सप्त गाथा – पासुरम् ४

श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

शृंखला

<<सप्त गाथा – पासुरम् ३

परिचय

चौथा पासुरम्। तत्पश्चात्, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कृपापूर्वक सिंहावलोकन न्यायम् के अनुसार दूसरे पाशुर का पुनरावलोकन कर रहे हैं (पूर्व में समझाए गए विषय पर फिर से विचार करने का नियम जैसे एक घूमता हुआ सिंह‌ मुड़कर जिस रास्ते पर चला उसका परीक्षण करता है), उन पांच सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं जो वहाँ रेखांकित किए गए थे, दयापूर्वक पहचानते हैं कि वे कहाँ समझाए जाते हैं, और कहते हैं कि जिस व्यक्ति में उस आचार्य के प्रति श्रद्धा का अभाव है, जिसने अपनी महान दया से इस अर्थ पंचकम को बहुत दयापूर्वक समझाया, वह विष से भी अधिक भयंकर है।

पासुरम्

तन्नै इऱैयैत् तडैयैच् चरणेऱियै
मन्नु पेरुवाऴ्वै ओरु मन्दिरत्तिन् इन्नरुळाल्
अञ्जिलुम् केडोड अळित्तवन्पाल् अन्बिलार्
नञ्जिलुम् केडेन्ऱिरुप्पन् नान्

शब्द से-शब्द अर्थ

ओरु – मन्त्रों में प्रतिष्ठित, कोई मेल नहीं होना
मन्दिरत्तिन् – पेरिय तिरुमन्त्रम (अष्टाक्षरम्) में
तन्नै – स्वयं जो भगवान के प्रति दासता के निवास के रूप में प्रकट किया गया है, मकारम द्वारा
इऱैयै – एम्पेरुमान जिन्हें स्वयं के लिए उपयुक्त भगवान कहा जाता है, अकारम् द्वारा
तडैयै – बाधाओं का समूह जो मकार द्वारा इंगित किया गया है जो छठे विभक्ति के साथ समाप्त होता है, म:
सरण् नेऱियै – शरणागति (समर्पण) जिसे नम: में सुरक्षित साधन कहा जाता है, शब्द जो भाग-भाग में विभाजित नहीं है
मन्नु – शाश्वत
पेरू वाऴ्वै – कैंकर्य का महान लक्ष्य जो नारायण शब्द में कहा गया है जिसमें नारायण के साथ चौथी विभक्ति भी है
अञ्जिलुम्- इन पांच सिद्धांतों में
केडु – अज्ञान, संदेह और त्रुटि जैसी बुराइयाँ
ओड– अवशेषों के साथ बाहर निकाला जाना
इन् अरुळाल्– उस महान दया से जो शिष्य से कुछ भी आशा नहीं करता है
अळित्तवन् पाल्– आचार्य के प्रति जिन्होंने ज्ञान का निर्देश दिया।
अंबु इलार् – जिनके पास प्रेम का अभाव है नञ्जि्लुम -विष से अधिक
केडु एन्ऱु– बहुत क्रूर
नान्– मैं जो पिळ्ळै लोकाचार्य द्वारा स्वीकार किया जाता हूँ
इरुप्पन्- मानना

सरल व्याख्या

आचार्य, महान दया से, जो शिष्य से कुछ भी आशा नहीं करते हैं, मन्त्रों के बीच अद्वितीय और प्रतिष्ठित पेरिय तिरुमन्त्रम् में ज्ञान का निर्देश देते हैं जो इन निम्नलिखित पांच सिद्धांतों के बारे में है, १) स्वयं जो मकारम् द्वारा भगवान की सेवा के लिए निवास के रूप में प्रकट किया गया है, २)एम्पेरुमान् जिसे अकारम् द्वारा स्वयं के लिए योग्य भगवान कहा जाता है, ३) बाधाओं का समूह जो मकार द्वारा इंगित किया गया है जो छठे विभक्ति के साथ समाप्त होता है, “म:”, ४) शरणागति (समर्पण) जिसे नम: शब्द में सुरक्षित उपाय कहा गया है, जो शब्द भाग-भाग में विभाजित (जिसे अखंड नमस् कहा जाता है) नहीं है और ५) कैंकर्य का महान, शाश्वत लक्ष्य जो नारायणाय शब्द में कहा गया है जिसमें नारायण के साथ चौथी विभक्ति (आय) है। मैं, जिसे पिळ्ळै लोकाचार्य द्वारा स्वीकार किया गया है, उन लोगों को विष से अधिक क्रूर मानता हूँ जिनमें ऐसे आचार्य के प्रति प्रेम का अभाव है जो अज्ञानता, शंका जैसी बुराईयों को दूर करने का निर्देश देते हैं।

व्याख्यानम् (टिप्पणी)

तन्नै– विषय के प्रति सम्मान के कारण, पुनरावृत्ति को (दोष के स्थान पर) अलंकृति, सजावट माना जाता है। “तन्नै इऱैयै.. “ में कर्मकारक (तमिऴ) “ऐ” को पहली विभक्ति में “तन् इऱै” के रूप में परिवर्तित किया जा सकता है और इसे “वह जिसने स्वयं, भगवान आदि के वास्तविक स्वरूप को उन सिद्धांतों में बुराईयों के साथ प्रकट किया है, जो तिरुमन्त्रम में प्रकट होते हैं, ऐसे पढ़ा जा सकता है।” वैकल्पिक रूप से, इसे “तिरुमन्त्रम में प्रकट किए गए पाँच पहलुओं में, जिसने स्वयं, भगवान, बाधाओं, साधनों और महान लक्ष्य – बुराइयों के साथ प्रकट किया” के रूप में पढ़ा जा सकता है।

पहले पाशुर में, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै ने अर्थ पंचकम की व्याख्या पर स्वरूपम् से शुरू किया, यजुर्ब्राह्मण ३.७ “यस्यास्मि ” (वह जिसका मैं सेवक हूँ) जैसे प्रमाणों पर विचार करते हुए; यहाँ वे पिळ्ळै लोकाचार्य के अर्थ पंचकम् ग्रन्थ पर विचार करते हुए जीव स्वरूप से प्रारंभ करते हुए अर्थ पंचकम् की व्याख्या कर रहे हैं।

तन्नै – स्वयं जो मकारम् द्वारा तिरुमन्त्रम् के पहले शब्द में भगवान के प्रति दासता के धाम के रूप में प्रकट किया गया है।

इऱैयै – एम्पेरुमान जो स्वयं के उपयुक्त स्वामी के रूप में प्रकट हुए हैं और अकारम् में दिखाए गए हैं।

तडैयै – बाधा जो स्वयं और भगवान के बीच का प्राचीर है जब वे उन्हें आत्मसमर्पण करने की कोशिश कर रहे हैं, जैसा कि म:, मकारम् में अंत में छठे कारक के साथ, जो तिरुमन्त्रम् के दूसरे शब्द नमः में दिखाया गया है।

सरण् नेऱियै– शरणागति (समर्पण) जो खंडित न हुए नम: (अखंड नमस्) शब्द में सुरक्षित साधन के रूप में प्रकट होता है, जो तिरुमन्त्रम् में दूसरा शब्द है।

मन्नु पेरु वाऴ्वै– कैंकर्य का शाश्वत लाभ जो नारायणाय शब्द में प्रकट होता है जिसमें नारायण के साथ चौथा कारक (संप्रदान कारक)भी है।

ओरु मन्दिरत्तिन्– एकमात्र घाट विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै इस तिरुमन्त्र में प्रवेश करेंगे। अन्य दो व्यापक मंत्र (वासुदेव मंत्र और विष्णु मंत्र) समान लाभ नहीं देंगे।

ओरु – (विशिष्ट) जैसा कि नरसिंह पुराण में कहा गया है “न मन्त्रोष्टाक्षरत् पर:” (अष्टाक्षर से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है) और नारदीय पुराण “नास्ति च अष्टाक्षरात् पर:” (अष्टाक्षर से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है), पेरिय तिरुमन्त्रम् से बड़ा कुछ नहीं है यह और उस मन्त्र (यानि भगवान) के उद्देश्य के रूप में प्रतिष्ठित है, निम्नलिखित कारणों से:

  • क्योंकि यह इन पांच सिद्धांतों को प्रकट करता है
  • क्योंकि यह प्रमाण (ज्ञान का प्रामाणिक स्रोत) बना हुआ है प्रमेय (ज्ञान के लक्ष्य) अर्चावतारम् का और (गुरु) प्रमाता के लिए जो एक प्रपन्न है (समर्पण करने वाला व्यक्ति है)
  • क्योंकि यह उनके लिए कुल धन है जिनके पास किसी अन्य उपाय की कमी है
  • क्योंकि यह अंधे और अक्षम व्यक्तियों के लिए रखा गया पानी का निर्गम स्रोत है।
  • क्योंकि यह संसार के साँप द्वारा काटे गए व्यक्ति के लिए जड़ी-बूटी की औषधि है।
  • क्योंकि यह निर्धनों के लिए निधि है।
  • क्योंकि यह उन लोगों के लिए मंगल सूत्र (एक पत्नी द्वारा अपने पति का सम्मान करते हुए पहना जाने वाला शुभ धागा) है जो भगवान को समर्पित हैं।
  • क्योंकि यह स्वयं में लक्ष्य के बारे में ज्ञान लाता है जो किसी को भागवत के आदेश से घृणा या इनकार करने के बदले ऐसे आदेश का आनंद लेने के लिए प्रेरित करता है।
  • क्योंकि यह स्वयं के लक्ष्य के बारे में आंतरिक ज्ञान लाता है जो हमें यहाँ इस संसार में रहकर भगवान से गहराई से जुड़े हुए श्रीवैष्णवों के लिए थोड़ी सी सेवाओं में संलग्न करता है, यहाँ तक कि हमारे अंतिम क्षण में शाश्वत कैङ्कर्य के लक्ष्य की ओर जाने को टालते हुए ।
  • क्योंकि इससे यह विचार उत्पन्न होता है कि आचार्य वही हैं जो ज्ञान प्रदान करते हैं।
  • क्योंकि इससे यह विचार उत्पन्न होता है कि श्रीवैष्णव ही ऐसे ज्ञान का पोषण करते हैं।
  • क्योंकि इससे यह विचार उत्पन्न होता है कि भगवान ही ज्ञान के पात्र हैं।
  • क्योंकि यह स्पष्टता लाता है कि ज्ञान का उद्देश्य भगवत् अनुभव जनित प्रीति कारित कैङ्कर्य है (भगवान के प्रति प्रेम के कारण की गई सेवा जो भगवान के अनुभव के कारण हुई थी)
  • क्योंकि इससे यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ऐसे कैङ्कर्य की अंतिम अवस्था भागवतों की सेवा करना है।

ओरु मन्दिरत्तिन्– जैसा कि “मन्तारम् त्रायत इति मंत्र:” में कहा गया है (वह जो इसका जाप करने वाले की रक्षा करता है), क्योंकि जो कोई भी इसका जप करता है, यह उनकी इच्छा को पूरी करने की और उनके द्वारा घृणित वस्तुओं को दूर करने की रक्षण (सुरक्षा) करता है, इसे मंत्रम् के नाम से जाना जाता है।

यह पूछे जाने पर कि “क्या आचार्य ने शिष्य में किसी अच्छे लक्षण को देखकर इस अर्थ पंचकम का निर्देश दिया था?”

इन् अरुळाल् – विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कह रहे हैं “उसके विपरीत, आचार्य बिना प्रतिबंध के इस अर्थ पंचकम का निर्देश देते हैं”

इन् अरुळाल् – आचार्य की दया ईश्वर की दया से अधिक है जैसे मुदल् तिरुवन्दादि १५ ”पल्लार अरुळुम् पऴुदु” (अन्य की दया किसी काम की नहीं) में कहा गया है; भगवान की दया स्वतंत्र है और बंधन और मुक्ति दोनों के लिए समान है; आचार्य की दया अधीन है और विशेष रूप से मुक्ति पर केंद्रित है।

इन् अरुळाल् – जैसा कि कण्णिनुण चिऱुत् ताम्बु ८ में कहा गया है “अरुळ् कंडीर् इव्वुलगिनिल् मिक्कदे” (आऴ्वार की कृपा इस संसार से कहीं अधिक है), यह महान दया है जो यहाँ से कुछ भी अपेक्षा नहीं करती है।

अञ्जिलुम् केडोड अळित्तवन् – उत्तम आचार्य की प्रति जिन्होंने अर्थ पंचकम में अज्ञानता, संदेह और त्रुटियों को दूर करने के लिए ज्ञान का निर्देश दिया जो इस मंत्र में प्रकट हुआ है।
अञजिलुम् केडोड अळिक्कै- अर्थ पंचकम में अज्ञानता, संदेह, त्रुटियों को दूर करना:

  • चेतन (चेतन प्राणी) की वास्तविक स्वरूप जिसे मकारम् द्वारा इंगित किया गया है, भौतिक प्रकृति से परे है, इसको ज्ञान और आनंद से पहचाना जाता है, एक विशेषता के रूप में ज्ञान है, शाश्वत, अपरिवर्तनीय, परमाणु, एकवचन रूप है और विशेष रूप से भगवान के अधीन है।
  • भगवान का वास्तविक स्वरूप जो अकारम् द्वारा इंगित किया गया है, लक्ष्मी से संपन्न हैं, सभी शुभ गुणों से युक्त हैं, अन्य सभी तत्वों से भिन्न है, तीन प्रकार की अभिव्यक्तियों से मुक्त है (स्थान, समय और अस्तित्व द्वारा), नित्य विभूति और लीला विभूति दोनों के नियंत्रक हैं, सबको आश्रय हैं, सभी प्रकार से रक्षक हैं और स्वामी हैं।
  • विरोधी (बाधाओं) का वास्तविक स्वरूप जो मः में कहा गया है, जहाँ म छठे कारक से समाप्त होता है, शरीर को स्वयं मानने, अन्य देवताओं को सर्वोच्च मानने, अन्य प्रापकों (उपायों)को मानने के रूप में है। उपयुक्त उपाय का अर्थ है, आत्मतुष्टि के लिए कैंकर्य करना, उस शरीर से जुड़ा होना जो कर्म द्वारा प्राप्त है, बंधन का पोषण करता है, बहुत नीच है और त्यागने योग्य है।
  • उपाय (साधन) का वास्तविक स्वरूप जो अविभाजित नमः में बोला जाता है, सहज प्राप्य है, सर्वोच्च संवेदनशील, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, दूसरों से किसी अन्य समर्थन की अपेक्षा नहीं करने वाला, सभी वरदानों का दाता, उपयुक्त, व्याकुलता और विलम्ब से मुक्त, और स्वयं की खोज का लक्ष्य।
  • पुरुषार्थ (लक्ष्य)का वास्तविक स्वरूप जो नारायणाय में कहा गया है, जिसमें नारायण है जो चौथे कारक के साथ समाप्त होता है, प्रेम द्वारा किया जाता है जो भगवान के अनुभव से प्रेरित होता है, सभी स्थानों, सभी समयों और सभी अवस्थाओं में उपयुक्त होते हुए, यह चरम उद्देश्य है, भगवान के लिए अस्तित्व होने के रूप में, स्वयं की वास्तविक प्रकृति से मेल खाता है, आत्म-संतुष्टि की अपेक्षा से मुक्त, बहुत सुखद और शाश्वत है।

इन्हें प्रकट करते हुए, आचार्य इन सभी को अवशेष सहित बाहर निकालने के लिए अपनी करुणामयी वर्षा कर रहे हैं जो अज्ञान (अज्ञानता), अन्यज्ञान (एक तत्व को कुछ और जानना) आदि के रूप में हैं।

  • शरीर को स्वयं मानने का भ्रम।
  • स्वयं को स्वतंत्र होने के लिए भ्रमित करना
  • दूसरों के अधीन होने के लिए स्वयं को भ्रमित करना (भगवान के अतिरिक्त)
  • भगवान को सर्वोच्च स्वामी न मानने का भ्रम।
  • अन्य देवताओं को सर्वोच्च मानना ​​का भ्रम
  • अन्य देवताओं को भगवान के समान समझने का भ्रम
  • अहंकारम, ममकारम आदि का अनुसरण करने का भ्रम
  • भ्रम है कि वर्तमान शरीर के अंत में कोई मुक्त नहीं होगा
  • देह सम्बन्धियों को स्वयं सम्बन्धी समझने का भ्रम
  • उपाय के रूप में भगवान की भ्रमित खोज, उपाय के रूप में
  • करने वाले कैंकर्य को आत्म-संतुष्टि के लिए होने का भ्रम
  • भ्रमित करते हुए कि हमने उसे अपना कैंकर्य स्वीकार करवाया है

अळित्तवन् पाल् अन्बिलार्– जिनमें अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा का अभाव है, जिन्होंने इस तरह से निर्देश दिया जैसा कि श्वेतस्वतर उपनिषद् ६.२३ में कहा गया है “यस्य देवे परा भक्तिर् यथा देवे तता गुरौ| तस्यैते कथिताह्यर्ता: प्रकाशन्ते महात्मन: ||” (आचार्य द्वारा दिए गए निर्देशों का अर्थ केवल ऐसे महान व्यक्ति के लिए स्पष्ट होगा जिसकी परम सत्ता के प्रति परम भक्ति है और जिसकी अपने आचार्य के प्रति समान भक्ति है)।

जब पूछा गया कि “आप ऐसे व्यक्तियों के बारे में कैसा सोचेंगे?” विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कहते हैं

नञ्जि्लुम केडु एन्ऱु इरुप्पन् नान्– विष घातक है; वे उससे कहीं अधिक घातक हैं; विष से भी अधिक जो नीच और अस्थायी‌ शरीर को मार सकता है, इसके सेवन से, ये लोग अनुयायी, शाश्वत आत्मा को मार रहे हैं; इसलिए वे नित्य संसारी (शाश्वत रूप से बंधी हुई आत्मा) के समान बहुत क्रूर हैं, जिन्हें महापातकी (महान पापी) के रूप में वर्णित किया गया है ”नापक्रामति संसारात् स खलु ब्रह्मा भवेत्” (जिसने संसार को पार नहीं किया है उसे ब्राह्मण का हत्यारा कहा जाता है जो कि एक महापाप है) – ऐसा मैंने निश्चय किया है।

विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै दयापूर्वक अपनी विशेष ज्ञान की व्याख्या कर रहे हैं।

इरुप्पन्– मेरे लिए इस विचार में कोई बदलाव नहीं है। यह मेरा जीवन है।

नान्– मेरे लिए जिसे पिळ्ळै लोकाचार्य की स्वीकृति प्राप्त है, यह सूझ-बूझ बाहरी नहीं होगी [यह स्वाभाविक होगी]।

इस प्रकार, इन तीन पासुरों (२से४) के साथ, विळाञ्जोळैप् पिळ्ळै विशेष अर्थ प्रकट कर रहे हैं जो अधिकारी निष्ठा प्रकारणम् के सूत्र ३०६ में प्रकट हुए हैं “असह्यपचारमावदु– निर्निबंधनमाग भगवत् भागवत विषयं एन्ऱाल् असह्यमाननाय् इरुक्कैयुम, आचार्य अपचारमुम्, तद्भक्त अपचारमुम्” (असह्यापचारम् बिना किसी कारण के भगवान और भागवतों के बारे में कुछ भी सहन नहीं करना, आचार्य और आचार्य के शिष्यों/भक्तों को अप्रसन्न करना) और सूत्र ३०७ “इवै ओन्ऱुङ्कोन्ऱु क्रूरङ्गळुमाय्, उपाय विरोधिगळुमाय्, उपेय विरोधिगळुमाय इरुक्कुम” (ये निषिद्ध विषय पिछले वाले की तुलना में क्रमिक रूप से अधिक भयंकर हैं, और उपाय (साधन) और उपेय (लक्ष्य) के लिए बाधाएं बने रहेंगे)।

अगला पाशुर हम अगले लेख में देखेंगे।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

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