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ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ४०

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ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३९ 

पाशुर ४०:

Arjuna_meets_Krishna_at_Prabhasakshetra

अल्लि मलर पावैक्कन्बर अडिक्कन्बर
सोल्लुम अविडु सुरुदियाम नल्ल
पड़ियाम मनु नूर कवर सरिदै पार्वै
सेडियार विनैत तोगैक्कुत ती

प्रस्तावना:

“आचार्य भक्ति” और “भक्तों के भक्त” के विचार को पिछले कई पाशुरों में विस्तार से बताया गया है। इसके बावजूद भागवतों का महत्त्व और गंभीरता सांसारिक लोगों को बल देकर समझाना होगा। यह भागवत जन निरन्तर आचार्य और दूसरे भागवतों के बारें में वार्ता करते है। उनका कार्य ही आचार्य और दूसरे भागवतों के प्रति कैंकर्य है। अत: उनके शब्दों और कार्य में हमेशा आचार्य और दूसरे भागवत ही रहते हैं। इनके विचार सांसारिक लोगों के विचार से पूर्णत: विपरीत हैं। इस विषय के उदाहरण के लिये हम श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी कि कथा देख सकते हैं। एक समय कि बात हैं श्रीरंगम मे पेरिया तिरुनाल उत्सव चल रहा था और भगवान श्रीरंगनाथ कि पालखि श्रीरंगम कि गलियो से गुजर रही थी। श्रीरामानुज स्वामीजी के एक महान शिष्य थे “श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी” जो अपने आचार्य श्रीरामानुज स्वामीजी के सिवाय और किसी को जानाते हीं नहीं थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान कि आराधन के लिये बाहर गये हुवे थे। अपने साथ श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी को न पाकर श्रीरामानुज स्वामीजी ने पुकारा “हे! आन्ध्रपूर्ण भगवान कि पूजा करने के लिये इधर आवों”। तब श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी श्रीरामानुज स्वामीजी के लिये दूध गरम कर रहे थे। जब उन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी कि आवाज सुनी तो कहा कि “अगर अडिएन आपके भगवान कि आराधन करने के लिये बाहर आता तो उनका ध्यान दूध गरम करने के कैंकर्य से हट जाता तब मेरे भगवान (जो और कोई नहीं श्रीरामानुज स्वामीजी है) के लिये दूध न रहता”। अगर कोई सांसारिक मनुष्य यह कथा देखता है और श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी के स्वभाव को देखता है तो उसके रोज के दिनचर्या से बहुत विपरीत होगा। अत: वह सांसारिक जीव ऐसे लोग और उनके कार्य के प्रति अपमानजनक शब्द कहेंगे। वह संसारी यहीं नही रुकेगा। यह उन भागवतों के लिये भी सत्य है जो भगवान के भक्त है। ऐसे जन भी श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी और उनके जैसे भक्तों के प्रति गलत या निषेधात्मक शब्द का प्रयोग करेंगे। वह यह कह सकते हैं “भगवान के प्रति इन लोगों कि आज्ञा का पालन देखिये और यह लोग आचार्य और अन्य जनों के पीछे जा रहे है। अन्त मे तो भगवान ही सब पर कृपा करेंगे और ऐसा हैं तो क्यों ये लोग दूसरे लोगों के पीछे घूमते है”। अब यह प्रश्न आता है कि भक्तों के भक्त प्रति क्या होता है अगर इनके उपर शिकायत आती है। यह पाशुर जो सांसारिक लोग और भगवान के भक्त शिकायत करते है उन प्रश्नों का उत्तर देता है। इन जवाबो के अलावा श्री देवराज मुनि स्वामीजी इन महान आत्मा की भाषाए, कार्य और अनुभव को सांसारिक लोगों से पूर्णत: विपरीत बताते है। यह अपने आप मे एक कीर्ति हैं।

पाशुर ४० अर्थ: अविडु सोल्लुम – वह हास्यजनक चर्चाये; अडिक्कन्बर – भक्तों कि जो चरण कमल में है; अंबर – भगवान के जो प्रेमी है ; अल्लि मलर पावैक्कु – पेरिया पिराट्टी का ; सुरुदियाम – स्वयं वेदों के बराबर है ; कवर सरिदै – उनकी गतिविधियाँ ; मनु नूर नल्ल पड़ियाम – मनु धर्म शास्त्र के लिये एक उच्च उदाहरण है ; पार्वै – उनकी दूरदृष्टी ; ती – अग्नि के तरह कार्य करती है ; विनैत तोगैक्कुत – बुरे कर्मो का नाश करने के लिये जो ; सेडियार – एक व्यक्ति को डुबाती है।

स्पष्टीकरण:

अल्लि मलर पावैक्कन्बर अडिक्कन्बर: भगवान श्रीमन्नारायण हमेशा अपने पत्नी पेरिया पिराट्टी से प्रेम करते है जो उनके कमल पुष्प से आयी हैं। क्यों भगवान हमेशा उनकी पत्नी के साथ रहते दिखते है उसके लिये एक कारण है। हमें यह समझाने के लिये कि भगवान कि कृपा के लिये सबसे पहिले अम्माजी का पुरुषकार होना आवश्यक हैं। उनकी कृपा और आशिर्वाद भगवान

कि पहचान बनाता है जिससे हम उन्हे जान सके। यह हमें यह भी दिखाता हैं कि भगवान अम्माजी के प्रति अतृप्त प्रेम व्यक्त करते है। अत: जो भगवान के चरण कमलों में हो जो अपने पत्नी से प्रेम करता हो उसे “अल्लि मलर पावैक्कन्बर अडिक्कन्बर” कहकर बुलाते हैं। वह प्रेम जो यह भक्त भगवान के चरण कमल के प्रति बताते उनकी पहिचान बताते हैं। सोल्लुम अविडु सुरुदियाम: ऐसे भक्त कुछ हास्यजनक और अलग बात बोल सकते है। हालाकि वो जो भी कहते है उसमे वेदों के जैसे हीं विश्वसनीयता है । गुरूपरम्परा मे हम ऐसे शब्दों को देख सकते है। उदाहरण के लिये “उड़यवर वार्ता”, “भट्टर वार्ता”, “कुरेश वार्ता”, “कलिवैरिदास वार्ता”, “तिरुकोलूर वार्ता” शामिल हैं। यह वार्ताएं इन महान पूर्वाचार्यों से कही गयी हैं। वह बहुत महान गुप्त और बहुत ही आनंदित मतलब सरल तरिके से पहूंचाते है। जो श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के लिये वाक्य का प्रयोग करते है उसको दर्शाने के लिये कंबनाताज्वार “वाई तंधना कूरुधियों मरई तंधा वायाल” का प्रयोग करते है। “पेडयैप पीड़िट्टु तन्नै पीड़िक्का वंधदैन्ध पेधै वेदवनुक्कु उधवि सेयधु, विरगीदै वेंध्ल मूति पादुरु पसियै नोक्कि तन उदल कोदुत पैम्पुल व्ल्दु पेट्रू उयर्न्धा वार्ताई वेदांतिन विज़्हुमिधु अनरो?”। यह पद्य कम्बर रामायण से है जो एक शिकारी और कबुतर की कथा को लेकर शरणागति शास्त्र के बारे में चर्चा करता है। शरणागति के बारें में जो उस कबुतर ने वर्णन किया हैं वह वेद से भी उच्च हैं।

नल्ल पड़ियाम मनु नूर कवर सरिदै पार्वै: ऐसे भक्तों का इतिहास और कुछ नहीं उनका आचरण है। लोगों कि रोज कि दिनचर्या और आज्ञा पालन मे पक्का रहना मनु शास्त्र मे दस्तावेज़ किया हैं। ऐसे भक्तों का आचरण मनुशास्त्र के लिये उदाहरण हैं। ऐसे शास्त्र में उनके जाती के अनुसार जिसमे उनका जन्म हुआ है,क्या करना और क्या नहीं करना सब लिखा हैं। जिन्होंने इसे पढ़ा हैं और जानते हैं वह उसके अनुसार रहते है। हालाकि सांसारिक लोगों को जो शास्त्रों में बताया हैं सिखना और आज्ञा पालन समझना आसान नहीं हैं। यह सांसारिक लोग भगवान के भक्तों के रोज कि दिनचर्या और आचरण का पालन कर उसी कि तरह रह सकते है। ऐसे भक्तों का आचरण उसे पालन करने के लिये सभी के लिये एक उदाहरण हैं। वास्तव में यह भी कहा जा सकता है कि स्वयं शास्त्र वह भक्त कैसे व्यवहार करते है इतना ही जानते है। अत: यह देखा जा सकता है कि ऐसे भक्तों का आचरण हीं मूल है और शास्त्र ऐसे भक्तों के आचरण का प्रतिबिम्ब है। ऐसा विश्वास है इन भक्तों के आचरण पर रखा है। फिर से भगवान श्रीमन्नारायण के पास जाकर,

येनैतू उलमाराइ अवै इयाम्बर्प पालना
पनैतिरल करकरि भरधन सेयगए
अनैतिराम अल्लना अल्ला; अन्नधु
निनैतिलै, येंवायिं नेया नेंजिनाल” (कम्बरामायण, अयोध्या काण्ड, तिरुवड़ी चूट्टू पदलम-४४)

वेद वों है जो पूरे संसार को क्या करना और क्या नही करना यह बताता है। जो भी श्रीभरतजी ने किया वह सब शास्त्र में बताया गया है। ऐसे भी कुछ है जो शास्त्र में बताया गया है परन्तु भरतजी में नही देखा गया है ऐसे भी बाते वेदों को मान्य नहीं है। जो भी श्री भरतजी करते है वह माननिय है और खुशी मनायी जाती हैं। यह बात श्रीरामजी ने श्रीलक्ष्मणजी से कही थी। यह श्रीभरतजी का आचरण और उसी तरह दर्शाया गया है जैसे “मनु नूर्क्कु नल्ला पडियम”। सेडियार विनैत तोगैक्कुत ती: ऐसे भक्तों कि दृष्टी ऐसी होती है कि वह अपराधिय कर्मों को जो कोई एक ने जमा किया है और दबा रखा हैं उसे नष्ट कर देता है। क्योंकि उनकी दृष्टी ऐसे पाप, दबे हुये कर्म एक व्यक्ति को भीतर से नष्ट करती है और वह अपने आप ही उस जीवात्मा को जो उसके भीतर है उसे रास्ता दिखाता है। सम्पूर्ण सारांश: भगवान के भक्तों के शब्द और व्याख्यान, जो हमेशा उनकी पत्नि पेरिया पिराट्टी पर प्रिती रखते है, हालाकि वह हमे व्यंग लगता है परंतु वह हमेशा वेदों के बराबर रहता है। उनकी क्रियावों की नीव मनु शास्त्र जैसे शास्त्र मे से रखी गयी है जो मनुष्य सभ्यता मे क्या करना और क्या न करना ऐसा बतलाता है। यानि उनकी क्रिया मूल है और शास्त्र कि नकली। ऐसे ही भक्तों कि दृष्टी अग्नि की तरह काम करती है और लोगों कि बोझ और अपराधिय कर्मों को नष्ट कर देता है और स्वयं प्राप्ति के लिये राह बताता हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/05/gyana-saram-40-alli-malar-pavaikku/

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ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३९

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ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३८                                                            ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ४०

पाशुर-३९  putna1

अलगै मुलै सुवैत्तार्क्कु अंबर अडिक्कन्बर
तिलदम एनत तिरिवार तम्मै उलगर पलि
तूट्रिल तुदियागुम तूटादवर इवरै
पोट्रिल अदु पुन्मैये याम

प्रस्तावना: पिछले पाशुर में आचार्य कि महिमा के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी। आचार्य के चरण कमल का महत्व और वों ही उसके जीवन के लिये सबकुछ हैं यह जानकार एक मनुष्य उन्हें पकड़कर रखता हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी शिष्य को समझता हैं जिसने अपने आचार्य के चरण कमलों को पकड़ा हैं तो वह व्यक्ति सचमुच हीं समझदार हैं। लोग उस व्यक्ति को जो अपने आचार्य को ही सब कुछ समझता हैं उसकि महिमा को नहीं समझते वह उसके बारें में कुछ इस तरह बात करते हैं, “वह अपने आचार्य को ही सब कुछ मान कर उनके पीछे क्यों जा रहा हैं? वह उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण से भी बढ़कर क्यों मानता हैं? वह अपने आचार्य के पीछे-पीछे क्यों घुमाता हैं?” इन लोगों कि जो कुछ भी शिकायत हो परंतु यह पाशुर इन सब प्रश्नों का उत्तर देता हैं। यह लोग जो भी प्रश्न सामने रखे उसमे एक अनुमान कि बात हैं। यहाँ एक समुह के लोग हैं जो भगवान श्रीमन्नारायण के पिछे उनकी महिमा, रूप, श्रेष्ठ गुण, अवतार, कथाएं आदि सुनते जाते हैं। अगर यह समुह जो भगवान के पिछे जाता हैं दूसरे समुह के लोगों को जो आचार्य को ही सब कुछ मानते हैं उन्हें पुंछते हैं कि “आप लोग भगवान श्रीमन्नारायण के पिछे क्यों नहीं चलते हो और केवल एक मनुष्य जिसे आचार्य कहते हैं उनके पिछे जाते हो?” यह पाशुर भगवान के भक्तों से ही इन सब प्रश्नों का उत्तर देता हैं । सांसारिक लोगों से इन आचार्य भक्तोके प्रति कुछ भी निन्दा और जो प्रश्न भगवान के भक्तों ने किये हैं उन्हें उनकी महिमा को समझना होगा ना कि उसे शिकायत / फटकार समझना होगा। इस व्याकरणिक ढाचे को तमिल में “वंजपुगझ्चीयणि” कहते हैं। हम इस पर एक उदाहरण देख सकते हैं। एक समय कि बात हैं श्रीरामानुज स्वामीजी के समय बहुत से लोग श्रीरंगम में पुन्नै पेड़ के नीचे खड़े हुये थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भी वही पर उन सब लोगों के साथ भगवान कि सवारी के शुरू होने के इंतज़ार में वहाँ खड़े थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान के निकट खड़े थे। बहुत से भक्त श्रीरामानुज स्वामीजी के समीप आकर उन्हें दण्डवत करके चले गये। चोल राज का एक कवि जो यह सब कुछ उत्सुकता से देख रहा था उसका नाम “उदयार सुब्रमान्यभट्टर” था। इस का कारण जानने के लिये वह श्रीरामानुज स्वामीजी के निकट गया और पूछा, “हे! स्वामी! मैं आप से कुछ जानना चाहता हूँ”। श्रीरामानुज स्वामीजी ने कहा “पूछिये,कृपा करके आप को जो कुछ भी पूछना चाहते हैं उसे पूछिये”। उस कवि ने उत्तर दिया कि “मैंने बहुत से लोगों को देखा जो आपके पास आकर और आप को दण्डवत किया। उन्हें भी यह करने में आनन्द आ रहा था और आप जो भगवान के निकट खड़े थे आप ने भी उन्हें रोकने कि कोशिश नहीं कि और खुशी से उनके दण्डवत को स्वीकार किया। आप ने उन्हे दण्डवत करने से रोका भी नही। आप ने ऐसे क्यों किया जब उन्होंने आप को दण्डवत किया तब आपने उन्हें कुछ भी नही कहा ।” श्रीरामानुज स्वामीजी ने उत्तर दिया “हाँ, यह वह प्रश्न हैं जो कि पुछना चाहिये। यह बहुत अच्छा सवाल हैं। परन्तु मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि यह प्रश्न आप से आया।” वह कवि थोड़ा हैरान हो गया और कहा “मेरे में क्या विशेषता हैं?” श्रीरामानुज स्वामीजी ने उत्तर दिया “आप राज महल में सेवा करते हैं। आपके राजा के पास

बहुत से लोग आते होंगे। अगर किसी व्यक्ति को राजा से कुछ चाहिये तो वह राजा कि चरण पादुका को लेकर उसे अपने सिर पर रखकर उसको सन्मान देगा। राजा को पता हैं कि वह व्यक्ति उनकी चरण पादुका को सिर पर रकखर उन्हे सन्मान दे रहा हैं और यह राजा को लुभाने का एक तरीका हैं।” यह जानकर राजा निश्चित ही कुछ कर देता हैं कि उस व्यक्ति कि इच्छा पूर्ण हो जायेगी। इसक अर्थ उस व्यक्ति का काम क्या उन चरण पादुकाओंने किया? यह तो राजा ने उस व्यक्ति का काम किया नाकि चरण पादुका। यह घटना आपने बहुत बार राजमहल में जब आप होते हो तब देखी होगी। उसी तरह यहाँ भगवान तो राजा हैं और आडिएन भगवान कि चरण पादुका। लोगों को जो भगवान से कुछ भी चाहिये वह भगवान को खुश करने के लिये मुझे दण्डवत करते हैं, मै जो भगवान कि चरण पादुका कि तरह सेवा कर रहा हूँ। भगवान यह निश्चित करते हैं कि जो उनके प्रति प्रेम और आदर भावना रखेगा उसका कार्य पूर्ण हो जाये। इसलिये वह मुझे दण्डवत करते हैं। वह कवि “उदयार सुब्रमान्यभट्टर” श्रीरामानुज स्वामीजी से इतना बहुमूल अर्थ जानकार आनंदित हो गया। अत: यह देखा जाता हैं जो भगवद भक्त (भगवान श्रीमन्नारायण के भक्त) हैं वह आचार्य भक्तों पर करुणा दिखाते हैं। भगवद भक्तों को आचार्य भक्तों कि महिमा समझना चाहिये। अगर वें निष्फल हो जाते हैं परंतु आचार्य भक्तों पर करुणा दिखाते हैं तो आगे चलकर यह आचार्य भक्तों कि महिमा समझने की शुरुवात हो सकती है।

पाशुर अर्थ: अंबर – भक्त जन जो , अंबर अडिक्कन्बर – भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों में हैं , सुवैत्तार्क्कु – जिन्होंने पिया , अलगै मुलै – पुतना राक्षसी के छाती से दूध , तिलदम एनत – इन भक्तों का स्वभाव ऐसा हैं कि वह कृष्ण भक्तों को पवित्र मानते हैं क्योंकि उनके ललाट पर तिलक हैं, तिरिवार तम्मै – और इन महान आचार्य भक्त सब जगह फिरते हैं। ऐसे लोगों को अगर , उलगर – यह सांसारिक लोग , पलि तूट्रिल – यह कहते हैं कि यह लोग भगवान के पास जाने के सिवाय एक इन्सान के पिछे घुमते है, तुदियागुम – यह उनके लिये केवल एक प्रशंसा हैं क्योंकि यह उनकी आचार्य में भक्ति और भी दृढ़ करती हैं , अवर – हालाकी वही सांसारिक लोग , तूटादवर – अगर अपमान नहीं करते हैं , इवरै – उन आचार्य भक्तों का और , पोट्रिल – अगर वें प्रशंसा करती हैं, अदु – वह प्रशंसा , पुन्मैये याम – प्रशंसा नहीं अपमान हैं।

स्पष्टीकरण:

अलगै मुलै सुवैत्तार्क्कु: “अलगै” शब्द राक्षसी को संबोधित करता हैं। श्री तिरुवल्लुवर भी कहते हैं “वय्यतुललगय्यावैक्कपदुम”। “अलगै” पुतना राक्षसी को संबोधित करता हैं जो वेष बदलकर यशोदा के पास आयी। उसे कंस ने गोकुल में बड़े हो रहे श्रीकृष्ण को मारने भेजा था। पुतना ने अपने स्तन से जहरीला दूध पिलाकर श्रीकृष्ण को मारने कि कोशिश की। श्रीकृष्ण ने नाही दूध को चूसा बल्कि उसके साथ उसके प्राण भी निकाला लिये। यह कथा बहुत जगह बतायी गयी हैं। श्री परकाल स्वामीजी यह पद इस्तेमाल करते है “पेट्टतैपोलवन्धापेयचि पेरुमालैयूडूयीरैवर्रवाङ्गिउंदवायान “और “कंसोरवेंगुरुधिवंधिझियवेन्धझलपोंल्कून्ध्लालाईमण्स ओरमुलाईयुण्डमा मधलै”।श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं “विदपालमुधागामुधूसेयधित्तमायान”। यह कथा यह बताने के लिये ली गयी हैं कि भक्त अपने आप को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में डुबा देते हैं। अंबर अडिक्कन्बर: भक्त जन जो इन श्री कृष्ण कथाओं में लीन हो जाते हैं। पुतना कृष्ण के मारने के लिये आयी। जो इन कथाओं के बारें में विचार करते हैं वह कृष्ण के विशेष गुण के बारें में भी विचार करते हैं। श्रीकृष्ण ने पुतना को मारा और सिर्फ उसे मारा ही बल्कि अपने आप को बचाया जो इस संसार पर अपनी निर्हेतुक कृपा करने वाला हैं। अगर श्रीकृष्ण ने उसे नहीं मारा होता तो क्या श्रीकृष्ण हमारे लिये नहीं होते? उनमे ऐसा क्या महान गुण हैं जहाँ वह अपने आप को अपने भक्तों के लिये हमेशा प्राप्त हो। यह करने के लिये वह सभी राक्षसो को मार डालता हैं। भक्त उनके यह गुण के बारें में सोचते हैं और उनमे पूर्णत: लीन हो जाते हैं। तिलदम एनत तिरिवार तम्मै: अत: वह लोग जो अपने “आचार्य” के और अन्य भागवतों के भक्त हैं जो भगवान के भी भक्त हैं उन्हें सच में “महान” कहते हैं। सभी महान पूर्वज उन भक्तों का उत्सव मनाते हैं जो सब जगह घुमकर भागवतों और उनके आचार्यों के गुणों कि प्रशंसा करते रहते हैं। “तिलक” औरतों के माथे पर एक चिन्ह हैं जो वह हमेशा रखती हैं। यह शुभ का संकेत हैं इसलिये यह लोग जो भक्तों के भक्त हैं उनकी प्रशंसा होती हैं और शुभ उत्सव कि तरह मनाया जाता हैं। इस भक्तों के भक्त वाली अवस्था को बहुत से आल्वारों ने अपने पाशुरों में वर्णन किया हैं। विशेषत: श्री शठकोप स्वामीजी अपने सहस्त्रगिती के “पलियुम शुडरालि” और “नेडुमार्कडिमै” के पदों में इसका आनन्द लेते हैं। श्री परकाल स्वामीजी पेरिया तिरुमोझि के “कण्शोरवेङ्गुरूदि” और “नण्णद वाल अवुणर इडै प्पुक्कू” के पदों में इसका आनन्द लिया। श्रीकुलशेखर स्वामीजी पेरुमाल तिरुमोलि के “तेट्टरूम तिरल तेनिनै” के पदों में आनन्द लेते हैं। श्रीभक्ताघ्रिरेणु स्वामीजी “मेम्पोरूल्पोगविट्टु” में आनन्द लेते हैं। इसके अलावा हम इतिहास और पूराणों में बहुत से जगह देख सकते हैं। श्रीवचनभूषण के २२६वें चूर्निकै में भी बहुत अच्छी तरह बताया हैं। उलगर पलि तूट्रिल तुदियागुम: जब एक गृहस्थ एक व्यक्ति पर टिप्पणी करता हैं जो भक्तों का भक्त हैं कि “देखों इस व्यक्ति को, वह और एक व्यक्ति के पीछे बिना उस व्यक्ति के बारें में जाने जा रहा हैं। उसे उसकी जात, अभी कि दशा आदि के बारें में कुछ भी पता नहीं हैं। वह केवल उस व्यक्ति के पीछे जा रहा हैं और उसे अपने मोक्ष का साधन मानता हैं और भगवान को तुच्छ समझता हैं”। अगर यह नकारात्मक टिप्पणी हैं तो, यह नकारात्मक टिप्पणी / शिकायत या निन्दा नहीं हैं बल्कि यह एक कदम आगे बढ़कर उस व्यक्ति के गुण को जो अपने आचार्य और अन्य भागवतों को अपना सब कुछ मानता हैं यह सिद्ध करता हैं। अत: यह कोई अभद्र टीप्पणी या शिकायत नहीं बल्कि प्रशंसा करने लायक हैं।

तूटादवर इवरै पोट्रिल अदु पुन्मैये याम: अब हम सीक्के के दूसरी तरफ का पहलू देखेंगे। यह सम्भावना हैं कि यह सामान्य जन भक्तों के भक्त की बहुत सी प्रशंसा करें। क्या यह प्रशंसा सच में पहिले स्थान पर हैं? अगर नहीं तो इसका क्या मतलब हैं? यह सामान्य जन ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते जो उन्हें पहिले स्थान पर करने कि जरूरत हैं। वह यह सिर्फ करते ही नहीं पर मिथ्या दिखाते भी है। इससे आगे चलकर वह उनकी दिनचर्या को देखकर यह टिप्पणी उन भक्तों के भक्त पर करते हैं और यह कहते हैं “वह केवल शास्त्र का पालन कर रहे हैं”। वह यह टिप्पणी मिथ्या अवलोकन के आधार पर करते हैं और इसलिये इसका कोई अर्थ नहीं हैं। वह यह इसलिये कहते हैं कि दूसरे लोग भी यह सोचे कि वें भी उनके बराबर हैं और दूसरों का सम्मान करते हैं। हालकि असल बात यह हैं कि यह लोग कितना भी मिथ्या प्रशंसा कर ले वह भक्तों के भक्त के यश की बराबरी नहीं कर सकते। बल्कि यह उन पर उल्ठा ही गिरेगा उनका अपमान होगा। अडियारक्कु अदियर (भक्तों के भक्त): भक्तों के भक्तों का पूरा समूह सम्पूर्ण विश्व के यश का कारण है। स्वयं उन भक्तों के लिये “तिलकं” भी कह सकते हैं। अगर सांसारिक लोगों को यह शिकायत करनी हो तो वह भगवान के पास न जाकर लोगों के पास जाते हैं तब वह शिकायत नहीं हो सकती। तब वह केवल प्रशंसा होगी। अत: हमने भक्तों के भक्त कि महिमा देखी।

विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण: श्रीरामायण में श्रीराम, श्रीलक्ष्मण, श्रीभरत और श्रीशत्रुघ्न जब अच्छाई के लिये खड़े हुये और दूसरों के लिये उनके पथ पर चलने का एक उदाहरण बने। चारों में श्रीशत्रुघ्नजी को ही हमारे पूर्वज पूजते हैं। इसका कारण हैं कि श्रीशत्रुघ्नजी अपने भाई भरत जो अपने भाई श्रीराम का बहुत बड़ा भक्त था उनकि भक्त के तरह सेवा कि । श्रीशत्रुघ्न अपने भाई भरत का सब कैंकर्य करते थे और “भक्तों के भक्त” के लिये एक उदाहरण बने। श्रीशठकोप स्वामीजी कहते हैं “तोंडरतोंडरतोंडरतोंडनशठकोपन”, और “अडियार अडियारदियारेङ्कोकल”। श्रीयोगीवाहन स्वामीजी कहते हैं “अडियारक्कु अनैअत्पडुतै”। श्री भक्ताघ्रिणु स्वामीजी कहते “अडियारक्कु अनैअत्पडुतै”। श्री महायोगि स्वामीजी कहते हैं “अड़ीयार्गलेमतम्मविरिकवुंपेरूवार्गले”। श्री कुलशेकर स्वामीजी कहते हैं “तोंडरतोंडरगलानवर”। यह सब एक ही तथ्य को दर्शाते हैं कि सभी आल्वार एक ही श्रेणी “अडियारक्कु अदियर” (भक्तों के भक्त) में रहना चाहते थे। इस ग्रन्थ के लेखक श्री देवराज मुनि स्वामीजी अपने आचार्य श्री रामानुजाचार्य स्वामीजी को सब कुछ मानते थे और उन्ही कि सेवा कि। वह एक व्यक्ति हैं जिन्हें इन पदों से समझाया गया “अंबरडिक्कुअंबर” और “तिलधमेनतिरिवार”। यही कारण हैं कि श्री देवराज मुनि स्वामीजी को “तेरूलारूम्मधुरकविनिलैतेलिन्धोंवाझिए” कि तरह मनाया जाता हैं। हम इसमे और भी उदाहरण देख सकते हैं। स्वामी तिरुवरंगामृतयमूधनार श्री रामानुज स्वामीजी के भक्तों कि सेवा कि और “रामानुजनूत्तन्दादि”यह ग्रन्थ लिखा। इसीतरह श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्री वेदांति स्वामीजी के जीवन चरित्र में भी यह देखा जा सकता हैं।

श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी के भक्तों कि सेवा की और “यतिराज विंशती” को गाया। श्री एरुम्बियप्पा स्वामीजी (श्रीदेवराज स्वामीजी, अष्ट गादि में एक) ने श्री वरवरमुनि स्वामीजी के भक्तों कि सेवा करके “पूर्व दिनचर्या”, “उत्तर दिनचर्या”, “वरवरमुनिशतकम”, “वरवर मुनि काव्यम”, “वरवरमुनिचम्पु” आदि गाया। एक में वह यह कहते हैं “सेरुकिल्लादवर्गळुम् आचार्य निश्टैगळिल् इरुपवरुम्, शास्तिर सारार्तन्गळै अऱिन्दवरुम् पणत्तासै, पेण्णासै मुदलिय आसैयट्रवर्गळुम्, पेरुमयट्रवर्गळुम्, अनैतु उयिर्गळ् इडतिल् अन्बु उडयवर्गळुम्, कोबम्, उलोबम् मुदलिय कुट्रन्गळै कडन्दवरुमान मणवाळ मामुनिगलिन् अडियार्गळोडु अडियॅउक्कु एन्ऱुम् उऱवु उन्डाग वेन्डुम्”। इसका अर्थ यह हुआ कि श्री एरुम्बियप्पा स्वामीजी श्री वरवरमुनि स्वामीजी के उन भक्तों के साथ नित्य सम्बन्ध रखना चाहते हैं जो अच्छे गुणों के स्वभाव के साथ है न घमंड और अभिमान, पूर्ण आचार्य भक्ति, शास्त्र ज्ञान और उसके गुप्त अर्थ, सांसारिक वस्तु मे रुचि न होना जिसमे धन और स्त्री भी शामिल हैं, विख्यात होने कि आश न होना और न पहचाना जाना, सभी जीव के प्रति प्रेम जिसमे पक्षी और जानवर भी शामील है, बुरे स्वभाव के प्रति घृणा रखना जैसे ग़ुस्सा, लालसा आदि। अत: हम यह देख सकते हैं कि सभी आचार्य और आल्वार केवल भक्तों के भक्त कि ही तरह होना चाहते है। यह सभी ज्ञान किसी भी जरिये से मलाई पर मलाई ही हैं। इसलिये यह बात ग्रन्थ के अन्त में हीं कही गयी हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/04/gyana-saram-39-alagai-mulai-suvaitharkku/

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ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३८

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ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३७                                                             ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३९

पाशुर-३८

H

तेनार कमलत् तिरुमामगल कोलुनन
ताने गुरुवागित तन अरूलाल मानिडर्क्का
इन्निलत्ते तो न्रु दलाल यार्क्कुम अवन तालिणैयै
उन्नुवदे साल उरुम

प्रस्तावना: “आचार्य कि कीर्ति और महत्व” का मनोभाव २६वें पाशुर (तप्पिल गुरू अरूलाल) में २७वें पाशुर (पोरुलूं उयिरूम) के जरिये बताया गया। २६वें पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी एक व्यक्ति कि परिस्थिती समझाते हैं जिसने भगवान श्रीमन्नारायण कि शरणागति अपने आचार्य कि सहायता से कि हैं। यह व्यक्ति परमपदधाम जाता हैं और वहाँ भगवान और उनके भक्तों कि निरन्तर सेवा करता हैं। अगले २७वें पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी उन लोगों के बारें में चर्चा करते हैं जिन्होंने शरणागति नहीं कि हैं और उनकी अवस्था को दु:खदायी बताते हैं क्योंकि वह इस संसार में हमेशा के लिये व्यवहार करते रहेंगे। २९वें पाशुर में वह उस व्यक्ति कि चर्चा करते हैं जिसको अपने आचार्य कि कृपा प्राप्त हुयी हैं दु:खों का समुन्दर पार कर लेगा, जन्म और मृत्यु का बाँध तोड़ देगा और अन्त में परमपदधाम पहुँच जायेगा। ३०वें पाशुर में स्वामीजी इस बात कि चर्चा करते हैं कि किस तरह शास्त्र हमें इस बात के लिये रोकता हैं कि हमें उस व्यक्ति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए जो अपने आचार्य का सम्मान नहीं करता हैं। ३१वें पाशुर में यह कहते हैं कि किस तरह वेद कहते हैं कि आचार्य के चरण कमल हीं एक व्यक्ति के एक मात्र उपाय हैं। ३२वें पाशुर में उस व्यक्ति के बारे में समझाते हैं कि जो अपने आचार्य को केवल एक व्यक्ति समझता हैं उसे नरक जाना पड़ता हैं। ३३वें और ३४वें पाशुर में वह किसी व्यक्ति के क्रिया / कर्म को “अज्ञानी/मुर्ख” बताते हैं जब वह व्यक्ति अपने नजदीक रहने वाले अपने आचार्य को तुच्छ मानता हैं और भगवान कि तलाश में निकलता हैं जो हमारे पहूंच से बाहर हैं। ३५वें पाशुर यह समझाते हैं कि किस तरह भगवान स्वयं उस व्यक्ति को जलाते हैं जो अपने आचार्य के सम्बन्ध से दूर हो जाता हैं। ३६वें पाशुर में शिष्य को कैसे रहना चाहिये यह समझाते हैं। खासकर वह यह समझाते हैं कि १०८ दिव्य देशों के भगवान अपने आचार्य के चरण कमलों में ही विराजते हैं और इसलिये हमें भगवान के दर्शन के लिये और कहीं भटकने कि आवश्यकता नहीं हैं। ३७वें पाशुर में अच्छे शिष्य का एक और स्वभाव समझाया जहां एक शिष्य अपने आचार्य को हीं अपना सबकुछ मानता हैं। उपर जहाँ “सबकुछ” बताया हैं उसमें धन, आत्मा और शरीर आदि शामिल हैं। एक व्यक्ति को जो कुछ भी चाहिये धन, लंबी आयु, घर, अच्छा शरीर, अच्छे गुण आदि सब कुछ उसे आचार्य ही दे सकते हैं।

कुलम तरुम शेल्वम तन्दिडुम अडियार पडु तुयर आयिन एल्लाम
निलम तरम शेय्युम नील्विशुम्बरुलुम अरूलोडु परुनिलम अलिक्कुम
वलम तरुम मटुम तन्दिडुम पेट तायिनुम आयिन शय्युम
नलन्दरूम शाल्लै नान कण्डु काण्डेन नारायणा एन्नुम नामम” (पेरिय तिरुमोळि १-१-९)

इस पाशुर में यह बताया गया हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण वह सब कुछ उस व्यक्ति को देते हैं जो उनका नाम “नारायण” का अनुसन्धान करता है। उसी प्रकार आचार्य भी अपने शिष्य को सब कुछ देते हैं। अत: यह देखा जाता हैं कि आचार्य और कोई नहीं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण ही है। इसलिये आचार्य के चरण कमल कितने उपकारी हैं यह हमें सोचना हैं। इस सोच के साथ श्री देवराज मुनि स्वामीजी अपना कार्य पूर्ण करते हैं।

पाशुर ३८ अर्थ: साल उरुम – सबसे अच्छा कार्य करना, यार्क्कुम – जीवन के सभी क्षेत्र में लोग, उन्नुवदे – नित्य उसके बारें में विचार करते हैं, अवन तालिणैयै – अपने आचार्य के चरण कमल, तो न्रु दलाल – मनुष्य का अवतार लेना, इन्निलत्ते – इस धरती पर, तन अरूलाल – उनकी अनगिनत कृपा से, मानिडर्क्का – उन लोगों को बराबर करना जो गलती कर रहे हैं, ताने – ऐसे महान, कोलुनन – आचार्य और कोई नहीं भगवान श्रीमन्नारायण ही हैं, उनके स्वामी हैं, कमलत् – जो कमल पुष्प के उपर विराजते हैं, तेनार – जो शहद को बहाते है, तिरुमामगल – और जिन्हें पेरिया पिराट्टियार कहते हैं

स्पष्टीकरण:

तेनार कमलत् तिरुमामगल कोलुनन : क्योंकि अम्माजी भगवान श्रीमन्नारायण के वक्षस्थल में विराजती हैं, उनके निरन्तर स्पर्श से उनका हृदय सुन्दर हो जाता हैं। और जिस कमल पुष्प पर वें नित्य विराजते हैं वहाँ से शहद बहता हैं उससे उनका हृदय और भी सुन्दर हो जाता हैं। अत: भगवान को जो कमल पुष्प को सुन्दरता प्रदान करती हैं उनके पति ऐसे समझाया गया हैं। अम्माजी को “तिरु” भी कहते हैं जो संस्कृत शब्द “श्री” के बराबर हैं। तिरुप्पावै में श्रीआण्डाल ने

भगवान को “तिरुवेतुयिल्येझै” ऐसा समझाया हैं। क्योंकि वह “श्री” के पति हैं इसलिये उनसे बराबर या उनसे बड़ा कोई हो ही नहीं सकता जो आगे इस कविता में देखेंगे:

तिरुवुदयार्तेवरेनिलतेवर्कुंतेवन
मरुवु तिरुमंगै मगिझ नं कोज़्हूनं ओरुवने
अल्लोर्तलैवरेनल, अंबिनाल्मेमरंधु
पुल्लोंरैनल्लारेनल्पों

मदुरै तमिल बदला पुलवर्तीरुन॰ अप्पनयन्नगार

ताने गुरुवागित: श्रीमन्नारायण के पास अपनी पहचान को गुप्त रखने के लिये और आचार्य रूप में आने के लिये एक कारण हैं । ज्यो की आगे पाशुर में समझाया गया हैं। तन अरूलाल: इसका कारण और कुछ नहीं उनकी अपार दया हैं जो उनके निर्हेतुक निमित्त से आती है। इसीलिये उनके आचार्य रूप लेने के कारण के लिये कोई तहक़ीक़ात करने की आवश्यकता नहीं है। वह किस पर अपनी दया बरसाते हैं?

मानिडर्क्का: यह दया पूर्णत: सभी लोगों के प्रति हैं जिन्होंने इस संसार में जन्म लिया हैं, जो शास्त्र का पालन करते हैं और जो यह चाहते हैं कि उन्हें इस संसार के बन्धन से मुक्त करें।

इन्निलत्ते तो न्रु दलाल: अगर कोई बालक कुवें में गिर जाता हैं तो उसकी माँ भी उसकी रक्षा के लिये कुवे में गिर जाती हैं। उसी तरह इस संसार कि माँ और हम सब कि माँ यानि श्रीमन्नारायण इस संसार में हम सब कि रक्षा के लिये आते हैं जहाँ हम गिरे हैं।

यार्क्कुम: वह केवल एक वर्ग के लोगों कि रक्षा नहीं करते। वह सभी कि रक्षा करते हैं जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र आदि। वह हर अवस्था जैसे ब्रम्ह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और सन्यास सभी की रक्षा करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों कि भी रक्षा करते हैं। वह सब कि रक्षा करते हैं।

अवन तालिणैयै उन्नुवदे: “अवन” यहाँ भगवान श्रीमन्नारायण कि बढाई का सक्षेप में वर्णन करते हैं। भगवान सभी जीवात्मा के सिर्फ एक ही मार्गदर्शक, एक ही रक्षा स्थान और एक ही लाभप्रद हैं। सभी जीवात्मा को प्राप्त करने का लक्ष्य और सबसे खास सबसे पहिले उसे प्राप्त करने का जरिया सिर्फ उनके चरण कमल हीं है। यह सभी जीवात्मा को भगवान श्रीमन्नारायण के इस गुण को सोचने के लिये कहता हैं। “उन्नुवदे” पद का निवारक अर्थ यह हैं कि भगवान के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहिये।

साल उरुम: इसका अर्थ बहुत योग्य हैं। “साल” का अर्थ अधिक और “उरुम” का अर्थ उचित हैं। इस पद का अर्थ यह हैं कि अगर जीवात्मा श्रीमन्नारायण के बारें में विचार करता हैं जैसे इस पद “अवन तालिणैयै उन्नुवदे” में बताया गया हैं वह करने के लिये सबसे निपुण और योग्य विषय होगा । अपने निर्हेतुक अनुकम्पा से संसार के जीवों का उद्दार करने हेतु भगवान श्रीमन्नारायण जो कि पेरिय पिराट्टी के स्वामी हैं आचार्य बनकर मनुष्य रूप में आते हैं। वह अकेले सभी जीवात्मा के लिये मार्गदर्शक, शरण और लक्ष्य हैं। ऐसे भगवान के चरण कमल सभी जीवात्मा के पाने का लक्ष्य हैं। और इसके साथ चरण कमल हीं इसका पाने का जरिया हैं। एक जीवात्मा को यह सब तथ्य हमेशा अपने दिमाग में रखना चाहिये। यही करना एक जीवात्मा के लिये सही हैं । यह न करके और इसके सिवाय कोई दूसरा उपाय करना व्यर्थ हैं। इसलिये आचार्य भगवान श्रीमन्नारायण के प्रतिनिधित्व करते हैं जो मनुष्य योनि के उद्दार के लिये अवतार लिये हैं। ऐसे आचार्य के बारें में विचार करना एक आत्मा के लिये बहुत सही हैं। पुराने तमिल साहित्य में इस पद का उल्लेख हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/04/gyana-saram-38-thenar-kamala-thirumamagal/

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