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तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि- सरल व्यख्या

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श्रीः  श्रीमते शठःकोपाय  नमः   श्रीमते रामानुजाय  नमः   श्रीमत् वरवरमुनये नमः

मुदलायिरम्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् अपनी उपदेश रत्नमालै के ११ वे पाशुर में तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) के बारे मैं बहुत ही सुन्दर ढंग से बतला रहे है

“मन्निय सीर् मार्गळियिल् केटै इन्ऱु मानिलत्तीर्

एन्निदन्क्कु एट्रम् एनिल् उरैक्केन् – तुन्नु पुगळ्

मामऱैयोन् तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् पिऱप्पाल्

नान्मऱैयोर् कोण्डाडुम् नाळ् ।“

इस पाशुर में श्री मणवाळ मामुनिगळ् कह रहे है “हे इस जगत के लोगों सुनो मै तुम्हे इस मार्गळि मास, जो वैष्णव मास की महत्ता रखता है, उसका महत्व बतलाता हूँ। यह दिन सम्प्रदाय विद्वानों, वेदों के ज्ञाता जैसे एम्पेरुमानार (भगवत रामानुज स्वामीजी), के द्वारा तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) के, प्राकट्य दिवस के रूप में मनाते आ रहे है।  तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार्, जो सारे वेदों के ज्ञाता थे, और उन्ही के मनन में मग्न रहते थे।  तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् ख़ास तौर से, स्वयं को श्रीमन्नारायण के भक्तों का दास मानते थे।

श्री अळगिय मणवाळप् पेरुमाळ् नायनार् (हमारे पूर्वाचार्यों में एक) ने अपनी रचना आचार्य हृदयम की ८५ वि चूर्णिका (छोटे छंद) में कह रहे है की, नित्य प्रातः भगवान् श्रीमन्नारायण को सुन्दर सुप्रभातम गाकर उनको योग निद्रा (योग निद्रा उसे कहते जहाँ शरीर सुप्तावस्था में रहता है, पर अपने आस पास घटित सारी बातों का ध्यान रहता है याने मन बुद्धि से जाग्रत अवस्था) से जगाने वाले तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् (भक्तांघ्रिरेणू आळ्वार्) को  तुळसीभ्रुत्यर् (भगवान् श्रीमन्नारायण की तुलसी सेवा में रूचि रखने वाले) नाम से भी जानते है।

यह बात तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् अपने तिरुमलै प्रबन्धम् में अपने लिये स्वयं कह रहे है,  “तुळबत्तोण्डाय तोल् सीर्त् तोण्डराडिप्पोडि एन्नुम् अडियनै” (वह सेवक जो तुलसी से श्रीमन्नारायण की सेवा का निर्वहन करते है)। तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि भगवान श्रीमन्नारायण को प्रातः योगनिद्रा से जगाने का महानतम प्रबन्ध है। 

यहाँ पूर्वाचार्यों के व्याख्यानों से उद्घृत, तिरुप्पळ्ळियेळुच्चि का सरल भाषा में अर्थानुसंघान प्रस्तुत है।

तनियन्

(तिरुमालै आण्डान्  द्वारा रचित तनियन्।)

तमेव मत्वा परवासुदेवम्

रन्गेसयम् राजवदर्हणीयम्

प्राबोधिकीम् योक्रुत सूक्तिमालाम्

 भक्तांघ्रिरेणू म् भगवन्तमीडे।।

में तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् की स्तुति करता हूँ, जिन्होंने ऐसे पेरिया पेरुमाळ (श्रीरंगम में विराजित भगवान् श्रीरंगनाथजी का श्रीविग्रह), जो आदिशेष पर शयन कर रहे है, जो श्रीवैकुण्ठ में परवासुदेव कहलाते है, जिन्हे यह चराचर जगत, राजा की तरह पूजता है,  उन्हें योग निद्रा से जगाने इतनी सुन्दर प्रबन्ध माला समर्पित किये है।

(तिरुवरन्गप् पेरुमाळ् अरयर् द्वारा रचित तनियन्।)

मण्डन्गुडि एन्बर् मामऱैयोर् मन्निय सीर्

तोण्डरडिप्पोडि तोन्नगरन् – वण्डु

तिणर्त्त वयल् तेन्नरन्गत्तम्मानै पळ्ळि

उणर्त्तुम् पिरान् उदित्त ऊर्।।

विद्वान् लोग जो  वेदों के ज्ञाता है, कह रहे है तिरुमण्डन्गुडि वह मंगल स्थान है जहाँ तोण्डरडिप्पोडि आळ्वार् प्रकट हुये है। आळ्वार् ने तिरुवरंगम में जो चहुँ और खेतो से घिरा हुआ है और जहाँ भृंगों के झुंड रहते है, में शेषशैया पर शयन कर रहे पेरिया पेरुमाळ को प्रातः जगाकर हम पर बहुत उपकार किया है।

*****

प्रथम पाशुर :

अपने प्रथम पाशुर में ही आळवार संत कृपा करके बतला रहे है की, सभी लोकों के देवी देवता भगवान् पेरिय पेरुमाळ को जगाने श्रीरंगम आते है। इससे यह स्पष्ट होता है की, सिर्फ भगवान् श्रीमन्नारायण ही सबके पूजनीय है। अन्य सभी लोकों के देवी देवता भी इनकी पूजा करते है।

कदिरवन् गुणदिसैच् चिगरम् वन्दणैन्दान्

    कन इरुळ् अगन्ऱदु कालै अम् पोळुदाय्

मदु विरिन्दु ओळुगिन मामलर् एल्लाम्

    वानवर् अरसर्गळ् वन्दु वन्दु ईन्डि

एदिर् दिसै निऱैन्दनर् इवरोडुम् पुगुन्द

    इरुन्गळिट्रु ईट्टमुम् पिडियोडु मुरसुम्

अदिर्दलिल् अलै कडल् पोन्ऱु उळदु एन्गुम्

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

तिरुवरंगम में शेष शैया पर शयन करने वाले, हे नाथ ! पूर्व दिशा में रात्रि के अन्धकार को दूर करते हुये पर्वत चोटियों से सूर्यदेव प्रकट हो, दिन के आगमन की सुचना दे  रहे है। प्रातः पल्लवित पुष्पों से मधु पात हो रहा है। सभी लोकों  के देवी देवता, राजा महाराजा, स्वयं को प्रथम आया हुआ बतलाते हुये, आपकी प्रातः उठते ही एक झलक दर्शन पाकर धन्य होने, आपके दक्षिण द्वार पर इकट्ठे हुये है। उनके साथ ही हाथी और हथिनी जो उनके वाहन है, वह भी आये हुये है। आपकी निद्रा से उठते ही एक झलक  पाने, उनके साथ विविध प्रकार के वाद्य लिये  वाद्यकार उन्हें  उत्साह से बजा रहे है, इन वाद्यों की ध्वनि समुद्र की उत्ताल लहरों की ध्वनि की तरह चहुँ और गुंजायमान हो रही है।

द्वितीय पाशुरम :

अपने द्वितीय पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है पूर्व दिशा से ठंडी बयार रही है, जो हंसो को जगा कर भोर होने का अहसास दिला रही है। आपका भागवतों के प्रति अति स्नेह प्रेम है, इस लिये आपको भी योगनिद्रा से जाग जाना चाहिये।

कोळुन्गोडि मुल्लैयिन् कोळुमलर् अणवि

    कूर्न्ददु गुणदिसै मारुदम् इदुवो

एळुन्दन मलर् अणैप् पळ्ळि कोळ् अन्नम्

    ईन्पणि ननैन्द तम् इरुम् सिऱगु उदऱि

विळुन्गिय मुदलैयिन् पिलम्बुरै पेळ्वाय्

    वेळ्ळुयिर् उऱ अदन् विडत्तिनुक्कु अनुन्गि

अळुन्गिय आनैयिन् अरुम् तुयर् केडुत्त

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

पूर्वी दिशाओं  से उठती  ठंडी हवायेँ, अभी पल्लवित हुये चमेली के फूलों की बेल को छू कर बह रही है, इन फूलो की बैल पर सो रहे हंस भी इस मदमस्त बयार की सुगंध से अपने पंखो को हिलाते जाग गये है, बरसात की बूंदों की तरह ओस की बुँदे उनके पंखो से झर रही है

तिरुवरंगम में शयन करने वाले हे नाथ ! आपने, ग्राह द्वारा अपने नुकीले दातों से गजराज का पैर पकड़कर  अथाह जल राशि में ले जाकर अपने विशाल गुफा जैसे मुँह से निगलने की चेष्टा करने वाले ग्राह को मार कर गजराज की रक्षा की, अब आप को अपनी योगनिद्रा त्याग कर हम पर कृपा बरसाना चाहिये।

तीसरा पाशुर :

इस तीसरे पाशुर  में आळ्वार संत कह रहे है भगवान् भुवन भास्कर अपनी किरणों से तारो के प्रकाश की भव्यता को ढक दिये है। संत कह रहे है, वह भगवान् श्रीमन्नारायण के चक्र धारण किये हुये, हस्त की पूजा आराधना करना चाहते है।

सुडर् ओळि परन्दन सूळ् दिसै एल्लाम्

    तुन्निय तारगै मिन्नोळि सुरुन्गिप्

पडर् ओळि पसुत्तनन् पनि मदि इवनो

    पायिरुळ् अगन्ऱदु पैम् पोळिल् कमुगिन्

मडल् इडैक् कीऱि वण् पाळैगळ् नाऱ

    वैगऱै कूर्न्ददु मारुदम् इदुवो

अडल् ओळि तिगळ् तरु तिगिरि अम् तडक्कै

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

भगवान सूर्य की किरणे, चहुँ और फ़ैल गयी है। टिमटिमाते तारों का प्रकाश भी सूर्य की किरणों के उजियारे में छुप गया है । शीतल चन्द्रमा की रौशनी भी फीकी पड़ गयी, सुपारी के वृक्षों को स्पर्श कर आती ठंडी हवा वातावरण में मधुर सुवास फैला रही है। अपने हाथों में सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, हे तिरुवरंगम में शयन करने वाले, अब जागिये अपने भक्तो पर अपनी करुणा बरसाइये।

चतुर्थ पाशुर :

इस चतुर्थ पाशुर  में आळ्वार संत भगवान् से कह रहे है की, उन्हें , प्रातः जल्दी उठकर, उनकी आराधना में आड़े रहे शत्रुओं  का विनाश करना चाहिये, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने रामावतार के समय किया था।

मेट्टु इळ मेदिगळ् तळै विडुम् आयर्गळ्

     वेय्न्गुळल् ओसैयुम्  विडै मनिक् कुरलुम्

ईट्टिय  इसै दिसै परन्दन वयलुळ्

     इरिन्दिन सुरुम्बिनम् इलन्गैयर् कुलत्तै

वाट्टिय वरिसिलै वानवर् एऱे

    मामुनि वेळ्वियैक् कात्तु अवबिरदम्

आट्टिय अडु तिऱल् अयोद्दि एम् अरसे

    अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

अपने पशुओं को चराने गये चरवाहों के बांसुरी की धुन की आवाज़ रही है, चरते हुए पशुओं के गले में बंधे गलपट्टी की घंटियों के बजने  की आवाज़ भी चहूँ और सुनायी दे रही है। भृंगी भी हरी घांस देख गिनगीना रहे है। अपने  सारंग धनुष से,  शत्रुओं का नाश करने वाले,  हे श्री राम ! आपका सत्व महान है, आप  दैत्यों का संहार कर विश्वामित्र जी के यज्ञ को सफल बनाकर, अवभृथ स्नान कर, शत्रुओं का नाश करने वाली, अयोध्या के राजा बने । 

हे तिरुवरंगम में योगनिद्रा में लीन, हे रंगनाथ! आपको भी प्रातः उठकर हम दास लोगों पर कृपा बरसानी चाहिये।

पंचम पाशुर :

पंचम पाशुर में आळ्वार संत कहते है सभी लोकों से देवता लोग पुष्प लेकर आपकी पूजा करने पधारे है। आप, आपके भक्त भागवतों में किसी प्रकार का भेद नहीं रखते है, इसीलिये आपको उठकर सभी की सेवाएं स्वीकार करनी चाहिये।

पुलम्बिन पुट्कळुम् पूम् पोळिल्गळिन् वाय्

   पोयिट्रुक् कन्गुल् पुगुन्ददु पुलरि

कलन्ददु गुणदिसैक् कनैकडल् अरवम्

  कळि वण्डु मिळट्रिय कलम्बगम् पुनैन्द

अलन्गल् अम् तोडैयल् कोण्डु अडियिणै पणिवान्

  अमरर्गळ् पुगुन्दनर् आदलिल् अम्मा

इलन्गैयर् कोन् वळिपाडु सेय् कोयिल्

  एम्पेरुमान् पळ्ळी एळुन्दरुळाये।।

नव खिले हुए फूलों से भरे उद्यान में पक्षी ख़ुशी से कलरव कर रहे है। भोर हो चुकी, रात्रि चली गयी है । पूर्व दिशा से समुद्र के लहरों की गर्जना चहूँ और सुनाई दे रही है। सभी लोकों के देवता लोग, फूलों के हार लिये खड़े है, भँवरे उन फूलों से मधु पान करने उनपर मंडरा रहे है। 

हे !  लंकापति विभीषण के आराध्य, तिरुवरंगम में शेष पर शयन कर रहे हे भगवान आप उठिये और हम पर अनुग्रह कीजिये। 

छटवां पाशुर :  

इस पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है, सुब्रमण्यम (कार्तिकेय जी)  जो आपके द्वारा देवताओं की सेना में शासन के लिये ,देवताओं की सेना के सेनापति  नियुक्त हुये है, आये है साथ ही अन्य देवता भी अपनी अपनी अर्धांगिनियों के साथ अपने अपने वाहनों में अपने अपने अनुगामियों के साथ आपकी पूजा कर अपने अपने मनोरथ सिद्ध करने आये है। आप अपनी दिव्य निद्रा त्याग कर उन सब पर अपनी करुणा बरसाइये।

इरवियर् मणि नेडुम् तेरोडुम् इवरो

  इऱैयवर् पदिनोरु विडैयरुम् इवरो

मरुविय मयिलिनन् अऱुमुगन् इवनो

  मरुदरुम् वसुक्कळुम् वन्दु वन्दु ईन्डि

पुरवियोडु आडलुम् पाडलुम् तेरुम्

  कुमरदण्डम् पुगुन्दु ईण्डिय वेळ्ळम्

अरुवरै अनैय निन् कोयिल् मुन्  इवरो।।

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये

द्वादश आदित्य अपने रथों में सवार हो आये है, ११ रूद्र जो इस धरा पर शासन करते है वह भी आये है, षण्मुख सुब्रमण्यम (कार्तिकेय जी) भी, अपने मयूर वाहन पर आये है। अन्य लोकों के देवताओं के आलावा,  उनचास मरुतगण, अष्ट वसु (यह भी अन्य देवताओं में आते है)  भी आये है। आपके प्रथम  दर्शन पाने, कतार में प्रथम खड़े रहने यह आपस में लड़ रहे है।  सभी देवता आपकी नज़रों में आने, आपका ध्यान आकर्षित करने , अपने अपने रथो और अश्वों पर बैठे गा रहे है और नाच रहे है। सभी देवता और देव सेना के सेनापति षण्मुगम भी, विशाल पर्वत की तरह दीखते तिरुवरंगम के द्वार पर एकत्रित हुये  है।  तिरुवरंगम में दिव्य निद्रा में शयन कर रहे, हे भगवान् ! आपको उठकर इन सब पर कृपा करनी चाहिये।

सप्तम पाशुर :

सप्तम पाशुर, इस पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है, सभी लोकों के देवताओं के साथ, देवताओं  के राजा इंद्र और सप्त ऋषि आकाश मार्ग में अंतरिक्ष में , खड़े हो आपका गुणगान कर रहे है। आपको उठकर उन्हें दर्शन देना चाहिये।

अन्दरत्तु अमरर्गळ् कूट्टन्गळ् इवैयो

  अरुन्दव मुनिवरुम् मरुदरुम् इवरो

इन्दिरन् आनैयुम् तानुम् वन्दु इवनो

  एम्पेरुमान् उन कोयिलिन् वासल्

सुन्दरर् नेरुक्क विच्चादरर् नूक्क

  इयक्करुम् मयन्गिनर् तिरुवडि तोळुवान्

अन्दरम् पार् इडम् इल्लै मट्रु इदुवो

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

हे नाथ! इंद्र अपने ऐरावत पर विराजे आपके दिव्य मंदिर के द्वार पर खड़े है स्वर्ग के देवता अपने गणो के साथ आये हुये है। ऋषि महानुभाव और सनकादिक ऋषि , मरुतगण और उनके अनुयायी, यक्ष, गन्धर्व सभी  विद्यावाचस्पति गण (अन्य समूह के देवता)  सभी आकर आकाश मार्ग में खड़े है।  सभी आपकी चरण वंदना करने, एक दूसरे से धक्का मुक्की कर रहे है, सभी व्यामोह में है।  हे तिरुवरंगम ! में शयन करने वाले नाथ, उठिये और हम सब पर कृपा करिये।

अष्टम पाशुर :

इस अष्टम पाशुर में आळ्वार संत कह रहे है , आपकी आराधना के लिये यह भोर का समय सबसे उचित है , सारे ऋषि प्रवर, जिन्हे आपकी आराधना के अलावा और कोई दूसरी इच्छा नहीं है। आपकी पूजा आराधना के लिये, समग्र सामग्री लेकर आपके द्वार खड़े है (कृपा निधानअपनी दिव्य निद्रा से जागिये और हम सब पर कृपा कीजिये।

वम्बविळ् वानवर् वायुऱै वळन्ग

  मानिदि कपिलै ओण् कण्णाडि मुदला

एम्पेरुमान् पडिमैक्कलम् काण्डऱ्कु

  एऱ्पन आयिन कोण्डु नन् मुनिवर्

तुम्बुरु नारदर् पुगुन्दनर् इवरो

  तोन्ऱिनन् इरवियुम् तुलन्गु ओळि परप्पि

अम्बर तलत्तिनिन्ऱु अगल्गिन्ऱदु इरुळ् पोय्

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

हे नाथ, हे भगवान् प्रख्यात ऋषि तुम्बुरु और नारदजी, स्वर्ग में वासित दिव्यात्मा, कामधेनु भी आपके श्रृंगार के लिये दिव्य पत्र, दिव्य सामग्री और निहारने के लिये दर्पण लेकर, तिरुवरंगम में आपकी तिरुआरधना के लिये आये है अँधेरा दूर हो गया है, सूर्य की किरणे चहूँ और अपना प्रकाश फैला रही है हे तिरुवरंगम ! में शेष शैया पर शयन कर रहे भगवान, आप जागिये हम पर कृपा बरसाइये

नवम पाशुर :

नवम पाशुर, में आळ्वार संत कह रहे है, स्वर्ग के प्रख्यात वाद्य वादक और नर्तकियां भी आपकी सेवा में उपस्थित है, एम्पेरुमान आप उठकर उनकी सेवा स्वीकार कीजिये।

एदमिल् तण्णुमै एक्कम् मत्तळि

  याळ् कुळल् मुळवमोडु  इसै दिसै केळुमि

गीदन्गळ् पाडिनर् किन्नरर् गेरुडर्गळ्

  गेन्दरुवर् अवर् कन्गुलुळ् एल्लाम्

मादवर् वानवर् सारणर् इयक्कर्

  सित्तरुम् मयन्गिनर् तिरुवडि तोळुवान्

आदलिल् अवर्क्कु नाळोलक्कम् अरुळ

  अरन्गत्तम्मा पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

स्वर्ग लोक के किन्नर, गरुड़, गन्धर्व सभी अपने अपने विविध वाद्य बजा रहे है, जैसे एक्कम (एक तार वाला वाद्य), मत्ताली , वीणा बांसुरी आदि वाद्य की तरंगे और धुन चहूँ और गूँज रही है।  इनमे से कुछ सारी रात बजते रहे है, कुछ वाद्य अभी भोर में बजना शुरू हुये है । विख्यात ऋषियों के साथ दिव्य लोकों के देव, चारण, यक्ष , सिद्ध और अन्य सभी आपकी चरण वन्दना करने आये है।  तिरुवरंगम में अपनी दिव्य योग निद्रा में सोये,  हे नाथ ! जागिये, उन पर कृपा बरसाते हुये अपनी सभा में उन्हें स्थान प्रदान कीजिये।

दशम पाशुर :

दशम पाशुर , इस पाशुर में आळ्वार संत एम्पेरुमान से सभी पर कृपा बरसाने की प्रार्थना कर रहे है, साथ ही खुद पर भी कृपा बरसाने की वनती करते हुये कहते है की,  वह पेरिया पेरुमाळ के  सिवाय  किसी और को नहीं जानते।

कडि मलर्क् कमलन्गळ् मलर्न्दन इवैयो

  कदिरवन् कनै कडल् मुळैत्तनन् इवनो

तुडि इडैयार् सुरि कुळल् पिळिन्दु उदऱित्

  तुगिल् उडुत्तु Eऱिनर् सूळ् पुनल् अरन्गा

तोडै ओत्त तुळवमुम् कूडैयुम् पोलिन्दु

  तोन्ऱिय तोळ् तोण्डराडिप्पोडि एन्नुम्

अडियनै अळियन् एन्ऱु अरुळि उन् अडियार्क्कु

  आट्पडुत्ताय् पळ्ळि एळुन्दरुळाये।।

दिव्य कावेरी के मध्य दिव्य योग निद्रा में शयन करे रहे, हे! रंगनाथ, समुद्र उत्ताल लहरों से उगते हुये सूर्य की प्रकाश किरणों का स्पर्श  पाकर कावेरी में कमल पुष्प खिल रहे है। नाज़ुक कमरवाली कन्यायें कावेरी में स्नान कर अपने बाल सुखाकर, शुभ्र स्वच्छ वस्त्र पहन कर कावेरी के घाट पर गयी है। 

(हे नाथ !) इस  सेवक तोण्डरडिप्पोडि की तुलसी माला के सेवा स्वीकार कीजिये । इस सेवक को आपके भक्तों की, सेवा भी प्रदान कीजिये। इस सेवा को स्वीकार करने आपको उठकर हम पर आपकी कृपा बरसानी होगी।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु – सरल व्याख्या

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। । श्रीः  श्रीमते शठःकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमत् वरवरमुनये नमः । ।

मुदलयिरं

nammazhwar-madhurakavi

नम्माळ्वार् और् मधुरकवि आळ्वार्

श्री मणवाळ मामुनिगळ् अपनी उपदेश रत्न मालै के २६ वे पाशुर में “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” का महत्त्व बतला रहे है ।

वाय्त्त तिरुमन्दिरत्तिन् मद्दिममाम् पदम्पोल्

सीर्त्त मदुरकवि सेय् कलैयै – आर्त्त पुगळ्।

आरियर्गळ् तान्गळ् अरुळिच् चेयल् नडुवे

सेर्वित्तार् ताऱ्परियम् तेर्न्दु । ।

हमारे श्रीसम्प्रदाय का तिरुमंत्र (अष्टाक्षर) मंत्र, अपने आप में सम्पूर्णता लिये हुये है।

चाहे वह शब्द हो या अथवा अर्थ, जैसे  तिरुमंत्र (अष्टाक्षर) का मध्य नाम ” नमः” महत्व रखता है, ऐसे ही मधुरकवि आळ्वार द्वारा रचित “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” महत्वपूर्ण अद्भुत दिव्य प्रबंधों में अपना महत्व रखता है।

आळ्वार संत द्वारा रचित इन पाशुरों के अर्थ को जानकर हमारे श्रद्धेय पूर्वाचर्यों ने इन पाशुरों को दिव्य प्रबंध पाठ में स्लंगित कर दिया, जिससे दिव्य प्रबंध पारायण में इनका भी अनुसंघान हो सके। अपने श्री सम्प्रदाय में आळ्वार संत, अपना सारा जीवन भगवद सेवा, समर्पण और भगवद गुणगान में ही व्यतीत किया है। एक और यह मधुरकवि आळ्वार, इनके लिये इनके आचार्य ही सब कुछ थे।

यह संत अपने आचार्य (गुरु) नम्माळ्वार की सेवा में, शिष्यत्व में आने के बाद, कभी किसी और का ध्यान नहीं किया, इनके लिये सिर्फ नम्माळ्वार ही भगवान थे और उनका ही गुणानुवाद करते थे। मधुरकवि आळ्वार की जीवनी उनकी रचना, हमारे सम्प्रदाय ही नहीं वैदिक सनातन के एक सिद्धांत की गुरु (आचार्य) ही भगवान का स्वरुप है, को सिद्ध करते है। आळ्वार संत की यह रचना संत की नम्माळ्वार के प्रति अनूठी अद्वितीय श्रद्धा बतलाती है।

[यहाँ तक की मधुरकवि आळ्वार, आदिनात पेरुमाळ के मंदिर में स्थित तिंत्रिणी के पेड़ के पास, अपने आचार्य के पास नित्य जाते, पर कभी आदिनात पेरुमाळ के दर्शन नहीं किये।]

आळ्वार संत की रचना “कण्णिनुण् चिऱुत्ताम्बु” की यह सरल व्याख्या पूर्वाचार्यों की व्यख्या पर आधारित है।

तनियन

अविदित विश्यान्तरः सठारेर् उपनिशताम् उपगानमात्रभोगः।

अपि च गुणवसात् तदेक सेशि मदुरकविर् ह्रुदये ममाविरस्तु।।

हम मधुरकवि आळ्वार को, अपने ह्रदय में ध्यान करते है, वह आळ्वार संत जिन्होंने नम्माळ्वार के सिवा किसी और को जाना ही नहीं, वह संत जिन्होंने नम्माळ्वार के प्रबंध पाशुर के गान के आलावा और कुछ नहीं गया, यह प्रबंध पाठ उन्हें परमानन्द प्रदान करते थे, वह संत जो अपने आचार्य के गुणानुभव में मग्न रहते थे।

वेऱोन्ऱुम् नान् अऱियेन् वेदम् तमिळ् सेय्द

माऱन् शठःकोपन् वण् कुरुगूर् एऱु एन्गळ्।

वाळ्वाम् एन्ऱेत्तुम् मदुरकवियार् एम्मै

आळ्वार् अवरे अरण्।।

मधुर कवी आळ्वार ने कहा है ” में नम्माळ्वार से ज्यादा कुछ नहीं जानता- नम्माळ्वार ने ही द्रविड़ लोगों पर अपनी करुणा  बरसाते हुये वेदों के अर्थ को मधुर द्रविड़ भाषा में प्रबंध रूप में दिया है”,  नम्माळ्वार इस सुन्दर कुरुगूर के नायक है, हम सब पर शासन कर, हम सबका उद्धार कर सकते है, प्रपन्न शरणागत जीवों को आश्रय प्रदान करने वाले है।

प्रथम पाशुर:

प्रथम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, नम्माळ्वार के गुणागान में भगवान् कृष्ण के अनुभव का परमानन्द ले रहे है, क्योकि नम्माळ्वार को भगवान कृष्ण बहुत प्रिय थे ।

कण्णि नुण् चिऱुत्ताम्बिनाल् कट्टुण्णप्

पण्णिय पेरु मायन् एन् अप्पनिल्

नण्णित् तेन् कुरुगूर् नम्बि एन्ऱक्काल्

अण्णिक्कुम् अमुदूऱुम् एन् नावुक्के

भगवन कृष्ण जो मेरे स्वामी है, ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता, सर्व जगत नियंत्रक होकर भी मातृ प्रेम में,  माँ यशोदा के हाथों पतली सी रस्सी से बंध गये।मेरी जिव्हा को ऐसे करुणानिधान भगवान के नाम से भी ज्यादा मधुर और अमृतमय नाम, दक्षिण में स्थित तिरुक्कुरुगुर के नायक नम्माळ्वार का नाम रटना ज्यादा अच्छा लगता है ।

द्वितीय पाशुर:

द्वितीय पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, अकेले नम्माळ्वार के पाशुर इतने मधुर है की निरंतर इनका जाप ही मेरे लिए पुष्टिकारक है।

नाविनाल् नविऱ्ऱु इन्बम् एय्दिनेन्

मेविनेन् अवन् पोन्नडि मेय्म्मैये

देवु मऱ्ऱु अऱियेन् कुरुगूर् नम्बि

पाविन् इन्निसै पाडित् तिरिवने

मेरी जिव्हा से आळ्वार के पाशुर गाकर मैं स्वयं को बहुत ही परम सुखी अनुभव कर रहा हूँ। मैं ने स्वयं को आळ्वार के चरणों में समर्पित कर दिया है I मैं, मंगल गुणों से परिपूर्ण आळ्वार के आलावा किसी और भगवान को नहीं जानता, मैं तिरुक्कुरुगुर नायक आळ्वार के पाशुर का संगीत बद्ध गायन हर जगह जाकर करूँगा।

तृतीय पाशुर:

तीसरे पाशुर में मधुरकवि आळ्वार बहुत ही खुशी से कह रहे है, कैसे भगवान उन्हें नम्माळ्वार का सेवक जानकर उन्हें नम्मलवार स्वरुप में दर्शन दिये।

तिरि तन्दागिलुम् देवपिरान् उडै

करिय कोलत् तिरु उरुक् काण्बन् नान्

पेरिय वण् कुरुगूर् नगर् नम्बिक्कु आळ्

उरियनाय् अडियेन् पेऱ्ऱ नन्मैये

में आळ्वार का सेवक था, भटक गया था, तब आळ्वार द्वारा बतलाये गये , नित्यसुरियों के अधिपति भगवान् नारायण जो सांवले रंग के है मुझे दर्शन दिये, देखो मेरा भाग्य, सदाशय तिरुक्कुरुगुर में अवतरित नम्माळ्वार के सेवक होने से भगवान के दर्शन हुये।

चतुर्थ पाशुर:

इस चतुर्थ पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, संत नम्माळ्वार की अपार बरसती करुण वर्षा को देखते हुये, कह रहे है की उन्हें हर उस बात की चाह रखना चाहिये जो नम्माळ्वार को पसंद थी।

यह भी बतला रहे है कैसे संत आळ्वार ने उन जैसे दीन को अपनाया।

नन्मैयाल् मिक्क नान्मऱैयाळर्गळ्

पुन्मै आगक् करुदुवर् आदलिल्

अन्नैयाय् अत्तनाय् एन्नै आण्डिडुम्

तन्मैयान् सडगोपन् एन् नम्बिये

वह जो विशिष्ट गतविधियों में सलंगन रहनेवाले, प्रकांड विद्वान चारों वेदों के ज्ञाता, जो मुझ जैसे दीनता के प्रतिक को छोड़ दिये थे, पर संत नम्मळ्वार, मेरे माता पिता बन मुझे आश्रय दिया, बस वही एक मेरे भगवान् है।

पञ्चम पाशुर:

इस पंचम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार, पिछले पाशुर में वर्णित अपनी दीनता से कैसे नम्माळ्वार अपनी अकारण करुणा बरसाते इनमें बदलाव लाकर भक्त बनाकर अपनाया, इसके लिए वह आळ्वार संत को धन्यवाद दे रहे है।

नम्बिनॅ पिऱर् नन्पोरुळ् तन्नैयुम्

नम्बिनॅ मडवारैयुम् मुन्नेलाम्

सेम् पोन् माडत् तुक्कुरुगूर् नम्बिक्कु

अन्बनाय् अडियॅ सदिर्त्तॅ इन्ऱे

मधुरकवि आळ्वार कह रहे है, में भी पहले दूसरों की तरह धन और भोगों का लालची था, स्वर्ण महलों से सज्जित तिरुक्कुरुगूर् के नायक की सेवा पाकर, उनकी शरण में आने से में भी श्रेष्ठ हो गया, उनका सेवक हो गया।

षष्ठम पाशुर:

इस पाशुर में मधुरकवि आळ्वार पूछने पर की, आप में इतनी श्रेष्ठता कैसे आ गयी , कह रहे है संत नम्माळ्वार की अनुकम्पा और अनुग्रह से आ गयी , अब इस श्रेष्ठता से निचे गिरना असंभव है।

इन्ऱु तोट्टुम् एळुमैयुम् एम्पिरान्

निन्ऱु तन् इन्ऱु पुगळ् एत्त अरुळिनान्

कुन्ऱ माडत् तिरुक्कुरुगूर् नम्बि

एन्ऱुम् एन्नै इगळ्वु इलन् काण्मिने

तिरुक्कुरुगूर् के नायक संत नम्माळ्वार जो मेरे स्वामी है, उन्होंने मुझ पर कृपा अनुग्रह कर इस काबिल बनाया, इस लिए में उन्ही के गुणगान करता हूँ ,आप देखिये वह कभी मुझे मझधार नहीं छोड़ेंगे।

सप्तम पाशुर:

इस सप्तम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, संत नम्माळ्वार की दया के पात्र बनकर, वह उन सबको, जो किसी न किसी रूप से पीड़ित है, उन सभी को जो अब तक संत के सम्मुख नहीं आये, जिनपर संत की कृपा नहीं हुयी, उन सबको  नम्माळ्वार की महानता बतलाकर उन सबको भी, हर तरह से समृद्ध हो सके ऐसा करूँगा।

कण्डु कोण्डु एन्नैक् कारिमाऱप् पिरान्

पण्डै वविनै पाऱ्ऱि अरुळिनान्

एण् तिसैयुम् अऱिय इयम्बुगेन्

ओण् तमिळ् सडगोपन् अरुळैये

नम्माळ्वार्, जो  कारिमाऱन्, नाम से भी जाने जाते है , जो पोऱ्कारि के पुत्र है अपना अनुग्रह बरसाते हुये अपने संरक्षण में लेकर, अपनी सेवा में लेकर मेरे जन्म जन्मांतर के पापों को मिटा दिया। आळ्वार संत की इस करुण महानता का और इनके द्वारा रचित दिव्य तमिल पाशुरों का अष्ट दिशाओं में, मै सभी को बतलाऊंगा।

अष्टम पाशुर:

इस अष्टम पाशुर में, मधुरकवि आळ्वार कह रहे है की, संत नम्माळ्वार की करुणा स्वयं भगवान की करुणा से भी ज्यादा है, कह रहे है की आळ्वार संत द्वारा रचित तिरुवाय्मौली स्वयं भगवान द्वारा कही गयी श्रीमद्भगवद गीता से ज्यादा कारुणिक है।

अरुळ् कोण्डाडुम् अडियवर् इन्बुऱ

अरुळिनान् अव्वरुमऱैयिन् पोरुळ्

अरुळ् कोण्डु आयिरम् इन् तमिळ् पाडिनान्

अरुळ् कण्डीर् इव् वुलगिनिल् मिक्कदे

भागवतों और भगवद गुणानु रागियों के प्रसन्न चित्तार्थ, नम्माळ्वार ने  वेदों के तत्व सार को  (तिरुवाय्मौली) सहस्त्रगीति में समझाया है, नम्माळ्वार की यह कृति भागवतों पर भगवान कि करुणा से भी ज्यादा ही है।

नवम पाशुर:

इस पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कहते  है की, नम्माळ्वार ने इनकी दीनता को अनदेखा कर, वेदों के सार का ज्ञान इन्हे दिया, और बतलाया की मानव को सदा भगवान के सेवकों का सेवक बन कर रहना चाहिये, इसके लिये में सदा सदा के लिये आळ्वार संत का ऋणी हूँ।

मिक्क वेदियर् वेदत्तिम् उट्पोरुळ्

निऱ्कप् पाडि एन् नेन्जुळ् निऱुत्तिनान्

तक्क सीर्च् चटकोपन् नम्बिक्कु आट्

पुक्क कादल् अडिमैप् पयन् अन्ऱे

नम्माळ्वार् ने मुझे वेदों का सार बतलाया है, जिनका  सिर्फ महानतम विद्वानों के द्वारा ही पठन होता है, आळ्वार संत की यह कृपा मेरे मन में सदा के लिये घर कर गयी, इससे मुझे यह नम्माळ्वार का विशिष्ट सेवक होने का आभास हो रहा है।

दशम पाशुर:

इस दशम पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कहते है की नम्माळ्वार ने उन पर इतनी विशिष्ट कृपा की है, जिसका ऋण वह जीवन भर नहीं उतार सकते ।

इस कारण नम्माळ्वार के चरणों में अति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न हो गया।

पयन् अन्ऱु आगिलुम् पान्गु अल्लर् आगिलुम्

सेयल् नन्ऱागत् तिरुत्तिप् पणि कोळ्वान्

कुयिल् निन्ऱु आर् पोयिल् सूळ् कुरुगूर् नम्बि

मुयल्गिन्ऱेन् उन् तन् मोय् कळऱ्कु अन्बैये

ओह, नम्माळ्वार आप उस तिरुक्कुरुगूर् में विराजते है, जो चहुँ और से वनो से घेरा हुवा है, उन वनों में कोयल की कुक गुंजायमान हो रही है, आप इस जग के लोगों को अकारण निस्वार्थ भाव में उचित ज्ञान देकर, निर्देश देकर  भगवान की सेवा में लगा रहे हो, ऐसे निस्वार्थ संत के प्रति मेरा मोह बढ़ रहा है।

एकादश पाशुर:

इस एकादश पाशुर में मधुरकवि आळ्वार कह रहे है, जो कोई भी इन प्रबंध पाशुरों को कंठस्थ कर नित्य पठन करले, निश्चय ही वह श्रीवैकुण्ठ को प्राप्त करेगा, क्योंकि श्रीवैकुण्ठ नम्माळ्वार (विष्क्सेनजी के अवतार) के सञ्चालन में है। इसका लक्षित सार यह है की, आळ्वार तिरुनगरि में भगवान आदिनाथार पेरुमाल है और नम्माळ्वार इस तिरुकुरुगुर के नायक है, जबकि श्रीवैकुण्ठ का संरक्षण संचालन तो सिर्फ नम्माळ्वार के हाथ में है।

अन्बन् तन्नै अडैन्दवर्गट्कु एल्लाम्

अन्बन् तेन् कुरुगूर् नगर् नम्बिक्कु

अन्बनाय् मदुरकवि सोन्न सोल्

नम्बुवार् पदि वैकुन्दम् काण्मिने

अपने भक्तो भागवतों के प्रति पेरुमाळ को अत्यधिक स्नेह होता है, नम्माळ्वार को भी पेरुमाळ के भक्तों से प्रेम होता है, पर में मधुरकवि, सिर्फ नम्माळ्वार से प्रेम करता हूँ।

मेरे द्वारा रचित यह प्रबंध पाशुरों का जो भी पठन करेगा वह श्रीवैकुण्ठ में वास करेगा।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/04/kanninun-chiruth-thambu-simple/

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तिरुप्पल्लाण्डु – सरल व्याख्या

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।।श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमते वरवरमुनये नमः।।

मुदलायिरम्

pallandu

श्री मणवाळ मामुनिगळ् ने अपनी उपदेश रत्नमालै के १९ वे पाशुर में तिरुप्पल्लाण्डु की महत्ता बहुत ही सुन्दर ढंग से समझायी है।

पशुराम    १९ .

कोदिलवाम् आळ्वार्गळ् कूऱु कलैक्केल्लाम्

आदि तिरुप्पल्लाण्डु आनदुवुम् – वेदत्तुक्कु।

ओम् एन्नुम्म् अदुपोल् उळ्ळदुक्केळ्ळाम् सुरुक्काय्त्

तान् मन्गलम् आनदाल्।।

श्री मणवाळ मामुनिगळ्, यहाँ दृढ़ मत प्रस्तुत कर रहे है की, वेद गायन के पहले , जिस तरह वेदों का सार प्रणव है , ठीक उसी तरह दिव्य प्रबंधं का सर तिरुपल्लाण्डु माना जाता है। इसी लिये तिरुपल्लाण्डु का अनुसंधान दिव्य प्रबंधं के प्ररंभ में किया जाता है।

पाण्ड्य राजा वल्लभदेव के दरबार में शास्त्रार्थ में भगवान श्रीमन्नारायण की सर्वोच्चता, प्रभुत्व स्थापित करने के बाद, राजा ने पेरिय आळ्वार के सम्मान में उन्हें ,गज पर आरूढ़ करवाकर नगर भ्रमण करवाये। अपने भक्त आळ्वार संत का यह सम्मान देखने स्वयं भगवान देवियों के साथ गरुडारुढ़ हो आ गये। आळ्वार संत भगवान को श्रीवैकुण्ठ को छोड़, इस चराचर जगत में आया देख, भगवान श्रीमन्नारायण के कुशल मंगल के लिये चिंतित हो गये, अपनी उसी अवस्था में प्रभु श्रीमन्नारायण को इस चराचर जगत में कोई तकलीफ न हो इसके लिये मंगलाशासन में,  गुणानुवाद में, यह प्रबंध गा उठे, इन्ही प्रबंधों के समूह, तिरुपल्लाण्डु कहलाये।इस तरह पेरिया आळ्वार ने स्वयं भी नारायण का गुणानुवाद करते हुये, इस भौतिक संसार वासियों से भी भगवद गुणानुवाद करवया।

इस तिरुपल्लाण्डु की सरल व्याख्या स्वामी पेरियावाचन पिल्लै द्वारा की गयी व्यख्या पर आधारित है। 

तनियन् 

गुरुमुखमनधीत्य प्राहवेदानशेशान्

नरपतिपरीकृलप्तम् शुल्कमादातु कामः।  

श्वसुरममरवन्द्यम् रन्गनाथस्यसाक्शात्

द्विजकुल तिलकम् तम् विष्णुचित्तम् नमामि ।।

पेरियाळ्वार, जिन्हें विष्णुचित्त स्वामीजी के नाम से भी जाना जाता है, ये आळ्वार संत किसी आचार्य के पास शिक्षा प्राप्त करने नहीं गए थे, इन्हें तो स्वयं तिरुमाल (भगवान) ने ही वेदांत ज्ञान और भक्ति समर्पण प्रदान किया था।

एक बार पांड्या राजा वल्लभदेव ने अपने दरबार में विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता रखी और जीतने वाले को पुरस्कार में स्वर्ण की मोहरें देने की घोषणा भी की। पेरियाळ्वार जो श्रीविल्लिपुत्तूर में भगवान वटपत्रशायि के पुष्प सेवा में अपना कैंङ्कर्य देते थे, इस प्रतियोगिता की बात सुन अपने मन में यह आशय किए की, अगर यह पुरस्कार इन्हें प्राप्त हो जाए तो वे भगवान वटपत्रशायि के मंदिर में सुधार का कार्य करवाएँगे। भक्त का आशय देख रात्रि स्वप्न में भगवान ने उन्हें आदेश दे दिया, पेरियाळ्वार भगवत आज्ञा पाकर, शास्त्रार्थ के लिए पांड्या राजा वल्लभदेव के दरबार में पहुँचे। विद्वानों की इस सभा में, वेदों के उद्घोष से भगवान श्रीमन्नारायण का परत्व स्थापित कर इस प्रतियोगिता को जीतकर, पुरस्कार स्वरुप स्वर्ण मोहरें प्राप्त किए। यही नहीं, आळ्वार संत ने अपनी पालित पुत्री देवी आण्डाळ का विवाह भी श्रीरंगम में भगवान रंगनाथजी के साथ संपन्न करवाया, जिससे नित्यसूरी ने इन्हें श्रद्धा से “श्री रंगनाथ श्वशुर” कहकर बुलाया। पेरियाळ्वार वेदाध्ययन करने वाले ब्राह्मण कुल में सर्वोच्च हैं।

“मिन्नार् तडमदिळ् सूळ् विल्लिपुत्तूर् एन्ऱु ओरुकाल्

सोन्नर् कळऱ्कमलम् सूडिनोम् – मुन्नाळ्

किळयऱुत्तान् एन्ऱुरैत्तोम् कीळ्मैयिनिल् सेरुम्

वळियऱुत्तोम् नेन्जमे वन्दु।।“

हे मन! चलो हम उन महानुभावों की चरणवंदना करते हैं, जो श्रीविल्लिपुत्तूर का गुणगान करते हैं, वह श्रीविल्लिपुत्तूर जिसकी बड़ी बड़ी दीवारें रौशनी सी चमकती हैं, वह श्रीविल्लिपुत्तूर जो हमारे माथे की मुकुट मणि है, जो पेरियाळ्वार की बातें करके हमें उनका यह स्मरण कराती है, उनका वह कार्य- पांड्य राजा के दरबार में जाकर शास्त्रार्थ में विजय होना, और जिनके हाथों में पुरस्कार का स्वर्ण मुद्राओं की थैली स्वयं आकर गिर गई।

“पाण्डियन् कोण्डाडप् पट्टर्पिरान् वन्दान् एन्ऱु

ईण्डिय सन्गम् एडुत्तूद – वेण्डिय

वेदन्गळ् ओदि विरैन्दु किळियऱुत्तान्

पादन्गळ् यामुडैय पऱ्ऱु।।“

पांड्या राजा वल्लभदेव भी पेरिय आळ्वार की बहुत प्रंशंसा करते हैं, सारे दरबारी, दरबार में शंखनाद कर कहते हैं, भट्टरपिरान ने भरे दरबार में वेदों के प्रमाण देते हुए भगवान श्रीमन्नारायण के परत्व को स्थापित किया है, ऐसे भट्टरपिरान के चरण ही हमारा आश्रय स्थान है।

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प्रथम पाशुर:

पहले पाशुर में,  पेरिया आळ्वार जैसे ही अपनी शोभा यात्रा में एम्पेरुमान को उभय देवियों के साथ अपने सुन्दर रूप संपन्न मंगल विग्रह के गरुडारुढ़ दर्शन करते है, उन्हें इस मृत्युलोक में आया देख, आळ्वार संत भगवान के सुन्दर सुकोमल चरणों की हलकी लालिमा भरे चरण देखते ही, उनके मन में आशंका आति है की कहीं भगवान को इस संसार की दृष्टी न लग जाये , वह भगवान के विजय गीत गाने शुरू कर देते है, जैसे एम्पेरुमान चिरंजीवी रहे।   

पल्लाण्डु पल्लाण्डु पल्लायिरत्ताण्डु

पल कोडि नूऱायिरम्

मल्लाण्ड तिन् तोळ् मणिवण्णा उन्

सेवडि सेव्वि तिरुक्काप्पु ।।

हे भगवान! मजबूत दिव्य कंधे हैं आपके, आप विशाल भुजा धारी हो, मल्लों का संहार करने वाले हो, आप बादलों के वर्ण वाले हो, आपके सुकोमल चरण, नवजात शिशु के चरणों की भाँति हलकी लालिमा लिए हुए हैं, यह सदा सुरक्षित रहे। यहाँ इस पाशुर में आळ्वार संत युगों युगों तक भगवान के चिरंजीवी होने का मंगलाशासन करते हैं।

द्वितीय पाशुर:

दूसरे पाशुर में आळ्वार संत एम्पेरुमान (भगवान) की परमपद (नित्यविभूति) और चराचर संसार (लीला विभूति)  में सर्वोच्च स्थान का वर्णन कर रहे है।

अडियोमोडुम् निन्नोडुम् पिरिविन्ऱि आयिरम् पल्लाण्डु

वडिवाय् निन् वलमार्बिनिल् वाल्गिन्ऱ मन्गैयुम् पल्लाण्डु

वडिवार् सोदि वलत्तुऱैयुम् सुडरालियुम् पल्लाण्डु

पडै पोर् पुक्कु मुलन्गुम् अप्पान्चसन्नियमुम् पल्लाण्डे।।

आपका और अकिंचन का सेवक और मालिक का रिश्ता सदा ऐसे ही बना रहे। पेरिय पिराट्टी (माता महालक्ष्मी) अतुलनीय रूपलावण्य से परिपूर्ण, सारे आभूषणों से शृंगारित आपके दाहिने वक्षस्थल पर सदा विराजित रहे। आपके दाहिने हाथ में सुदर्शन चक्रराज सदा सुशोभित रहे। आपके बायें हाथ में पाञ्चजन्य शंख, जिसकी ध्वनि से रणक्षेत्र में आपके शत्रुओं में कंप कंपी मच, उनका नाश हो जाता है, सदा शोभायमान रहे। यहाँ आळ्वार संत भागवतों के सम्बोधन से संसार को इंगित कर रहे हैं, और माता लक्ष्मीजी, शंख चक्र के सम्बोधन से परमपद को इंगित कर रहे हैं।

तीसरा पाशुर:

अपने तीसरे पाशुर से पाशुर से तीन पाशुरों तक पेरिया आळ्वार उन भागवतों का आह्वान कर रहे , जो इस चराचर जगत में भगवद अनुभव कर प्रसन्न रहना चाहते है, उन भागवतों को आह्वान कर रहे है जो कैवल्य गुणानुभव करना कहते है , उन भागवतों को आवाज़ दे रहे है जो श्री भगवन का कैंकर्य करने की इच्छा रखते है। इन सब्भी भागवतों को अपने साथ इस भगवद गुणगान में साथ रहने के लिये आमंत्रित कर रहे है।

वाळापट्टु निन्ऱीर् उळ्ळीरेल् वन्दु मण्णूम् मणमुम् कोण्मिन्

कूळाट्पट्टु निन्ऱीर्गळै एन्गळ् कुळुविनिल् पुगुदलुट्टोम्

एळाट्कालुम् पळिप्पु इलोम् नान्गळ् इराक्कदर् वाळ् इलन्गै

पाळाळ् आगप् पडै पोरुदानुक्कु पल्लाण्डु कूरुदुमे

आळ्वार संत यहाँ कह रहे हैं, अगर तुम भगवद सेवा रूपी अमूल्य निधि पाना चाहते हो, तो जल्दी आओ, भगवद उत्सव हेतु मिट्टी खोद के भूमि तैयार करो, यहाँ कोई भी सेवा करने हेतु तत्पर रहो, हम यहाँ सिर्फ प्रसाद पाने वाले भागवतों को नहीं बुला रहे, कई पीढ़ियों से हम बिना कोई त्रुटि के, सिवाय भगवद सेवा के, और कोई इच्छा नहीं रखी। हम यहाँ उन भगवान का गुणानुवाद कर रहे हैं, जो अपना धनुष लेकर लंका में रह रहे राक्षसों से युद्ध किए, तुम भी हमारे साथ सम्मिलित हो जाओ।

चतुर्थ पाशुर:

चतुर्थ पाशुर इसमें आळ्वार संत यहाँ भगवद कैंकर्य में रत महानुभावों के कैंकर्य से संतुष्टि नहीं पाकर, उन भागवतों को आमंत्रित कर रहे है, जो स्वयं आत्मानुभव करना चाहते है, आळ्वार संत इच्छा रखते है की भगवद कैंकर्य निधि की इच्छा रखने वाले, और स्वयं आत्मानुभव करने वाले भी भगवद गुणानुवाद में सम्मिलित होने चाहिये, आळ्वार संत कहते है की जो इस संसार में धन पाने में अनुरक्त है, वह कोई समय  कभी भी भगवद सेवा में अनुरक्त हो सकते है, पर कैवल्य मोक्ष को प्राप्त कैवलयार्थी जो सिर्फ आत्मानुभव में ही रहते है, आळ्वार संत उन्हें पहले बुला रहे है।

एडु निलत्तिल् इडुवदन् मुन्नम् वन्दु एन्गळ् कुळाम् पुगुन्दु

कूडुम् मनम् उडैयीर्गळ् वरम्बोळि वन्दु ओल्लैक् कूडुमिनो

नाडु नगरमुम् नन्गु अऱिय नमो नारायणाय एन्ऱु

पाडुम् मनम् उडैप् पत्तरुळ्ळीर् वन्दु पल्लाण्डु कूऱुमिने

आळ्वार संत इस पाशुर में, आत्मानुभव करने वाले भागवतों से कह रहे हैं, आप सब की भगवद गुणानुवाद में रुचि हो तो, भौतिक शरीर छूटने से पहले हमारे साथ मिलकर भगवद गुणानुवाद करो, अगर आपको दिव्य मंत्र के जपने के प्रति निष्ठा हो तो, अष्टाक्षर मंत्र जो श्रीमन्नारायण की महिमामंडन करता है, जिसके जपने से गाँव के साधारण मनुष्य या शहर में वासित विद्वान भी एम्पेरुमान की दिव्यता को पहचानते हैं, आओ हमारे साथ भगवान श्रीमन्नारायण का गुणानुवाद करो।

पंचम पाशुर:

इस पंचम पाशुर में, आळ्वार संत उन भागवतों को आह्वान कर रहे है, जो इस चराचर जगत की भव्यता में अनुरक्त है।

अण्डक्कुलत्तुक्कु अदिपदियागि असुरर् इराक्कदरै

इण्डैक्कुलत्तै एडुत्तुक् कळैन्द इरुडीकेसन् तनक्कु

तोण्डक्कुलत्तिल् उळ्ळीर् वन्दु अडि तोळुदु आयिर नामम् सोल्लिप्

पण्डैक्कुलत्तैत् तविर्न्दु पल्लाण्डु पल्लायिरत्ताण्डु एन्मिने

आळ्वार संत यहाँ कहते हैं की हम उस समूह में हैं जिसमें भगवान ऋषिकेश, जो दैत्य कुलों के नियंत्रक हैं, जो दैत्यों के समूल संहारक हैं, ऐसे भगवान के दासत्व भाव से परिपूर्ण है। आप भी हमारे समूह में सम्मिलित हो जाइए, भगवान श्रीमन्नारायण के श्रीचरणों की शरणागति कर उनके सहस्त्र नामों को उच्चार कर मोक्ष को प्राप्त कर जन्म मरण के चक्र – जिसमें जीव इस चराचर जगत में आकर पुनः भगवान से अन्यान्य भौतिक साधनों को माँग, उसी में अनुरक्त होकर भगवान को ही भूल जाता है – उससे मुक्त हो जाइए, और प्राप्त साधनों के लिए भगवद गुणानुवाद कीजिए।

षष्टम पाशुर 

इस पाशुर में आळ्वार संत तीनो प्रकार के भागवत समूह का आह्वान कर रहे है , इस तरह सभी भागवत समूह आकर आळ्वार संत के साथ भगवद गुणानुवाद में सम्मिलित होते है। इसमें वाळाट्पट्टु  (तृतीय पाशुर)  में आह्वानित भागवत जो भगवान का कैंकर्य करने के इच्छुक है, वह अपने कार्य करने की रुपरेखा और उसे संपन्न करने की अपनी प्रवीणता बतला रहे है जिसे आळ्वार संत स्वीकार कर लेते है।    .

एन्दै तन्दै तन्दै तन्दै तम् मूत्तप्पन् एळ्पडिगाल् तोडन्गि

वन्दु वळि वळि आट्चेय्गिन्ऱोम् तिरुवोणत्तिरुविळविल्

अन्दियम् पोदिल् अरियुरुवागि अरियै अळित्तवनै

पन्दनै तीरप् पल्लाण्डु पल्लायिरत्ताण्डु एन्ऱु पाडुदुमे

पिछले सात पीढ़ियों से, मैं और मेरे पिताजी, उनके पिताजी, उनके पिताजी, उनके पिताजी, वेदों में वर्णन किए अनुसार उन सुन्दर भगवान नृसिंह (जिनका सिर सिंह का है और बाकि धड़ मानव सा है) जिन्होंने, अपने भक्त की रक्षा के लिए ऐसा स्वरुप धर, दैत्य हिरण्य का संहार किया था। भगवान को इस दैत्य के संहार में जो भी थकान हुई है, उसे दूर करने हम भगवन के गुणानुवाद कर रहे हैं।

सप्तम पाशुर 

इस सप्तम पाशुर में आळ्वार संत उन कैवलयार्थी भागवतों को अपने संग स्वीकार कर रहे है, जो एडु निलत्तिल् (चतुर्थ पाशुर) में आळ्वार संत के साथ जुड़े थे। आह्वानित भागवत, अपने कार्य करने की रुपरेखा और उसे संपन्न करने की अपनी प्रवीणता बतला रहे है जिसे आळ्वार संत स्वीकार कर लेते है।

तीयिल् पोलिगिन्ऱ सेन्जुडर् आळि तिगळ् तिरुच्चक्करत्तिन्

कोयिल् पोऱियाले ओऱ्ऱुण्डु निन्ऱु कुडि कुडि आट् सेय्गिन्ऱोम्

मायप् पोरुपडै वाणनै आयिरम् तोळुम् पोळि कुरुदि

पायच् चुळऱ्ऱिय आळि वल्लानुक्कुप् पल्लाण्डु कूऱुदुमे

अपने बाहु मूल पर लाली लिये हुए वैभवपूर्ण चक्रांकन को देख, जो अग्नि से भी ज्यादा प्रकाशमान लग रहा है, उसका गौरव महसूस कर हम सभी आपका कैंकर्य करने के लिए यहाँ आए हैं। हमारे साथ हमारी अगली पीढ़ियाँ भी आपके कैंङ्कर्य में सम्मिलित रहेंगी। हम उन सुदर्शन चक्र धारी भगवान का गुणानुवाद कर रहे हैं जिन्होंने बाणासुर के सहस्त्र बाहु को काट दिए थे, जिससे उसके बाहुओं से रक्त की बाढ़ सी आ गई थी।

अष्टम पाशुर 

आळ्वार संत इस पाशुर में ऐश्वर्यार्थी (धन की कामना करने वाले) भागवतों को जो अण्डक्कुलत्तुक्कु (पांचवे पाशुर) में आळ्वार संत के साथ भगवद गुणानुवाद के लिये संग आये थे को स्वीकार कर रहे है। 

नेय्यिडै नल्ल्लदोर् सोऱुम् नियतमुम् अत्ताणिच् चेवगमुम्

कै अडैक्कायुम् कळुत्तुक्कुप् पूणोडु कादुक्कुक् कुण्डलमुम्

मेय्यिड नल्लदोर् सान्दमुम् तन्दु एन्नै वेळ्ळुयिर् आक्कवल्ल

पैयुडै नागप् पगैक्कोडियानुक्कुप् पल्लाण्डु कूऱुवने 

(इस पाशुर में ऐश्वर्यार्थी कह रहे हैं) हम उन एम्पेरुमान का गुणानुवाद करते है, जो हमें शुद्ध स्वादिष्ट, घी से तर प्रसाद पवाते हैं (आराधना में निवेदित किया हुआ नैवैद्य), जिनकी एकांत सेवा में निवेदित किए ताम्बूल (पान, सुपारी और पोदीना), गले के लिए कंठ हार, कर्ण में धारण करने कुण्डल, स्वास्थ्य के लिए उपकारी चन्दन का लेप, अडियेन को सद्बुद्धि प्रदान करने वाले वह भगवान जिनकी ध्वजा पर सर्पों के शत्रु गरुड़जी विराजमान हैं।

नवम पाशुर 

इस नवम पाशुर में आळ्वार संत ने वाळाट्पट्टु (तीसरे पाशुर) में जिन भागवतों को आमंत्रित किये थे, और जो छठवे पाशुर एन्दै तन्दै. में आळ्वार संत ने जिन्हे स्वीकार किया, यह सभी भागवत मिलकर एम्पेरुमान का गुणानुवाद कर रहे है।

उडुत्तुक् कळैन्द निन् पीदग आडै उडुत्तुक् कलत्तदुण्डु

तोडुत्त तुळाय् मलर् सूडिक्कळैन्दन सूडुम् इत्तोण्डगळोम्

विडुत्त तिसैक् करुमम् तिरुत्तित् तिरुवोणत् तिरुविळविल्

पडुत्त पैन्नागणैप् पळ्ळि कोण्डानुक्कुप् पल्लाण्डु कूऱुदुमे

यहाँ आळ्वार संत सभी भागवतों के साथ मिलकर कह रहे हैं, हे भगवान! हम आपके सेवक हैं, हम आपके धारण किए हुए कटिवस्त्र धारणकर, आपके निर्माल्य की तुलसीमाला धारणकर, आपको ही निवेदित नैवैद्य का उच्छिष्ट प्रसाद पाएँगे, हम अपने फन फैलाये शेषजी की शैया पर शयन कर रहे भगवान श्रीमन्नारायण, आपके हर कार्य को चहुँ दिशाओं में शेषजी पूर्ण कर देते हैं, ऐसे एम्पेरुमान के गुणानुवाद आपके मंगल तिरु नक्षत्र तिरुवोणम (श्रावण) नक्षत्र पर करेंगे।

दशम पाशुर

इस पाशुर में आळ्वार संत उन कैवलयार्थी आत्मानुभव करने वाले भागवत, जिनको आळ्वार संत ने  एडु निलत्तिल् (चतुर्थ पाशुर) में आमंत्रित किये थे, और जो तीयिल् पोलिगिन्ऱ पासुरम्. (सप्तम पाशुर) में स्वीकारे गये, के संग भगवान के गुणानुवाद कर रहे है।

एन्नाळ् एम्पेरुमान् उन् तनक्कु अडियोम् एन्ऱु एळुत्तुप्पट्ट

अन्नाळे अडियोन्गळ् अडिक्कुडिल् वीडु पेऱ्ऱु उय्न्ददु काण्

सेन्नाळ् तोऱ्ऱीत् तिरु मदुरैयुळ् सिलै कुनित्तु ऐन्दलैय

पैन्नागत् तलैप् पाय्न्दवने उन्नैप् पल्लाण्डु कूऱुदुमे

हे भगवान, हमने जबसे आपके कैंङ्कर्य में, आपकी सेवा में स्वयं को समर्पित किया है, तब से हमारा वंश आत्मानुभव के सुख से ऊँचा उठ गया है, हे कृष्ण! आपका शुभ मंगल दिवस में आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने मथुरा में कंस के खेल उत्सव में धनुष को तोड़ दिया था ,जो कालिया दाह में कूद कर कालिया नाग के फनों पर नृत्य किए थे, हम सब मिलकर आपके ही गुणगान के गीत गाएँगे।

एकादश पाशुर

इस एकादश पाशुर में आळ्वार संत ऐश्वर्यार्थी भागवतों, जिनको संत ने अण्डक्कुलत्तुक्कु (पांचवे पाशुर) में आमंत्रित किये थे और जो “नेय्यिडै” अष्टम पाशुर में संग होते है। 

अल्वळक्कु ओन्ऱुम् इल्ला अणि कोट्टियर् कोन् अबिमानतुन्गन्

सेल्वनैप्पोल तिरुमाले नानुम् उनक्कुप् पळवडियेन्

नल्वगैयाल् नमो नारायणा एन्ऱु नामम् पल परवि

पल् वगैयालुम् पवित्तिरने उन्नैप् पल्लाण्डु कूऱुवने

हे लक्ष्मीरमण, आप तिरुकोष्टियुर में विराजित सेल्वनम्बि की तरह हैं, तिरुकोष्टियुर वासियों के नेता हैं, संसार में एक रत्न की तरह हैं; जो आपके दास्य स्वरुप में सम्मानीय है, यह दास भी, युगों युगों से आप ही का सेवक है, हे भगवान! आप अपने मूल स्वभाव गुण रूप से सबको सुख, संपत्ति, ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, यह दास भी आपके अष्टाक्षर मंत्र से आपका ध्यान करेगा और सहस्त्रनाम संकीर्तन करेगा।

द्वादश पाशुर 

तिरु पल्लाण्डु के इस अंतिम पाशुर में, आळ्वार संत बतला रहे है की जो भी भागवत इस प्रबंध से भगवान् को,  समर्पित भाव से, भगवान का मुखोल्लास कर गुणगान करेंगे, निश्चित ही एम्पेरुमान की प्रीती पाकर, काल चक्र के अंत तक सेवा का सौभाग्य प्राप्त करेंगे, इसके साथ ही आळ्वार संत ने इस प्रबंध को पूर्ण किये है। 

पल्लाण्डु एन्ऱु पवित्तिर्नैप् परमेट्टियैच् चार्न्गम् एन्नुम्

विल् आण्डान् तन्नै विल्लिपुत्तूर् विट्टुचित्तन् विरुम्बिय सोल्

नल् आण्डेन्ऱु नविन्ऱु उरैप्पार् नमो नारायणाय एन्ऱु

पल्लाण्डुम् परमात्मनैच् चूळ्न्दिरुन्दु एत्तुवर् पल्लाण्डे

यह द्वादश प्रबंध यह कह रहा है, यह प्रबंध विष्णुचित्त (पेरिय आळ्वार), जिनका प्राकट्य श्रीविल्लिपुत्तूर में हुआ, जो भगवान श्रीमन्नारायण के धनुष के अंश हैं, जो सदा परमपद (श्रीवैकुण्ठ) में विराजते हैं, जिनकी सदा यह अभिलाषा रहती है की एम्पेरुमान का सदा मंगल हो, भागवतों को सदा अनुकूल समय जान कर, अष्टाक्षर मंत्र का ध्यान करते हुए, सदा भगवान श्रीमन्नारायण की परिक्रमा करते हुए, उनका मंगल, पल्लाण्डु (भगवान जब तक पृथ्वी पर रहे तब तक सदा अनुकूल रहे, सुखी रहे ) गाना चाहिए।

अडियेन श्याम सुन्दर रामानुज दास

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