शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 1

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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अवतारिका (भूमिका)

5 चूर्णिका में श्रीरामानुज स्वामीजी उन परमात्मा को स्थापित करते है, जिनकी शरणागति सभी को करनी चाहिए। श्रीरामानुज स्वामीजी प्रभावी रूप से यह बताते है कि “नारायण” ही परमात्मा है। हम पहले देख चुके है कि “नारायण” शब्द दो खण्डों से निर्मित है, नारा: (विभिन्न प्रकार के चित और अचित तत्वों का संग्रह) और अयन  (निवास स्थान)। नारा: के विवरण को आगे के वाक्यांशों के लिए रखकर, इस भाग में वे परमात्मा के स्वरुप का विवरण करते है।

क्यूंकि यह चूर्णिका बहुत बड़ी है, हम इसके विवरण को पांच भागों में पूर्ण करेंगे – प्रथम भाग में हम श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा भगवान के स्वरुप के विवरण तक के खंड को देखेंगे।

पहले सम्पूर्ण चूर्णिका को यहाँ देखते है :

अखिलहेय प्रत्यनिक कल्याणैकथान स्वेतर समस्त वस्तु विलक्षण अनंत ज्ञानानंदैक स्वरुप ! स्वाभिमतानुरूप एकरूप अचिंत्य दिव्याद्भुत नित्य निरवद्य निरतिशय औज्ज्वल्य सौंदर्य सौगंध्य सौकुमार्य लावण्य यौवनाद्यनंत गुणनिधि दिव्यरूप ! स्वाभाविकानवधिकातिशय ज्ञानबलैश्वर्य वीर्यशक्तितेज: सौशील्य वात्सल्य मार्तधवार्जव सौहार्द साम्य कारुण्य माधुर्य गांभीर्य औधार्य चातुर्य स्थैर्य धैर्य शौर्य पराक्रम सत्यकाम सत्यसंकल्प कृतित्व कृतज्ञात्यसंख्येय कल्याणगुणागणौघ महार्णव ! स्वोचित विविध विचित्रानंदाश्चर्य नित्य निरवद्य निरतिशय सुगंध निरतिशयसुखस्पर्श निरतिशय औज्ज्वल्य किरीट मकुट चुडावतम्स मकरकुंडल ग्रैवेयक हार केयूर कटक श्रीवत्स कौस्तुभ मुक्ताधाम उदरबंधन पीताम्बर कांचीगुण नुपुराध्यपरिमिता दिव्य भूषण ! स्वानुरूपाचिंत्य शक्ति शंख चक्र गदा (असी) सारंगाध्यसंख्येय नित्य निरवद्य निरतिशय कल्याण दिव्यायुध ! स्वाभिमत नित्य निरवद्यानुरूप स्वरुप रूप गुण विभवैश्वर्य शीलाध्यनवधिकातिशय असंख्येय कल्याणगुणगण श्रीवल्लभ ! एवंभुत भूमि नीलानायक ! स्वच्छंदानुवर्ती स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति भेद अशेष शेषतैकरतिरुप नित्य निरवद्य निरतिशय ज्ञानक्रियैश्वर्याध्यनंत कल्याण गुणगण शेष शेषासन गरुड़ प्रमुख नानाविधानंत परिजन परिचारिका परिचरित चरणयुगल ! परमयोगी वांगमनसा परिच्छेद्य स्वरुप स्वभाव स्वाभिमत विविध विचित्रानंत भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्ध अनंताश्चर्य अनंत महाविभव अनंत परिमाण नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुंठनाथ ! स्वसंकल्प अनुविधायी स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति स्वशेषतैक स्वभाव प्रकृति पुरुष कलात्मक विविध विचित्रानंत भोग्य भोक्तरूवर्ग भोगोपकरण भोगस्थानरूप निखिल जगादुधय विभव लय लीला ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम ! महाविभुते ! श्रीमन ! नारायण ! श्रीवैकुंठनाथ ! अपारकारुण्य सौशील्य वात्सल्य औधार्य ऐश्वर्य सौंदर्य महोधधे ! अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विदित निखिल भूत जात यातात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरत !अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूत ! निखिल जगदाधार ! अखिल जगत स्वामिन् ! अस्मत स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! सकलेतर विलक्षण ! अर्थिकल्पक ! आप्तसक ! श्रीमन् ! नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये I

शब्दार्थ:

अखिलहेय – वह सब जो दोषयुक्त है

प्रत्यनिक – बिलकुल विपरीत

कल्याणैकथान – केवल शुभ कल्याण गुणों से युक्त

स्वेतर – स्वयं के अलावा

समस्त – सभी

वस्तु – पदार्थ (प्राणी)

विलक्षण – श्रेष्ठ

अनंत – जिसका कोई अनंत न हो

ज्ञान – ज्ञान/ विद्या

आनंदैक – आनंद से पूर्ण

स्वरुप – मौलिक/ मूलभूत प्रकृति

स्वाभिमत – उपयुक्त

अनुरूप – आकर्षक बाह्य रूप

एकरूप – एक बाह्य रूप

अचिंत्य – जिसे विचार नहीं किया जा सकता

दिव्य – उत्कृष्ट

अद्भुत – चमत्कारिक

नित्य – स्थायी

निरवद्य – बिना दोष के/ त्रुटिहीन

निरतिशय – अतुलनीय

औज्ज्वल्य – अत्यंत उज्जवल

सौंदर्य – अंगों में सुंदरता

सौगंध्य – मधुर गंध

सौकुमार्य – कोमल

लावण्य – सम्पूर्ण सौंदर्य

यौवन – युवा

आदि – प्रारम्भ करके

अनंत – जिसका अंत न हो

गुण – विशिष्ट लक्षण

निधि – निधि

दिव्यरूप – उत्कृष्ट रूप

स्वाभाविक – प्राकृतिक

अनवधिक – असीम; बहुतेरे

अतिशय – अद्भुत

ज्ञान – ज्ञान/ विद्या

बल – शक्ति

ऐश्वर्य – नियंत्रित करने की क्षमता

वीर्य – कभी न शिथिल होने वाले

शक्ति – ऊर्जा/ ताकत

तेज – प्रभा/ कांति

सौशील्य – जो स्तरों (दूसरों की तुलना के संदर्भ से) में भेद का विचार नहीं करते; सभी को समान मानने वाले

वात्सल्य – माता के स्नेह- ममता सा (जिसप्रकार एक गोमाता अपने बछड़े के प्रति स्नेह प्रदर्शित करती है)

मार्ध्व – ह्रदय से कोमल

आर्जव – सच्चा, नेक, निष्कपट

सौहार्द – सत ह्रदय वाला

साम्य – समान

कारुण्य – दया

माधुर्य – सदय, कृपालु

गांभीर्य – गहरा, प्रगाढ़

औधार्य – उदार प्रकृति के

चातुर्य – चतुर

स्थैर्य – दृढ़

धैर्य – साहस

शौर्य – शत्रुओं को हराने वाले

पराक्रम – जो थके न

सत्यकाम – जिनमें आकर्षक, सुंदर गुण हो

सत्यसंकल्प – स्वयं की अभिलाषा अनुसार संरचना करने की क्षमता

कृतित्व – करते हुए

कृतज्ञात – कृतज्ञ

असंख्येय – अगणित

कल्याण – मंगलमय, शुभ

गुण – विशिष्ट लक्षण

गणौघ – संग्रह

महार्णव् – विशाल सागर

स्वोचित – स्वयं के लिए उचित

विविध – बहुत प्रकार से

विचित्र – एक विशेष प्ररूप में बहुत से प्रकार

अनंताश्चर्य – अद्भुत जिसका कोई अंत न हो

नित्य – सदा / नित्य

निरवद्य – त्रुटिहीन/ दोष विहीन

निरतिशय सुगंध – मधुर सुगंध उत्सर्जित करना

निरतिशय सुखस्पर्श – भगवान के विग्रह पर मोलायम/ कोमल

निरतिशय औज्ज्वल्य – कांति फैलाते हुए

किरीट –शीश का परिधि युक्त/ चक्र समान आभूषण

मकुट – किरीट पर मुकुट के समान पहना जाने वाला

चुडा – ललाट पर पहना जाने वाला

अवतम्स – कानों पर पहना जाने वाला

मकर – मत्स्य (मछली) के समान

कुंडल – कानों की बाली

ग्रैवेयक – गले का हार

हार – हार

केयूर – कन्धों पर पहना जाने वाला

कटक – बाहं पर धारण की जाने वाली चूड़ी/ भुजबंद

श्रीवत्स – तिल के समान

कौस्तुभ – मध्य/ केंद्र का मणि

मुक्ताधाम – मोती के आभूषण

उदरबंधन – कमर और उदार के मध्य पहना जाने वाला

पीताम्बर – पीले वस्त्र

कांचीगुण – कमर की कर्दानी

नुपुर – पायल

आदि – और ऐसे ही बहुत

अपरिमित – अगणित

दिव्यभूषण – दिव्य आभूषण

स्वानुरूप – अपने स्वरुप के अनुसार

अचिंत्य – सोच के परे

शक्ति – प्रबल

शंख – शंख

गदा – गदा

अशी – तलवार

सारंग – धनुष

आदि – इसी प्रकार के बहुत से शस्त्र

असंख्येय – अगणित

नित्य – स्थायी

निरवद्य – दोष रहित

निरतिशय – अद्भुत

कल्याण – मंगलमय

दिव्यायुध – दिव्य शस्त्र

स्वाभिमत – उनकी पसंद के अनुरूप

नित्य निरवद्य – स्थायी, दोष रहित

अनुरूप – उनके सौंदर्य के सदृश

स्वरुप – मूलभूत विशेषताएं

रूप – बाह्य रूप

गुण – विशेषता

विभव – संपत्ति

ऐश्वर्य – नियंत्रित/ निर्देशित करना

शील – श्रेष्ठ व्यक्ति, जो अवर व्यक्ति से भी बिना किसी भेदभाव के व्यवहार करते है

आदि – इसी प्रकार के बहुत से गुण

अनवधिक – कभी कम/ क्षीण न होने वाली

अधिशय – अद्भुत

असंख्येय – अगणित

कल्याण – मंगलमय

गुण गण – गुणों का भण्डार

श्री – महालक्ष्मीजी – श्रीजी

वल्लभ – स्नेही; प्रिया

एवं भूत – समान गुणों वाली

भूमि नीला नायक – श्रीभूदेवी और श्रीनीलादेवीजी के नाथ / स्वामी

क्यूंकि यह चूर्णिका बहुत ही बड़ी है, शेष चूर्णिका के शब्दशः अर्थों को हम अगले अंक में जानेंगे।

विस्तृत व्याख्यान

अखिलहेय– अयोग्यता/ दोष। सभी भिन्न प्राणियों में कुछ दोष निहित है। अचित के संदर्भ में, उसका निरंतर परिवर्तनिय स्वरुप ही उसकी अयोग्यता है। बद्धात्मा (संसार बंधन में बंधे) के संदर्भ में, दोष यह है कि देह धारण करने के पश्चाद वह अपने पूर्व पाप और पुण्यों के अनुसार सतत सुखों और दुखों का अनुभव करता है। मुक्तात्मा (संसार बंधन से मुक्ति प्राप्त कर श्रीवैकुंठ में पहुंचे जीव) के संदर्भ में दोष यह है कि मुक्त होने के पहले वे भी संसार में सुखों और दुखों को निरंतर अनुभव किया करते थे। नित्यात्मा (परमपद के नित्य निवासी जैसे अनंतजी, विष्वक्सेनजी, गरुड़जी, आदि) के संदर्भ में अयोग्यता यह है कि उनमें निहित सभी शुभ विशेषताएं उनकी स्वयं की नहीं, अपितु भगवान की निर्हेतुक कृपा द्वारा प्राप्त है, अर्थात वे स्वतंत्र नहीं है। सिर्फ परमात्मा के लिए ही कोई योग्यता/ दोष नहीं है, वे सभी में सक्षम है।

प्रत्यनिक – बिलकुल विपरीत; इसका आशय है कि भगवान उन सभी के विपरीत है, जो सभी दोषयुक्त है। अन्य शब्दों में, भगवान सभी दोषों/ अयोग्यताओं से मुक्त है।

कल्याणैकथान – सभी कल्याण गुणों को धारण करने वाले एकमात्र स्वामी। भगवान न केवल सभी दोषयुक्त के विपरीत है, अपितु सभी अच्छे के प्रतीक भी है।

स्वेतर समस्त वस्तु विलक्षण – सभी प्राणियों (चेतन और अचित) की तुलना में वे श्रेष्ठ/ सर्वोत्तम है। इसे इस बात के स्वाभाविक परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है कि वे सभी दिव्य गुणों के स्वामी है और सभी दोषपूर्ण से विहीन है।

अनंत – जिसका कोई अंत न हो। हम सभी प्राणी स्थान, समय और भौतिक व्यवस्था के द्वारा सिमित है; अर्थात हम केवल एक ही स्थान पर रहते है, एक विशिष्ट समय जैसे 100 वर्ष या 120 वर्ष तक जीवित रह सकते है परंतु सदा के लिए नहीं और हम एक ही देह को धारण करते है। परंतु भगवान इनमें से किसी से भी परिमित नहीं है। वे एक ही समय पर बहुत से स्थानों पर हो सकते है, नित्य है और एक से अधिक देह को धारण करते है। क्यूंकि हम सभी उन्हीं में निवास करते है, वे सर्वव्यापी है और सभी देहों में विद्यमान है। प्रलय के समय में भी, एक मात्र वे ही विद्यमान रहते है। इसलिए उन्हें अनंत कहा जाता है।

ज्ञान आनंदैक स्वरुप भगवान स्वयं प्रकाशित है, उन्हें अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। यह आत्मा के लिए भी सत्य है। इसे स्वयंप्रकाशत्व कहा जाता है। भगवान ज्ञान से परिपूर्ण है, उस ज्ञान से आनंद की उत्पत्ति होती है। इसलिए ज्ञान और आनंद उनके स्वरूप है। अब तक श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान के स्वरुप की महिमा का वर्णन कर रहे है। अब वे उनके रूप (तिरुमेणी/ विगृह) का वर्णन करते है। पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से बनी हमारी भौतिक देह के विपरीत, भगवान का विग्रह शक्ति और पांच उपनिषदों से बना है।

स्वाभिमत – उनके गुणों के अनुरूप/ उपयुक्त। उनका रूप उपरोक्त वर्णित उनके स्वरुप के गुणों से अधिक आभायमान है और उन्हें प्रिय है। इसलिए, उनके रूप के गुणों का वर्णन करने से पहले, वे उनके विग्रह/ शरीर (भगवान की तिरुमेणी) का वर्णन करते है। जैसा की महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण (18 पुराणों में से एक) में उल्लेख किया, यह ऐसा विग्रह है जो वे स्वयं की इच्छानुरूप धारण करते है। उनका यह रूप उनका बहुत प्रिय है। जीवात्माओं को शुद्ध करने के उद्देश्य से, जब सभी अन्य उपाय विफल होते है, तब अंततः वे अपने विग्रह के दर्शन प्रदान कर उस जीवात्मा को अपने मार्ग पर लाते है।

अनुरूप – उनका दिव्य विग्रह बहुप्रकार से उनके स्वरुप के पूरक है (जैसा की हम पहले देख चुके है)। हमारे विषय में, हमारी आत्मा ज्ञान से ज्ञान और आनंद से पूर्ण है। यद्यपि हमारी देह, आत्मा के इस स्वरुप को आच्छादित कर देती है, परंतु भगवान के संदर्भ में उनके बाह्य रूप उनके स्वरुप के गुणों की शोभा और अधिक बढ़ाते है।

एकरूप – केवल एक रूप (बाह्य रूप)। हमारे जीवन में भी हमें एक ही शरीर प्राप्त होता है। तब फिर भगवान के एकरूप से क्या आशय है? जीवन चक्र में हमारा शरीर 6 विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों से गुजरता है– निर्माण होता है, जन्म होता है, परिवर्तन होता है, बढता है, क्षीण होता है और फिर एक दिन वह समाप्त हो जाता है। इसे शठ विधा भाव कहा जाता है (6 विभिन्न प्रकार के रूप)। भगवान के संदर्भ में, उनकी विग्रह में ऐसे कोई परिवर्तन नहीं होते। उनका एक ही विग्रह है और वह सदा एक समान रहता है।

अचिंत्य – उनके रूप का स्मरण रखना हमारे मानस के सामर्थ्य के परे है। मंदिर में रहते हुए उनके दिव्य विग्रह के घंटों दर्शन करने के बाद, जब हम घर पहुँच कर उनकी पोषक, माला के फूलों के रंग अथवा उनके द्वारा पहने हुए विभिन्न प्रकार के आभूषणों का स्मरण करते है, तो हम उसे पुर्णतः स्मरण नहीं कर पाते।

दिव्य – यद्यपि हम कितने भी प्रयास करले, हम उनके समान किसी को भी खोज नहीं पाएंगे। उन्हें अप्राकृत संबोधन किया जाता है जबकि हमारी देह प्राकृत है जो 5 विभिन्न तत्वों से निर्मित है और भगवान का रूप इन सामान्य तत्वों से निर्मित नहीं है।

अद्भुत – निरंतर परिवर्तित होने वाला। कुछ शब्दों पहले हमने देखा भगवान एकरूप है (अपरिवर्त्य) और उनका रूप सदा एकसमान रहता है और परिवर्तित नहीं होता है। परंतु अब ऐसा कैसे है कि हम कह रहे है वे परिवर्तित होते है? यहाँ अद्भुत से आशय है – जैसे हम प्रतिदिन भगवान के एक ही विग्रह के मंदिर में दर्शन करते है, फिर भी हम सदा उनके रूप में कुछ नया अनुभव करते है। उनके आभूषण, उनकी पोषकें और मालाएं, श्रृंगार आदि सदा परिवर्तित होते है। इसप्रकार वे कभी पिछले दिन या पिछले सप्ताह के समान प्रतीत नहीं होते। प्रत्येक क्षण वे भिन्न प्रकट होते है और इन सभी रूपों में वे अद्भुत नज़र आते है।

नित्य निरवद्यअवद्य से आशय है दोष/ अशुद्धि। निरवद्य अर्थात जिसमें कोई दोष अथवा अशुद्धि न हो। नित्य निरवद्य अर्थात किसी भी समय में कभी भी जिसमें कोई दोष न हो अर्थात जो नित्य ही दोषरहित हो। वे कभी यह नहीं सोचते कि उनका रूप, विग्रह उनके लिए है। उनका रूप उनके सभी भक्तों के हितार्थ है। यह निरवद्य का एक और अन्य अर्थ है।

निरतिशय औज्ज्वल्यऔज्ज्वल्य से आशय है पूर्ण चमक/ कांति। उनकी चमक ऐसी है कि ब्रह्माण्ड के सबसे अधिक चमकते सितारे भी उनके विग्रह के तुलना में अन्धकारमय नज़र आते है। अब तक श्रीरामानुज स्वामीजी उनके बाह्य सुंदर रूप के विषय में चर्चा कर रहे थे। अब वे भगवान के रूप की विशेषताओं का वर्णन प्रारंभ करते है।

सौंदर्य – दिव्य देह के सभी अंगों का सौंदर्य। जब किसी देह को दूर से देखा जाता है तब वह पूर्ण रूप से सुंदर नज़र आ सकती है परंतु पास आने पर उनमें से कुछ अंग उतने सुंदर नहीं है और वे और भी अधिक श्रेष्ठ हो सकते थे, ऐसा अनुभव होता हैl भगवान के संदर्भ में, शरीर के अंग संपुर्णतः सुंदर प्रतीत होते है।

सौगंध्य – मनभावन मधुर गंध। और अन्य वस्तुओं को भी सुगंध प्रदान करने का सामर्थ्य।

सौकुमार्य – अत्यंत सुकोमल। उनका विग्रह इतना सुकोमल है कि यदि श्रीजी उनकी और देख ले, तो वह अंग लाल रंग का हो जाता है, वह इतना सुकोमल है।

लावण्य – उनके रूप की सम्पूर्ण सुंदरता। इसकी तुलना सौंदर्य से करे, जिस गुण का वर्णन उपर किया गया है। यद्यपि सौंदर्य अंगों की सुंदरता के लिए प्रयोग किया गया है, लावण्य सम्पूर्ण रूप के सौंदर्य को दर्शाता है। हमारे नेत्र अपने जीवनकाल में उनके शरीर के प्रत्येक अंग को देखने और सराहने में समर्थ नहीं है; इसीलिए उनमें लावण्य का गुण भी विद्यमान है, जिसके द्वारा हमारे नेत्र उनके सम्पूर्ण रूप के सौंदर्य के दर्शन कर सके।

यौवन – उनकी युवा अवस्था को प्रदर्शित करता है। युगों युगांतर बीतने पर भी वे सदा ही इसी यौवन की अवस्था में ही रहते है। वे कभी वय नहीं होते।

आदि – उपरोक्त गुणों से प्रारम्भ होकर, ऐसे और बहुत से गुण है।

अनंत गुण निधि – ऐसी अनंत सद्गुणों के निधि।

दिव्य रूप – उनका रूप जो श्रीवैकुंठ में है, वह इस लीला विभूति (लौकिक जगत) में न रखने योग्य रूप में उपस्थित है।

अब तक हमने भगवान के स्वरुप, रूप और रूप के गुणों के विषय में देखा। अब चूर्णिका 5 के द्वितीय भाग में हम उनके स्वरुप के गुणों, उनकी दिव्य महिषियों, नित्यसुरियों, श्रीवैकुंठ, लीला विभूति आदि के विषय में चर्चा करेंगे, जो उनके नारायण संबोधन के “नारा” खंड को समझाती है।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-1/

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