Category Archives: yathirAja vimSathi

यतिराज विंशति – श्लोक – १५

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १४                                                                                                    श्लोक  १६

श्लोक  १५

शुद्धात्म यामुनगुरूत्तम कूरनाथ भट्टाख्य देशिकवरोक्त समस्तनैच्यम् |
अध्यास्त्यसंकुचितमेव मयीह लोकेतस्माद्यतीन्द्र करूणैव तु मद्गतिस्ते | १५ |

यतीन्द्र                                           : श्रीरामानुज !
शुद्धात्मयामुनगुरूत्तम                     : परमपवित्र उत्तमयामुन गुरू (आलवंदार)
कूरनाथ भट्टाख्य                              : कूरनाथ (आल्वान्) भट्ट आदि
देशिक वर उक्त समस्त नैच्यम्        : उत्तम आचार्यों ने जो नैच्यानुसंधान किया था वह सब
इह लोक अध्य                                :  इस संसार में परिपूर्ण रूप से है
मयि एव असंकुचितम् अस्ति           : मुझ ही में परिपूर्ण रूप से है
तस्मात् ते करूणा एव तू मद्गति:    : इसलिये आपकी करूणा ही मेरी शरण है; अथवा आपकी करूणा की शरण मैं एक ही हूँ |
 

पिछले श्लोक में उक्त रीति से कूरेशजी एक का नैच्य ही नहीं, परन्तु आलवन्दार, कूरेशजी भट्ट इन आचार्यों के नैच्य भी उनमें तो कुछ नहीं, सब मुझ में ही हैं| इस समय इस संसार में जहाँ भी देखिये मुझ जैसा दूसरा नीच व्यक्ति आप को नहीं मिलेगा| इसलिए, अपनी कृपा का पात्र मुझे बना कर मेरी रक्षा कीजिए|

आलवन्दार का नैच्यानुसन्धान “न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके” “अमर्याद: क्षुद्र:” इत्यादि श्लोकों में देखने में आता है| कूरेशजी का नैच्यानुसन्धान “तापत्रयीमयदावानलदह्यामान” से लेकर बीस पचीस श्लोकों में उपलभ्य है| भट्ट का नैच्यानुसन्धान “गर्भजन्मजरामृति” “असन्निकृष्टस्य निकृष्टजंतो:” इत्यादि श्लोकों में है|

शुद्धात्म यह विशेषण तीनों आचार्यों के लिए लागू है| इसका तात्पर्य यह है की उस नैच्यानुसन्धान की उनके पास संभावना नहीं है || १५ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

यतिराज विंशति – श्लोक – १४

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १३                                                                                                                                      श्लोक  १५

श्लोक  १४

वाचामगोचर महागुणदेशिकाग्राचकूराधिनाथ कथिताखिल नैच्यपात्रम् |
एषोऽहमेव न पुनर्जगतीद्वशस्तद्रामानुजार्य ! करूणैव तू मद्गतिस्ते|| १४ ||

आर्य   रामानुज      : रामानुज! सब वस्तुओं में
वाचामगोचर हागुणदेशिकाग्रचकूराधिनाथ कथित अखिलनैच्यपात्रम्  : जिनके महागुण सबकी प्रशंसा से बाहर हैं, जो सब आचार्यों में श्रेष्ठ हैं ऐसे श्रीकूरनाथजी से वर्णित सभी नीचताओं का एकमात्र पात्र जगति एषः अहम् एव इस संसार में सिर्फ मैं एक ही हूँ
ईद्वश:                  : पुन: न ऐसा दोषयुक्त दूसरा कोई नहीं (इसलिये)
ते करूणा:              : तु  आपकी करूणा की तो
मद्गति:                : एव   मैं एक ही गति हूँ |

अपने स्तवों में श्रीवत्साङ्कमिश्र जो नैच्यानुसन्धान कराते हैं वे सब सचमुच मुझमें ही हैं, मेरे जैसा नीच इस संसार में दूसरा कोई नहीं| इसलिए आपकी कृपा को छोड़ कर मेरे लिये और कोई शरण (उपाय) नहीं हैं|

यहाँ श्रीकूरत्ताल्वान् को वाचामगोचरमहागुणदेशिकाग्रच विशेषण दिया गया है| यह बहुत ही उचित है, क्योंकि उनके समकाल में ही कहा जाता था की परमात्मा के गुणों का वर्णन भी सफलता से कोई कर जाता है, श्रीरामानुज के गुणों का भी पूरा पूरा वर्णन कोई कर पायेगा, लेकिन कूरेशजी के गुणों का वर्णन आदिशेष से भी नहीं किया जा सकता| यह रामानुजनूत्तंदादि की कूरेश सम्बन्धी गाथा से भी स्पष्ट है| ऐसे गुणयुक्त कूरेश भी भगवान की स्तुति में प्रवृत्त होकर उनकी स्तुति कम और अपना नैच्यानुसन्धान अत्याधिक करके ही ठहरे| यह नैच्यानुसन्धान वैकुण्ठस्तव तथा वरदराजस्तव के पिछले भाग में देखा जा सकता है| वास्तव में उस नैच्यानुसन्धान का वे तो पत्र नहीं| हमारे अनुसन्धान ही के लिए उन्होंने अपने ऊपर आरोपित करके कहा था| इसलिए मेरी रक्षा के लिए आपकी कृपा के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं|

करूणैव तु मद्गतिस्ते ते करूणा – आपकी करूणा, मद्गति:- मुझको शरण मानने वाली है, अर्थात् आपकी करूणा मुझे छोड़ कर और किसी के पास तो सफल नहीं होगी|

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

यतिराज विंशति – श्लोक – १३

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १२                                                                                                            श्लोक  १४

श्लोक  १३

तापत्रयीजनित दु:खनिपातिनोऽपि देहस्थितौ मम रूचिस्तु न तन्नीवृत्तौ |
एतस्य कारणमहो मम पापमेव नाथ त्वमेव हर तध्यतिराज शीघ्रम् | १३ |

यतिराज!                                          : रामानुज
तापत्रयीजनित दु:खनि पातिन: अपि   : तापत्रयों से जनित दु:खों में गिर कर भोगने पर भी
मम रूचि: तु                                     : मेरी इच्छा तो
देहस्थितौ                                         : इस शरीर की रक्षा में ही है
तत् निवृत्तौ न                                  : उसको दूर करने में नहीं
एतस्य कारणं मम पापम् एव              : उसको कारण मेरा पाप ही है
अहो नाथ                                         : हाय, मेरे रक्षक स्वामिन्!
तत् त्वम् एव                                    : उस पाप को आप ही
शीघ्रं हर                                           : बहुत जल्दी दूर कीजिए

यध्यपि सब वस्तुओं के भीतर व बाहर रहने वाले ईश्वर को तुम देख नहीं पाये, आँखों से दीख पड़ने वाली नफरत करने लायक वस्तुओं के दोषों को तो ठीक ठीक देखते हो| उन्हें देखते हो तो क्या उन्हें त्यागने की इच्छा नहीं होती? इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैम – मेरी दशा ऐसी है कि दु:खों को भी मैं सुख समझता हूँ| इसका कारण मेरे प्रबल पाप ही हैं| उन्हें आप ही को दूर करना चाहिए|

तापत्रयी तीन प्रकार के पाप, पहला आध्यात्मिक ताप जो हाथ-पावँ आदि शरीर के अंगों से उत्पन्न होता हैं, शरीर तथा मानस भेद से वह दो तरह का है| शरीर ताप व्याधि कहलाता है और मानस ताप आधि| इस प्रकार आधि-व्याधि ही आध्यात्मिक ताप हैं |

पशु पक्षी मनुष्याध्यै: पिशाचोरग राक्षसै: | सरीसृपाध्यैश्र्च नृणां जायते चाधिभौतिक: ||”

अर्थात् जानवर और चिड़िया, मनुष्य और पिशाच, उरग और राक्षस तथा साँप आदि जीवों से मनुष्यों को जो ताप उत्पन्न होता है वह आधिभौतिक कहलाता है |

शीत वातोष्ण वर्षाम्बू वैध्युतादिसमुद्भव: | तापो द्विजवरश्रे ष्ठै: कथ्यते चाधिदैविकः ||

अर्थात् ठण्ड और गरमी, वायु और वर्षा और बिजली आदि से उत्पन्न होने वाले ताप ही श्रेष्ठों से आधिदैविक कहे जाते हैं| ये तीन स्वयं दु:ख रूप और असह्य हैं|

 जब शरीर इतने दु:खों का कारण है, मुझे उसके नाश की प्रतीक्षा में रहना चाहिए| किन्तु मेरी रूचि इसी में है कि यह कैसे और भी चिरस्थायी होगी| इसलिए प्रार्थना कराते हैं कि इसमें अरूचि उत्पन्न करके इसे दूर करने का उपाय करना आप ही का काम है || १३ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

यतिराज विंशति – श्लोक – १२

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  ११                                                                                                                                            श्लोक  १३

श्लोक  १२

अन्तर्बहि: सकलवस्तुषु संन्तमीशं अन् : पुर: स्थितमिवाहमवीक्षमाण: |
कन्दर्पवश्यहृदय: सततं भवामि हन्त त्वदग्रगमनस्य यतीन्द्र नार्ह: || १२ ||

यतीन्द्र सकलवस्तुषु     : रामानुज! सब वस्तुओं में
अन्त: बहि:                  : भीतर और बाहर
सन्तम् ईशं                  : व्याप्त करके स्थित भगवान को
अन्ध: पुर: स्थितम् इव : जैसे एक अन्धा अपने सामने की वस्तु को नहीं देख सकता वैसे
अवीक्षमाण:                : अहं सततं   नहीं देख कर, मैं हमेशा
कन्दर्पवश्यहृदय:         : काम के अधीन हो कर
भवामि हन्त                : रहता हूँ | हाय !
त्वदग्र गमनस्य न अर्ह:: तुम्हारे सामने आने तक के लिये मैं योग्य नहीं |

पिछले श्लोक में ‘अघं कुर्वे’ | अगर कोई पूछे कि जब सर्वेश्वर सब स्थानों में व्याप्त होकर तुम्हारे कर्म देख रहा है, तुम उससे छिप कर कैसे पाप कर सकते हो, इसका उत्तर इस श्लोक से देते हैं| मैंने तो ईश्वर को नहीं देखा है, तुम कहते हो कि सब वस्तुओं में भीतर और बाहर व्याप्त है| यदि अंधा अपने सामने वाली वस्तु को नहीं देख पाता तो इसमें आश्चर्य का क्या विषय है? मैं उस अन्धे की तरह ही हूँ|

 ईशमवीक्षमाण: कन्दर्पवश्यहृदय: सततं भवामिईश्वर को आँखों से देखता तो क्या उसी में मुग्ध हो कर नहीं रहता? उसका दर्शन न होने से ही मैं मनमाना काम कर रहा हूँ और क्षुद्र विषयों का यह दर्शन और भाग तो हमेशा करता रहता हूँ| ऐसा नहीं कि किसी एक समय पर ही, किन्तु ‘सततं’ सर्वदा ही|

त्वदग्रगमनस्य नार्ह: – मैं ऐसा पापी हूँ कि आपके सामने खड़े होने योग्य भी नहीं| जब यह मेरी योग्यता है, तब आपसे पास कैसे आ सकूँगा? || १२ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

यतिराज विंशति – श्लोक – ११

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १०                                                                                                                   श्लोक  १२

श्लोक  ११

पापे कृते यदि भवन्ति भयानुताप लज्जा: पुन: करणमस्य कथं घटेत |
मोहेन मे न भवतीय भयादिलेश: तस्मात् पुन: पुनरघं यतिराज कुर्वे |११|

यतिराज                          : श्रीरामानुज!
पापे कृते                          : जब पाप किया जाता है, तब
यदि भयानुताप लज्जा:     : यदि भय अनुताप और लज्जा हों तो
अस्य पुन: करणं              : इस पाप का फिर भी करना
कथं घटेत मे                    : कैसे घटेगा ? मुझे तो
मोहेन इह                        : अज्ञान के कारण पाप करने में
भयादि लेश:                    : भय आदि का थोड़ा सा अंश भी
न भवति तस्मात् अघं      : नहीं होता इसलिये पाप को
पुन: पुन: कुर्वे                  : बार-बार करता हूँ |

अज्ञान से भरे इस संसार में पाप करना कोई अद्भुत विषय नहीं, इसलिए पाप हो जाने की चिन्ता तो मुझे नहीं| ‘हाय! मैंने पाप कर लिया| इससे इस लोक तथा परलोक में मेरी क्या दशा होगी?’ इस तरह का भय, अनुताप और लज्जा हो तो यह किये हुए पाप का कुछ प्रायश्चित होगा, बाद में जान बूझ कर पाप करने से हमें रोकेगा| लेकिन मुझको पापों के विषय में जरा भी न भय है, न अनुताप है और न लज्जा| इसका कारण है विवेक का अनुभव| पाप से रोकने वाले अनुताप आदि के अभाव से बार-बार पाप करता ही रहता हूँ| अपने पापों की अधिकता को उपरोक्त शब्दों में श्रीरामानुज की सेवा में निवेदन कराते हैम की मुझे ऐसे पापी को आपकी कृपा के सिवाय दूसरी कोई गति नहीं|

श्रीवत्साङ्कमिश्र ने पिल्लै-पिल्लै आल्वान् से जो कहा था वह इस श्लोक के पूर्वार्ध से मेल खाता है| वह ऐतिह्य यों है; श्रीवत्साङ्कमिश्र (कूरत्ताल्वान्) के कई शिष्यों में पिल्लै-पिल्लै आल्वान् एक थे| आभिजात्य आदि गुणों से कुछ ऊँचे होने के कारण वे भागवतों से विनयहीन होकर बरताव करते थे| इसे देख कूरेशजी ने सोचा; हाय! इसका यह भागवतापचार बहुत ही हानिकारक है| वह तो इसके ज्ञान अनुष्ठान सबको नष्ट करके स्वयं बलवान होकर अन्त में इसका ही सर्वनाश कर डालेगा| इसलिए इसे पाप से बचना चाहिए| एक दिन पुण्यकाल में स्नान करने के बाद कूरेशजी ने उससे पूछा, “क्या तुम मुझे कोई दान नहीं दोगे जब कि इस पुण्यकाल में सभी कुछ न कुछ दान कराते हैं?” उसने उत्तर दिया, “स्वामिन्! मैं दान क्या दे सकता हूँ जब मेरा सब कुछ आप ही का है|” तब कूरेशजी ने कहा, “अच्छा, तब मेरे हाथ में उदकदान कर दो कि मैं आगे मनो वाक् काय तीनों से भागवतों के प्रति अपचार किये बिना सावधानी से रहूँगा|” उसने भी वैसा ही कर दिया| आगे चल कर एक दिन पूर्व वासना से भागवत का अपचार हो गया| उससे भी भयभीत हो और कूरेशजी के सामने जाने में लज्जित होकर अपने ही घर में ठहर गया| हमेशा की तरह जब यह कूरेशजी के यहाँ नहीं आया तब कूरेशजी ने स्वयं उसके घर जाकर पूछा, क्या बात है? उसने कहा, ” आज मेरे से एक भागवत के प्रति अपचार हो गया| मालूम होता है कि इस शरीर के साथ जब तक रहता हूँ तीनों करणों से अपचार के बिना जीवन बिताना असंभव है| मैं क्या करुँ?” यह कह कर दु:ख से भूमि में गिरकर कूरेशजी के चरणों से लिपट गया| इसका पश्चात्ताप देखकर कूरेशजी खुश हुए और बोले, “मन से अपचार होने पर यदि अनुताप होता है तो ईश्वर उसको क्षमा कर देते है| इस डर से कि खुले त्पोर पर किसी का अपचार करने से राजा का दण्ड मिलेगा तुम शरीर से किसी को नहीं सताओगे| अब वाक् एक ही रह गया है| उसे वश में रख कर सावधानी से रहो” || ११ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

 

यतिराज विंशति – श्लोक – १०

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक ९                                                                                                                           श्लोक  ११

श्लोक  १०

हा हन्त हन्त मनसा क्रियया च वाचा योऽहं चरमि सततं त्रिविधापचारान् |
सोऽहं तवाप्रियकर: प्रियकृद्वदेवं कालं नयामि यतिराज! ततोऽस्मि मूर्ख: | १० |

यतिराज! य: सततं              : है यतिराज! जो (मैं) हमेशा
मानसा वाचा क्रियया च       : मन, वाक्, शरीर तीनों करणों से
त्रिविध-अपचारान्               : तीन तरह के अपचारों को
चरामि स: अहं                    : कर रहा हूँ वह मैं
तव अप्रियकर:                   : आपका अप्रिय कराते हुए
एवं कालं नयामि                : ऐसे समय बिता रहा हूँ
प्रियकृद्वत्                       : मानों आपके प्रिय ही को करने
तत: मूर्ख: अस्मि               : वाला हूँ इसलिये मैं मूर्ख हूँ
हा हन्त हन्त                     : हाय हाय! कैसी वंचना है!

स्वामिन् श्रीरामानुज! यध्यपि मन, वाक्, काय तीनों करण आपकी सेवा में लगाने ही के लिए बनाये गये हैं, तथापि अभागा मैं उनसे भगवदपचार, भागवतापचार एवं असह्यापचार तीन तरह के अपचारों को कराते हुए जीता था| आपके हृदय को दु:ख पहुँचाते हुए यध्यपि मैं रहता था, फिर भी मैं ऐसा ढोंगी बन कर समय बिताता था, मानो आपकी प्रीति के कारण ही काम कर रहा हूँ| यह था मेरी मूर्खता|

त्रिविधपचारान् तीन प्रकार के अपचारों में;

भगवदपचार – सर्वेश्वर को भी देवतान्तरों के समान मानना, रामकृष्ण आदि अवतारों को यह समझना की वे भी हमारे जैसे मनुष्य ही हैं, अर्चावतार में मूर्ति के उपादान द्रव्य का विचार करना आदि|

 भागवतापचार – अहंकार से तथा अर्थ और काम से प्रेरित होकर श्रीवैष्णवों के प्रति किये जाने वाले अपराध|

 असह्यापचार – पूर्वोक्त प्रकार से अर्थ कामों से प्रेरित न होकर, हिरण्यकशिपु की तरह भागवद्विषय एवं आचार्यापचार भी असह्यापचार कहलाता है || १० ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

 

 

यतिराज विंशति – श्लोक – ९

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ८                                                                                                                              श्लोक  १०

श्लोक ९

नित्यम् त्वहं परिभवामि गुरुं च मन्त्रं तद्देवतामपि न किन्चिदहो बिभेमि ।
इत्थं शठोSप्यशठवद्भवदीयसङ्घे ह्रुष्टश्चरामि यतिराज! ततोSस्मि मूर्खः || (९)||

पदार्थ:-
यतिराज!                            :  हे यतिराज!
नित्यम् तु                           : कभी भी
गुरुं च मन्त्रं तद देवतां अपि  : आचार्य , उनसे शिक्षित मंत्र और उस मंत्र के सार होनेवाले भगवान् को
अहं परिभवामि                    :  मैं अनादर् कर्ता हूँ
किन्चित् न बिभेमि             : (इस प्रकार अनादर् करते हुए भी ) एक पल के लिए भी चिंतित नहीं
अहो                                   :  अरे (आश्चर्य और शोक से)
इत्थम् शठः अपि अशठवत्  : इस प्रकार पापिष्ट होते हुए भी एक् सज्जन्/ धार्मिक की तरह्
भवदीय  संघे                      : आपके पादचरणों में निर्वासित भक्तजनों के मिलन में
ह्रुष्टश्चरामि                       : आनंद से (ये सोचके कि  इनको मेरा पापों का जानकारी नहीं)
ततः अस्मि मूर्खः               : इसलिए मैं एक मूर्ख हूँ |

चौथाई श्लोक में प्रार्थना किये थे कि अपना मुंह से निकल्ते हुए हरेक् शब्द आपके सतगुणों का आराधन करते रहे | लेकिन अपना मुंह उसके सीधे प्रतिमुख करने वाला बन गया जो गुरु, मंत्र और देवता का अपप्रयोग करता रहता है | इस दुर्गुण को और उसके मूलकारण होनेवाला मूर्खता को हटाने के लिए प्रार्थना करते हैं |

गुरु का अपप्रयोग करना उन्के उपदेश के विरुध त्याग करने लायक विषयों में लगाते रहना और पालन करने लायक विषयों में अचेत रहना | या उनके उपदेशित मंत्र को अपने प्रसिद्धि के लिए या धन लाभ के लिए कोई अनुपयुक्त व्यक्तियों को सिखाना | मंत्र का अपप्रयोग होता है  – मंत्र का न्यायसंगत व्याख्या को छिपाना या उसको अप्रमाणिक अर्थ सिखाना |मंत्र के देवता का अपप्रयोग करना – श्रीमन नारायण से दिया गया इस देह , मन  आधी इन्द्रियोंको उनके प्रयोजन के बिना सिर्फ अपने प्रयोजन के लिए अनात्मिक विषयों में लगाना |इनका विस्तारपूर्वक व्याख्यान श्रीवचनभूषण में प्रस्तुत है |

अहो – आश्चर्य | वे विनम्रता से कहते हैं कि इस लोक में अपने सदृश दोषी और उस दोष से निर्लज्जित व्यक्ति और कोई नहीं मिलने से आश्चर्य होता है|

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

यतिराज विंशति – श्लोक – ८

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ७                                                                                                                              श्लोक  ९

श्लोक  ८

दु:खावहोऽहमनिशं तव दुष्टचेष्ट: शब्दादि भोगनिरत: शरणागताख्य: |
त्वत्पादभक्त इव शिष्टजनौघमध्ये मिथ्या चरमि यतिराज ततोऽस्मि मूर्ख: || ८ ||

यतिराज! अहं                       : हे रामानुज! मैं
दुष्ट चेष्ट:                            : बुरे आचरण वाला हूँ;
शब्दादि भोग निरत:              : शब्दादि विषय भोग में रत हूँ;
शरणागताख्य: अनिशं तव     : ‘शरणागत’ अर्थात् ‘प्रपन्न’ नाम धर कर भी सदा आप (के हृदय)
को
दु:खवह:                               : दु:ख पहुँचाता रहता हूँ ;
शिष्ट-जन-ओघ-मध्ये           : शिष्ट लोगों के समूह के मध्य में
त्वत्पाद भक्त इव                 : आपके चरणों के भक्त की तरह
मिथ्या चरमि                       : झूठमूठ घूमता फिरता रहता हूँ
तत: मूर्ख अस्मि                   : इसलिये मैं एक मूर्ख ही हूँ|

हे स्वामीन्! मैं आपका दास हूँ तो भी मैं बुरा चाल चलन रखता हूँ और शब्दादि विषयों के अनुभव करने में लगा हूँ| नाम मात्र के लिए मैं शरणागत हूँ| अपनी इस करनी से मैं सर्वदा मन को दु:ख पहुँचा रहा हूँ| इस प्रकार रहने के कारण यध्यापि आपके भक्त समूह की और झाँकने तक की योग्यता नहीं, तो भी ऐसा ढोंग रचता हूँ मानो मैं आपके चरणों में पारमार्थीक प्रेम रखता हूँ और विलक्षण महापुरूषों की गोष्टी में ढोंगी बनकर ही फिरा करता हूँ| लीजिए, यह मेरी मूर्खता है|

दु:खावहोऽहं आपकी दया के योग्य हूँ| मेरा दु:ख देख कर आप खुद पसीज कर मुझ पर दया कीजिए || ८ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

यतिराज विंशति – श्लोक – ७

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ६                                                                                                                               श्लोक  ८

श्लोक  ७

वृत्त्या पशुर्नवपुस्तवहमीद्वशोऽपि श्रुत्यादि सिध्द निखिलात्मगुणा श्रयोऽयम् |
इत्यादरेण कृतिनोऽपि मिथप्रवक्तुमध्यापिवंचनपरोऽत्र यतीन्द्र वर्ते || ७ ||

यतीन्द्र अहं तु                    : हे श्रीरामानुज! मैं तो
नर वपु:                             : मनुष्य शरीर वाला हूँ तो भी
वृत्त्या पशु:                        : अपनी करनी से जानवर ही हूँ
ईद्वश: अपि                      : यध्यपि मैं ऐसा हूँ; तो भी
अत्र अध्य एपीआई             : इस संसार में आज भी
वञ्चनपर: वर्ते                   : इतना वञ्चक ठग हूँ कि
कृतिन: अपि                      : अभिज्ञों महानुभावों को भी
आदरेण                             : आदर के साथ
मिथ: प्रवक्तुम् अयं            : परस्पर यह बोलने को बाध्य करता हूँ कि यह
श्रुति- आदि- सिद्ध-              : श्रुत्यादि में सिद्ध
निखिलात्मगुणाश्रय: इति    : सभी आत्मगुणों का आश्रय है |

पिछले श्लोक में स्वनिकर्ष का अनुसन्धान जो आरब्ध हुआ वह अनुवृत्त होता है| यध्यपि मैं मनुष्य योनि में पैदा होकर मनुष्य शरीर के साथ दिखाई देता हूँ, मेरा आचरण इतना गया बीता है कि उसमें और पशुओं की वृत्ति में कोई भेद नहीं| “ज्ञानेन हीन: पशुभि: समान:” ज्ञान के अनुभव तथा अनुष्ठान के वैकल्य से मैं जानवरों के समान हूँ| यध्यपि वास्तव में यही मेरी स्थिति है, मैं इस तरह का ढोंगी भक्त बना फिरता हूँ कि अभिज्ञ लोग भी मुझे देख कर बोलते हैं कि वेद-वेदान्त-वेदाड्गों में प्रतिपादित सभी आत्मगुणों की ये खान हैं| यह है इनका नैच्यानुसन्धान|

वृत्त्या पशु: – आहार निद्रा आदि में भी कोई नियम मैं नहीं रखता|

कृतिनोऽपि मिथ: प्रवाक्तुम् – यह प्रथमा विभक्ति का बहुवचन नहीं| क्योंकि उसका अन्वय ‘वर्ते’ क्रिया से नहीं हो सकता| इसको कर्म कारक बहुवचन मान कर, ‘प्रवक्तुं’ को (अन्तर्भावित-णिच्) प्रेरणार्थक समझा जा सकता है| ‘प्रवक्तु:’ ऐसा भी पाठ कोई कोई कहते हैं || ७ ||

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org

 

यतिराज विंशति – श्लोक – ६

Published by:

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

 श्लोक  ५                                                                                                                                   श्लोक  ७

श्लोक  ६

अल्पापि मे न भवदीयपदाब्जभक्तिः शब्दादिभोगरुचिरन्वहमेधते हा।
मत्पापमेव हि निदानममुष्य नान्यत् तद्वारयार्य यतिराज दयैकसिन्धो ॥ ()

दया एक सिंधो यतिराज  :  सागर जैसा अनंत होते हुए भी अतुलनीय दया रखनेवाले यतिराज
आर्य:                            :  आचार्य
मे                                 : मुझे
भवदीयपदाब्जभक्तिः    :  आपके चरणों में भक्ति
अल्पापि मे न                : लेश मात्र नहीं
शब्दादिभोगरुचि            : रूप , रस, स्पर्श, गन्द जैसे अल्पतर वासनाओं से पीड़ित
अंनवहम  एधते             : प्रतिदिन बढ़ता जाता है
हा                                : हाय (शोक और आश्चर्य से)
अमुष्य निदान              :  धार्मिक चिन्तनों से वियुक्तः अल्पतर विषयों से आकर्षित होने वाले इस स्थिति का मूल कारण
मत्पापमेव                   :  मेरा स्वयं अर्जित पापों ही
अन्यत न                    : और कुछ / कोई भी नहीं
तद वारय                    : उस पापों से विमोचन दीजिये

चौथाई श्लोक में प्रार्थना किये थे कि प्रतिदिन अपने मन श्री रामानुजाचार्य के दिव्य स्वरुप में ही लगाते रहेँ | लेकिन इस श्लोक में अपना मन अभी भी उसके विरुद्ध अन्यत्र विषयों में भटकते रहने को इंगित करते हैं | इस विपरीत स्थिति को हटाने के लिए इस श्लोक में उसका मूल कारण होने वाले अपने असंख्य पापों को हटाने की प्रार्थना करते हैं |

दया माने – अन्यों का कष्ट देख्कर निस्स्वार्थ उससे दुखी होना | श्री रामानुजाचार्य उस दया स्वभाव का सागर होते हैं | “अतुलनीय” का गोपनीय अर्थ होता है कि भगवान श्रीमन नारायण का दया को भी कोई सीमा होगा लेकिन श्री यतिराज के दया का कोई सीमा नहीं |

आर्य माने –

  1. आचार्य शब्ध के समानार्थक मानकर तत्व, हित , पुरुषार्थ को स्पष्टीकरण करनेवाले यानि मोक्षप्राप्ति कारणात्मक श्री रामानुजाचार्य !
  2. “आराध याति इति आर्य” – इस व्युत्पत्ति से वेद में नियमित धर्मी पथ के पास और उससे विरुद्ध अधर्मी पथ से दूर लेनेवाले श्री रामानुजाचार्य!
  3. अरयते – प्राप्यते – सर्व जनों से पुरुषार्थ स्वरूप में प्राप्य लायक श्री रामानुजाचार्य !

हा (शोक और आश्चर्य) माने –

  • शोक का कारण – धार्मिक चिन्तनों से वियुक्तः अल्पतर विषयों से आकर्षित होने वाले स्थिति
  • आश्चर्य का कारण – सीमित सुख देनेवाले शब्दादि विषयों में प्रीति और असीमित सुख देनेवाले यतिराज से अप्रीति करना

मत्पापमेव ही  निदान माने – जो कोई लोग भक्तिमान बन जाते हैं, उनका मोक्षप्राप्ति के लिए भगवान उनका पाप को उनके विरोधियों से लदवाते हैं | मामुनिजी कहते हैं कि उनका पाप ऐसे वाले पाप नहीं जो भगवान अपने स्वतंत्रा से या मुझसे खेलने के लिए लाद लिया गया है, मगर वो सब स्वयं अर्जित किया पाप है | इसका कारण और कोई व्यक्ति या भगवान नहीं |

archived in http://divyaprabandham.koyil.org
pramEyam (goal) – http://koyil.org
pramANam (scriptures) – http://srivaishnavagranthams.wordpress.com
pramAthA (preceptors) – http://acharyas.koyil.org
srIvaishNava education/kids portal – http://pillai.koyil.org