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सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ४

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श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

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<<सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ३

जिस प्रकार से आचार्य इन नौ प्रकार संबंधों का निर्देश देते हैं जैसे कि तिरुवाय्मोऴि २.३.२ में वर्णित है “अऱियाधन अऱिवित्त” (ऐसे अनुभवों को बताया गया है जिसके बारे में प्रत्येक नहीं जानते), यह चेतना स्पष्ट रूप से समझती है और उसके पास ये लभते हैं –

  • अपने स्वरुप की वास्तविक अनुभूति जैसे पेरिय तिरुमोऴि ८.९.३ में कहा गया है “कण्णपुरम् ओन्ऱुडैयानुक्कु अडियेन् ओरुवरुक्कु उरियेनो” (क्या मैं, जो तिरुक्कण्णपुरम् के स्वामी का दास हूँ, किसी अन्य का दास हो सकता हूँ?)
  • स्वयं की सुरक्षा करने में अयोग्यता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ५.८.३ में कहा गया है “एन् नान् सेय्गेन् यारे कळैगण्” [मुझे ऐसा कौन सा उद्यम करना चाहिए (स्वयं की रक्षा के लिए)! कौन अन्य रक्षक है!] और 
  • जिस लक्ष्य को प्राप्त करना है उसमें दृढ़ संकल्प जैसे तिरुवाय्मोऴि ५.८.३ “उन्नाल् अल्लाल् यावरालुम् ओन्ऱुम् कुऱै वेण्डेन्” (मैं आपके अतिरिक्त किसी और से अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए प्रार्थना नहीं करुँगा) में कहा गया है 
  • अपने उद्देश्य तक पहुँचने की तत्परता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ९.३.७ “माग वैगुन्दम् काण्बदर्कु एन् मनम् एगम् एन्नुम्” (मेरा हृदय एकाग्र चित्त होकर रात और दिन में किसी भेद को न जानकर केवल श्री वैकुंठ को देखने के लिए अभिलषित है)
  • बाधाओं से भयभीत होना जैसे कि पेरिय तिरुमोऴि ११.८.३ “पाम्बोडु ओरु कूरैयिले पेयिन्ऱाप् पोल्” (जैसे कि एक ही छत के नीचे सर्प के साथ रहना) में कहा है 
  • जो हमारे इष्ट हैं उनके प्रति सम्मान जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ८.१०.३ में कहा गया है “अवन् अडियार् सिऱु मा मनिसराय् एन्नै आण्डार् इङ्गे तिरिय” (यद्यपि भगवान वामन के दास मनुष्य रूप में होने के कारण आकार में छोटे दिखते हैं, वे महनीय हैं, जिन्होंने मुझे दास बनाया,‌ और इसी लोक में प्रत्यक्ष भी हैं)
  • जो परोपकारी हैं उनके प्रति कृतज्ञता जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १०.३.१० में कहा गया है “पेरियार्क्कु आट्पट्टक्काल् पेऱाद पयन् पेऱुमाऱु” (उन फलों को प्राप्त करना जो पाने में कठिन‌ हैं और वही फल जो एक व्यक्ति से सुलभता से पाए जाते हैं जब वह एक महान व्यक्ति का दास बनता है) 
  • उनके प्रति पूर्ण समर्पण जो हमें परमपदम् पहुँचाते हैं, जैसे कि तिरुवाय्मोऴि १०.१०.३ में कहा गया है “आविक्कु ओर् पटृक् कोम्बु निन्नलाल् अऱिगिन्ऱिलेन्” (मैं आपके अतिरिक्त किसी और सहायक स्तम्भ को नहीं जानता जो मेरी आत्मा के लिए श्रेष्ठ धाम हो)
  • संबंध का ज्ञान जो यह ज्ञात कराता है कि भगवान स्वाभाविक स्वामी हैं और जीव स्वयं स्वाभाविक दास है।
  • संबंध के बारे में व्याप्त  ज्ञान जो यह अनुभूति कराता है कि भगवान प्राकृतिक आत्मा है और स्वयं उनका प्राकृतिक देह है।
  • संबंध के वास्तविक स्वरूप के बारे में ज्ञान जिससे हमें यह अनुभूति होती है कि भगवान प्राकृतिक आध्यात्मिक (गुणों के धाम) हैं और स्वयं ही उनका प्राकृतिक धर्म (गुणवत्ता) है।
  • संबंध के वास्तविक स्वरूप के बारे में गहन ज्ञान जिससे यह अनुभव होता है कि यहाँ कोई (स्वतन्त्र) आत्मा नहीं है और केवल भगवान के समीप होने के कारण ही उपस्थिति है।
  • दासता में कर्तापन का निर्वहन होना, और इसलिए सांसारिक सुख में भयभीत होना और कैंकर्य न करने पर दुःखी होना, और दासता के कारण आध्यात्मिक आचरण का त्याग न करना।
  • ज्ञानी होने में कर्तापन का निर्वहन, ज्ञानी होने पर अहंकार न करना जैसा कि यह सोचना “क्या मेरे ज्ञानी होने के कारण नहीं है कि उसने मुझे स्वीकार किया?” जब कोई निषिद्ध तथ्यों को छोड़कर निर्धारित तथ्यों का अनुसरण करता है।
  • क्रियाओं और नियन्त्रण में कर्तापन का निर्वहन, अहंकारयुक्त विचारों का न होना “क्या यह मेरे द्वारा निषिद्ध तथ्यों के परित्याग और निर्धारित कर्मों का पालन करने के लिए नहीं है कि उसने मुझे स्वीकार किया है?”
  • भोग में कर्तापन का निर्वहन, जैसे कि, कोई जब उनकी सेवा करते हुए यह सोचने के अतिरिक्त कि, यह आत्म भोग के लिए है, यह सोचना कि स्वंय, भगवान का एक पाद, भगवान का दास है जो उस पाद के स्वामी हैं।

अन्दरङ्ग सम्बन्धम् काट्टि – यह संबंध कृत्रिम नहीं है जैसे कि कहा गया है “प्राप्तम् लक्ष्मीपतेर्दास्यम् शाश्वतम् परमात्मन:” (श्रीमहालक्ष्मी के स्वामी के प्रति दासता प्राप्त करनी है), हारीत स्मृति “दासभूत: स्वत: सर्वे हि आत्मान: परमात्मन:। नान्यता लक्षणम् तेषाम् बन्दे मोक्षे तथैव च।।” (सभी आत्माएँ स्वाभाविकता से परमात्मा के दास हैं। संसार की तरह ही मोक्ष में कोई और परिभाषा नहीं है) और आर्ति प्रबंधम ४५ “नारायणन् तिरुमाल् नारम् नाम् एन्नुम् मुऱै आरायिल्  नेञ्जे अनादि अन्ऱो” (नारायण ही दिव्य श्री महालक्ष्मी के पति हैं और हम शाश्वत आत्माएँ हैं, जब इस संबंध का विश्लेषण करते हैं, तो यह शाश्वत है); इसलिए विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कह रहे हैं “काट्टी” (दिखाया गया)। हम वह दिखा सकते हैं जो पहले से विद्यमान है और दूसरों से देखा गया है। जबकि पहले इस संबंध को आचार्य द्वारा प्रस्तुत नहीं किया गया, आत्मा लंबे समय तक एक देहात्माभिमानी (शरीर को अपना मानना) बना रहा जैसे तिरुवाय्मोऴि २.९.९ में कहा गया है “याने एन्नै अऱियागिलादे याने एन्ऱनदे एन्ऱिरुन्देन्” (स्वयं से संबंधित तथ्यों में मेरा सच्चा ज्ञान न होने के कारण मैंने स्वयं को छोड़कर सब कुछ अपनी संपत्ति की तरह ही माना), अनगिनत बार जन्म लिए, अन्य देवताओं की स्तुति की और नृत्य किया, मार्ग के विषय से किम्कर्तव्यविमूढ़ हो गए, जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि शाश्वत रूप से बंधी हुई आत्मा को पूर्ण रूप से नष्ट किया जा रहा है “असन्नेव” [अचित (तत्व) के समान] और तिरुवाय्मोऴि ५.७.३ “पोरुळ् अल्लाद” (मैं आत्मा कहे जाने के योग्य नहीं था) में कहा गया है; नम: में यहाँ दो शब्द न और म, जो स्वयं की स्वतंत्रता को प्रकट करते हैं जैसे कि “मकारेणस् स्वतन्त्रस्यात्” में कहा गया है; इन सबपर विचार करते हुए विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कृपापूर्वक कहते हैं “अन्दरङ्ग सम्बन्धम् काट्टि” ।

अगले भाग में जारी रहेगा……

अडियेन् अमिता रामानुज दासी 

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सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग ३

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<<सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग २

तत्पश्चात, जैसे “अवदारणमन्ये तु मध्यमान्तम् वदन्तिहि” और “अस्वातन्तर्यंतु जीवानाम् आधिक्यम् परमात्मन:। नमसाप्रोच्यते तस्मिन् नहन्ताममतोज्जिता” ।। [नम: जीवात्मा के पारतन्त्र्यम् (दासता) और परमात्मा के स्वातन्त्र्यम् (मुक्ति) की व्याख्या करता है। इस प्रकार नम: में अहंकार (शरीर को आत्म स्वरूप से भ्रमित होना) और ममकार (अधिकार की भावना) समाप्त हो जाते हैं], विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै कृपापूर्वक उकारम् (प्रणवम् में) का अर्थ की पुष्टि करते हैं जो स्पष्ट रूप से दूसरों के प्रति दासता के निवारण को प्रकट करता है और भगवान के प्रति दासता का समर्थन करता है, और नम: जो स्पष्ट रूप से स्वयं के लिए अस्तित्व में रहने के योग्य न होकर और (भगवान के प्रति) परतन्त्र होने जैसे तथ्यों की व्याख्या प्रस्तुत करता है जो अचित (तत्व) के जैसा है, जिसका यहाँ स्पष्टीकरण किया है और पिछले भाग में नहीं समझाया गया।

अंदरङ्ग संबंधम् काट्टि-उकारम् के अर्थ का स्पष्टीकरण किया है, आत्मा और परमात्मा के बीच अनन्य दासता को दर्शाता है, आत्म दास्यता को समाप्त करने, अचित के जैसे पूर्ण समर्पित होने तक, भागवतों के प्रति अनन्य दासता होने तक; अष्टश्लोकी में कहा गया है “उकारोनन्यार्हम् नियमयति संबंध मनयो:” (उकारम् विष्णु और जीव के बीच के अनन्य संबंध को दर्शाता है); यद्यपि संबंध दूसरों के प्रति दासता की समाप्ति का आश्वासन नहीं देता और जबकि कोई स्वयं के लिए बाधाओं को सहन नहीं कर सकता, यहाँ विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै इस प्रकार से समझाते हैं, जिसे “अन्तरङ्गम्” कहा जाता है।

यहाँ उकारम् का प्रयोग अवधारणार्थम् (नियामक प्रकृति दिखाते हुए) के जैसे स्थान प्रमाणम् के अनुसार किया है, ((अन्य स्थानों पर वैसा ही प्रयोग करना); उदाहरणतः उ का प्रयोग एव (केवल) के स्थान पर कहीं भी करना)। इसे केवल आयोग व्यवच्छेदम् (सम अस्तित्व) के स्थान पर अन्ययोग व्यवच्छेदम् (अनन्य भेद- एक विशेषता जो विशेष रूप से इस श्रेणी द्वारा धारण की जाती है) के रूप में क्यों माना जाता है? (तात्पर्य यह है कि, “जीवात्मा केवल भगवान का दास है” ऐसे कहने के बदले, “जीवात्मा केवल भगवान का अनन्य दास है” ऐसे कहा गया है।) जब एक वस्तु और उसकी विशेषता को एक ही स्थिति में समान रुप से समझाया जाता है, तब आयोग व्यवच्छेदम् प्रस्तुत हो सकता है और अन्य में जहाँ स्थिति एक जैसी नहीं है, ऐसा नियम लागू नहीं होता, अतः यह कहने में त्रुटि होगी कि यह एवाकार (उकारम्) अन्ययोग व्यवच्छेदम् हो सकता है। यह स्पष्ट रूप से अनुच्छेद में दर्शाया है जैसे “देवदत्तम् प्रत्येव दण्डनम्” (दण्ड का लक्ष्य देवदत्त की ओर है।)

वैकल्पिक रूप से- अंतरंग संबंध का तात्पर्य नव विधा संबंध (नवधा संबंध) से है जो तिरुमंत्र में प्रकृति, प्रत्यक्ष और धातु शब्दों में दिखाए गए हैं जैसे “पिताच रक्षक शेषी भर्ताज्ञेयो रमापति:।

स्वाम्याधरो मम आत्मा च भोक्ता चाद्य मनूधित:।।” (तिरुमंत्रम् में समझाया गया है कि श्रीमन्नारायण पिता, रक्षक, स्वामी, पति, ज्ञान की वस्तु, अधिकारी, आश्रय, परमात्मा और चेतन के भोक्ता हैं)।

तिरुमंत्रम् में नौं प्रकार के सभी  संबंधों की स्पष्ट व्याख्या की गई है-

  1. पिता पुत्र संबंधम् (पिता-पुत्र संबंध)- पहले शब्द में, प्रणवम्, पहले अक्षर में, प्रकृति (शब्द उत्पत्ति, प्राकृतिक) अवस्था में, जैसे कि सुभालोपनिषत् में कहा है “पिता नारायण:” (नारायण पिता हैं), श्रीविष्णु पुराण १.९.१२६ “देव देवो हरि: पिता” (हरि जो स्वामियों के स्वामी हैं) और पेरिय तिरुमोऴि १.१.६ “एम्बिरान् एन्दै” (मेरे हितकारी, मेरे पिता)
  2. रक्ष्य रक्षक संबंधम् (रक्षित- रक्षक संबंध)– ऐसे ही अकारम् में, धातु (क्रिया मूल) दृष्टिकोण में अर्थात् “अव रक्षणे”, जैसे कि तैत्तिरीय उपनिषद् आनन्दवल्लि में कहा गया है “कोह्येवान्यात् क: प्राण्यात्” (कौन इस परमानन्द के बिना जीवित रहेगा?) श्री विष्णु पुराण १.२२.२१ “न ही पालन सामर्थ्यमृते सर्वेश्वरम् हरिम्” (श्रीमन्नारायण के अतिरिक्त कौन रक्षा कर सकता है) और तिरुवाय्मोऴि २.२.८ “करुत्तिल् तेवुम् एल्लप् पोरुळुम् वरुत्तित्त मायप् पिरानै” (दर्शनीय सक्षम सर्वोत्तम एम्पेरुमान् जिन्होंने अपने एक संकल्प के द्वारा देवताओं और अन्य जीवों को बनाया)।
  3. शेष शेषी संबंधम् (दास-स्वामी संबंध)- प्रणवम् के लुप्त चतुर्थी (गुप्त कारक) में प्रत्यय (अंतसर्ग) जैसे कि कहा गया है श्वेतश्वतर उपनिषद “पतिम् पतीनाम्” (स्वामियों के स्वामी), श्रीविष्णुसहस्रनामम् “जगत् पतिम् देवदेवम्” (ब्रह्माण्ड के स्वामी और स्वामियों के स्वामी) और तिरुवाय्मोऴि १.१.१ “अमरर्गळ् अधिपति” (नित्यसूरियों के नाथ)
  4. भर्तृ भार्या संबंधम् (पति-पत्नी संबंध) – प्रणवम् के दूसरे अक्षर में, उकारम्, यद्यपि यह अवधारण है (नियम/अनन्यता), जैसे कि “भगवत एवाहम्” (मैं केवल भगवान के लिए हूँ), श्री रामायणम् सुन्दर काण्ड “लोक भर्तारम्” (जगत-पति) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ५.४.२ “परवै एरु परम्पुरुडा नी एन्नैक् कैक् कोण्ड पिन्” (ओह गरुड़ाऴ्वार् की सवारी करने वाले! आप मुझे स्वीकार करने के बाद)
  5. ज्ञातृ ज्ञेय संबंध (ज्ञाता-ज्ञात संबंध) – प्रणवम् के तीसरे अक्षर में, धातु के अनुसार, “मनु अवबोधने” (जानते हुए) जैसे कि बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है ६-५-६ “निधिद्यासितव्य:” (ध्यान किया जाना) महाभारत १७८.११ “ध्येयो नारायणस् सदा” (सदा नारायण को ध्यानो) और तिरुवाय्मोऴि ८.८.३ “उणर्विन् उळ्ळे निऱुत्तिनेन्” ( मैंने उनको अपने विचारों में विद्यमान रखा)
  6. स्व स्वामी संबंधम् (स्वामित्व- स्वामी संबंध) – तिरुमंत्र के दूसरे शब्द में, नमः, जैसे कठोपिनषद् २.१.१२ में कहा गया है “इशानो भूत भव्यस्य” (वे वर्तमान और भविष्य में मार्गदर्शक हैं), विष्णु तत्वम् “स्वत्वम् आत्मनि संजातम् स्वामित्वम् ब्रह्मनि स्थितम्” ( किसी का होना- स्वत्व का गुण, आत्मा के लिए स्वाभाविक है; स्वामी होने का गुण ब्रह्म के लिए स्वाभाविक है) और तिरुवाय्मोऴि ६.१०.१० “उलगम् मून्ऱुडैयाय्” (जो त्रिलोकीनाथ हैं)
  7. शरीर शरीरी संबंधम् (शरीर-आत्मा संबंध) – तिरुमंत्र के तीसरे शब्द में, नारायणाय, नार विषय में, जैसे कि उपनिषद ७ “यस्यात्मा शरीरम्…….. यस्य पृथिवी शरीरम्” (जिनके लिए यह आत्मा एक शरीर है, यह पृथ्वी एक शरीर है), श्रीरामायणम् के युद्ध काण्डम् ११७.२६ “जगत सर्वम् शरीरम् ते” (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड आपका शरीर है) तिरुवाय्मोऴि १.२.१ “उम्मुयिर् वीडुडैयानिडै” ( स्वयं को उस के शरणागत करो जो मोक्ष प्रदान करता है)
  8. आधार अधेय संबंधम् (समर्थक-समर्थित संबंध) – अयनम के विषय में (तीसरे शब्द का), जैसे कि छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है “सदायतना:” (प्रत्येक का धाम भगवान है), श्रीभगवत्गीता ७.७ “मयि सर्वम् इदम् प्रोतम् सूत्रे मणिगण इव” (ये सब तत्व मुझ पर ऐसे पिरोये हैं जैसे एक सूत्र में रत्न पिरोये हैं) तिरुवाय्मोऴि ८.७.८ “मूवुल्गुम् तन् नेऱिया वयिट्रिल् कोण्डु निन्ऱोऴिन्दार्” (वह जिसके अन्दर तीनों लोक समाए हैं वह रक्षक-रक्षित संबंध की उपेक्षा किए बिना धारण करता है।)
  9. भोक्तृ-भोग्य संबंधम् (भोक्ता -भोगा हुआ संबंध)- प्रत्यक्ष चतुर्थी, आय में, जैसे तैत्तिरीय उपनिषद् में “अहम् अन्नम् अहम् अन्नम्” (मैं भोजन हूँ, मैं भोजन हूँ),  श्रीभगवत्गीता ५.२९ “भोक्तारम् यज्ञ तपसाम्” (मैं यज्ञ के बलि और तपस्याओं का भोक्ता हूँ) और तिरुवाय्मोऴि १०.७.३ “एन्नै मुटृम् उयिर् उण्डु” (मेरा सम्पूर्ण उपभोग करना)

अडियेन् अमिता रामानुज दासी

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सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग २

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<< सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग १

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् -मुक्तात्मा, जैसे तिरुमालै २ में कहा गया है “पोय् इन्दिरा लोगम् आळुम्” (परमपद जाना और वहाँ आनन्द लेना), अर्चिरादि मार्गम् से यात्रा करना (परमपद की ओर जाने वाला मार्ग) विरजा नदी में पूर्ण स्नान करना, अमानव द्वारा स्पर्श किया जाना, परमपदधाम में दिव्य शरीर को स्वीकार करना। दूसरी ओर यह निर्दयी जगत जो बन्धन को बढ़ाता है। इन दोनों के विपरीत, जबकि श्रीरङ्गम् में इस भौतिक शरीर के साथ ही प्रवेश किया जा सकता है और यह बन्धनों से मुक्त रखने वाला भी है, जिसे “अरङ्गमानगर”(श्रीरङ्गम् महानगर) के रूप में जाना जाता है, यह दो विभूतियों (नित्य और लीला) से परे है इसलिए तृतीय विभूति (तीसरा लोक) के रूप में जाना जाता है। ऐसे तिरुवरङ्गम् तिरुपति में, पेरिय पेरुमाळ् के बारे में यह कहा जाता है कि दृढ़तापूर्वक अपने भक्तों को एक स्थिर वस्तु बनकर स्वीकृति के लिए डटे रहते हैं, और अवतारम (अवतारों) के विपरीत जो उनके समय को शीघ्र या विलम्ब में समाप्त कर देते हैं जैसे कि पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.३ में उद्धृत है “अडियवरै आट्कोळ्वान् अमरुम् ऊर्” (वह नगर जहाँ अपने दासों को स्वीकार करने भगवान दृढ़ता से निवास करते हैं) ।

विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै पेरिय पेरुमाळ् को विशेष रुप से इसलिए परिचित कर रहे हैं क्योंकि 

पेरिय पेरुमाळ् अपने अन्य स्वरूपों की तुलना में विशिष्ट हैं जैसे कि तिरुवाय्मोऴि ७.२.११ में वर्णित है “मुगिल् वण्णन् अडि मेल् सोन्न सोल् मालै आयिरम्” (शब्दों की हजारों मालाएँ जो मेघवर्ण भगवान के लिए बोली जाती हैं), तिरुवाय्मोऴि तनियन में “मदिळ् अरङ्गर्वन् पुगऴ् मेल् आन्ऱ तमिऴ् मऱैगळ् आयिरमुम्” (हजार पासुर जो श्रीरङ्गम् में संरक्षित श्रीरङ्गनाथ के दिव्य गुणों पर गाए थे) श्रीरङ्गराजस्तवम् में ७८ “शठकोप वाक् वपुषी रङ्ग गृहेशयितम्” (जो नम्माऴ्वार् के दिव्य शब्दों और पदों में प्राप्त हैं, और श्रीरङ्गम् में विराजित हैं) वर्णित है

पेरिय पेरुमाळ् ही परम लक्ष्य है, सर्वोच्च प्रबन्ध तिरुवाय्मोऴि में प्रस्तुत किया है जैसे “प्रमाणम् सत्जित सूक्ति: प्रमेयम् रङ्गचन्द्रमा:” (ज्ञान का प्रामाणिक स्रोत नम्माऴ्वार् के शब्द हैं और प्रामाणिक लक्ष्य श्रीरङ्गनाथ हैं)

उनकी स्तुति दस आऴ्वारों ने की है।

वे हमारी गुरु परम्परा के मूल हैं।

जबकि यह दिव्यदेश तिरुमला से प्रारम्भ होने वाले सभी दिव्यदेशों का मूल है।

“अम् पोन् अरङ्गर्क्कु” अकार और नारायण शब्दों का अर्थ बताते हैं जो भगवान की संक्षिप्त और विस्तृत व्याख्या हैं। “अरङ्गरुक्कु, प्रकरण में, चौथे सूत्र का अर्थ दासता ऐसे समझाया गया है, जो प्रणवम् में निहित है।

इसके बाद, जैसे “मकारो जीव वाचक:” (मकार जीवात्मा को दर्शाता है), कहा गया है, चेतना जो इस दासता का धाम है जो प्रणवम् में स्पष्टता से दर्शाया है, और ऐसे मकार की व्याख्या, जो नार शब्द है, जो मकार में निहित चेतनों की अनन्तकाल, बहुलता आदि की स्पष्ट व्याख्या करता है, उसका भी करुणापूर्वक स्पष्टीकरण किया है।

आविक्कुम् – आत्मा के लिए – प्रत्ययम् (पर्याप्त) के लिए, प्रकृति के उस अर्थ का वर्णन करना (जिस मूल शब्द से वे जुड़े हुए हैं) सामान्य है; इसलिए आय, शेषत्व (दासता) का अर्थ, जो अकारम् में निहित है (गुप्त), ईश्वर के लिए होना चाहिए (ईश्वर के प्रति दासता), यह चेतन (मकारम्) के साथ संगठित है (आत्मा की दासता)। ऐसा क्यों? यहाँ दासता को ईश्वर और चेतन के बीच के संबंध के रूप में माना गया है, और इसलिए दोनों श्रेणीयों की पहचान की जा सकती है, और इस प्रकार, यह चेतन पर आश्रित होने के अतिरिक्त, यह कहने में कोई त्रुटि नहीं कि इसका ईश्वर के साथ सम्बद्ध है।

अविक्कुम् –“अम् पोन्” यहाँ (आत्मा के लिए) भी भूमिका होनी चाहिए। इस प्रकार, अलौकिक स्वामी, पेरिय पेरुमाळ् के दास के रुप में, भौतिकता से उत्तमता के रूप में, ज्ञानम् (ज्ञान) और आनन्दम् (आनन्द) से परिपूर्ण, अविकारी, तीन श्रेणियों में होने के कारण बद्ध (बन्धित आत्माएं),‌ मुक्त (मुक्त आत्माएं) और नित्य (निरन्तर मुक्त आत्माएं), आत्माओं के पास पेरिय पेरुमाळ् ही एकमात्र, अनुकूल शोभनीय भगवान हैं जैसा कि तैत्तिरीय नारायणवल्ली “पतिम् विश्वस्य”(ब्रह्माण्ड के स्वामी) में कहा गया है, तिरुवाय्मोऴि ७.२.१० “मूवुलगाळि”(त्रिलोक का राजा), पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.१० “एन्नै आळन्” (जो मुझ पर राज करता है) और उनके दास कहे जाते हैं। आवि साधारणतः प्राण (प्राण वायु) को दर्शाता है जैसे कि “सर्वम् हितम् प्राणिनाम् व्रतम” (सभी व्रत प्राणियों के लिए अच्छे हैं) में कहा गया है, जो शरीर में पाँच स्थानों पर हैं, जैसे तिरुवाय्मोऴि १०.१०.३ में वर्णित है “आविक्कोर् पटृक्कोम्बु” (एम्पेरुमान् आत्मा के लिए आश्रय है), क्योंकि आवि आत्मा को दर्शाता है, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै ने उसी का अनुसरण किया और करुणापूर्वक आवि का प्रयोग आत्मा को दर्शाने के लिए किया।

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् अविक्कुम् -यद्यपि पिळ्ळै लोकाचार्य ने अर्थ पञ्चकम् आदि जैसे ग्रंथों में व्याख्य देते समय स्व स्वरूप (आत्मा का स्वरूप) पहले और उसके बाद पर स्वरूप (भगवान की प्रकृति) दी है, वैसे ही जैसे श्रुति वाक्यम् में देखा गया है (वेदों के उद्धरण) जैसे कि यजुर्ब्राह्मणम् ३.७ “यास्यास्मि” (वह एक जिसका मैं एक दास हूँ) में देखा गया है और प्रणवम् में जो मूल कारण है (वेदों के लिए) (जिसमें पहले अकार है) और हारीत संहिता में “प्राप्यस्य ब्राह्मणों रूपम्” (ब्रह्म स्वरूप जिसको प्राप्त करना है), भगवान के स्वरूप को पहले प्रकाशित किया जाता है, विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै भी उसी नियम का अनुसरण करते हैं।

समुच्चयम् (संचय) जो सामवेद कौतुमीया सम्हिता “युवतिश्च कुमारिनी” अन्वाच्यम् है (संचय में से एक की महत्ता); इसी प्रकार “अरङ्गर्क्कुम् अविक्कुम्” भी अन्वाच्यम् है न कि समुच्चयम् (संकलन में सभी तत्वों का समान महत्व); ऐसा इसलिए, दास और भगवान का समान महत्व नहीं होगा। [परन्तु क्या शास्त्र में भगवान और मुक्त(मुक्त आत्मा) के लिए समानता पर प्रकाश नहीं डाला है?] जैसे कि ब्रह्मसूत्र ४.४.२१ में कहा गया है “भोग मात्र साम्य लिङ्गाच्च” (भगवान और मुक्त की केवल संतुष्टि में समानता है) और ४.४.१७ “जगत व्यापार वर्जम्” (मुक्त सृजन करने में व्यस्त नहीं है), चेतन और भगवान की आनंद में समानता है और सभी अवस्थाओं में नहीं। मुण्डकोपनिषद ३.१.३ में तात्पर्य है “निरञ्जन: परमम् साम्यम् उपैति” (मुक्त ब्रह्म के साथ सर्वोत्तम समानता प्राप्त करता है), श्रीभगवद्गीता १४.२ “मम साधर्म्यम् आगता:” (वह मेरे साथ समानता प्राप्त करता है) और पेरिय तिरुमोऴि ११.३.५ में “तम्मैये नाळुम् वणङ्गित् तोऴुवार्क्कुत् तम्मैये ओक्क अरुळ् सेय्वर्” (जो उनकी उपासना करते हैं, उनको अपने साथ समानता का शुभाशीष देंगे।)

अगले भाग में देखते हैं…                                                

अडियेन् अमिता रामानुज दासी

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सप्त कादै – पासुरम् १ – भाग १

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<<सप्त गाथा (सप्त कादै) – अवतारिका (परिचय) – भाग २

अवतारिका(परिचय)

जैसे कि हरीत स्मृति ८-१४१ में कहा गया है “प्राप्यस्य ब्रह्मनो रूपम् प्राप्तुश्च प्रत्यगात्मन:। प्राप्त्युपायम् पलम् प्राप्तेस्तथा प्राप्ति विरोधी च। वदन्ति सकला वेदा:सेतिहास पुराणका:। मुनयश्च महात्मानो वेद वेदार्थ वेदिन:।।” (इतिहास और पुराण सहित सारे वेद, वे महान ऋषि जो वेदों के पाठ और अर्थ को जानते हैं, अर्थ पञ्चकम् के विषय में प्रवचन करते हैं – ब्रह्म की प्रकृति जिस तक पहुँचना है, जीवात्मा की प्रकृति जो ब्रह्म को प्राप्त करती है, ब्रह्म की प्राप्ति का साधन, ब्रह्म की प्राप्ति के बाद लाभ और बाधाएँ जो प्राप्ति को रोकती हैं) विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै का विचार है कि जो प्रत्यक्ष और दयापूर्वक

अर्थ पञ्चकम् की व्याख्या करते हैं जिसे वेद वाक्यों (वेदों के कथन) में समझने के लिए उभारा जाता है और जो सत्य पर केंद्रित है, तिरुमंत्रम् के तीन शब्द जो वेदों के सार हैं और जो आऴ्वारों के पासुरों में अच्छे अर्थ के साथ व्यवस्थित हैं, वे सदाचार्य (सच्चे आचार्य) हैं, और दयापूर्वक वैसी व्याख्या करते हैं (पासुरों में)। 

पासुर

अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम् आविक्कुम् अन्दरङ्ग
सम्बन्दम् काट्टित् तडै काट्टि- उम्बर्
तिवम् एन्नुम् वाऴ्वुक्कुच् चेर्न्दनेऱि काट्टुम्
अवन् अन्ऱो आचारियन्

शब्द-अर्थ

अम्-सुन्दर।
पोन्-पवित्र।
अरङ्गर्क्कुम् -पेरिय पेरुमाळ् के लिए, जिन के लिए श्रीरंगम् ही मन्दिर है।
आविक्कुम् -आत्मा के लिए तीन स्तर हैं अर्थात् बद्ध (बाध्य), मुक्त (विमुक्त) और नित्य (स्थायी)।
अन्दरङ्ग सम्बन्धम्- अनन्यार्ह शेषत्वम् का घनिष्ठ सम्बन्ध (भगवान का अनन्य दास होने के नाते)।
काट्टि- प्रकट करना।
तडै काट्टि- लक्ष्य, साधन, भगवान के प्रभुत्व और भगवान के प्रति स्वयं की अनन्य दासता के सम्बंध के विचारों में आने वाली बाधाओं को प्रकट करना।
उम्बर् तिवम् एन्नुम् –  जहाँ नित्यसूरियों का अधिकार है उस धाम में नित्य कैङ्कर्य करना ।
वाऴ्वुक्कु- उत्तम जीवन के लिए।
सेर्न्द-अनुकूल।
नेऱि- प्रपत्ति जो साधन है।
काट्टुम् अवन् अन्ऱो- जो तिरुमंत्रम् की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
आचार्यन्- वास्तविक आचार्य ।

सरल व्याख्या

क्या अर्थपञ्चकम् को प्रत्यक्ष करने वाले अर्थात् (१)पेरिय पेरुमाळ् जिनके मन्दिर के रूप में सुन्दर, पवित्र श्रीरङ्गम् है। (२)आत्मा जो तीन वर्गों में हैं अर्थात् बद्ध (बद्ध), मुक्त (मुक्त) और नित्य (सदा मुक्त) और ऐसे पेरिय पेरुमाळ् के प्रति अनन्यार्ह शेषत्व का निकटतम सम्बन्ध (३) लक्ष्य, साधन, भगवान की सर्वोत्तमता और ऐसे भगवान के प्रति स्वयं की अनन्य दासता सम्बन्धित विचारों की बाधाएँ (४) प्रपत्ति जो लक्ष्य के अनुकूल साधन है, और (५) लक्ष्य अर्थात्  उत्तम जीवन का निर्वाह नित्य कैङ्कर्य करने का जो नित्यसूरियों के पास तिरुमंत्रम् के माध्यम से है, क्या वे एक सदाचार्य नहीं हैं?

व्याख्यानम् (टिप्पणी)

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम्……-पिळ्ळै लोकाचार्य ने करुणापूर्ण समझाया कि जो कोई कृपापूर्वक अर्थ पञ्चकम् का निर्देश देता है वह आचार्य हैं जैसे कि मुमुक्षुप्पडि ५वें सूत्र में है “सम्सारिगळ् तङ्गळैयुम् ईश्वरनैयुम् मऱन्दु…….”. विळाञ्जोलैप् पिळ्ळै उनके कथनानुसार कहते हैं “काट्टुम अवन् अन्ऱो आचारियन्”; इससे यह ज्ञात होता है कि वे पिळ्ळै लोकाचार्य के दिव्य चरणों का पूर्णतया अनुसरण करते हैं। एक ही शब्द का समान रूप से उच्चारण करते रहना हमारे प्रवर्तकों का एक विशेष गुण है।

जिस प्रकार वादिकेसरि कारिका में कहा गया है “उक्तार्थ विशदीकार युक्तार्थान्तर बोधनम्।

मतम् विवरणम् तत्र महितानाम् मनीषिणाम्।। [माननीय प्रवर्तकों का सिद्धांत है कि व्याख्यान (टिप्पणी) बताई गई अवधारणा को स्पष्ट करने और उपयुक्त विचारों को वर्णित करने के लिए है], तिरुमंत्र का पहला शब्द, प्रणवम् (आउम), तीन शब्दांशों में विभाजित है; ये उस प्रणवम् में दिखाए गए अर्थों को समझने में सहायक है; दयापूर्वक मन्त्र शेषम् (तिरुमंत्र का अवशेष) को, जिसमें दो शब्द हैं, ऐसे विशिष्ट अर्थों का प्रत्यक्षीकरण कर्ता मानना; इसलिए प्रणवम् को तिरुमंत्रम् के अन्तिम दो शब्दों में विस्तृत किया गया है। 

तैत्तिरीय उपनिषद् में कथित है “तस्य प्रकृति लीनस्य य: परस्स महेश्वर:” (महान भगवान तिरुमंत्र के अर्थ हैं)”, अकारो विष्णु वाचिन:” (अक्षर “अ” विष्णु को इङ्गित करता है), तिरुच्चन्दविरुत्तम् ४ “तुळक्कमिल् विळक्कमाय्” (अकारम् द्वारा इङ्गित किए ग‌ए, जो अविनाशी हैं) और संस्कृत व्युत्पत्ति विज्ञान में “अवरक्षणे” (रक्षण)। इस पर विचार करते हुए, विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै अपने दिव्य हृदय में रखते हैं (१)अकार विभक्ति-सहित (क्रिया के साथ) स्पष्ट रूप से सर्वेश्वरन् की व्याख्या कर रहा है जो श्रिय:पति (श्रीमहालक्ष्मी के स्वामी) हैं और उनके रक्षकत्व (संरक्षक होने के जैसे) और शेषित्व (प्रभुत्व) और वहां अव्यक्त मङ्गळ गुण हैं जो उनकी सुरक्षा में सहायक हैं, और (२) नारायण पदम् जो तिरुमंत्र को विस्तृत करता है, और वे करुणापूर्ण कह रहे हैं “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्……”।   

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् -पेरिय पेरुमाळ् जो सबके रक्षक हैं, सबके स्वामी हैं और मङ्गळ् गुणों से सुसज्जित हैं जैसे कि शरणागतों की शरणस्थली होने के कारण श्रीरंगम् के इस सुंदर, पवित्र महान नगर के स्वामी हैं। ऐसे श्रीरंगम् पेरिय पेरुमाळ् के लिए भोग्यम् (मधुर) और पावनम् (पवित्र) दोनों है क्योंकि इसे तेन्नगरम् (सुन्दर अरङ्गम्) और पोन्नगरम् (पवित्र/अभीष्ट अरङ्गम्) कहा जाता है, उसी प्रकार जैसे श्रीमथुरा को “शुभा” (शुभ) और “पापहर” (जो पापों को समाप्त करता है) कहा जाता है। मिठास का कारण है प्रचुर मात्रा में पानी, छाया और उपजाऊ भूमि का विद्यमान होना जैसे पेरियाऴ्वार तिरुमोऴि ४.८.७ में उद्धृत है “तेऴिप्पुडैय काविरि वन्दडि तोऴुम् सीररङगम्” (सुन्दर श्रीरङ्गम् जहाँ मङ्गळकारी कावेरी नदी आती है और उनके दिव्य चरणों को स्नेह स्पर्श करती है)। पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.८.४ “तेन् तोडूत्त मलर्च् चोलैत् तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जहाँ फूलों के उपवन मधुमक्खियों से भरे हुए हैं) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.१०  “इनिदागत् तिरुक्कण्गळ् वळर्गिन्ऱ तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जहाँ पेरिय पेरुमाळ् करुणापूर्ण आनन्द सहित विश्राम कर रहे हैं)। प्रकृति को शुद्ध करने का कारण अन्धकार को दूर करने की क्षमता और आत्म प्रकाश के कारण है जैसे कि पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.६ में कहा है कि “तिसै विळक्काय् निऱकिन्ऱ तिरुवरङ्गम्” (श्रीरङ्गम् जो प्रकाश के पुञ्ज के रुप में है) और पेरियाऴ्वार् तिरुमोऴि ४.९.७ “सेऴुमणिगळ् विट्टेरिक्कुम” (जहाँ उत्तम रत्न दीप्तिमान हैं)। जैसे पेरिय पेरुमाळ् में उभय लिङ्गत्वम (दो समरूप अर्थात् सभी मङ्गळगुणों का नाम और अमङ्गळ के विपरीत होना), यह श्रीरंगम् का भी यही भाव है; एम्पेरुमान् का स्वभाव है कि अपने सगुणों को उनको प्रदान करना जो उनसे सम्बन्धित हैं।

एम्पेरुमान् की विशेषता एक विशेष दृष्टिकोण से होनी चाहिए जैसे “अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम्” (वह जो श्रीरङ्गम् के जैसे सुन्दर और स्वर्ण में विद्यमान है); जिस प्रकार भागवतों की पहचान भगवान द्वारा होती है जैसे तिरुवाय्मोऴि ५.६.११ में उद्धृत है “तिरुमाल् अडियार्गळ्” (श्रीमन्नारायण के भक्त), एम्पेरुमान् का परिचय उनके दिव्य देशों द्वारा भी होता है। श्री रामायण के सुन्दर काण्ड में २८.१० यह कहा गया है “रामानुजम् लक्ष्मण पूर्वजन्च” (लक्ष्मण, श्रीराम के अनुज और उनके बड़े भाई, श्रीराम)

अम् पोन् अरङ्गर्क्कुम् -यहाँ सुंदरता और पवित्र प्रकृति का श्रेय स्वयं पेरिय पेरुमाळ् को दिया है जैसे कि नाच्चियार् तिरुमोळि ११.२ में उद्धृत है “एन् अरङ्गत्तु इन्नमुदर् कुऴल्ऴ्गर् वायऴगार्” (मधुर रस, श्रीरङ्गम् में श्रीरङ्गनाथ जिनके सुन्दर केश और सुन्दर ओष्ठ हैं) और तिरुनेडुन्दाण्डगम् १४ “अरङ्गमेय अनन्दणनै” (शुद्ध जीव जो श्रीरङ्गम् में दृढ़ता पूर्वक निवासी हैं)। इसके साथ, उनके उभय लिङ्गत्वम – सभी मंगल गुणों से युक्त और सभी अमंगल दोषों के विपरीत होने पर बल दिया गया है। क्योंकि यह उभय लिङ्गत्वम सर्वोच्च है, विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै इसे पेरिय पेरुमाळ् की विशेषता प्रस्तुत कर रहे हैं। दो विशेषताओं के साथ “अम् पोन्”  विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै भी करुणापूर्वक श्रीमहालक्ष्मी के पुरुषकार भावम् (संस्तुति करने की भूमिका) को इङ्गित करते हैं, जो कि श्रीवचनभूषणम् ७ “पुरुषकारमाम्बोदु कृपैयुम पारतन्त्रैयुम् अनन्यार्हत्वमुम् वेणुम्” [पुरुषकार करते समय, कृपै(दया), पारतन्त्रयम् (पूर्ण शरणागत) और अनन्यार्हत्वम् (किसी और के लिए विद्यमान नहीं) की आवश्यकता है],आदि क्योंकि पिराट्टि को भगवान के स्वरूप में निहित देखा जाता है, जो “अरङ्गर्क्कु” में इङ्गित है, जैसे कि लक्ष्मी तन्त्र “अहन्ता ब्रह्मणस्तस्य” (मैं ब्रह्म की चेतना में हूँ) और मुमुक्षुप्पडि १३१ “इवळोडे कूडिये वस्तुविनुडैय उण्मै” [केवल उसके (पिराट्टि) साथ मिलकर उसका (भगवान का) अस्तित्व है]।

वैकल्पिक व्याख्या

“अम् पोन्” सुंदरता से प्राप्त आकर्षण को इङ्गित करता है। ऐसा आकर्षण दोनों में विद्यमान है – कोयिल् (श्रीरङ्गम्) जैसे कि “कामदम् कामकम् काम्यम् विमानम् रङ्गसम्ज्ञिकम्” कहा गया है (यह श्रीरंगम् विमान हमारी कामनाएँ पूर्ण करेगा, कामना उत्पन्न करेगा और कामना के योग्य होगा) और पेरिय पेरुमाळ् में, जैसा कि श्रीरङ्गराजस्तवम् ६७ में कथित है “सक्यम् समस्त जन चेतसि सन्धतानम्” (सभी लोगों को आकर्षित करने का कारण उनके अङ्ग हैं जो वर्चस्व और सादगी को दर्शाते हैं)। कोयिल् को अरङ्गम् (श्रीरङ्गम्) कहते हैं क्योंकि यह धाम पेरिय पेरुमाळ् का आनन्दवर्धक है जैसा कि कहा गया है “रतिङ्गतोयतस् तस्मात्ङ्गमित्युच्यते बुधै:” (ज्ञानी पुरुषों द्वारा यह धाम श्रीरङ्गम् नाम से पहचाना जाता है, क्योंकि यहाँ स्नेह विद्यमान है)।

आगे के भाग में देखते हैं…

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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सप्त गाथा (सप्त कादै) – अवतारिका (परिचय) – भाग २

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श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

श्रुंखला

<<अवतारिका (परिचय) – भाग १

पहले भाग से आगे बढ़ते हुए

अपनी अपार करुणा से, विळान्जोलैप् पिळ्ळै ने अपने अलौकिक हृदय में नम्माळ्वार के तिरुवाय्मोळि का सार है और परम रहस्य विषय-  श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के गूढ़ अर्थों की भिन्न रुप में व्याख्या करने की अभिलाषा की, एक संक्षिप्त विषय के रूप में जिसे सरलता से समझा जा सकें। जो व्यापक रूप से दिखाए गए थे, जो कि है, । जैसे श्रीमद्भगवत गीता में चरम श्लोक सबसे महत्वपूर्ण अंश है, उसी प्रकार, श्रीवचनभूषणम् का अन्तिम प्रकरणम् (भाग) में अन्ततः दी गई प्रमाणम्(शास्त्र), प्रमेय(लक्ष्य) और प्रमाता(आचार्य) की व्याख्या महत्वपूर्ण विषय है। इसलिए, वे कृपापूर्वक इस विषय के रहस्य अर्थों और पहले के विषयों में बताए हुए गूढ़ अर्थों की व्याख्या इस प्रबन्ध “सप्त गाथा”नामक के द्वारा सात पासुरों में, बिना किसी विस्तार के करते हैं, जो हमें इस विषय को समझने में सहायक हैं, जो सब प्रकार से रमणीक है, जैसे इसके तनियन में ही कहा गया है- “वाऴि अवन् अमुद वाय् मोऴिगळ्”

जब पूछा गया “वह कैसे?”

श्रीवचनभूषणम् में, प्रारम्भिक सूत्र “वेदार्थम् अऱुदियिडुवदु” से प्रारम्भ होकर २२वें सूत्र तक “प्रपत्युपदेशम् पण्णिटृम् इवळुक्काग”, तक विशिष्ट अर्थ जो पुरुषकार प्रकरणम् (पिराट्टि संस्तुति अधिकार) में विस्तृत है, उसके सार के रूप में पहला पासुरम् “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” में है, वैसे ही जैसे लक्ष्मी तन्त्रम् की सूक्ति “अहंता ब्रह्मणस्तस्य” (मैं ब्रह्म की चेतना हूँ) में है।

२३वें सूत्र “प्रपत्तिक्कु” से आरम्भ होकर ७९वें सूत्र तक “एकान्ती व्यपदेष्टव्य” विशिष्ट अर्थ जो उपाय प्रकरणम् (भगवान ही माध्यम है) में प्रस्तुत किया गया था, उसे पहला पासुरम् में “उम्बर् तिवम् एन्नुम् वाऴ्वुक्कुच् चेर्न्द नेऱि” में दिखाया गया है। 

८०वें सूत्रम् “उपायत्तुक्कु” से आरंभ होकर ३०७वें सूत्रम् तक “उपेय विरोधिगळुमाय् इरुक्कुम्” अधिकारी निष्ठा प्रकरणम् (प्रपन्न की गुणवत्ता) में प्रस्तुत किए गए रहस्य अर्थ पासुरों “अञ्जु पोरुळुम्”, “पार्थ गुरुविन् अळविल्” और “तन्नै इऱैयै” में प्रस्तुत किए हैं।

३०८वें सूत्र “तान् हितोपदेशम् पण्णुम्बोदु” से आरम्भ होकर ३६५वें सूत्र तक “उगप्प उपकार स्मृत्युम् नडक्क वेणुम्” आचार्य अनुवर्तन प्रकरणम् (आचार्य सेवा) में दिखाए गए विशिष्ट अर्थ “एन् पक्कल् ओदिनार्…..” पासुरम् में प्रस्तुत किए गए हैं।

३६६वें सूत्र “स्वदोष अनुसन्धानम् भय हेतु” से आरम्भ होकर ४०६वें सूत्र तक “निवर्तक ज्ञानम् अभय हेतु” तक भगवत निर्हेतुक कृपा प्रभावम्‌ (भगवान की अप्रतिबन्ध कृपा की महानता), पासुरम् “अऴुक्केन्ऱु इवै अऱिन्देन्” में प्रस्तुत की है।

४०७वें सूत्र “स्वतन्त्रनै उपायमागत् तान् पट्रिन पोदिऱे इप्प्रसङ्गन्दान् उळ्ळदु” से आरम्भ होकर ४६३वें सूत्र “अनन्तरम् पलपर्यन्तम् आक्कुम्” तक अन्तिम प्रकरणम् (आचार्य वैभवम्) में प्रस्तुत किए गए विशिष्ट अर्थ “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” से प्रारम्भ होकर “तीङ्गेदुमिल्ला” तक सभी सात पासुरों में संक्षिप्त वर्णन किया है।

इस प्रकार, जिस प्रकार से वे करुणामय रूप में संक्षिप्त, सकारात्मक व्याख्या और निषेध के माध्यम से समझाते हैं, यह कहते हुए कुछ भी अनुचित नहीं है कि यह प्रबन्ध श्रीवचनभूषणम् में प्रस्तुत अर्थों का संक्षिप्तिकरण है।

जैसे कि कृपापूर्वक नम्माऴवार् ने तिरुवासिरियम् के प्रथम पर्व (प्रारम्भिक चरण-भगवत भक्ति) को “चेक्कर् मामुगिल्” से आरम्भ करके समझाया, विळान्जोलैप्पिळ्ळै भी “अम्बोन् अरङ्गर्क्कुम्” से आरम्भ करके कृपापूर्वक इस प्रबन्ध में चरम पर्व (अन्तिम चरण -आचार्य भक्ति) की व्याख्या कर रहे हैं।

उस प्रबन्ध और इस प्रबन्ध में बहुत अन्तर है।

जब पूछा गया “वे क्या हैं?”

तिरुवासिरियम् की रचना आसिरियप्पा (तमिऴ् में एक प्रकार का काव्य रचना का नियम) में की गई थी जिसमें पंक्तियों की संख्या का पालन आदि जैसे कठोर नियम नहीं हैं। साथ ही इसमें प्रथम पर्व के विषय में भी बताया गया है जो बन्धम् (बन्धन) और मोक्षम् (मुक्ति) के लिए सामान्य कारण है जैसे बताया गया है श्वेतश्वतर उपनिषद में “संसार बन्ध स्थिति मोक्ष हेतु” (बन्धन और मुक्ति दोनों का यही कारण), स्कन्द पुराणम् “सिद्धिर् भवतिवानेति संश्योच्युत सेविनाम्” (अच्युत की पूजा करने वाले अपनी इच्छाओं की सफलता या विफलता के लिए चिंता करेंगे), तिरुवाय्मोऴि ३.२.१ में “अन्नाळ् नी तन्द आक्कै” (सृष्टि के समय आपने जो शरीर दिया), तिरुवाय्मोऴि १०.७.१० “मङ्गवोट्टु उन् मामायै” [यह महान प्रकृति (मेरा शरीर) जो आपकी है, भस्मीभूत हो जाने दें]।

परन्तु, यह सप्त गाथा वेण्बा में है जिसमें पंक्तियों की संख्या के लिए नियम हैं। यह चरम पर्व को भी पूर्णतया प्रस्तुत कर रहा है जैसे कि छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है “तमस:पारम् दर्शयति आचार्यस्तु ते गतिम् वक्ता” (अब आपके आचार्य आपको मोक्ष के लिए निर्देश देंगे), न संशयोस्ति तद्भक्त परिचर्यारतात्मनाम्” (भगवान के भक्तों की सेवा करने से निस्संदेह अभिलषित फल प्राप्त होंगे) और प्रमेय सारम् ९ “नीदियाल् वन्दिप्पार्क्कुण्डु इऴियावान्” (जो आचार्य की पूजा विशेष रूप से करते हैं, वे श्रीवैकुण्ठम् को प्राप्त करेंगे, जहाँ पुनर्जन्म नहीं होता)

ऐच्छिक रुप से, आण्डाळ् के दिव्य शब्दों द्वारा समर्थित (आण्डाळ् ने नाच्चियार् तिरुमोळि १०.१० में कहा “विट्टुचित्तर् तङ्गळ् देवरै वरविप्परेल् अदु काण्डुमे” (यदि पेरियाऴ्वार्, जो श्रीविल्लिपुत्तुर् के प्रधान हैं, उनसे संभव माध्यम से उनके नियंत्रण में होनेवाले एम्पेरुमान् को आमन्त्रित करे) इस प्रबन्धम् में, जो कि वाक्य गुरुपरम्परा (अस्मत् गुरुभ्यो नम: …. श्री धराय नम:) के चौथे वाक्य (श्रीमते रामानुजाय नम:) का ठोस रूप है, पहले वाक्य (अस्मत् गुरुभ्यो नम) को क्रमानुसार टीकाकरण किया है (सप्त गाथा में)।

वह है,

  • पहला अक्षर “अस” पहली पंक्ति में “अम्बोन्अरङ्गर्क्कुम्”और पहले पासुर में समझाया गया है।
  • दूसरा अक्षर “मत्” “अञ्जु पोरुळुम् अळित्तवन्” पासुरम् में वर्णित है।
  • तीसरा अक्षर “गु” “पार्त्त गुरु” पासुरम् में वर्णित है।
  • चौथा अक्षर “रुभ्” “ओरु मन्दिरत्तिन्” पासुरम् में वर्णित है।
  • पाँचवां अक्षर “यो” की व्याख्या पासुरम् “एन् पक्कल् ओदिनार्” में की गई है।
  • छठवां अक्षर “न” की व्याख्या “अम्बोनरङ्गा” के छठे पासुरम् में की है।
  • सातवां अक्षर “म” को पासुरम् “सेरुवरे अन्दामन्दान्” में वर्णित है।

जैसे कि श्री रामायण में २४००० श्लोक २४ अक्षरी गायत्री छंदों पर आधारित हैं, यह प्रबन्ध इन ७ अक्षरों को ७ पासुरों में विस्तृत करता है।

जैसे श्री मधुरकविगळ् स्वामी जी और वडुग नम्बि स्वामी जी ने चरम पर्व को अपने शब्दों और कैङ्कर्य के माध्यम से विशेष रूप से प्रस्तुत किया, उसी प्रकार विळान्जोलैप्पिळ्ळै इसे अपनी वाणी और कृत्यों में स्पष्ट कर रहे हैं।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी 

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सप्त गाथा (सप्त कादै) – अवतारिका (परिचय) – भाग १

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<< तनियन (मंगलाचरण)

विळान्जोलैप्पिळ्ळै ने पिळ्ळै लोकाचार्य की शरण ली, जो सम्पूर्ण भूलोक के एकमात्र पालनकर्ता माने जाने वाले श्री रंङ्गनाथ के निर्वाहक हैं- जिस प्रकार श्री भगवत गीता ७.१८ में दिव्य शब्दों में वर्णित किया गया है “ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्” (यह मेरा मत है कि ऐसा भक्त मेरी आत्मा है), जिन्होंने हस्तिगिरी अरुळाळर् (देवराज पेरुमाळ्) के निर्देशों के अनुसार श्रीवचनभूषण सहित सभी रहस्यग्रन्थ प्रदान कर उनमें परम प्रमाण (शास्त्र), प्रमेय(लक्ष्य) और प्रमाता (आचार्य) की महानता को कृपापूर्वक उचित ढंग से प्रकट किया।

अवतार विशेष (प्रतिष्ठित अवतार) पिळ्ळै लोकाचार्य की कृपा से, विळान्जोलैप्पिळ्ळै बिना किसी संदेह और त्रुटि के उनसे अच्छे से निम्नलिखित के अर्थानुसन्धान कर सन्तुष्ट हुए: (१)सारी तिरुवाय्मोऴि में जो तिरुवाय्मोऴि ९.४.९ में वर्णन किया है कि “तोण्डार्क्कु अमुदुण्णाच् चोल् मालैगळ् सोन्नेन्” (मैंने ये शब्दों की माला भक्तों को अमृत का आनंद लेने के लिए ही बोली है।), (२) सहायक और उप सहायक विषय के रूप में तिरुमङ्गै आऴ्वार के सारे प्रबंध जिन्हें आचार्य हृदयम् ४३ में “इरुन्दमिऴ नूर्पुलवर पनुवल्गळ्”(तिरुवाय्मोऴि के सुविज्ञ के रूप में प्रख्यात तिरुमङ्गै आळ्वार के पासुर) और अन्य आठ आळ्वारों के प्रबंध, (३) उन प्रबन्धों के लिए तिरुक्कुरुगैप्पिरान पिळ्ळान् आदि के द्वारा जो भाष्य दिए गए, और (४) वे विशेष सार और गूढ़ रहस्य, जो तात्पर्य, शब्दों की रसानुभूति, अर्थों की रसानुभूति, मनोदशा की रसानुभूति और गुप्त अर्थों को प्रकट करते हैं।

जैसे पिळ्ळै उऱङ्गा विल्लि दासर उडयवर के नज़दीक अनन्य सेवक थे, एऱु तिरुवुडैयान् दासर नम्पिळ्ळै के लिए और  नडुविल् तिरुवीदिप्पिळ्ळै भट्टर् के लिए पिळ्ळै वानमामलै दासर, उसी प्रकार विळान्जोलैप्पिळ्ळै पिळ्ळै लोकाचार्य की आत्मा, जीवन, दृष्टि, कन्धे,  आभूषण, दिव्य चरण, दिव्य पाद रेखा, दिव्य पाद छाया, दिव्य पादुकाएँ और दिव्य पाद के लिए एक शैय्या के रूप में बने रहे।

उनका उत्तम जन्म होने के कारण उनमें दासता स्वाभाविक था, जिससे नीचे गिरने की कोई सम्भावना नहीं थी, इतना कि तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै जैसे महान सर्वज्ञ (तत्वज्ञ) जो शास्त्रों, तत्वज्ञों के अंत को देख चुके थे और जैसे आर्ति प्रबन्ध २२ में “तीदट्र ज्ञानत् तिरुवाय्मोळि पिळ्ळै” (तिरुवाय्मोळिप् पिळ्ळै जिनके पास अविरल ज्ञान है)‌ कहा गया है बहुत पूजनीय थे, वे  उनके पास (विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै के पास) ग‌ए और उनसे गहन अर्थों को जाने; उनकी महिमा का गुणगान परम आदरणीय ज्येष्ठ पुरुषों ने उनके तनियन् में “वाऴि नलम् तिगऴ् नारण तादन् अरुळ्”, ऐसे सुशोभित किया है, जो उनकी घटनाओं और शुद्ध आचरण जानते थे, जैसे आचार्य हृदयम् ८५ में उल्लेख किया गया है, “याग अनुयाग उत्तर वीदिगळिल् काय अन्न स्थल शुद्धि पण्णिन” (एम्पेरुमानार् ने तिरुवाराधन से पहले पिळ्ळै उऱङ्गा विल्लि दासर को स्पर्श करके अपने दिव्य स्वरूप को शुद्ध किया, नम्पिळ्ळै ने पिळ्ळै एऱु तिरुवुडैयार् दासर् को प्रसाद लेने से पहले स्पर्श किया, नडुविल् तिरुवीदिप् पिळ्ळै भट्टर् ने पिळ्ळै वानमामलै दासर को  शुद्धिकरण अनुष्ठान के रूप में अपने नवीन निवास के चारों ओर घुमाया); उनको अन्तिम समय अन्तिम श्वास तक तिरुवनंतपुरम में रहने के लिए उनके आचार्य पिळ्ळै लोकाचार्य ने करुणापूर्ण आदेश दिया, उस करुणामय आदेशानुसार वे वहाँ गए और एक विशेष विधि से वहाँ रहे, यह सोचते हुए कि तिरुवाय्मोळि १०.२.८ “नडमिनो नमर्गळ् उळ्ळीर्” (हे हमारे शिष्यों! तिरुवनंतपुरम जाओ) में नम्माऴ्वार् के निर्देशों का पालन करने वालों में वे अग्रगण्य हैं; तिरुवाय्मोळि १०.२.८ में जैसे कहा गया है “पडमुडै अरविल् पळ्ळि पयिन्ऱवन्”(वह जो छत्र वाले आदिशेष पर आसीन है) उस एम्पेरुमान् के श्रीचरणों में उन्होंने आत्म समर्पण किया, तथा क्रमानुसार तीन प्रवेश द्वारों के माध्यम से भगवान के दिव्य मुख, दिव्य नाभि, भगवान के दिव्य पाद का आनन्द लिया। तदुपरान्त, वे दिव्यदेश के आसपास के उद्यान में एक विशेष/एकान्त स्थान पर ग‌ए; जैसे कहा गया हऐ “गुरु पादाम्बुजम् ध्यायेत्”( गुरु के चरण कमलों का निरन्तर ध्यान करना चाहिए), “विग्रहालोकनपर:”(गुरु के दिव्य रूप को देखना चाहिए) और “श्रीलोकार्य मुखारविन्दम् अखिल श्रृत्यार्थ कोशम् सदाम्। ताम् गोष्ठीञ्च तदेक लीनमनसासम् चिन्तयन्तम् सदा।।” (पिळ्ळै लोकाचार्य के मुख में वेद के सभी अर्थ विद्यमान हैं। मैं सदा उनके विषय में और उनकी गोष्ठी के विषय में सोचता रहता हूँ……), उन्होंने पिळ्ळै लोकाचार्य के दिव्य स्वरूप का ध्यान किया जिनके लालिमा भरे, भृंगों से आच्छादित, दिव्य चरण कमल हैं, कमर उत्तम रेशमी वस्त्रों से सुसज्जित हैं, दिव्य वक्षस्थल पवित्र सूत्रों और कमल बीजों की माला से युक्त, पूर्वाचार्यों के करुणामय शब्दों के साथ दिव्य मुस्कान, दया की वर्षा करने वाले नेत्र, सुन्दर केश, अर्धचंद्राकार दिव्य मस्तक, दिव्य नेत्र और लाल मुख, सुनहरा शीर्ष बढ़ती हुई चमक के साथ, पवित्र सूत्रों, सुनहरे स्कन्द, शुभ दिव्य वक्षस्थल, मोतियों की माला, कमर का वस्त्र, दिव्य चरण कमल, बैठने की पद्मासन मुद्रा, बारह तिरुमण (ऊर्ध्व पुंड्र‌‌‌ तिलक) की सुंदरता, हाथ की सुन्दर ज्ञान मुद्रा; उन्होंने पिळ्ळै लोकाचार्य के इस दिव्य स्वरूप का आनन्द लिया और स्पष्ट, अति स्पष्ट और अत्यंत स्पष्ट से उरुवु वेळिप्पाडु (दृष्य़) के माध्यम से शीर्ष से पाद (केशादिपादम्) और पाद से शीर्ष (पादादिकेशम्) तक उस स्वरूप पर एकाग्र किया।

वे पिळ्ळै लोकाचार्य की गोष्ठी में होने के उत्तम जीवन पर एकाग्र रहे, जो नम्पिळ्ळै की गोष्ठी की एक प्रतिकृति है, जिसे “वार्तोंच वृत्त्यापि यधीय गोष्ठ्याम् गोष्ठ्यांतराणाम् प्रथमाभवन्ति … ”[मैं तिरुक्कलिकन्ऱि दासर् (नम्पिळ्ळै) की पूजा करता हूँ जिनके शब्दों को उठाया और प्रयोग किया जा सकता है, अन्य गोष्ठियों में नेता बनने के लिए] में कहा गया है, बिना किसी और विषय के विचार किए, जैसा कि श्री रामायणम उत्तर कांडम 40.14 में हनुमान ने कहा है, “भावो नान्यात्र गच्छति  (मेरा हृदय किसी और चीज़ के बारे में नहीं सोचेगा); इस प्रक्रिया में, मकड़ियाँ उनके दिव्य रूप पर एक जाला बनातीं और वे समाधि (पूर्ण एकाग्रता) में रहने के कारण उन्हें कुछ भी पता न चलता कि उन पर कोई रेंग रहा है और कई दिनों तक काट रहा है, जैसा कि श्री रामायणम् सुंदर कांडम् 36.42  में कहा गया है “नैवदम्शन” (उसे अपने दिव्य रूप पर मक्खियों और मच्छरों की उपस्थिति का आभास नहीं है); वे निरंतर पिळ्ळै लोकाचार्य के कैङ्कर्य जैसे कि श्रीवचन भूषणम् आदि के विशेष, परम सार पर एकाग्र रहते थे, जिन्हें उनके तनियन में महिमामंडित किया जाता है “एऱु तिरुवुडैयान् एन्दै उलगारियन् सोल् तेऱु तिरुवुडैयान् सीर्; उन्होंने वास्तव में ऐसा आनंद लिया जैसे मानो संसार और परमपदम के बीच कोई अंतर नहीं हो, जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है, “पारुलगैप् पोन्नुलगाप् पार्क्कवम् पेट्रोम ” (इस भौतिक संसार को आध्यात्मिक संसार के रूप में देखने मिला)

हम अवतारिका के आगे का भाग अगले लेख में देखेंगे।

अडियेन् अमिता रामानुज दासी

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प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
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सप्त गाथा (सप्त कादै) – तनियन (मंगलाचरण)

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श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद्वरवरमुनये नम:

श्रुंखला

वाऴि नलम् तिगऴ् नारणतादन् अरुळ्
वाऴि अवन् अमुद वाय् मोऴिगळ् – वाऴियवे
एऱु तिरुवुडैयान् एन्दै उलगारियन् सोल्
तेऱु तिरुवुडैयान् सीर्।

श्रेष्ठ नारायण तादर (विळाञ्जोलैप्पिळ्ळै) की कृपा सदा बनी रहे! उनकी अमृतमय वाणी अमर रहे! उनकी वह गुण सदा अमर रहें, जिससे उनके पास हमारे स्वामी, पिळ्ळै लोकाचार्य की वाणी को समझने और कैङ्कर्य की बढ़ती हुई संपत्ति है!

अडियेन अमिता रामानुज दासी 

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सप्त गाथा (सप्त कादै)

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श्री: श्रीमते शठकोप नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवर मुनये नम:

आर् वचनबूडनत्तिन् आऴ् पोरुळ् एल्लाम् अऱिवाऱ्*
आरदु सोल् नेरिल् अनुट्टिप्पार् – ओर् ओरुवर्
उण्डागिल्* अत्तनै काण् उळ्ळमे* एल्लार्क्कुम्
अण्डाददन्ऱो अदु।।

-उपदेश रत्नमाला ५५

जिस प्रकार मणवाळ मामुनिगळ् (श्रीवरवर मुनि स्वामीजी) ने उपदेश रत्नमाला में वर्णन किया है, हमारे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ पिळ्ळै लोकाचार्य द्वारा रचित श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र को बहुत कम लोग अच्छी तरह से जानते हैं और अभ्यास करते हैं। विळान्जोलैप्पिळ्ळै, जो पिळ्ळै लोकाचार्य के वास्तविक आचार्यर्निष्ठ शिष्य हैं जिनको श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के सार को पूरी तरह से आत्मसात किया, उनकी विशेष कृपा से, केवल सात पासुरों में इसके अर्थ को सुन्दरता से प्रस्तुत किया जो सरलता से समझने योग्य है।

करुणापूर्ण पिळ्ळै लोकम् जीयर ने इस सप्त गाथा के रुप में एक उत्कृष्ट भाष्य की रचना की। उन्होंने कई प्रमाण (प्रमाणिक सन्दर्भ) सहित अर्थ की व्याख्या की है।

हम इस उत्तम प्रसंग का हिन्दी में अनुवाद कर रहे हैं ताकि लोग सरलता से समझते हुए लाभ प्राप्त कर सकें। हम इस संक्षिप्त पूर्व परिचय को बड़ों/विद्वानों से त्रुटियों को अनदेखा करने और अच्छे भाव को स्वीकार करने की प्रार्थना के साथ विराम देते हैं।

अडियेन् अमिता रामानुज दासी

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Glossary/Dictionary by word – saptha kAdhai

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pAsuramWordMeaning
saptha-kadhai-pasuram-1  AchAriyan  the true AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-2  adhu  this person who lacks love towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-2  aLiththavan pAl  towards AchAryan who mercifully instructed out of his great mercy
saptha-kadhai-pasuram-4  aLiththavan pAl  towards AchAryan who instructed the knowledge
saptha-kadhai-pasuram-1  am  beautiful
saptha-kadhai-pasuram-6  am  beautiful
saptha-kadhai-pasuram-2  anbu ilAr  one who lacks love
saptha-kadhai-pasuram-4  anbu ilAr  those who lack love
saptha-kadhai-pasuram-7  andhAmam  beautiful SrIvaikuNtam
saptha-kadhai-pasuram-1  andharanga sambandham  the close relationship of ananyArha SEshathvam (being an exclusive servitor of bhagavAn)
saptha-kadhai-pasuram-4  anjilum  in these five principles
saptha-kadhai-pasuram-2  anju poruLum  artha panchakam which includes svasvarUpam (true nature of self), parasvarUpam (true nature of bhagavAn), purushArtha svarUpam (true nature of the goal), upAya svarUpam (true nature of the means) and virOdhi svarUpam (true nature of hurdles)
saptha-kadhai-pasuram-5  anubudaiyOr  for SrIvaishNavas who are very affectionate towards
saptha-kadhai-pasuram-6  Ar arutkAga  overflowing mercy
saptha-kadhai-pasuram-6  arangA  Oh one who is eternally residing in the great city of SrIrangam!
saptha-kadhai-pasuram-1  arangarkkum  for periya perumAL who has SrIrangam as his temple
saptha-kadhai-pasuram-6  aRindhEn  I have known clearly (thus)
saptha-kadhai-pasuram-5  Avikku  for the AthmA who is filled with gyAnam and Anandham
saptha-kadhai-pasuram-1  Avikkum  for AthmAs which are of three categories viz badhdha (bound), muktha (liberated) and nithya (eternally free)
saptha-kadhai-pasuram-5  azhukku  will cause destruction of the true nature
saptha-kadhai-pasuram-6  azhukku enRu  causing disgrace
saptha-kadhai-pasuram-7  dhEsigan than  ones AchAryans
saptha-kadhai-pasuram-6  emperumAnArkkAga  for emperumAnAr who is piLLai lOkAchAryars great lord
saptha-kadhai-pasuram-6  en AriyarkkAga  for piLLai lOkAchAryar who mercifully imparted knowledge to me who is ignorant
saptha-kadhai-pasuram-5  en pakkal  in me
saptha-kadhai-pasuram-5  en pakkal  in me
saptha-kadhai-pasuram-2  enRu ivai  such principle
saptha-kadhai-pasuram-5  enum  such
saptha-kadhai-pasuram-5  enum iyalvum  such bad quality
saptha-kadhai-pasuram-3  guruvin aLavil  towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-3  gyAnam ellAm  all knowledge
saptha-kadhai-pasuram-4  in aruLAl  by the great mercy which does not expect anything from Sishya
saptha-kadhai-pasuram-2  Inam ilAr  our pUrvAchAryas who dont have the defect of lacking in love towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-5  innAr  such and such persons
saptha-kadhai-pasuram-4  iRaiyai  emperumAn who is said as the apt lord for self, by akAram
saptha-kadhai-pasuram-4  iruppan  consider
saptha-kadhai-pasuram-6  ivai  all of these previously explained aspects (for the AthmA)
saptha-kadhai-pasuram-5  iyalvum  bad quality
saptha-kadhai-pasuram-3  kArththa kadal  surrounded by the ocean which appears dark like a cloud
saptha-kadhai-pasuram-1  kAtti  reveal
saptha-kadhai-pasuram-1  kAttum avan anRO  the one who reveals through explaining thirumanthram
saptha-kadhai-pasuram-4  kEdu  evils such as ignorance, doubt and error
saptha-kadhai-pasuram-4  kEdu enRu  very cruel one
saptha-kadhai-pasuram-3  kIzhAm  being inferior due to the continuous experiencing of sorrows
saptha-kadhai-pasuram-5  man pakkal  towards emperumAn who is the lord of all
saptha-kadhai-pasuram-4  mandhiraththin  in periya thirumanthram (ashtAksharam)
saptha-kadhai-pasuram-3  mangum  will die; (subsequently)
saptha-kadhai-pasuram-3  maNNin mEl  on this earth
saptha-kadhai-pasuram-4  mannu  eternal
saptha-kadhai-pasuram-2  migak kodiyar  very cruel
saptha-kadhai-pasuram-3  migu  best
saptha-kadhai-pasuram-2  mudikkum  will destroy;
saptha-kadhai-pasuram-2  mudikkum  one who destroys
saptha-kadhai-pasuram-2  nAm  we who are well focussed on the principles mercifully revealed by piLLai lOkAchAryar
saptha-kadhai-pasuram-4  nAn  I who am accepted by piLLai lOkAchAryar
saptha-kadhai-pasuram-2  nanjil  more than poison
saptha-kadhai-pasuram-4  nanjilum  more than poison
saptha-kadhai-pasuram-2  nanju thAn  poison (by coming into contact with it)
saptha-kadhai-pasuram-5  nanmai  the goodness of being an AchAryan, is present
saptha-kadhai-pasuram-3  naNNum  reach and experience suffering.
saptha-kadhai-pasuram-3  naragu  hell
saptha-kadhai-pasuram-5  nErE  directly, instead of indirectly
saptha-kadhai-pasuram-7  nErE  directly (rendering small kainkaryams)
saptha-kadhai-pasuram-1  neRi  prapaththi which is the means
saptha-kadhai-pasuram-4  Oda  to be driven out along with the traces
saptha-kadhai-pasuram-5  OdhinAr  since they learnt important principles, they are my disciples
saptha-kadhai-pasuram-7  OngAram  praNavam
saptha-kadhai-pasuram-4  oru  distinguished among manthrams, to have no match
saptha-kadhai-pasuram-6  ozhiththu aruLAy  should mercifully drive out along with their trace
saptha-kadhai-pasuram-7  pAngAga  to be favourable
saptha-kadhai-pasuram-3  parivinRi  (one who remains) without love
saptha-kadhai-pasuram-7  parivudaiyOr  those who have love
saptha-kadhai-pasuram-3  pArththa  One who mercifully glanced through his instructions
saptha-kadhai-pasuram-6  pazhippilA  not having any of the previously mentioned defects
saptha-kadhai-pasuram-4  peru vAzhvai  the great goal of kainkaryam which is said in nArAyaNAya word which has nArAyaNa along with the fourth case
saptha-kadhai-pasuram-1  pon  pure
saptha-kadhai-pasuram-6  pon  desirable
saptha-kadhai-pasuram-7  pOy  travelling in the archirAdhi gathi (path starting with light)
saptha-kadhai-pasuram-5  sanma nirUpaNamum  identifying them by their birth (thus, these three qualities)
saptha-kadhai-pasuram-4  saraN neRiyai  SaraNAgathi (surrender) which is said as the safe means in nama: word which is not split part-by-part
saptha-kadhai-pasuram-1  sErndha  matching
saptha-kadhai-pasuram-3  sErndhAlum  though one is having without any shortage
saptha-kadhai-pasuram-7  sEruvar  will reach and get to perform nithya kainkaryam (eternal service)
saptha-kadhai-pasuram-5  sEvippArkku  for those who render eternal service with love
saptha-kadhai-pasuram-7  sezhum kadhirin Udu  through the sUrya maNdalam (solar galaxy)
saptha-kadhai-pasuram-7  sindhaikku  for the divine heart
saptha-kadhai-pasuram-3  sIrththa  being heavy, due to truly informing about Sriya:pathi (consort of SrI mahAlakshmi)
saptha-kadhai-pasuram-2  sonnAr  have explained.
saptha-kadhai-pasuram-2  sonnOm  spoke as the most valuable instruction
saptha-kadhai-pasuram-1  thadai kAtti  reveal the hurdles of the thoughts relating to the goal, means, supremacy of bhagvAn and selfs exclusive servitude towards such bhagavAn
saptha-kadhai-pasuram-4  thadaiyai  the group of hurdles which is indicated by the makAra which ends with sixth case, ma:
saptha-kadhai-pasuram-4  thannai  self which is revealed as the abode for servitude towards bhagavAn, by makAram
saptha-kadhai-pasuram-3  thEngAmal  without a break
saptha-kadhai-pasuram-7  thErin mEl  climbing on the chariot
saptha-kadhai-pasuram-7  thIngu Edhum illA  Not having the evil qualities such as not having love towards ones AchAryan etc
saptha-kadhai-pasuram-3  thunbuRRu  experience countless sorrows
saptha-kadhai-pasuram-6  uLLil  holding the mind which is the gate for transmission of knowledge
saptha-kadhai-pasuram-1  umbar thivam ennum  performing eternal kainkaryam in the abode which is at the disposal of nithyasUris
saptha-kadhai-pasuram-6  un  your highness
saptha-kadhai-pasuram-2  Unai  temporary body which is filled with flesh
saptha-kadhai-pasuram-6  uRRu  mercifully accept (adiyEn)
saptha-kadhai-pasuram-2  uyirai  the eternal AthmA who is filled with knowledge
saptha-kadhai-pasuram-1  vAzhvukku  for the great life
saptha-kadhai-pasuram-6  vinaiyai  group of sins

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pAsuramWordMeaning
saptha-kadhai-pasuram-1  am  beautiful
saptha-kadhai-pasuram-1  pon  pure
saptha-kadhai-pasuram-1  arangarkkum  for periya perumAL who has SrIrangam as his temple
saptha-kadhai-pasuram-1  Avikkum  for AthmAs which are of three categories viz badhdha (bound), muktha (liberated) and nithya (eternally free)
saptha-kadhai-pasuram-1  andharanga sambandham  the close relationship of ananyArha SEshathvam (being an exclusive servitor of bhagavAn)
saptha-kadhai-pasuram-1  kAtti  reveal
saptha-kadhai-pasuram-1  thadai kAtti  reveal the hurdles of the thoughts relating to the goal, means, supremacy of bhagvAn and selfs exclusive servitude towards such bhagavAn
saptha-kadhai-pasuram-1  umbar thivam ennum  performing eternal kainkaryam in the abode which is at the disposal of nithyasUris
saptha-kadhai-pasuram-1  vAzhvukku  for the great life
saptha-kadhai-pasuram-1  sErndha  matching
saptha-kadhai-pasuram-1  neRi  prapaththi which is the means
saptha-kadhai-pasuram-1  kAttum avan anRO  the one who reveals through explaining thirumanthram
saptha-kadhai-pasuram-1  AchAriyan  the true AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-2  anju poruLum  artha panchakam which includes svasvarUpam (true nature of self), parasvarUpam (true nature of bhagavAn), purushArtha svarUpam (true nature of the goal), upAya svarUpam (true nature of the means) and virOdhi svarUpam (true nature of hurdles)
saptha-kadhai-pasuram-2  aLiththavan pAl  towards AchAryan who mercifully instructed out of his great mercy
saptha-kadhai-pasuram-2  anbu ilAr  one who lacks love
saptha-kadhai-pasuram-2  nanjil  more than poison
saptha-kadhai-pasuram-2  migak kodiyar  very cruel
saptha-kadhai-pasuram-2  nAm  we who are well focussed on the principles mercifully revealed by piLLai lOkAchAryar
saptha-kadhai-pasuram-2  sonnOm  spoke as the most valuable instruction
saptha-kadhai-pasuram-2  nanju thAn  poison (by coming into contact with it)
saptha-kadhai-pasuram-2  Unai  temporary body which is filled with flesh
saptha-kadhai-pasuram-2  mudikkum  will destroy;
saptha-kadhai-pasuram-2  adhu  this person who lacks love towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-2  uyirai  the eternal AthmA who is filled with knowledge
saptha-kadhai-pasuram-2  mudikkum  one who destroys
saptha-kadhai-pasuram-2  enRu ivai  such principle
saptha-kadhai-pasuram-2  Inam ilAr  our pUrvAchAryas who dont have the defect of lacking in love towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-2  sonnAr  have explained.
saptha-kadhai-pasuram-3  pArththa  One who mercifully glanced through his instructions
saptha-kadhai-pasuram-3  guruvin aLavil  towards AchAryan
saptha-kadhai-pasuram-3  parivinRi  (one who remains) without love
saptha-kadhai-pasuram-3  sIrththa  being heavy, due to truly informing about Sriya:pathi (consort of SrI mahAlakshmi)
saptha-kadhai-pasuram-3  migu  best
saptha-kadhai-pasuram-3  gyAnam ellAm  all knowledge
saptha-kadhai-pasuram-3  sErndhAlum  though one is having without any shortage
saptha-kadhai-pasuram-3  kArththa kadal  surrounded by the ocean which appears dark like a cloud
saptha-kadhai-pasuram-3  maNNin mEl  on this earth
saptha-kadhai-pasuram-3  thunbuRRu  experience countless sorrows
saptha-kadhai-pasuram-3  mangum  will die; (subsequently)
saptha-kadhai-pasuram-3  kIzhAm  being inferior due to the continuous experiencing of sorrows
saptha-kadhai-pasuram-3  naragu  hell
saptha-kadhai-pasuram-3  thEngAmal  without a break
saptha-kadhai-pasuram-3  naNNum  reach and experience suffering.
saptha-kadhai-pasuram-4  oru  distinguished among manthrams, to have no match
saptha-kadhai-pasuram-4  mandhiraththin  in periya thirumanthram (ashtAksharam)
saptha-kadhai-pasuram-4  thannai  self which is revealed as the abode for servitude towards bhagavAn, by makAram
saptha-kadhai-pasuram-4  iRaiyai  emperumAn who is said as the apt lord for self, by akAram
saptha-kadhai-pasuram-4  thadaiyai  the group of hurdles which is indicated by the makAra which ends with sixth case, ma:
saptha-kadhai-pasuram-4  saraN neRiyai  SaraNAgathi (surrender) which is said as the safe means in nama: word which is not split part-by-part
saptha-kadhai-pasuram-4  mannu  eternal
saptha-kadhai-pasuram-4  peru vAzhvai  the great goal of kainkaryam which is said in nArAyaNAya word which has nArAyaNa along with the fourth case
saptha-kadhai-pasuram-4  anjilum  in these five principles
saptha-kadhai-pasuram-4  kEdu  evils such as ignorance, doubt and error
saptha-kadhai-pasuram-4  Oda  to be driven out along with the traces
saptha-kadhai-pasuram-4  in aruLAl  by the great mercy which does not expect anything from Sishya
saptha-kadhai-pasuram-4  aLiththavan pAl  towards AchAryan who instructed the knowledge
saptha-kadhai-pasuram-4  anbu ilAr  those who lack love
saptha-kadhai-pasuram-4  nanjilum  more than poison
saptha-kadhai-pasuram-4  kEdu enRu  very cruel one
saptha-kadhai-pasuram-4  nAn  I who am accepted by piLLai lOkAchAryar
saptha-kadhai-pasuram-4  iruppan  consider
saptha-kadhai-pasuram-5  en pakkal  in me
saptha-kadhai-pasuram-5  innAr  such and such persons
saptha-kadhai-pasuram-5  OdhinAr  since they learnt important principles, they are my disciples
saptha-kadhai-pasuram-5  enum  such
saptha-kadhai-pasuram-5  iyalvum  bad quality
saptha-kadhai-pasuram-5  en pakkal  in me
saptha-kadhai-pasuram-5  nanmai  the goodness of being an AchAryan, is present
saptha-kadhai-pasuram-5  enum iyalvum  such bad quality
saptha-kadhai-pasuram-5  man pakkal  towards emperumAn who is the lord of all
saptha-kadhai-pasuram-5  sEvippArkku  for those who render eternal service with love
saptha-kadhai-pasuram-5  anubudaiyOr  for SrIvaishNavas who are very affectionate towards
saptha-kadhai-pasuram-5  sanma nirUpaNamum  identifying them by their birth (thus, these three qualities)
saptha-kadhai-pasuram-5  Avikku  for the AthmA who is filled with gyAnam and Anandham
saptha-kadhai-pasuram-5  nErE  directly, instead of indirectly
saptha-kadhai-pasuram-5  azhukku  will cause destruction of the true nature
saptha-kadhai-pasuram-6  am  beautiful
saptha-kadhai-pasuram-6  pon  desirable
saptha-kadhai-pasuram-6  arangA  Oh one who is eternally residing in the great city of SrIrangam!
saptha-kadhai-pasuram-6  ivai  all of these previously explained aspects (for the AthmA)
saptha-kadhai-pasuram-6  azhukku enRu  causing disgrace
saptha-kadhai-pasuram-6  aRindhEn  I have known clearly (thus)
saptha-kadhai-pasuram-6  pazhippilA  not having any of the previously mentioned defects
saptha-kadhai-pasuram-6  en AriyarkkAga  for piLLai lOkAchAryar who mercifully imparted knowledge to me who is ignorant
saptha-kadhai-pasuram-6  emperumAnArkkAga  for emperumAnAr who is piLLai lOkAchAryars great lord
saptha-kadhai-pasuram-6  un  your highness
saptha-kadhai-pasuram-6  Ar arutkAga  overflowing mercy
saptha-kadhai-pasuram-6  uRRu  mercifully accept (adiyEn)
saptha-kadhai-pasuram-6  uLLil  holding the mind which is the gate for transmission of knowledge
saptha-kadhai-pasuram-6  vinaiyai  group of sins
saptha-kadhai-pasuram-6  ozhiththu aruLAy  should mercifully drive out along with their trace
saptha-kadhai-pasuram-7  thIngu Edhum illA  Not having the evil qualities such as not having love towards ones AchAryan etc
saptha-kadhai-pasuram-7  dhEsigan than  ones AchAryans
saptha-kadhai-pasuram-7  sindhaikku  for the divine heart
saptha-kadhai-pasuram-7  pAngAga  to be favourable
saptha-kadhai-pasuram-7  nErE  directly (rendering small kainkaryams)
saptha-kadhai-pasuram-7  parivudaiyOr  those who have love
saptha-kadhai-pasuram-7  OngAram  praNavam
saptha-kadhai-pasuram-7  thErin mEl  climbing on the chariot
saptha-kadhai-pasuram-7  sezhum kadhirin Udu  through the sUrya maNdalam (solar galaxy)
saptha-kadhai-pasuram-7  pOy  travelling in the archirAdhi gathi (path starting with light)
saptha-kadhai-pasuram-7  andhAmam  beautiful SrIvaikuNtam
saptha-kadhai-pasuram-7  sEruvar  will reach and get to perform nithya kainkaryam (eternal service)