणन्
किळर्न्द पोन् आगम् किळित्तवन् कीर्त्तिप् पयिर् एळुन्दु
विळैन्दिडुम् सिन्दै इरामानुसन् एन्दन् मेय् विनै नोय्
कळैन्दु नल् ज्ञानम् अळित्तनन् कैयिल् कनि एन्नवे

पूर्वकाल में कठोर कोपवाले एक नरसिंगरूप को धारण कर, खङ्गधारी (हिरण्य) असुर का मत्त व दृढ़ वक्ष चीर डालने वाले भगवान का दिव्य यशरूपी सत्य जिसमें खूब उत्पन्न होता है, ऐसे (सुक्षेत्र) मनवाले श्रीरामानुज स्वामीजीने, मेरे शरीर में व्याप्त समस्त पाप मिटा कर, मुझ करतलामलक की तरह अतिस्पष्ट ज्ञान को भी प्रदान किया। श्रीरामानुज स्वामीजी के मनरूपी अच्छे क्षेत्र में भगवान के दिव्ययशरूपी सस्य खूब उपजते हैं; कहनेका यह तात्पर्य है कि श्री स्वामीजी के मन में सदा भगवान के दिव्य यश के सिवा दूसरी किसी वस्तु की चिंता नहीं रहती। ऐसे उन्होने अमुदनार के समस्त पाप मिटाकर उन्हें अतिविशद ज्ञान को प्रदान किया।

पाशुर १०४:  श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा हीं एक काल्पनिक प्रश्न का उत्तर देते हुए “अगर आप भगवान को देखेंगे तो क्या करेंगे?” श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि अगर भगवान स्वयं के विषय में भी प्रगट होते हैं तो भी वें कहते हैं कि वें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों को छोड़ और कुछ नहीं मांगेंगे जो उनके दिव्य स्वरूप में दीप्तिमान हैं।

कैयिल् कनि अन्न कण्णनैक् काट्टित् तरिलुम् उन्दन्
मेय्यिल् पिऱन्गिय सीर् अन्ऱि वेण्डिलन् यान् निरयत्
तोय्यिल् किडक्किलुम् सोदि विण् सेरिलुम् इव्वरुळ् नी
सेय्यिल् तरिप्पन् इरामानुस एन् सेळुम् कोण्डले

(औदार्य के विषय में) विलक्षण मेघ के समान विराजमान हे श्रीरामानुज स्वामिन्! यदि आप मुझे साक्षात् भगवान के ही हस्तामलक की भांति अतिविशद दर्शन करा दें, तो भी मैं (उनकी परवाह न करता हुआ) आपके दिव्यमंगलविग्रह के (सौन्दर्यादि) शुभगुणों के सिवा दूसरी किसी वस्तू पर अपनी नजर नहीं डालूंगा; मैं बेशक संसाररूपी इस नरक में ही पड़ा रहूंगा; अथवा ज्योतिर्मय परमधाम पहुँचूंगा, इसकी चिंता नहीं। परंतु आप यही कृपा करें (कि मैं उक्त प्रकार आपके श्रीविग्रह के ही दर्शन करता रहूं); यह कृपा पाकर ही मैं (संसार में ही अथवा मोक्षमें हो) शांति पा सकूंगा।

पाशुर १०५: जबकी सभी जन कहते हैं संसार को छोड़ना हैं और परमपद को प्राप्त करना हैं और उस परमपद को पाने की इच्छा के लिए दोनों को समान समझना चाहिए। आपका इच्छुक स्थान कौनसा हैं? वें इस पाशुर के जरिए बताते हैं।

सेळुम् तिरैप् पाऱ्कडल् कण् तुयिल् मायन् तिरुवडिक्कीळ्
विळुन्दिरुप्पार् नेन्जिल् मेवु नल् ज्ञानि नल् वेदियर्गळ्
तोळुम् तिरुप् पादन् इरामानुसनैत् तोळुम् पेरियोर्
एळुन्दु इरैत्तु आडुम् इडम् अडियेनुक्कु इरुप्पिडमे

सुंदर लहरों से समावृत क्षीरसागर में शयन करनेवाले अत्याश्चर्यचेष्टित भगवान के श्री पादों के आश्रय में रहनेवाले महात्माओं के हृदय में नित्यनिवास करनेवाले, श्रेष्ठ ज्ञानियों तथा परमवैदिकों से प्रणम्य श्रीपादवाले श्री रामानुज स्वामीजी के भक्त महात्मा लोग जिस स्थल में, आनंद के मारे उठकर नाचते, कूदते और कोलाहल मचाते हुए निवास करते हैं, वही स्थान मेरा भी निवासस्थान होगा। कितने ही महात्मा लोग क्षीराब्धिनाथ भगवान के भक्त होते हुए भी, उनकी उपेक्षा कर, श्रीरामानुज स्वामीजी के श्रीपादों का निरंतर ध्यान करते हैं, और उस आनंद से मस्त होकर नाचते कूदते और कोलाहल मचाते रहते हैं। ऐसे महात्मा श्रीरामानुज-भक्त लोग जहा विराजते हैं, मैं भी वहीं निवास करना चाहता हूं।

पाशुर १०६: श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीरंगामृत स्वामीजी का उनके प्रति स्नेह को देखकर बड़ी कृपा से श्रीरंगामृत स्वामीजी के मन की इच्छा करते हैं। यह देखकर श्रीरंगामृत स्वामीजी प्रसन्नता से और शुक्र से यह पाशुर का पाठ करते हैं। 

इरुप्पिडम् वैगुन्दम् वेन्गडम् मालिरुन्जोलै एन्नुम्
पोरुप्पिडम् मायनक्कु एन्बर् नल्लोर् अवै तम्मोडुम् वन्दु
इरुप्पिडम् मायन् इरामानुसन् मनत्तु इन्ऱु अवन् वन्दु
इरुप्पिडम् एन्दन् इदयत्तुळ्ळे तनक्कु इन्बुऱवे

साधु पुरुष कहते हैं कि अत्याश्चर्य दिव्य चेष्टितवाले भगवान जिनके अद्भुत गतिविधियों के वासस्थान, श्रीवैकुंठ धाम, श्रीवेंकटाचल और श्रीवनगिरी (तिरुमालिरुन्जोलै) नामक पर्वत हैं; ऐसे भगवान उक्त समस्त स्थानों के साथ पधारकर श्रीरामानुज स्वामीजी के हृदय में निवास करते हैं; एवं वे गुरुजी हाल में यहां पधार कर मेरे हृदय में सानंद विराज रहे हैं।

पाशुर १०७:  श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य मुखारविंद को देखकर जिन्होंने श्रीरंगामृत स्वामीजी के प्रति स्नेह प्रगट किया हैं, श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कुछ हैं जो वें उन्हें प्रदान करना चाहते हैं और अपनी इच्छा को प्रगट करते हैं।

इन्बुऱ्ऱ सीलत्तु इरामानुस एन्ऱुम् एव्विडत्तुम्
एन्बुऱ्ऱ नोय् उडल् तोऱुम् पिऱन्दु इऱन्दु एण् अरिय
तुन्बुऱ्ऱु वीयिनुम् सोल्लुवदु ओन्ऱु उण्डु उन् तोण्डर्गट्के
अन्बुऱ्ऱु इरुक्कुम्बडि एन्नै आक्कि अन्गु आट्पडुत्ते

हे आनंदपूर्ण व सौशील्यगुणविभूषित श्रीरामानुज स्वामिन्। आपसे मेरी यह एक विनती है कि, हड्डी में घुसकर दुःख देने वाले रोगों के आस्पद अनेक शरीरों में जन्म लेना, फिर मरना, इस प्रकार अनंत दुःख पाते रहने पर भी, मुझे सर्वदेशों व सर्वकालों में आप अपने भक्तों का ही भक्त बनाकर उन्हीकी सेवा में लगा दीजिए, यही मेरी प्रार्थना है। (मैं जन्म व्याधि जरा मरण रूप अनंत दुःखपूर्ण इस संसार से डरता हुआ, इससे मुक्ति नहीं माँगूंगा। यह कैसा भी हो, इसकी चिंता नहीं; किंतु मैं आपके भक्तों का ही भक्त और नित्यसेवक हो जाऊं, यह एक ही मेरी प्रार्थना है।)

पाशुर १०८:  इस प्रबन्ध के प्रारम्भ में श्रीरंगामृत स्वामीजी ने “रामानुजन् चरणारविन्दम् नाम्मन्निवाळ नेञ्जे” के लाभ की प्रार्थना किए हैं (हमें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य चरण कमलों में उपयुक्त होकर रहना चाहिए), श्रीमहालक्ष्मीजी से प्रार्थना करते हैं कि उनकी इच्छा पूर्ण करने की पुरूषकार करे। अंतिम पाशुर में भी वें श्रीमहालक्ष्मीजी को पाने को पूछते हैं जो हमें कैंकर्य रूपी धन प्रदान करेंगे।

म् कयल् पाय् वयल् तेन्नरन्गन् अणि आगम् मन्नुम्
पन्गय मामलर्प् पावयैप् पोऱ्ऱुदुम् पत्ति एल्लाम्
तन्गियदु एन्नत् तळैत्तु नेन्जे नम् तलै मिसैये
पोन्गिय कीर्त्ति इरामानुसन् अडिप् पू मन्नवे

हे मन! मानों सारी भक्ति हमारें यहां ही स्थिर प्रतिष्ठित हुई होगी, ऐसा विलक्षण भाग्य पाने के लिए, और विशाल यशवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दों को अपने शिरोभूषण के रूप में नित्य धारण करने के लिए, सुंदर मिनभरित खेतों से परिवृत श्रीरंगक्षेत्र में विराजमान भगवान के अतिमनोहर श्रीवक्ष में नित्यनिवास करनेवाली, श्रेष्ठ कमल पुष्प में अवतीर्ण, प्रतिमासदृश सुंदरी श्री महालक्ष्मीजी की हम स्तुति करेंगे। इस प्रार्थना के साथ यह दिव्यप्रबन्ध समाप्त किया गया। इसके आदि तथा अंत में श्री महालक्ष्मीजी का नामस्मरण मंगलार्थ किया गया है। इसमें कविनामांकन और फलश्रुति नहीं हैं। इसका गान स्वयंपुरुषार्थ है; अतः इसके लिए दूसरा फल ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। और अत्यंत विनयपूर्ण होने से अमुदनार ने इसमें अपना नाम नहीं बताया।

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अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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