Daily Archives: September 5, 2016

पूर्वदिनचर्या – श्लोक – २

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श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक १                                                                                                                                   श्लोक  ३

श्लोक २

मयि प्रविशति श्रीमन्मन्दिरं रंगशायिनः ।
पत्यूः पदाम्बुजं द्रष्टुमायान्तमविदुरतः ॥ 2 ॥

मंगलाशासन के बाद अब आचार्य श्री वरवरमुनि स्वामीजी के कृपा कि बौछार कैसे हुयी इसका वर्णन करते हुये वे अपने जीवन का उदेश्य बता रहे है कि आचार्य का भजन सुनते हुये इनके सन्मुख होकर रहना , जिससे संसार कि सभी परेशानियाँ स्वयं मीट जायेगी । एक शिष्य का कर्तव्य है कि अपने आचार्य कि प्रशंसा करना , इस कर्तव्य को निभाते हुये श्री देवराज गुरुजी “ मायि प्रविशति ” से लेकर “ अनस्पदम ” श्लोक तक श्री वरवरमुनि स्वामीजी कि दिनचर्या का वर्णन कर रहे है ।

शब्दार्थ

मयि                –      अडियन , दास
प्रविशति          –      प्रवेश करते समय
श्रीमान            –      कैंकर्य रूपी धन के स्वामी ( भगवान के दास ) श्री वरवरमुनि स्वामीजी
मन्मन्दिरं       –      मंदिर के बारे में
रंगशायिनः      –      श्रीरंगम में शयन शैया में विराजमान श्रीरंगनाथ भगवान
पत्यूः              –      श्रीरंगनाथ भगवान के
पदाम्बुजं         –      कमल कि तरह श्री चरण
द्रष्टुम             –      सेवा करने के लिये
आयान्तम       –      पहुँचने तक
अविदूरतः        –      नजदीक

श्रीमान और मंदिरम शब्दों को अलग किये बिना, श्रीमत शब्द मंदिरम के लिये विशेषण के रूप में उपयोग कर सकते है । इस प्रकार श्रीरंगम मंदिर कैंकर्य करने के लिये सही स्थल और परमधन है , इसको दर्शाता है । देवराज गुरुजी कहते है “ मै वरवरमुनि स्वामीजी के पहिले श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन करने के लिये गया , लेकिन जब मैने भगवान के दर्शन करने के लिये मंदिर में प्रवेश किया जो कि आचार्य के दर्शन से ज्यादा महत्व नहीं है , आश्चर्य कि बात है कि श्री वरवरमुनि स्वामीजी श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन करते हुये मेरे सामने ही खड़े थे। ”

अतः आचार्य के दर्शन पहिले न करके जो पाप मुझे लगा था, उस पाप को श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दर्शन करते ही मिट गया । श्री उ.वे.अण्णा अप्पागंर स्वामी अपने व्याख्या में कहते है कि आचार्य भगवान से भी श्रेष्ठ है ,जैसे जंगल में कुल्हाड़ी अपने आय सम्पादन हेतु पेड़ों को काटने के लिये ढूँढता रहता है और अनायास उसे कोई धन का खजाना मिल जाता है , ऐसे आचार्य कि पूजा करने कि चाहना रखनेवाले श्री देवराज स्वामीजी को आचार्य स्वयं दर्शन देने के लिये सामने प्रकट हो गये ।

वरवरमुनि स्वामीजी सोचते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी के श्रीचरणों में सेवा करना ही परम पुरुषार्थ है और उसके लिये श्रीचरण ही एक साधन है । इसी विश्वास के साथ वरवरमुनि स्वामीजी रंगनाथ भगवान कि सेवा करते हुये मंगलाशासन करते है अपने पुरुषार्थ के लिये नहीं करते है ।जो केवल भगवान के मंगलाशासन करने में ध्यान देते  है और अन्य विषय  ( देवतांतर, प्रयोजनान्तर, विषयांतर, मोक्ष के लिये भगवान कि शरणागति करनेवाले यह सभी विषय समान है ) उनके लिये कोई मान्य नहीं रखते है उन्हे परमैकान्ती कहते है । यह सब विशेष लक्षण श्री वरवरमुनी स्वामीजी में रहने के कारण उन्हे परमैकान्ती कहते है ।

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पूर्वदिनचर्या – श्लोक – १

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श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय                                                                                                                                     श्लोक  २

श्लोक १

अंके कवेरकन्यायास्तुङ्गे भुवनमंगले ।
रंगे धाम्नि सूखासिनं वन्दे वरवरं मुनिम ॥ १ ॥

इस श्लोक मेँ देवराज गुरुजी अपने आचार्य वरवरमुनि स्वामीजी से प्रार्थना करते है की इस स्तोत्र कि रचना बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाये । शास्त्र के अनुसार आचार्य को भगवान श्रीमन्नारायण के अवतार के रूप मेँ माना जाता है , शिष्य को सदैव आचार्य के नाम का जप करना चाहिये , पूर्ण रूप से उनमें निष्ठा रखना , इसके लिये गुरु जीससे प्रेम भाव रखते है उनमे प्रेम भाव रखना , गुर जब दुखी हो तो शिष्य को भी दुखी होना चाहिये । गुरु के नाम और विशेषताओं का सदैव स्मरण करना । जैसे भगवान के लिये भक्त रहता है , राजा के लिये सेवक रहता है , उसी तरह शिष्य को आचार्य के लिये पूर्ण समर्पण भाव से सेवा कैंकर्य करना चाहिये । शिष्य का परम कर्तव्य है कि अपने आचार्य का शिष्य बनकर गर्व होना चाहिये , आचार्य के श्री चरणों के चिन्हो का अनुसरण करना , सदैव उनका स्मरण करना , उनके वैभव को सुनना और दूसरों को उनकी विशेषताओं का वर्णन करना । देवराज गुरुजी शिष्य के सभी कर्तव्यों को जानते थे । वरवरमुनी स्वामीजी से संबंधित शतकम , काव्यम , चम्पु और अनेक स्तोत्रों कि रचना करने पर भी उनको समाधान नहीं था । शास्त्र बताता है कि शिष्य को अपने आचार्य कि पूर्ण दिनचर्या का वर्णन करना चाहिये । आचार्य निष्ठा और शास्त्र मेँ विश्वास रखते हुये देवराज गुरुजी ने अपने आचार्य श्री वरवरमुनि स्वामीजी कि दिनचर्या को लिखना प्रारम्भ किया और उसके सफलता के साथ समापन होने के लिये प्रार्थना कर रहे है ।

इस कार्य में श्री वरवरमुनि स्वामीजी का ज्ञान, गुण, दैनिक गतिविधियाँ और सांसारिक  इच्छाओं कि अनुपस्थिति को दर्शाता है और स्वामीजी के उपस्थिती से पूर्ण गोष्ठी पवित्र हो जाती है । तदियाराधन के पहिले जो श्रीवैष्णव सत्वगुण वाले है वे भी इसका पठन करते है और पवित्र हो जाते है । जब  तदियाराधन बड़े पैमाने पर होता है तब वहाँ पर एकत्रित लोग कम ज्ञान वाले और पारंपरिक प्रथाओं का पालन कम करनेवाले भी हो सकते है , इससे उस जगह कि पवित्रता भी कम हो जाती है । वरवरमुनि स्वामीजी उस जगह को और उपस्थित लोगों को पवित्र करते है । इसलिये इस स्तोत्र को “ पंक्तिपावनम ”भी कहते है , जो की पूर्ण गोष्ठी को पवित्र कर देता है ।

शब्दार्थ

कवेरकन्याया        –      कावेरी नदी के बीच में
तुगें                      –      अधिक
भुवनमंगले           –      दुनिया के लोगो के कल्याण हेतु
रगें धाम्नि            –      श्रीरंगम दिव्यदेश
सुखासीनं             –      बिना किसी बाधा के शांतता से
वन्दे                    –      साष्ठांग प्रणाम करना
वरवरं                  –      अलगीय मणवाल पेरूमाल के समान इनकी छवि,गुणवता को दर्शाया गया है
मुनिम                 –      वरवरमुनि स्वामीजी ,जो आचार्य को मुख्य घोषित करते है ।

मंगलम शब्द लक्ष्य प्राप्ति को संबोधित करता है । मंगलम शब्द का उपयोग कावेरी नदी और श्रीरंगम दिव्यदेश के साथ किया जाता है । रंगम शब्द भगवान श्रीरंगनाथ के प्रेम को सूचित करता है । “ सुखासीनं ” शब्द संबोधित करता है कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के समय में मुसलमान एवं इतर लोगों द्वारा कोई भी तकलीप का सामना नहीं करना पड़ा जैसे रामानुज स्वामीजी के समय में शैव लोगो से , पिल्लै लोकाचार्य और वेदान्त देशिक स्वामीजी के समय में मुसलमानों द्वारा तकलीप का सामना करना पड़ा ।

संस्कृत में “वन्दे ” शब्द “ वादि अभिवादन स्तुति ” को संबोधित करता है , इसका अर्थ है आदरपूर्वक नीचे बैठकर स्तोत्र पठन करते हुये आराधना करना । श्री वरवरमुनि स्वामीजी के कृपा के बिना ये दोनों ( मंगलम और वन्दे ) नहीं आ सकते है और साथ ही साथ हमारे मन, वाणी और कर्मो को मंगलमय बना देगें ।

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