शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 3

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 5 – भाग 2

paramapadhanathan

पिछले अंकों में हमने भगवान के स्वरुप (प्रकृति), रूप गुण (दिव्य विग्रह के गुण), आभूषणों, आयुधों, और महिषियों के विषय में किये गए वर्णन को देखा। अब हम श्रीवैकुण्ठ और लीला विभूति में उनके आश्रितों के विषय में जानेंगे।

आईए हम चूर्णिका के उस भाग को पुनः देखते हैं जिसमें इन द्वय विभूति में उनके आश्रितों के विषय में चर्चा की गयी है –

स्वच्छन्दानुवर्ती स्वरूपस्थिति प्रवृत्ति भेद अशेष शेषतैकरतिरूप नित्य निरवद्य निरतिशय ज्ञानक्रियैश्वर्याद्यनन्त कल्याण गुणगण शेष शेषासन गरुड़ प्रमुख नानाविधानन्त परिजन परिचारिका परिचरित चरणयुगल ! परमयोगी वाङ्गमनसा परिच्छेद्य स्वरूप स्वभाव स्वाभिमत विविध विचित्रानन्त भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्ध अनन्ताश्चर्य अनन्त महाविभव अनन्त परिमाण नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुण्ठनाथ ! स्वसंकल्प अनुविधायि स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति स्वशेषतैक स्वभाव प्रकृति पुरुष कालात्मक विविध विचित्रानन्त भोग्य भोक्तृ वर्ग भोगोपकरण भोगस्थानरूप निखिल जगदुदय विभव लय लील !

वर्णन: 

स्वच्छन्दानुवर्ती – अब श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीवैकुण्ठ में निवास करने वाले जीवों के विषय में बताते है, जिनके जीवन का सार ही भगवान और श्रीजी के चरणों का कैंकर्य है। नित्यसुरिजन (सदा श्रीवैकुण्ठ में निवास करते है और जिन्होंने कभी लीला विभूति में जन्म नहीं लिया) मात्र भगवान के मुख को निहारते (भगवद्मुखोल्लास) हुए कैंकर्य करते है, यह जानते हुए कि भगवान की अभिलाषा क्या है, बद्धात्माओं के विपरीत जिन्हें भगवान द्वारा यह बताने की आवश्यकता होती है कि वे किस प्रकार का कैंकर्य करे।

स्वरुप स्थिति प्रवृत्ति भेदभगवान ऐसे अधिकारी का निर्णय करते है, जिन्हें वे कैंकर्य प्रदान करेंगे। उन अधिकारियों के स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति के विषय में यहाँ चर्चा की गयी है। स्वरुप से आशय है उन अधिकारी का मूल स्वभाव, स्थिति से आशय है उनका आधार (जो उनके जीवन का आधार है) और प्रवृत्ति से आशय से है उनके कार्य। भेद अर्थात इन सभी में अंतर स्थापित करना।

नित्यसूरियों के संदर्भ में, भगवान की इच्छा अनुसार उनका कैंकर्य करना ही उनका स्वरुप है। उनकी स्थिति यह है कि भगवान का कैंकर्य करना ही उनका जीवन है (कैंकर्य ही उन्हें आधार प्रदान करता है) और प्रवृत्ति उस कैंकर्य में तत्परता से लीन होना । वे ये सभी कैंकर्य भगवान के मुखारविंद के भावों को ध्यान में रखकर, उनके प्रेम के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए और यही उस स्थान पर उनका धर्म है, ऐसा जानकार करते है। हमारी तरह उन्हें उनके कैंकर्य के लिए स्मरण नहीं कराना पड़ता।

अशेष शेषतैकर अतिरूप – अत्यंत प्रेम और श्रद्धा से अभिभूत, सभी कैंकर्य करने वाले, कुछ न छोड़ने वाले अवतार के समान। जब भगवान चाहते है कि यह कैंकर्य हो, तब नित्यसूरी सम्पूर्णत: तन्मयता से उस कैंकर्य में रत हो जाते है, जिससे ज्ञात होता है कि वे उस निष्ठा के प्रतीक है, जिस निष्ठा से कैंकर्य किया जाना चाहिए।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी उन नित्यसूरियों के गुणों के विषय में बताते है जो ऐसे कैंकर्य करते है।

नित्य – मुक्तात्माओं से पृथक, (जो संसार से श्रीवैकुण्ठ जाते है), नित्यसूरियों को ज्ञान आदि जैसे गुण भगवान द्वारा नित्य के लिए प्रदान किये जाते है।

निरवद्य– बिना किसी दोष के। कैंकर्य भगवान की प्रसन्नता के लिए है, नित्यसूरियों के आनंद के लिए नहीं।

निरतिशय ज्ञान – नित्यसूरियों में शेष/ सेवक होने का ज्ञान है, वे कैंकर्य करने के लिए निर्मित है, वे अनुयायी है और भगवान ही एकमात्र स्वामी है; वे भगवान की संपत्ति है और भगवान ही उनके नाथ है; नित्यसुरियों में यह ज्ञान पुर्णतः उदित और प्रशस्त है।

क्रिया – अपने कार्यों द्वारा यह प्रकट करना कि वे वास्तव में भगवान के शेष/ सेवक है। इसमें प्रथम भाग यह ज्ञान है कि हम सेवक है। द्वितीय भाग है कैंकर्य के लिए भगवान से विनय करना और तृतीय भाग है कैंकर्य करना। तृतीय भाग से वह पूर्ण होता है।

ऐश्वर्य – अन्य नित्यसुरियों और मुक्तात्माओं को कैंकर्य के प्रति निर्देशित करना। यद्यपि श्रीवैकुण्ठ में सभी मुक्तात्मा यह भली प्रकार समझते है कि क्या कैंकर्य करना चाहिए, तथापि वे ऐसी अपेक्षा करते है कि उन्हें आज्ञा हो कि कैंकर्य कैसे किया जाना है। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि ऐसी आज्ञा प्राप्त करने के पश्चाद ही उनके स्वरुप की पुष्टि होती है।

आदि – बहुत से अन्य ऐसे गुण, जो इस शब्द द्वारा संकेतिक है, परंतु विशेषतः उनका वर्णन नहीं किया गया है।

अनंत – उनके द्वारा किये जाने वाले कैंकर्य की कोई गिनती नहीं है।

गुणगण – गुणों का भण्डार

शेष – तिरुवनन्ताल्वान। शेषनागजी – भगवान के आसन।

शेषासन – विष्वक्सेनजी। भगवान की सेना के सेनाधिपति।

गरुड़ – पक्षिराज। भगवान के वाहन।

प्रमुख – इन नित्यसूरियों से प्रारंभ करके

नानाविध – विभिन्न कैंकर्य करने पर आधारित विभिन्न प्रकार की श्रेणी के नित्यसूरीगण। इस शब्दावली में श्रीवैकुण्ठ की बाहरी और भीतरी परिधि के सभी संरक्षकगण, सेना के संरक्षक आदि निहित है।

अनंत परिजनश्रीवैकुण्ठ में अनंत कैंकर्यपरारगण है जैसे शेषजी, शेषासनजी, गरुडजी, आदि जिस प्रकार वहां अनंत गुण है।

परिचारक परिचरित चरणयुगल – उन दिव्य युगल चरणों के धारक (चरणयुगल) जिनका ऐसे नित्यसुरिजन, अपने सहचरियों सहित असीम अनंत कैंकर्य करते है।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान के निवास, श्रीवैकुण्ठ का वर्णन करते है।

परमयोगी – महान संत (जैसे सनक, सनातन, आदि)

वांगमानस – उनके वचन और मानस।

अपरिछेद्य – जिस तक पहुंचा नहीं जा सकता।

स्वरूप स्वभाव –  महान संत कहते है कि श्रीवैकुण्ठ पांच उपनिषदों, (पवित्र/ शुद्ध/ अध्यात्मिक तत्वों) अथवा पूर्ण शुद्धसत्व से निर्मित है। परंतु वे उसके स्वरुप अथवा स्वभाव का पूर्ण रूप से वर्णन नहीं कर सकते। श्रीवैकुण्ठ नित्य है परंतु भगवान अपने संकल्प मात्र से उसे परिवर्तित कर सकते है। वह पांच उपनिषदों से निर्मित है और उसे विशेष तत्व द्वारा निर्मित नहीं समझा जाना चाहिए। क्यूंकि यह विशेष तत्व से निर्मित नहीं है, इसे नित्य जानना चाहिए।

स्वाभिमत – भगवान द्वारा पसंद किया जाने वाला और उनके ह्रदय के अत्यंत समीप

विविध विचित्र – विभिन्न प्रकार के

अनंत – जिसका कोई अंत नहीं है

भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्धभोग्य अर्थात वह तत्व जिसका आनंद लिया जाता है (जैसे दिव्य संगीत अथवा दिव्य भोजन अथवा पुष्पों से दिव्यसुगंध)। भोगोपकरण अर्थात वह उपकरण जिसके द्वारा किसी तत्व का आनंद प्राप्त किया जाता है (उपरोक्त उदहारणो में उल्लेखित दोषरहित वाणी, गलमाल)। भोगस्थान अर्थात वह स्थान जहाँ उस तत्व का भोग किया जाता है। वह कोई मण्डप हो सकता है अथवा कोई बागीचा। श्रीवैकुण्ठ इन सब तत्वों से परिपूर्ण है।

अनंत आश्चर्य – वहां ऐसी अगणित अद्भुत वस्तुएँ है। वे नयी प्रतीत होती है परंतु वे वहां अनंत समय से है।

अनंत महाविभव – अगणित संपत्ति (यहाँ संपत्ति का आशय श्रीवैकुण्ठ में विद्यमान नदियाँ, ताल, तलाब, बागीचे, आदि से भी है)

अनंत परिमाण – ऐसे परिमाणों से निर्मित जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता।

नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुंठनाथभगवान जो इस स्थान (श्रीवैकुण्ठ) के स्वामी है, जो नित्य, दोषरहित और अद्भुत है।

श्रीरामानुज स्वामीजी अगले भाग में लीला विभूति में श्रीभगवान की संपत्ति के विषय में वर्णन करते है और फिर द्वय विभूतियों (श्रीवैकुण्ठ और लौकिक संसार) के नायक श्रीभगवान के चरणों में शरणागति करते है।

स्वसंकल्प– लीला विभूति में सभी कार्य भगवान के संकल्प के द्वारा होते है। इसके विपरीत श्रीवैकुण्ठ के लिए श्रीरामानुज स्वामीजी स्वछंदानुवर्ती शब्द का उपयोग करते है (उनके मनोभावों के अनुसार कार्य करते है), और हम यह जानते है इन दोनों विभूतियाँ, नित्य और लीला और यहाँ निवास करने वाले प्राणी एक दुसरे से अत्यंत भिन्न है। अन्य शब्दों में, हम लीला विभूति में मात्र भगवान के आदेशानुसार कार्य करते है, उनके मनोभाव के अनुसार नहीं। उनकी नित्य विभूति मात्र उनके आनंद और प्रसन्नता के लिए है और वहीँ लीला विभूति उनके आनंद के लिए है। इसीलिए वे लीला विभूति में रचना और संहार करते है (मध्य में रक्षण भी) यद्यपि नित्य विभूति सदा एक समान रहती है, जैसा की उसके संबोधन में नित्य कहा गया है।

अनुविधाई – उनके संकल्प का पालन करना।

स्वरुप स्थिति प्रवृत्ति – हम पहले भी देख चुके है कि स्वरुप मूलभूत प्रवृत्ति है; स्थिति वह है जिससे उनका आधार है और प्रवृत्ति उनकी क्रिया है।

श्रीरामानुज स्वामीजी अब (तीन स्थितियों) प्रकृति, पुरुष और काल तत्व के विषय में त्रय विशेषताओं का वर्णन करते है। प्रकृति मूलभूत अचित तत्व है। पुरुष से आशय सभी जीवात्माओं से है और काल अर्थात समय। हमें इन तीन स्थितियों के स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति के विषय में आगे देखना चाहिए।

प्रकृति- सत्व, रज, और तमस से निर्मित है। उसकी परिमित असीमित है, अद्भुत है (वह निरंतर परिवर्तित होती रहती है– वह एक दिन विद्यमान रहती है और अगले ही दिन अदृश्य हो जाती है, वह कभी एक समय सत्य का दर्शन कराती है और वहीँ अन्य समय असत्य का भी)।

प्रकृति का स्वरुप अचित है, वह सत्व, रज, तम, तत्वों से निर्मित है।

प्रकृति की स्थिति – इस भौतिक संसार में जीवात्मा के आनंद उपभोग अथवा इस लौकिक जगत से मोक्ष प्राप्त कर आध्यात्मिक जगत (श्रीवैकुण्ठ) तक पहुँचने का साधन है। अन्य शब्दों में, प्रकृति जीवात्मा को ऐसी स्थिति प्रदान करती है जहाँ वह अपने पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से वह सब आनंद प्राप्त करता है जो वह चाहता है और निरंतर जन्म मरण के चक्र में चलता रहता है अथवा उस स्थान का सदा भगवान के ध्यान/ चिंतन में उपयोग करता है, उनके श्रीचरणों में शरणागति करता है और श्रीवैकुण्ठ को प्राप्त करता है।

प्रकृति की प्रवृत्ति – ऐसे स्थानों को प्रदान करना है जैसे दिव्य देश अथवा निदियाँ और ऐसे जीवात्माओं को प्रदान करना, जो अराधना करे अथवा भगवान का ध्यान मनन करे। यह जीवात्मा को सभी कार्य करने के लिए आवश्यक सामग्री प्रदान करती है।

जीवात्मा का स्वरुप, अचित तत्व से भिन्न है। अचित निरंतर परिवर्तनशील है यद्यपि जीवात्मा परिवर्तनशील नहीं है। अचित में कोई ज्ञान नहीं यद्यपि जीवात्मा में है। हालाँकि जीवात्मा सदा अचित से सम्बंधित है।

जीवात्मा की स्थिति – भोजन और जल है। जीवात्मा को अपने पोषण हेतु एक भौतिक देह की आवश्यकता है और उस देह के पोषण के लिए भोजन और जल की। देह के बिना जीवात्मा की स्थिति नहीं है।

जीवात्मा की प्रवृत्ति – उन कार्यों में रत होने की है जिनका परिणाम पाप या पुण्य है।

काल स्वरुप अचित है; वह ज्ञान रहित है। उसे सत्य शुन्य भी कहा जाता है

काल की स्थिति यह है कि वह चित और अचित दोनों को ही परिवर्तन हेतु दिशा और गति प्रदान करता है। इससे यह प्रतीत होता है कि एक जीवात्मा उस देह को त्यागती है और एक फूल उस पेड़ से गिरकर सुख जाता है।

काल की प्रवृत्ति – स्वयं को पल, क्षण, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, अयन, वर्ष आदि (समय के विभिन्न माप) के द्वारा प्रकट करना है

स्वशेषतैक स्वभाव – सदा भगवान के नियंत्रण में रहना और मात्र उनके ही सेवक बनकर रहना और किसी के नहीं।

प्रकृति पुरुष कालामक – जैसा की उपरोक्त उल्लेखित है, प्रकृति, जीवात्मा और काल, प्रत्येक अवस्था का अपना स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति है।

विविध – विभिन्न प्रकार के

विचित्र – अद्भुत

अनंत – जिसका कोई अंत नहीं है

भोग्य – उपभोग के लिए उपयुक्त

भोकथ्रूवर्ग – उपभोग आनंद हेतु विभिन्न प्रकार की सामग्री की उपलब्धता

भोगोपकरण – विभिन्न उपकरण जिनके द्वारा इन्हें प्रयुक्त किया जाता है

भोगस्थान – स्थान जहाँ सामग्री का उपभोग किया जाता है

रूप – लीला विभूति का रूप उपरोक्त वर्णित सभी वस्तुओं से निर्मित है

निखिल जगत उदय विभव लय लीला – सभी जगत के रचयिता, पालक और संहारक है, यह सब उनकी लीला का अंश है

इसके साथ श्रीरामानुज स्वामीजी नारायण शब्द के अर्थ के वर्णन को पूर्ण करते है। संक्षेप में, वे प्रथम चूर्णिका में श्रीजी की शरणागति करते है। अगली चूर्णिका में वे परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति (भगवान के साथ होने पर उदित अवस्था में और भगवान से वियोग होने पर उदासीन, उनके साक्षात दर्शन करना और उनके साथ रहने पर ही जीवित रहना, क्रमशः) के साथ नित्य कैंकर्य की विनती करते है। तृतीय और चतुर्थ चूर्णिका के माध्यम से, श्रीजी उनकी विनती सुन उन्हें सभी कुछ प्रदान करती है। पंचम चूर्णिका में, वे उन परमात्मा का वर्णन करते है, जिनके चरणों में शरणागति की जानी चाहिए। जिसप्रकार वेद कहते है कि सृष्टि, पोषण और संहार के एक मात्र कारक, भगवान का निरंतर ध्यान करना चाहिए, श्रीरामानुज स्वामीजी भी देखते है कि उन सभी महान गुणों के धारक कौन है और इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वह परमात्मा सिर्फ नारायण ही है, क्यूंकि सभी प्राणी जिन्हें “नारा:” शब्द से संबोधित किया जाता है: वे उनकी ही शरण लेते है (अयन)। फिर वे वर्णन करते है कि “नारा:” किन शब्दों के से निर्मित है और भगवान का स्वरूप, रूप और गुण क्या है। फिर हमने भगवान के गुणों को देखा, उनके दिव्य विग्रह, उनके गुण, उनके आभूषणों, उनके आयुधों आदि के विषय में वर्णन को देखा। फिर, श्रीरामानुज स्वामीजी उनकी दिव्य महिषियों के विषय में वर्णन करते है जो भगवान के सम्पूर्ण आभायमान गुण और स्वरुप का सदैव रस पान करती है। तद्पश्चाद वे श्रीवैकुण्ठ में निवास करने वाले सभी जीवों का वर्णन करते है (नित्यसुरीजन), श्रीवैकुण्ठ की विशेषताएं, उस जगत की विशेषताएं जिसकी रचना/ पालन/संहार भगवान ही करते है (इस भाग में अभी तक जो हमने देखा)। अब जो शेष है वह है शरणागति करना। शरणागति को सुगम बनाने हेतु वे “अपार कारुण्य” से प्रारंभ होने वाले गुणों का वर्णन करते है। इसके मध्य वे अष्ट गुणों को भी अंकित करते है। अब तक उन परम/ श्रेष्ठ गुणों और उस विशेष तत्व के स्वरुप को वे भली प्रकार से जान चुके है जिनकी शरण उन्हें प्राप्त करनी है, फिर वे इन गुणों का वर्णन किसलिए करते है? इसका कारण है कि यह अष्ट गुण उन गुणों के पूरक है, जो शरणागति करने के लिए आवश्यक है (“अपार कारुण्य “ से प्रारंभ करके)। इसके अतिरिक्त उन्होंने पहले भगवान के विभिन्न गुणों का वर्णन किया है (जैसे गांभीर्य, औधार्य, मार्धव, आदि)। आगे कहे जानेवाले आठ गुण इस उपरोक्त गुणों के परिष्कृत रूप का वर्णन करते है, सत्यकाम, सत्य संकल्प आदि से प्रारम्भ करते हुए। इसके अतिरिक्त जिनकी शरण हमें होना है, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और गहरा विश्वास प्राप्त करने हेतु हमें यह जानना आवश्यक है कि वे इन सभी गुणों को धारण करने वाले है, जो इस कार्य में समर्थक होंगे। उस आठ गुण वह कार्य करते है, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी समझाते है।

भगवान ने लीला विभूति की रचना की उस समय से लेकर जिस समय तक जीवात्मा कैंकर्य प्राप्त कर भगवान के चरणों तक नहीं पहुँच जाता, उस समय तक अष्ट गुणों के माध्यम से भगवान सभी नियंत्रित करते है। आईये अब चूर्णिका 5 के अगले भाग में हम इन अष्ट गुणों के वर्णन और श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा शरणागति करने के विषय में देखते है।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-3/

संग्रहण – http://divyaprabandham.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org

Leave a Comment