श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः
श्लोक ५
अष्टाक्षराख्वय मनुराजपदत्रयार्थ निष्ठां ममात्र वितराध्य यतीन्द्र नाथ !
शिष्टाग्रगण्य जन सेव्यभवत्पदाब्जे हृष्टाऽस्तु नित्यमनुभूय ममास्य बुद्धि: | ५ |
नाथ यतीन्द्र ! : हे यतिराज
अष्टाक्षराख्य मनुराज : अष्टाक्षर नामक मूल मन्त्र के
पद त्रयार्थ निष्ठां : तीन पदों में क्रमश: संगृहीत अनन्यार्हशेषत्व, अनन्यशरणत्व तथा अनन्यभोग्यत्व की निष्ठा को
ममात्र अध्य वितर : आज यहाँ मुझे प्रदान कीजिये |
असि मम बुद्धि: : इस मुझे नीच की बुद्धि
शिष्टाग्रगण्य जनसेव्य : शिष्टाग्रणी लोगों के द्वारा सेवित आपके चरण कमालों का
भवत्पदाब्जे
नित्यं अनुभूय हृष्टा अस्तु : नित्य अनुभव कराते हुए प्रसन्न हो |
पिछले श्लोक में कैंकर्य करने की जो प्रार्थना की गई थी उसी की पुष्टि में अष्टाक्षर मन्त्र का स्मरण इस श्लोक में किया गया है| इस श्लोक में यह प्रार्थना के गई है कि अष्टाक्षर मन्त्र में जिन निष्ठाओं का उल्लेख है, वे प्राप्त हों|
‘मनु’ मन्त्र का पर्यायवाचक शब्द है| अत: मनुराज से मन्त्रराज अर्थ प्रकट होता है | सम्प्रदाय में अष्टाक्षर को मन्त्रराज और द्वय को मन्त्ररत्न कहने की परिपाटी है| मन्त्रराज में प्रणव, नम: और नारायणाय ये तीन पद हैं | यध्यापि प्रणव का विश्लेषण करने पर आ, उ और म भी तीनों अलग अलग तीन पदों का रूप ग्रहण कराते हैं तथापि यहाँ पर प्रणव को उक्त पद के रूप में ही ग्रहण किया गया है| ‘नाम:’ को भी विभक्त कर दो पद कहे जा सकते हैं किन्तु यहाँ पर एक ही पद है| नारायण तो एक पद है ही| इन तीन पदों में क्रमश: अनन्यार्हशेषत्व, अनन्यशरणत्व और अनन्यभोग्यत्व के भाव प्राप्त होते हैं| ये मुमुक्षु के लिए परम ज्ञातव्य हैं| मुमुक्षुप्पडि आदि रहस्य ग्रन्थों में इनका वर्णन है| इन निष्ठाओं के लिए ही यहाँ पर यतिराज से प्रार्थना की गई है| अनन्यशेषत्व, उपायान्तरप्रवृत्ति एवं भोग्यांतरप्रावण्य की संभावना भी न हों यही प्रार्थना है|
‘अर्थ’ और ‘अध्य’ अर्थात् यहाँ व आज के लिए इन निष्ठाओं को सीमित कर आँय देश काल में देने का विचार दूर किया हैं| आँय देश काल में ये होंगी ऐसा कह कर प्रार्थना को टाला नहीं जा सकता|
श्रीपरकाल ने मन्त्रराज की व्याख्या कराते हुए बताया है कि इसमें भागवतशेषत्व की भावना प्रधान प्रमेय है| श्लोक के उत्तरार्ध में उसको अपनाने के लिए अभिलाषा प्रकट की गई है| आचार्य सार्वभौम भागवतोत्तम हैं| उनके शेषत्व के लिए प्रार्थना, इस श्लोक का लक्ष्य है| अंत में कहा गया है कि शिष्टाग्रणी अनन्त आल्वान् आदि महानुभावों के द्वारा यतिराज के चरणों की सेवा होती है| उन चरण कमलों के नित्यानुभव की प्रार्थना यहाँ पर की गई है| उक्त श्लोक में यतिराज से यह भी प्राथना की गई है कि अष्टाक्षर में निहित तीनों प्रकार की निष्ठायें भगवान श्रीमन्नारायण के अलावा आपके प्रति भी स्थिर हों || ५ ||
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