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स्तोत्र रत्नम – श्लोक 21 से 30- सरल व्याख्या

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः

पूरी श्रृंखला

<< 11 -20

श्लोक 21

श्री आळवन्दार् स्वामीजी, भगवान, जो कि हमारे शरण हैं, उनकी महानता का ध्यान करते हैं। जैसा की समझाया गया है – पहले लक्ष्य की प्रकृति की व्याख्या करने के बाद, यहां उस लक्ष्य का प्राप्त करने वाले व्यक्ति की प्रकृति को समझाया गया है। एक अन्य व्याख्या – पहले भगवान, जो हमारे शरण है, उनकी व्याख्या करने के बाद, यहां उन्होंने शरणागति (समर्पण की प्रक्रिया) की प्रकृति पर प्रकाश डाला, जिसे बाद में समझाया जाएगा।

नमो नमो वाङ्गमनसातिभूमये
नमो नमो वाङ्गमनसैकभूमये |

नमो नमो’नन्तमहाविभूतये
नमो नमो’नन्तदयैकसिंधवे ||

मेरा नमस्कार! नमस्कार!, हे भगवान आपको,जो वाणी और मन की पहुंच से परे हैं (उन लोगों के लिए जो आपको अपने प्रयासों से जानने की कोशिश करते हैं); मैं आपको नमस्कार करता हूं जो वाणी और मन की पहुंच के भीतर हैं (उनके लिए जो आपकी कृपा से आपको जानते हैं,); मेरा नमस्कार आपको, जिनके पास अपार धन है; आपको मेरा नमस्कार, जो दया के सागर हैं।

श्लोक 22

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी अपनी योग्यता की घोषणा करते हुए, प्रपत्ति (समर्पण) में संलग्न होते हैं जो पहले [पिछले पासुर में] आया था। इस श्लोक में उस साधन के अभ्यास के विषय में समझाया गया है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए उपयुक्त है।

न धर्मनिष्ठोस्मि न चात्मवेदि
न भक्तिमांस्त्वच्चरणारविंदे |

अकिञ्चनो’नन्यगतिश्शरण्य!
तवत्पादमूलं शरणं प्रपध्ये ||

हे भगवान, आपके ही श्रीचरण आत्मसमर्पण करने के लिए उपयुक्त है! मैं कर्म योग पर दृढ़ नहीं हूं; मुझे स्वयं के बारे में ज्ञान नहीं है; आपके श्रीचरणकमलों में मेरी भक्ति नहीं है; मैं जिसके पास और कोई साधन नहीं है, और कोई अन्य शरण नहीं है, मैं दृढ़ता से आपके दिव्य श्रीचरणकमलों को साधन के रूप में स्वीकार करता हूं।

श्लोक 23

जब भगवान कहते हैं, “चिंता मत करो कि तुम्हारे पास मेरे लिए कुछ भी अनुकूल नहीं है; जब तक तुम में निषिद्ध आचरण नहीं हैं जो तुम्हारे द्वारा अर्जित योग्यताओं को नष्ट कर देंगे, मैं तुम में सद्गुण उत्पन्न करूंगा और लक्ष्य भी प्रदान करूंगा”, इस पर श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “मैं सभी प्रतिकूल गुणों से पूर्ण हूं”।

न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि |

सो’हम विपाकावसरे मुकुन्द!
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे ||

हे प्रभु, आप मुक्ति प्रदायक हैं! वे निषिद्ध कर्म, जो शास्त्र में भी वर्णित नहीं हैं [दुनिया को संचालित करने वाले शास्त्र] वह मेरे द्वारा हजारों बार किए गए, अभी, जब [ऐसे कर्म] परिणाम में परिणत होते हैं, तो मैं कोई अन्य शरण न होने के कारण आप महामहिम के समक्ष रहा रुदन कर रहा हूँ।

श्लोक 24

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी भगवान को पुकारते हुए कहते है, “आपकी कृपा ही मेरे लिए एकमात्र आश्रय है”; श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “जिस प्रकार आपको प्राप्त करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है, उसी प्रकार आपकी कृपा के लिए भी मैं एक उपयुक्त पात्र हूँ”।

निमज्जतो’नन्तभवार्णवान्त:
चिराय मे कूलमिवासी लब्ध: |

त्वया’पि लब्धं भगवन्निधानीम्
अनुत्तमं पात्रमिदं दयाया: ||

हे प्रभु, जो (स्थान, समय और तत्वों से) सीमित नहीं है! अनंत समय से इस संसार सागर में डूबे हुये मेरे लिए आप किनारे के समान आए है। हे भगवान! अब, आप ही की कृपा से, मैं भी आपकी कृपा का एक उपयुक्त पात्र हुआ हूँ।

श्लोक 25

भगवान पूछते हैं, “जब आपने अपनी सभी प्रकार से मेरा शरण ग्रहण किया है, तो आपका स्वभाव श्रीरामायण के सुंदर-कांड 39.30 में जैसा कहा गया है उस प्रकार का होना चाहिए… “तत्तस्य सदॄषं भवेत् “(श्रीराम स्वयं लंका को नष्ट कर और मेरी रक्षा करें, यह उनकी प्रकृति के अनुरूप है- इसलिए मैं उसके आने का इंतज़ार करूँगी); इस प्रकार से इस स्थिति में आप मुझसे अभी मदद करने के लिए क्यों आग्रह कर रहे हो?” श्रीआळवन्दार् स्वामीजी उत्तर देते हैं, “मैं आपसे अपने दुखों को दूर करने के लिए प्रार्थना नहीं कह रहा हूँ; परंतु जब आपके शरणागत दास इस संसार में पीड़ित होते हैं, तो श्रीमान यह आपकी महिमा के लिए एक कलंक है; इसलिए, मैं आपसे इसे दूर करने का अनुरोध करता हूं।”

अभूतपूर्वं मम भावि किं वा
सर्वं सहे मे सहजं हि दु:खम् |

किंतु त्वदग्रे शरणागतानां
पराभवो नाथ! न ते’नुरुप: ||

हे भगवान! मुझे ऐसा कौन सा नवीन दुःख होने वाला है जो पहले नहीं हुआ? मैं इन सब दुखों को सह रहा हूँ; दुख मेरे साथ जन्में हैं; परन्तु आपके शरणागतों को होने वाला दुख, आप महामहिम के समक्ष अपमान स्वरूप है, आपके अनुरूप नहीं है।

श्लोक 26

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “यहां तक ​​​​कि जब आप अपनी महानता पर प्रतिकूल प्रभाव की परवाह किए बिना मुझे छोड़ भी देते हैं, तब भी मैं आपको नहीं छोड़ूंगा” और इस प्रकार भगवान पर अपने महाविश्वास (अटूट विश्वास) को प्रकट करते है जो उनके अगतित्व (और कोई गति/ शरण न होना) का परिणाम है।

निरासकस्यापि न तावदुत्सहे
महेश! हातुं तव पादपङ्कजम् |

रुषा निरस्तो’पी शिशु: स्तनन्धय:
न जातु मातुश्चरणौ जिहासति ||

हे सर्वेश्वर (सबके स्वामी) ! यद्यपि (आप) मुझे दूर धकेल दे, तब भी मैं आपके दिव्य चरण कमलों से प्रथक होने की हिम्मत नहीं करूंगा; [ठीक वैसे ही] जैसे एक दूधमुहाँ शिशु, जिसे (माँ द्वारा) गुस्से से दूर धकेल दिया भी जाए है, परंतु वह [बच्चा] कभी भी माँ के चरणों को नहीं छोड़ेगा।

श्लोक 27

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी कहते हैं, “क्या यह केवल मेरी अनन्य गतित्व (और कोई गति/ शरण न होना) है जो मुझे आपको कभी छोड़ने नही देती है? मेरा मन जो आपके आनंदमय स्वभाव में डूबा हुआ है, वह और कुछ नहीं खोजेगा।

तवामृतस्यन्दिनी पादपङ्कजे
निवेशितात्मा गतमन्यदिच्छति |

स्थिते’रविन्दे मकरन्दनिर्भरे
मधुव्रतो नेक्षुरकं हि वीक्षते ||

क्या मेरा मन, जो (आपकी कृपा से) आपके दिव्य चरणकमलों पर स्थित है, ऐसे दिव्य चरण जिन से अनंत अमृत धारा बहती है, वह मन और किसी वस्तु की चाहना करेगा? जब शहद से भरा लाल कमल का फूल उपस्थित हो, तब क्या मधुमक्खी घास के फूल को देखेगी?

श्लोक 28

श्रीआळवन्दार् स्वामीजी पूछते हैं, “क्या एक अंजलि (हथेलियाँ जोड़कर प्रार्थना करने की मुद्रा) आपके लिए मुझ पर कृपा करने के लिए पर्याप्त नहीं है?”।

त्वदङ्घ्रिमुद्दिश्य कदा’पि केनचित्
यथा तथा वा’पि सकृत्कृतो’ञ्जलि: |

तदैव मुष्णात्यशुभान्यशेषत:
शुभानि पुष्णाति न जातु हीयते ||

यदि किसी के द्वारा अंजलि मुद्रा (हथेलियों को जोड़कर प्रणाम करने की मुद्रा [शारीरिक समर्पण का संकेत]) किसी भी समय किसी भी रूप में की जाती है, तो उससे उसके सभी पाप तुरंत बिना किसी निशान के समाप्त हो जाते है; सभी शुभ पक्षों का पोषण होता है; और ऐसी शुभता कभी कम नहीं होती।

श्लोक 29

यह श्लोक मानसिक प्रपत्ति (मानसिक समर्पण) को प्रकाशित करता है। वैकल्पिक रूप से – यह भी कहा जा सकता है कि परभक्ति, जो समर्पण का परिणाम है, उसकी श्लोक 28 ” त्वधंघ्रिमुद्धिश्य……..” और श्लोक 29 “उदीर्ण….” में व्याख्या की गई है।

उदीर्णसंसारदवाशुशुक्षणिं
क्षणेन निर्वाप्य परां च निर्वृतिम् |

प्रयच्छति त्वच्चरणारुणाम्बुज –
द्वयानुरागामृतसिन्धुशीकर: ||

आपके दो लाल रंग के दिव्य चरणकमालों के प्रेम सागर की एक बूंद भी इस संसार समान जंगल की भयंकर जलती हुई आग को पल भर में बुझा देती है और श्रेष्ठ आनंद भी देती है।

 श्लोक 30 

 जैसा कि श्रीआळवन्दार् स्वामीजी ने “सिद्धोपाय” (स्थापित साधन, अर्थात, भगवान) को स्वीकार कर लिया है, जो बिना किसी देरी के परिणाम देता है, परंतु परिणाम की प्राप्ति की प्रतीक्षा करने में असमर्थ, त्वरा (आग्रह) से उत्तेजित होकर, श्रीआळवन्दार् स्वामीजी तिरुवाइमोळि 6.9.9 में कहते हैं “कूविक् कोळ्ळुम् कालम् इन्नम् कुऱुगादो” (क्या आप तक पहुँचने का दिन जल्द नहीं आएगा?)

इसे इस प्रकार से भी समझाया गया है – पराभक्ति, जो प्रपत्ति (समर्पण) का परिणाम है, उसके कारण श्रीआळवन्दार् स्वामीजी पूछ रहे हैं कि वह [भगवान के दिव्य चरण] को कब देखेंगे, जैसा कि तिरुवाइमोळि 3.6.10 में कहा गया है “कनैकळल् काण्बदेन्ऱुकोल् कण्गळ्” (मेरी आँखें कब भगवान के दिव्य चरण देखेंगी?) और तिरुवाइमोळि 9.4.1 ″काणक् करुदुम् एन् कण्णे” (मेरी आंख देखना चाहती है)।

विलासविक्रांतपरावरालयं
नमस्यदार्तिक्षपणे कृतक्षणम् |

धनं मदीयं तव पादपङ्कजं
कदा नु साक्षात्करवाणि चक्षुषा ||

मैं कब आपका दिव्य चरणकमल अपनी आंखों से देखूंगा, जो मेरा धन है और जो आकाशीय/ श्रेष्ठ देवताओं और मनुष्यों के लोकों पर अपना समय व्यतीत करते है, ऐसे लोक जिन्हें आपने  खेल में माप लिया था और – उन लोगों के दुखों को दूर करने के विषय में जिन्होने उन चरण कमलों की पूजा की?

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

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स्तोत्र रत्नम – श्लोक 11 – 20 – सरल व्याख्या

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमत् वरवरमुनये नमः

पूरी श्रृंखला

<< 1 – 10

श्लोक 11 –

इस पासूर में परत्व लक्षण (सर्वोच्चता की पहचान) की व्याख्या की गई है।

स्वाभाविकानवधिकातिषयेशितृत्वम
नारायण त्वयि न मृष्यति वैदिक: क: |

ब्रह्मा शिवश्शतमख परम: स्वराडिति
एते’पि यस्य महिमार्णवविप्रुशस्थे ||

हे नारायण! ब्रह्मा, शिव, इंद्र और मुक्तात्मा, जो कर्म से बंधे नहीं हैं और उन सभी दूसरे देवताओं से बड़े हैं – ये सभी व्यक्ति आपकी महानता के सागर में एक बूंद के समान हैं; कौन सा वैदिक (वेद का अभ्यास करने वाला) आपके ऐश्वर्य (नियंत्रण करने की क्षमता) को वहन नहीं करेगा जो स्वाभाविक है और जिसमें असीम महानता है?

श्लोक 12 –

इस पासूर में, भगवान की पहचान के बारे में संदेह उत्पन्न करने वाले (सामान्य और विशिष्ट) नामों के अपेक्षा, श्रीआळवन्दार स्वामीजी दयापूर्वक उन नामों की व्याख्या कर रहे हैं जो व्यक्तिगत रूप से पूर्ण हैं और स्पष्ट रूप से भगवान की सर्वोच्चता की पहचान कराने में सक्षम हैं।

कश्श्री : श्रिय: परमसत्वसमाश्रय: क:
क: पुंडरिकनयन: पुरुषोत्तम: क: |

कस्यायुतायुतशतैककलांशकांशै विश्वं
विचित्रचिदचित्प्रविभागवृत्तम ||

श्रीजी (श्री महालक्ष्मी) का धन कौन है? शुद्ध सत्वता किसके पास है? कमल नयन कौन हैं? पुरुषोत्तम के नाम से किन्हें जाना जाता है? किसके संकल्प/ व्रत का एक छोटा सा अंश (कई करोड़ आकार के हजारवें हिस्से का) इस संसार जिसमें चेतन और अचेतन की विविध श्रेणियां हैं, को संभालता और बनाए रखता है?

श्लोक 13 –

श्रीआळवन्दार स्वामीजी इतिहास और पुराणों की घटनाओं के माध्यम से ब्रह्मा, रुद्र, आदि के क्षेत्रज्ञत्व (जीवात्मा होने) और भगवान के परत्व (सर्वोच्चता) होने की व्याख्या करते हैं।

वेदापहार गुरुपातक दैत्यपीडादि
आपात विमोचनमहिष्टफलप्रदानै: |

कोन्य: प्रजापशुपती परिपाति कस्य:
पादोदकेन स शिवस्स्वशिरोधृतेन ||

(भगवान के अलावा) और किसने, ब्रह्मा जो प्रजापति हैं और शिव जो पशुपति हैं, उनके अनेकों संकटों को दूर करके उनकी रक्षा की है, जैसे वेदों की चोरी [ब्रह्मा द्वारा वेदों को खोना], अपने पिता के सिर को तोड़ने के कारण प्राप्त पाप [रुद्र द्वारा ब्रह्मा का सिर तोड़ना] और असुरों द्वारा दिया गया दुःख [इंद्र और अन्य देवताओं के लिए] आदि? किसके श्रीपाद तीर्थ (गंगाजी का पवित्र जल, जो भगवान के चरण कमल से निकली है) को अपने शीश पर धारण करने से शिव शुद्ध हो गए थे?

श्लोक 14 –

श्री आळवन्दार स्वामीजी यहाँ (इन पांच पासूरों की श्रृंखला के निष्कर्ष स्वरूप) भगवान की सर्वोच्चता की व्याख्या करते है, जो ऐसे न्याय-संगत तर्क और बुद्धि विवेक पर आधारित है, जो प्रमाणों (अर्थात शास्त्र, प्रामाणिक शास्त्र) के अनुकूल हैं।

कस्योदरे हरविरिञ्चमुख: प्रपंच:
को रक्षतीममजनिष्ट च कस्य नाभे: |

क्रान्त्वा निगीर्य पुनरद्गिरति त्वदन्य:
क: केन वैष परवानिति शक्यशङ्क: ||

किसके उदर में शिव, ब्रह्मा आदि और संसार वशीभूत थे? इस दुनिया की रक्षा कौन कर रहा है? किसकी नाभिकमल से (यह संसार) उत्पन्न हुआ? आपके अलावा और किस ने इस दुनिया को नाप कर, निगल कर, फिर से उगल दिया? क्या इस संसार की प्रभुता पर तनिक भी संदेह हो सकता है?

श्लोक 15 –

इस श्लोक में जो बताया गया है, जबकि वह स्पष्ट रूप से प्रामाणिक ग्रंथों के माध्यम से भी स्थापित किया गया है, जैसा कि श्री भगवत गीता 16.20 में कहा गया है “आसुरीं योनिमापन्ना” (असुर के रूप में जन्म लेना), यह सोचते हुए कि “हाय! ये आसुरी लोग आपको जानने का सुअवसर खो रहे हैं!” श्रीआळवन्दार स्वामीजी को ऐसे लोगों कि क्षति का दुख होता है। वैकल्पिक व्याख्या – इन विशिष्ट भगवान को आसुरी लोगों द्वारा नहीं देखा जाना चाहिए जैसा कि तिरुवाइमोळि 1.3.4 में कहा गया है “यारुमोर निलैमैयन् एन अरिवरीय एम्पेरुमान”, अर्थात भगवान ऐसे है कि उन्हें [ईर्ष्यालु] लोग नहीं समझ सकते क्योन्की उनके “ऐसे गुण है”)।

त्वां शीलरूपचरितै: परमप्रकृष्ट:
सत्वेन सात्विकतया प्रबलैश शास्त्रै: |

प्रख्यातदैवपरमार्थविदां  मतैश्च
नैवासुरप्रकृतय: प्रभवन्ति बोध्दुम् ||

[शोक!] आसुरी लोग, आपको जानने में असमर्थ हैं (अर्थात भगवान को, जो सर्वश्रेष्ठ है), जिनके विषय में हम इस प्रकार से जानते है-

• आपका शील गुण (सरलता का गुण), रूप (जिसे वेद द्वारा महिमामंडित किया जाता है) और (दिव्य) गतिविधियाँ,

• आपका निवास/ संपत्ति जो शुद्ध सत्व से परिपूर्ण है,

• शास्त्र जो अपनी अच्छाई की प्रकृति के कारण दृढ़ हैं और

• उन लोगों की सम्मति के माध्यम से जो आपके विषय में सच्चाई जानते हैं।

श्लोक 16 

श्रीआळवन्दार स्वामीजी महान आत्माओं द्वारा भगवान तक पहुँचने के बारे में विचार करते हैं जो कि भगवान की सादगी के कारण ही संभव है और इसे [उनके द्वारा भगवान को जानने/प्राप्त करने] वह (श्रीआळवन्दार स्वामीजी) अपना लाभ मानते हैं।

उल्लङ्घित  त्रिविध सीमसमातिशायी
संभावनं तव परिब्रढिमस्वभावं |

मायाबलेन भवता’पी निगुह्यमानं
पश्यन्ती केचिदनिशं  त्वदनन्यभावा: ||

वे (कुछ) महान आत्माएं, जो विशेष रूप से सिर्फ आपके विषय में ही विचार करते हुए आपके प्रभुत्व को देखते हैं, जो तीन प्रकार की सीमाओं (काल (समय), देश (स्थान) और वस्तु (इकाई)) से परे है और “क्या कोई आपके बराबर या उच्चतर है?” इस प्रकार के संदेह से भी परे है। वह भी तब जब आपके ऐसे स्वामित्व/ आधिपत्य को आपने अपनी अद्भुत क्षमता से छुपाया हुआ है।

श्लोक 17 –

यहाँ श्रीआळवन्दार स्वामीजी विभिन्न प्रकार की संस्थाओं की व्याख्या करते हैं, जो भगवान द्वारा नियंत्रित होती हैं और जो उनके सर्वेश्वरत्व (सभी पर प्रभुत्व) को सिद्ध करता है, जिसे पहले समझाया गया है।

यदण्डं अण्डान्तर गोचरं च यत्
दशोत्तराण्यावरणानि यानि च |

गुणाः प्रधानं पुरुशः परं पदं
परात्परं ब्रह्म च ते विभूतयः||

(1) ब्रह्माण्ड [ब्रह्मा के नियंत्रण में 14 परतों वाला अंडाकार आकार का ब्रह्मांड], (2) जो कुछ भी अंड के अंदर है, (3) वे [सात] आवरण (बाढ़ा) [जो अंड को आच्छादित करते हैं] जिनमें से प्रत्येक अपने पिछले के 10 गुना है और उन सभी की तुलना में आकार में बड़ा, (4) गुण जैसे सत्व (अच्छाई), रजस (राग) और तमस (अज्ञान), (5) मूल प्रकृति (प्राथमिक पदार्थ), (6) जीवात्माओं का संग्रह (चेतन संस्थाएं), (7) श्रीवैकुंठम (आध्यात्मिक क्षेत्र), (8) नित्यसूरियों का समूह जो मुक्तात्माओं से श्रेष्ठ हैं (जो ब्रह्मा और अन्य से शुरू होने वाले देवताओं से श्रेष्ठ हैं), और (9) दिव्य शुभ रूप हैं, ये सभी आपके शरीर/रूप है।

श्लोक 18 –

श्रीआळवन्दार स्वामीजी ने पहले “शरण्य” (शरण – भगवान) की महानता के बारे में बात की थी और इस श्लोक में, हममें जो झिझक है कि “मैं ऐसे उभय विभूति नाथ (दोनों दुनिया के स्वामी) तक कैसे पहुँच सकता हूं?”, उसको समाप्त करने के लिए भगवान के ऐसे बारह गुणों की व्याख्या करते है जो भक्तों को भगवान में लगाती हैं। वैकल्पिक रूप से – पहले भगवान के सर्वेश्वरत्वम (सर्वोच्चता) की व्याख्या की गई है और अब वे भगवान के उन गुणों के बारे में बोलते हैं जिनके बारे में बात करना उपयुक्त है।

वशी वदान्यो गुणवान् रुजुश्शुचिर्
मृदुर्दयालुर् मधुरस्थिरस् सम: |

कृती कृतज्ञस्त्वमसी स्वभावत:
समस्तकल्याणगुणामृतोदधि: ||

आप स्वाभाविक रूप से शुभ गुणों के अमृत सागर हैं जैसे (1) नियंत्रित होना (अपने भक्तों द्वारा), (2) उदार होना (अपने आप को अपने भक्तों के सामने प्रस्तुत करना), (3) सौशील्य (स्वभाव में उत्कृष्टता), (4) स्वयं को बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए प्रस्तुत करना, (5) ईमानदार होना (मन, वचन और कर्म में), (6) पवित्रता (निर्हेतुक अपनी दया प्रदान करना), (7) अपने भक्तों से वियोग को सहन करने में असमर्थ होना, (8) दयालु होना (अपने भक्तों का दुःख सहन नहीं कर सकना), (9) मधुर होना, रक्षा में दृढ़ होना (अपने भक्त की), (10) एक समान होना (उन सभी के लिए जो आपके प्रति समर्पण करते हैं), (11) कर्मों में संलग्न होना (अपने भक्तों के लिए, उन्हें अपना समझकर) और (12) अपने भक्तों के प्रति उनके छोटे से छोटे कृत्य के लिए भी आभारी होना।

श्लोक 19 –

श्रीआळवन्दार स्वामीजी कहते हैं कि जिस प्रकार भगवान के शुभ गुण असंख्य हैं, उसी प्रकार प्रत्येक गुण भी अपने आप में असीम है।

उपर्युपर्युब्जभुवो’पी पूरुषान्
प्रकलप्य ते ये शतमित्यनुक्रमात् |

गिरस् त्वदेकैकगुणावधीप्सया
सदा स्थिता नोद्यमतो’तिशेरते ||

अधिक से अधिक ब्रह्मा के लिए “ते ये शतं” (ऐसे सौ) का बार-बार पाठ करके, वेद वाक्य (पवित्र ध्वनियाँ / भजन) हमेशा नए ब्रह्मा की कल्पना करने पर केंद्रित होते हैं, जो आपके प्रत्येक गुण की सीमा को देखने की इच्छा रखते हैं, और जो अभी तक प्रारंभिक चरण से आगे नहीं बढ़े सके हैं।

श्लोक 20 –

श्रीआळवन्दार स्वामीजी अब उन भक्तों की महानता की व्याख्या करते हैं जो पहले बताए गए भगवान के गुणों के भोक्ता हैं। वैकल्पिक व्याख्या – यदि उन भक्तों के लिए इतनी महानता है जिन्होंने भगवान से इतनी महानता प्राप्त की है जैसा कि ब्रह्म सूत्र 1.1.20 में कहा गया है “अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति ” (श्रुति ब्रह्म के साथ जीवात्मा की आनंदमय एकता की व्याख्या करती है, जो आनंदमय है), यह स्पष्ट है कि भगवान की महानता को मापा नहीं जा सकता।

त्वदाश्रितानां जगदुद्भवस्थिति
प्रणाशसंसारविमोचनादया: |

भवन्ति लीला विदयश्च वैदिका:
त्वदीय गंभीर मनोनुसारिण: ||

आपके भक्तों के लिए (जैसे ब्रह्मा आदि) संसार की रचना करना, रक्षा करना, संहार करना, संसार (भौतिक क्षेत्र) को पार करने में सहायता करना आदि, सभी आपके लिए क्रीड़ा के समान हैं; वेद के नियम भी आपके भक्तों के गहन दिव्य हृदयों का पालन करते हैं।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 8-9

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 7

चूर्णिका 8 और 9 लघु है, इसीलिए हम इन्हें साथ में देखेंगे। प्रथम चूर्णिका 8:

अवतारिका (भूमिका)

चूर्णिका 7 श्रवण करने पर भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी से पूछते है, “क्या में मात्र आपके लिए ही पिता, माता, संबंधी आदि हूँ?”, जिसके प्रति उत्तर में इस चूर्णिका में श्री रामानुज स्वामीजी कहते है “आप इस ब्रह्मांड के सभी रचनाओं के लिए ये सभी रूप में है” । अब, इस चूर्णिका को देखते है:

पितासी लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान I
न त्वत्समोस्त्यभ्यधिक: कुतोन्य
लोकत्रयेप्यप्रतिमप्रभाव II

विस्तारपूर्वक अर्थ

पितासी लोकस्य चराचरस्य – पिता – पिता; असि – है अथवा किया जा रहा है; लोक – संसार; अस्य – यह; चर – वह जो चल सकता है; अचर – वह जो स्थिर है। आपने सभी सत्व जैसे पशु, पौधे, मनुष्य आदि की रचना की है जो चर है अथवा स्थिर रूप में है और इसलिए आप ब्रह्मांड के सभी रचनाओं के पिता है।

त्वमस्य पूज्यस्य – त्वं – आप; अस्य – यह; पूज्य – सम्मानित। आप सभी रचनाओं के लिए पूजनीय है। ये सभी सब प्रकार से आप पर आश्रित है और आप पर निर्भर है।

गुरुर गरीयान – गुरु – शिक्षक (आचार्य); गरीयान – सबसे उच्च, अत्यंत दुर्लभ से प्राप्त। पिछली पंक्ति में पूज्य शब्द का संबंध भगवान से था जिन्हें सभी रचनाओं के पिता कहा गया है; यहाँ (इस पंक्ति में), गरीयान  से अर्थ है उनके ज्ञान प्रदान करने के गुण से है और इसलिए यह पूजनीयता और सम्मान शब्दों की सीमा को परिभाषित करते है।

न त्वत्समोस्त्यभ्यधिक: कुतोन्य –  – नहीं; त्वं – आप; सम – समान; अस्ति – यह; अभ्यधिक – असाधारण अथवा श्रेष्ठ; कुत – कहाँ; अन्य – दूसरे।

ऐसा अन्य कोई नहीं है जो आपके समान है। तो ऐसा कोई कैसे हो सकता है जो आपसे श्रेष्ठ हो? आप सभी से उच्च और श्रेष्ठ है, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

लोकत्रयेप्य अप्रतिम प्रभाव – लोकत्रयेप्य – तीन भिन्न प्रकार के जीवों में से – बद्धात्मा (हमारी तरह संसारी, जो इस भौतिक संसार में रहते है), मुक्तात्मा (वह जिन्होने संसार से मुक्त होकर श्रीवैकुंठ में स्थान प्राप्त किया) और नित्यात्मा (वे जो कभी भी भौतिक संसार से जुड़े नहीं है और जो सदा से ही नित्य विभूति, श्रीवैकुंठ में निवास करते है); अप्रतिम – अद्वितीय अथवा अतुल्य; प्रभाव – असर।

आपका इस संसार की तीन विभिन्न आत्माओं पर अतुल्य प्रभाव है। आप अत्यंत ही महान है!

आइए अब चूर्णिका 9 की और अग्रसर होते है:

अवतारिका (भूमिका)

श्रीरामानुज स्वामीजी शरणागति करने पर भी क्षमा याचना कर रहे है। परंतु उन्होने ऐसा क्या अपराध किया जिसके लिए वे क्षमा याचना कर रहे है? उन्हें प्रतीत होता है कि वे एक समय से शास्त्रों द्वारा निषेध बहुत से कार्यो में लिप्त थे, जिस प्रकार एक विवाहित स्त्री अपने पति को छोडकर अन्य किसी के साथ लंबे समय के लिए बाहर जाती है और फिर पति के समक्ष लौटकर उनसे शरण और सुरक्षा मांगती है, और पति से यहाँ तक कहती है कि इस घोर अपराध के होते हुए भी उसकी रक्षा करना पति का दायित्व है। किसी स्त्री के द्वारा किया ऐसा कार्य अपराध कि चरम श्रेणी में आता है; श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि अनेकों जन्मों के पश्चात, अन्य देवताओं कि शरण में जाकर और शास्त्रों द्वारा अस्वीकार कार्यों में लिप्त होकर वे अब भगवान के श्रीचरणों में आए है। परंतु प्रथम स्थान में समर्पण क्यूँ? क्यूंकी किसी भी समय अभी या अन्य में शरणागति संभव नहीं है, जिस प्रकार काकासुर ने श्री रामायण के समय में कि थी, वैसे ही भगवान के श्रीचरणों में समर्पण करना होता है। इस प्रकार, समर्पण से ही अपनी सभी पिछली भूलों का अनुभव होता है और उसकी क्षमा याचना होती है।

तस्मात प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम I
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:
प्रिय: प्रियायार्हसी देव सोढुम II

विस्तारपूर्वक अर्थ

तस्मात – इसप्रकार’; यहा भगवान को जीवात्मा के सभी निकट संबंधियों के समान बताया गया है (माता, पिता, संबंधी, गुरु जैसा कि चूर्णिका 7 और 8 में देखा)। एक पति अथवा पत्नी कुछ पापों को क्षमा कर देते है। एक पिता कुछ अपराधों को क्षमा करते है, उसी प्रकार एक माता अथवा भ्राता या ऐसा कोई संबंधी। क्यूंकी भगवान में ये सभी संबंध निहित है, श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान से अभी तक हुए सभी अपराधों कि क्षमा याचना करते है।

प्रणम्य – श्रद्धापूर्वक मन से प्रणाम करना

प्रणिधाय कायम – तन से प्रणाम करना;

क्यूंकी उन्होने तन और मन दोनों से श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया है, यह वचन से भी प्रणाम करने के समान ही है, इसप्रकार उन्होने शास्त्रों में उल्लेख किए गए तीनों कारण से प्रणाम प्रस्तुत किया (मानो वाक कायम – मन, वचन और काया)।

प्रसादये – प्रस्तुत करना; यहाँ किसी प्रस्तुत करना है और किसे?

ईशमीद्यम त्वाम – ईशन –नाथ या वह जो सबके स्वामी हो; ईदयन – वह जो श्रेष्ठ/ उत्तम पूजनीय हो; त्वाम – आप. यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान से निवेदन करते है कि भगवान स्वयं को श्री रामानुज स्वामीजी को प्रदान करे। जब भगवान स्वयं को अपने आश्रित (जिसने समर्पण किया हो) को प्रस्तुत करने का निर्णय करेंगे तब उन्हें प्रश्न कौन करेगा? श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि उन्होने अनेकों अपराध किए है; भगवान को पूजने और उनके किर्तिगान करने के बजाये वे उनकी उपेक्षा और द्वेष करते रहे। भगवान ही श्रीरामानुज स्वामीजी के इन सभी अपराधों को क्षमा कर स्वयं को श्रीरामानुज स्वामीजी को प्रदान करेंगे।

अहम – मैं (श्रीरामानुज स्वामीजी), जो, आपको पूजने और आपकी प्रशंसा करने के बजाये, इन सभी दिन आपसे विमुख था और विभिन्न अपराधों मेँ लिप्त था। भगवान सोचते है कि इतने अपराधों और मुझसे विमुख होने पर भी श्रीरामानुज स्वामीजी को क्यूँ क्षमा करना चाहिए? श्रीरामानुज स्वामीजी इसके लिए नीचे उल्लेखित तर्क देते है।

पीतेव पुत्रस्य– पिता– पिता; एव – केवल; पुत्र – पुत्र;  अस्य – यह। उसीप्रकार जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र के अपराधों को क्षमा करते है,

सखेव सख्यु: – सखा – मित्र। जिसप्रकार एक सखा अपने सखा की गलतियों को क्षमा करता है,

प्रिय: प्रियाया: – प्रिय – प्रियजन। जिसप्रकार एक स्त्री अथवा पुरुष अपने प्रियतम को क्षमा करते है,

सोड़ुम – आप मुझसे सब प्रकार से संबन्धित है और इसलिए आप इस दास को क्षमा करेंगे

देव अरहसी – देव – आप; arhasi – योग्य। श्री रामानुज स्वामीजी कहते है कि भगवान उनके सब प्रकार के संबंधी है, और वे ही मुझे क्षमा करने के लिए सभी प्रकार से उपयुक्त है।

इसी के साथ, श्रीरामानुज स्वामीजी पुराणों और शास्त्रों से उल्लेख को पूर्ण करते है। अगले वे बताएँगे कि उनके द्वारा क्या अपराध बने है। यह सब हम 10वी चूर्णिका मेँ देखेंगे।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

अंग्रेजी संस्करण – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2016/01/saranagathi-gadhyam-8-and-9/

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
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शरणागति गद्य – चूर्णिका 7

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 6 – भाग 6

अवतारिका (भूमिका)

जैसा की पिछले चूर्णिका में बताया गया है, श्री पेरियवाच्चान पिल्लै प्रश्न करते है कि क्या हमारे द्वारा त्याग किया सभी कुछ हमारे लिए हानि नहीं है। वे प्रतिउत्तर में कहते है कि यह हानि नहीं है क्यूंकि भगवान स्वयं ही हमारे लिए सब कुछ है।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च गुरुस्त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव

विस्तारपूर्वक अर्थ

त्वमेव माता च पिता त्वमेव – त्वम – आप; एव -मात्र,  – और। एक पिता जो की बालक के जन्म के पश्चाद उसके कल्याण के विषय में कार्य प्रारम्भ करता है, उस पिता से भिन्न उसकी माता उस बालक की रक्षा और प्रेम उसके गर्भधारण से ही प्रारम्भ कर देती है। इसलिए प्रधानता माता की है। भगवान भी पिता है, पिता भी बालक की रचना में समान भागीदार है। हमारे संप्रदाय में सम्पूर्ण रचना भगवान द्वारा की गयी है, श्रीअम्माजी के द्वारा नहीं और इसलिए भगवान ही हमारी माता और पिता दोनों है।

त्वमेव बन्धुश्च – आप ही हमारे संबंधी हो। संबंधियों का साथ व्यक्ति को जीवन में अनुचित पथ पर जाने से रोकता है, उसका नियंत्रण करता है और सत्य पथ की और उसका मार्गदर्शन करता है। भगवान भी अंतरात्मा (आत्मा में विद्यमान) है। इसलिए वे भी जीव का मार्गदर्शन करते है और संबंधियों के समान पथप्रदर्शन है।

गुरुस्त्वमेव – आप ही आचार्य (गुरु) है। गुरु शब्द में “गु” अर्थात अंधकार और “रु” का अर्थ है नकारने वाला। अर्थात गुरु वे है जो अंधकार को नकारते है– अन्य शब्दों में वे प्रकाशित करते है। भगवान इस संसार में विद्यमान अज्ञान के अंधकार को हटाते है और मोक्ष प्रदान करते है इसलिए वे गुरु है। हमारे संप्रदाय में, वे ही प्रथम आचार्य हैजैसा की हमारी गुरूपरंपरा में उल्लेख किया गया है। वे हमें सभी प्रकार के साधन और सहायता प्रदान करते है जो हम में उन तक पहुँचने की रुचि उत्पन्न करती है – उन्होने वेद प्रदान किए (ज्ञान का स्त्रोत, जो चार भागों में विभाजित है- ऋग, यजुर, साम और अथर्व), शास्त्र, पुराण (पौराणिक विलेख जैसे विष्णु पुराण, गरुड पुराण आदि), इतिहास  (श्रीरामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य) प्रदान किए, आलवारों और आचार्यों की रचना की यह बताने के लिए वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास, आदि में भगवान ने क्या कहा और किया है, हमें अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन प्रदान किए (रूप जो अर्चा मूर्ति में दिव्यादेशों में देखा जा सकता है) –  भगवान ने ये सभी किया जिससे हम सांसारिक भोगो के दूर होकर भगवान तक पहुँचने की प्रेरणा प्राप्त करे। जैसा की पहले देखा गया है, वे हम में उन तक पहुँचने की चाह उत्पन्न नहीं करते अपितु एक बार हम वह चाहना स्वयं दिखावे तो वे उसे विकसित करते है और आगे बढाते है। वे वास्तव में एक महान शिक्षक है, गुरु

त्वमेव विद्या – आप ही हमारे लिए प्रचारित ज्ञान हैं। वे “ज्ञान” कैसे हो सकते है? वे वेदों के प्रदाता है जो वेद ज्ञान प्रदान करते है। क्यूंकी वेदों और वेदान्तों (उपनिषद, वेदों का अंतिम भाग) के विभिन्न भाग उनके नियंत्रण में है और वे ही इन वेदों द्वारा व्याख्यायित और प्रस्तावित तत्व है, इसलिए वे ही ज्ञान है।

द्रविणं त्वमेव – आप ही धन संपत्ति है। यहाँ संपत्ति से आशय मात्र धन से नहीं है अपितु वह सब वस्तु है जिनका हम आनंद लेते है– उदाहरण के लिए, माला, चन्दन का लेप, भोजन सामाग्री, संपत्ति आदि। और न केवल प्रत्यक्ष वस्तुएं अपितु अप्रत्यक्ष वस्तुएं भी संपत्ति है जैसे परभक्ति, परज्ञान, आदि (जो हमने चूर्णिका 5 में देखी है)। श्रीभगवान के उत्कृष्ट चरणकमल ही उन तक पहुँचने का मार्ग है और वे भी संपत्ति है।

त्वमेव सर्वं – जो भी अनकहा रह गया है वो सभी आप ही है।

मम देव देव –सब साधन त्याग कर आपके शरण हुआ हूँ, आप ही मेरे स्वामी हो मेरे नाथ हो। आप ही श्रीवैकुंठ में नित्यसुरियों और मुक्तात्माओं के स्वामी हो और आप मेरी भी नाथ हो।

आइए अब चूर्णिका 8 की और बढ़ते है।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

अंग्रेजी संस्करण – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-7/

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 6

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 5 – भाग 5

अवतारिका (भूमिका)

पेरियवाच्चानपिल्लै यहाँ पिछली पांच चूर्णिकाओं का संक्षिप्त बताते है।

जब कोई जीव भगवान् के समक्ष आश्रित होने के लिए पहुंचता है, उसमें भगवान के लिए अतीव त्वरित चाहना और यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि भगवान जीवको वह प्रदान करेंगे जिसकी प्रार्थना जीव ने की है । इन गुणों को प्राप्त करने हेतु श्रीरामानुज स्वामीजी द्वितीय चूर्णिका में श्रीअम्माजी से प्रार्थना करते है और फलस्वरूप श्रीअम्माजी उन्हें तृतीय और चतुर्थ चूर्णिका में वह गुण प्रदान करती है । फिर वे निश्चय करते है कि मात्र भगवान् श्रीमन्नारायण ही मोक्ष प्रदान करने में समर्थ है क्यूंकि इस कार्य के लिए अपेक्षित सभी गुण सिर्फ उनमें ही विद्यमान है । वे भगवान् के सभी दिव्य कल्याण गुणों का गुणगान करते है और उभय विभूतियों (नित्य और लीला विभूति) में स्थित भगवान् की सभी संपत्तियों को सूचीबद्धकरते है । यह निश्चित होने पर कि भगवान् ही एकमात्र मोक्ष के प्रदाता है और उस मार्ग का आशीष प्रदान करने वाले है, वे श्रीअम्माजी जो पुरुष्कारभूतै है, उनके साथ श्रीभगवान् के चरणों में शरणागति करते है । यह सब हमने पंचम चूर्णिका में देखा । अब हम छठवी चूर्णिका को देखेंगे ।

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श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ थोडा यह विचार कर संकोच करते है कि भविष्य में प्राणी यह विचार करेंगे कि वे शरणागति करने वाले प्रथम प्राणी है । लोग यह सोचेंगे कि शरणागति के विषय में शास्त्र क्या कहते है और श्रीरामानुज स्वामीजी के पहले के आचार्यजन ने शरणागति की या नहीं यह जानना आवश्यक नहीं है । इसलिए वे पुराणों (अनंत काल से निर्मित) और पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित शरणागति का उल्लेख करते है । पुराणों के दो श्लोकों से छठवी चूर्णिका का निर्माण हुआ है ।

शरणागति के द्वारा, जीव सब कुछ त्याग कर (उनके प्रति जो सब के आश्रय है इस संसार में) मात्र भगवान् के चरणार्विन्दों का आश्रय प्राप्त करता है । भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण चरम श्लोक (१८.६६वा श्रुति) में कहते है कि सभी धर्मों को त्यागकर मात्र मेरे शरणागत होकर रहो । पूर्वोक्त पांच चूर्णिकाओं में, श्रीरामानुज स्वामीजी ने इसका उल्लेख नहीं किया कि उन्होंने क्या त्याग किया । तब क्या बिना यह उल्लेख किये कि उन्होंने क्या त्याग किया, उनकी शरणागति व्यर्थ नहीं है? नहीं, वह व्यर्थ नहीं है । द्वय महामंत्र में भी, केवल यह उल्लेख है कि हमें किसका आश्रय/ सहारा प्राप्त करना है (भगवान् के चरण कमलों का) और यह उल्लेख नहीं है कि किसको त्याग करना है । हमारे पूर्वाचार्यों ने भी इसकी महत्ता नहीं दर्शायी जब भी कोई शरणागति करने आता । वे इसी से प्रसन्न थे कि अन्ततः प्राणी शरणागति स्वीकार कर भगवान् के आश्रित हुआ । भगवान् जीवों में यह देखते है कि वह संसार से घबराया हुआ है और भगवान् से मिलने की अतीव चाहना करने वाला है । भगवान् जीवात्मा में चाहना उत्पन्न नहीं करते परंतु उस चाहना को बढाने में सहायता अवश्य करते है ।

यह सब ध्यान में रखकर श्रीरामानुज स्वामीजी अब यहाँ यह समझाते है कि शरणागति के समय में किन किन का त्याग किया जाना चाहिए । यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि वे पुनः शरणागति करते है, शरणागति तो वे पहले ही कर चुके है । यह मात्र उस तथ्य पर ज़ोर देने के लिए है कि हमारे पूर्वाचार्यों ने भी यही बताया है और हमें यह समझाने के लिए कि हमसे ऐसा सुनकर भगवान् अत्यंत प्रसन्न होंगे ।

आईए अब चूर्णिका को देखते है

पितरं मातरं धारान् पुत्रान् बंधून् सखीन् गुरून् रत्नानिधनधान्यानिक्षेत्रानिचगृहाणिच
सर्वधर्मांश्चसंत्यज्यसर्वकामांश्चसाक्षरान् लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेऽव्रजं विभो ।।

विस्तारपूर्वक अर्थ –

प्रथम पंक्ति में वे उन तत्वों का उल्लेख करते है जो सभी चित (जो चेतन है) और द्वितीय में वे सभी जो अचित (जिनमें चेतन नहीं है) । हमारे संप्रदाय में, हम भगवान को ही उपाय मानते है (उन तक पहुंचाने वाला मार्ग) । कोई भी अन्य मार्ग जैसे कर्म योग (शास्त्रों द्वारा बताये गये कर्म अथवा धार्मिक कर्मों द्वारा निष्पादन) अथवा ज्ञान योग (भगवान के समबन्ध में ज्ञान से निष्पादन) अथवा भक्ति योग (भगवान के प्रति भक्ति से निष्पादन) इन सभी को उपयान्तर (भगवान के अतिरिक्त कोई और मार्ग) माना जाता है । इस चूर्णिका के प्रथम दो पंक्तियों में श्री रामानुज स्वामीजी द्वारा उल्लिखित सभी सत्त्व वे है जो उपयान्तर में सहायक है । यह सभी सत्व प्रयोजनान्तर है (भगवान जो सच्चे प्रयोजन है, उनको छोड़कर अन्य को आनंद जानना)।इसलिए प्रथम दो पक्तियों में दर्शाये गये सभी सत्वउपायांतर  औरप्रयोजनांतरदोनों है।इसलिए श्रीरामानुजस्वामीजी कहते है कि वे उन सभी का आश्रय त्याग करते है जो शरणागति के द्वारा भगवान तक पहुँचने मेंहमारे स्वरुप के विरोधी है।

पितृम् मातरम् – पिताजी और माताजी।यह थोडा विचित्रप्रतीत हो सकता है कि श्रीरामानुज स्वामीजी बताते है कि पिताजी और माताजी वे प्रथम व्यक्ति है जिन्हें त्यागना चाहिए यद्यपि शास्त्र कहते है “मातृदेवो भव:” और “पितृदेवो भव:” (माताजी और पिताजी भगवान के समान है)।पिताजी और माताजी भगवान के समान है, इसे भक्ति योगी{वह जो भक्ति मार्ग द्वारा मोक्ष की चाहना करता है} के लिए उपासन अंग (भक्ति को बल देने वाला) के रूप में प्रदर्शित किया गया हैयद्यपि जो शरणागति मार्ग द्वारा भगवान के समर्पित है, उनके हेतु माता पिता उपाय स्वरुप(भगवान को प्राप्त करने का मार्ग) है।हमें माताजी और पिताजी का त्याग केवल उपासन अंग के रूप में ही करना चाहिए न कि तब जब वे शरणागति द्वारा भगवान तक पहुँचाने में सहायक हो।

धारान – पत्नी।कोई अपनी पत्नी का त्याग कैसे कर सकता है जिसके साथ विवाह के समय अग्नि के सामने सात फेरे लिए? पत्नी को सहधर्मचारिणी (वह जो धर्म के मार्ग में सदा साथ रहती)भी कहा जाता है।यदि कोई मोक्ष प्राप्ति के साधन हेतु धर्म करता है,तब ऐसे धर्म का त्याग करना चाहिए।यदि पत्नी ऐसे धर्म (जिसे मोक्ष के साधनभूत किया जाता है) में सहायक हो, तब उसका भी त्याग करना चाहिए।परंतु यदि वह धर्म करने में कैंकर्य स्वरुप (भगवानकी सेवा भाव से) सहायक होती है, तब उसका त्याग नहीं करना चाहिए, यहाँ इसका यही सूक्ष्म अर्थ है।

पुत्र – बेटा।शास्त्रों में कहा गया है कि पुत्र की उत्पत्ति होने पर, पिता पुतु नामक नरक में जाने से बच जाते है।यदि कोई व्यक्ति भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने चेष्ठा करता है, तब उसे पुत्र उत्पन्न करना आवश्यक है अन्यथा उसे नरक की प्राप्ति होगी।ऐसे पुत्र को उपासन अंग कहा जाता है, जो भक्ति योग में सहायक है।यद्यपि यहाँ संदर्भ शरणागतिद्वारा भगवान तक पहुँचने का है, तब ऐसे पुत्र की कोई आवश्यकता नहीं है और उसे त्याग दिया जाना चाहिए।

बंधु – संबंधी।मोक्ष प्राप्त के लिए संबंधी सदैव भक्ति योग को लागूकरते है और इसलिएउपासनांगम कहलाते है ।पहले की ही तरह, जब कोई भगवान को शरणागति मार्ग द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है तो संबंधियों की आवश्यकता नहीं है और वे त्यागने योग्य है।कुछ स्थानों पर संबंधी बहुत समृद्ध होते है, वित्तीय अथवा सामाजिक तौर पे।किसी को उन समृद्ध जनों के सम्बन्धी होने का गर्व प्रलोभितकर सकता है, इस प्रकार वे प्रयोजनांतर के जाल में फंस जाते है (भगवान के अतिरिक्त कोई और आनंद का स्त्रोत)।यहाँ भी, वे त्यागने योग्य ही है।

सखी – मित्र/ दोस्त।मित्र भी किसी व्यक्ति को भक्ति योग के मार्ग में प्रेरितकरते है और इसलिए त्यज्य है ।और अधिक में मित्र से अत्यंत निकट रहने वाले व्यक्ति उन्हें अपना हितैषी मानते है और इस प्रकार मित्र भी प्रायोजनंतर है और त्यागने योग्य है।

गुरु – आचार्यअथवा शिक्षक। श्री रामानुजस्वामीजी के पांच गुरु थे और उनका सभी से अत्यंत प्रेम था।फिर वे कैसे किसी से अपने गुरु को त्यागने का अनुग्रहकर सकते है? जब एक गुरु मोक्ष हेतु भक्ति का मार्ग दिखता है, तब वह त्यागने योग्य है जैसा की हम पहले देख चुके है।गुरु को सांसारिक लाभ के लिए यज्ञ आदी करने में सहायता नहीं करनी चाहिए।ऐसे गुरु का त्याग करना चाहिए।

रत्नानी धन धान्यानि क्षेत्राणि च – रत्न, संपत्ति, अन्न भोजन, भूमि, आदि।ये सभी यज्ञ करने में सहायता करते है।और ये सभी सांसारिक भोगो के आनंद के लिये उपयुक्त है।इसलिए उन्हें उपायांतर और प्रायोजनांतर जानकर उनका त्याग करना चाहिए।

गृहानि च – घर।यह भी उपरोक्त वर्णित वस्तुओं के समान ही है।और यह उन सभी उपरोक्त वर्णित वस्तुओं के समबन्ध में सुरक्षा का असत्य भान भी देता है औरइसलिए उपायांतर के समान है।क्यूंकि यह सांसारिक सुख प्रदान करने वाला भी है इसलिए इसे त्यागना चाहिए।

सर्वधर्माम्श्च – शास्त्र में दर्शाये गए सभी धार्मिक मार्ग।यहाँ संदर्भ अन्य उपायों से है जैसे कर्म, ज्ञान, भक्ति योग।यहाँ शब्द सर्व का अर्थ है धर्म के अंगों से जैसे संध्यावंदन (देवता और संध्या को की गयी दिन की तीन प्रार्थना), तर्पण (वर्ष में कसी विशेष माह अथवा विशेष दिन पितरो के लिए किये गए संस्कार) आदि।

सर्व कामाम्श्च – सभी कामनाएं।संतान, सम्पाती आदि की कामना से लेकर स्वर्ग ऐश्वर्य और ब्रहम ऐश्वर्य पर्यंत (ब्रह्म का पद, जो सृष्टि रचना के देवता है)।या सब्भी कामनाएं त्यागने योग्य है।

साक्षर – क्षर का अर्थ है वह जिसका क्षय होता है। अक्षर अर्थात वह जिसका क्षय नहीं होता, यहाँ संदर्भ आत्मा से है और साक्षर अर्थात अपनी ही आत्मा का आनंद लेना, जिसे हमारे संप्रदाय में कैवल्य मोक्ष कहा जाता है (मोक्ष प्राप्त कर भगवान के दिव्य गुणों का अनुभव न करके आत्म की निम्न गुणों का अनुभव करना)।

संत्यज्य – लज्जा से इस भाव का त्याग करना कि हममें भगवान के पावन चरणों के सिवा ऐसी नीच वस्तुओं की अभिलाषा उत्पन्न हुई ।इस शब्द संत्यज्यको चित और अचित दोनों के लिए समान रूप से देखना चाहिए।

लोकविक्रांत चरणौ – भगवान के पावन द्वय चरण जिन्होंने वामन का अवतार लेकर, त्रिविक्रम (जिन्होंने तीन पग में तीन लोकों को नापा) रूप धारण कर सभी संसारों को अपने चरणार्विन्दों से नापा था।उन्होंने अपने पावन चरणों को उनके शीष पर स्थपित किया जिनकी भगवान के प्रति कोई विशेष प्रीतिभी नही थी और वे भी जो उनके विरोधी थे।उनका इस धरा पर वामन अवतार धारण कर आना इस बात का प्रतीक है कि वे ही संसार के स्वामी है, उनका स्वयं इस धरती पर अवतार लेना उनके सौशील्य को दर्शाता है, उनका हमारे शीष पर चरण रखना उनके वात्सल्य (आश्रितों के दोषों को भी उनके गुण जानना) को दर्शाता है, उनका स्वयं हमारे सामने आकर हम पर कृपा करना उनके सौलभ्य को दर्शाता है।यह सभी गुण केवल भगवान के ही है ।श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ उन भगवान की चर्चा करते है।

शरणं – अर्थात भगवान के पवन चरणारविन्दों को ही उपाय (मोक्ष का मार्ग) जानना

ते – आप।इसका उल्लेख स्वामी (नाथ) से है जिनके पाससभीलोकोंका स्वामित्व है। पिराट्टी (श्री महालक्ष्मीजी)जो भगवान से कभी पृथक नहीं होती उनका भी उल्लेख यहाँ किया गया है, उनके पुरुष्कारभूतै रूप का विचार करते हुए।

अव्रजम –आश्रय लेना।यहाँ इसका उल्लेख भगवान के पवन चरणों का आश्रय लेने से है ।

विभो – अर्थात भगवान का सर्वव्यापी रूप, जिसमें ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, आदि के सभी आवश्यक गुण है।

इसप्रकार श्री रामानुजस्वामीजी ने इस चूर्णिका में अत्यंत सुस्पष्टता से यह बताया है कि किसका त्याग करना चाहिए और किसका आश्रय ग्रहण करना चाहिए।

अब हम चूर्णिका 7 की और बढ़ते है ।

– अडियेन भगवती रामानुजदासी

अंग्रेजी संस्करण – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-6th-churnai/

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
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शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 5

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शरणागति गद्य

<< चूर्णिका 5 – भाग 4

namperumal-thiruvadiश्रीरंगनाथ भगवान के चरणकमल

आईये अब हम इस चूर्णिका के अंतिम भाग को जानते है-

अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर ! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विधित निखिल भूत जात याथात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरत ! अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूत ! निखिल जगदाधार ! अखिल जगत् स्वामिन् ! अस्मत् स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! श्रीमन्नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये II अत्र द्वयं II

अनालोचित विशेष अशेष लोक शरण्य – सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विशेष योग्यता से निरपेक्ष सभी प्राणियों के लिए मात्र भगवान ही शरणागतों के आश्रय है । वे यह विचार नहीं करते कि वह प्राणी किसी उच्च कुल में जन्मा अथवा धनवान या वेद / शास्त्र में निपुण है या नहीं । रामावतार में विभीषण भगवान की शरण में शरणागत होने के लिए आते है तब सुग्रीव द्वारा यह कहने पर कि भगवान को विभीषण को स्वीकार नहीं करना चाहिए, भगवान श्रीराम उनसे कहते है कि वे सभी को स्वीकार करते है फिर चाहे उनमें कोई भी दोष हो। श्री रामायण में एक श्लोक है, जिसे श्रीराम चरम श्लोक कहा जाता है, जिसमें भगवान कहते है कि “सभी शरणागतों की रक्षा करना, उनका संकल्प है”।

प्रणतार्तिहर प्रणत अर्थात् वे जो उनके शरणागत होते है । आर्ति अर्थात् भगवान के श्रीचरणों में सदा रहने की अतीव चाहना करनेवाले । हर अर्थात् हटाने/दूर करनेवाले । इसप्रकार, भगवान् अपने आश्रितों की आर्तता को दूर करके अपनी शरण में सभी को अपनाते है ।

आश्रित वात्सल्यैक जलधे – जैसा की हम पूर्व में देख चुके है, वात्सल्य अर्थात् अपने आश्रितों के दोषों को भी उनके सद्गुण जानना जैसे एक गाय अपने नए जन्मे बछड़े के शरीर की सभी गंद को चाटकर साफ करती है और उसे साफ़ बनाती है। जलधि अर्थात् सिन्धु । अपने आश्रितों पर भगवान् का जो वात्सल्य है वह सिन्धु के समान अपार है ।

अनवरतविधित निखिल भूतजात याथात्म्य – निखिल अर्थात् सभी। भूत अर्थात सभी तत्व । जात अर्थात प्रकार । अनवरत अर्थात् निरन्तर/ सतत (बिना रोक के); विधित अर्थात विभिन्न । याथात्म्य अर्थात सच्चा स्वरुप । वे सभी तत्वों के चरम सत्य को जानते है। भगवान के समक्ष जाने के लिए हमें यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि “मैं अच्छा प्राणी नहीं अथवा मुझ में अनंत दोष है” क्यूंकि वे पहले से ही हमारे विषय में सब जानते है।

अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरतअशेष अर्थात् कुछ भी छोड़े बिना; चराचरभूत अर्थात् सभी चल और अचल तत्व; निखिल अर्थात् सभी; नियमन् अर्थात संचालित/ नियंत्रण करने का सामर्थ्य; निरत अर्थात संलग्न होना । भगवान् सभी तत्वों को सभी समय संचालित और नियंत्रित करने का सामर्थ्य रखते है । वे किसी भी तत्व को यह कहकर नहीं त्याग सकते कि वह उनके नियंत्रण में नहीं है। श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ दर्शाते है कि यह संसार और वे स्वयं दोनों ही भगवान के आधीन है। तो क्या वह श्रीरामानुज स्वामीजी और संसार के मध्य की डोर को काट नहीं सकते?

अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूतचित और अचित, अर्थात् चल और अचल क्रमशः। शेषी अर्थात स्वामी/नाथ। वे सभी जगत् के स्वामी और नाथ है। यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी जो दर्शाना चाहते है वह यह कि जब भगवान् ही मेरे के स्वामी है, तब क्या उन तक पहुँचने के लिए जो आवश्यकता है वे स्वयं पूर्ण नहीं करेंगे?

निखिल जगदाधार – वे सभी जगत् के आधारभूत है। वे उनके भी रक्षक है, जो दोषों में निवृत्त है। आप ही मेरे अस्तित्व के आधार है और आप ही मेरी रक्षा करे, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

अखिल जगत् स्वामिन् – वे समस्त ब्रह्माण्ड के स्वामी है। वे हमारे दोषों को दूर कर हमारे ह्रदय में ये इच्छा जागृत करते है कि शरणागति मार्ग को अपनाकर हम उन तक पहुँच सके।

अस्मत् स्वामिन् – सिर्फ यही स्मरण करना कि भगवान ब्रह्माण्ड के स्वामी है, पर्याप्त नहीं है। मुझे यह स्वीकार करना होगा और उन्हें बताना होगा कि वो ही दास के भी स्वामी है। श्रीरामानुज स्वामीजी यह दर्शाने के लिए कि भगवान की ही प्रेरणा से मैं उन तक पहुंचा और शरणागति की, वे विशेष रूप से कहते है आप मेरे भी स्वामी है।

सत्यकाम – यह तृतीय बार है जब यह शब्द- सत्यकाम और इसके अगला शब्द – सत्यसंकल्प का उल्लेख किया गया है। परंतु हर अवसर पर यह शब्द भिन्न अर्थ और संदर्भ में प्रयोग किया जाता है। प्रथम बार जब श्रीरामानुज स्वामीजी ने भगवान के दिव्य गुणों के वर्णन हेतु इस शब्द का उपयोग किया था, तब इसका भावार्थ आश्रितों द्वारा इच्छित सद्गुणों को धारण करनेवाले भगवान् से था। द्वितीय संदर्भ में, यह भगवान की नित्य और लीला विभूतियों में जीवात्माओं को संचालित करने की इच्छा को प्रकट करता है। यहाँ (तृतीय बार), यह दर्शाता है कि भगवान ही है जिनकी कोई अभिलाषा अपूर्ण नहीं है। वे सभी इच्छाओं की पूर्णता से पूरी तरह से तृप्त है। दैनिक प्रार्थना (तिरुआराधन) और अनुष्ठानों में हम उन्हें जो भी अर्पण करते है, वे उसी से प्रसन्न हो जाते है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो उनके समक्ष नहीं है जिसे मैं अर्पण कर उन्हें संतुष्ट कर सकता हूँ।

सत्यसंकल्प – प्रथम बार में इस शब्द का प्रयोग उनके गुणानुवाद की युति में हुआ था, अर्थात् उन दुर्लभ वस्तुओं की रचना के सामर्थ्य से है जो कभी व्यर्थ नहीं होती। द्वितीय बार में इसका अर्थ था कि जब भी भगवान् किसी को मोक्ष (श्रीवैकुण्ठ) प्रदान करने का निर्णय करते है, वे बिना किसी बाधा के उसे पूर्ण करते है। यहाँ पर इस शब्द का अर्थ है वह योग्यता जिसके द्वारा विसंगत तत्वों को आपस में साथ रखा जाता है । वे जीवात्मा को श्रीवैकुण्ठ पहुंचाते है और उसे सभी नित्यसुरियों में संयुक्त करते है और फिर वे सभी जीवात्मा का प्रसन्नता से स्वागत करते है ।

सकलेतर विलक्षण – सभी अन्य तत्वों में श्रेष्ठ । वे स्वरुप और गुणों के संदर्भ में सभी से श्रेष्ठ है। उनके यह गुण और स्वरूप भी उनके आश्रितों के आनंद हेतु है और स्वयं भगवान् के लिए नहीं । वे सभी के रक्षक  है । यह गुण तभी पूर्ण है जब उनके गुणों का आनंद सभी प्राप्त करे । एक प्राणी की रक्षा ना हो पाए तो भगवान उसे गंभीरता से लेते है । इसलिए श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि चूँकि वे इस संसार में रहते हुए भगवान के दिव्य गुणों का आनंद नहीं ले पा रहे, तो भगवान् भी परिपूर्ण अनुभव नहीं करते होंगे।

अर्थी कल्पक – आश्रितों की अभिलाषा को पूर्ण करनेवाले, विशेष रूप से “स्वयं” । वे वामन बनकर महाबली चक्रवर्ती से दान याचना कर तीनों लोकों को पुनः प्राप्त करने गए जिन्हें इंद्र ने महाबली को दिया था । जब वे अपने अनुयायियों की संतुष्टि हेतु याचन की हद तक भी जा सकते है, तब क्या वे उन प्राणियों को मोक्ष प्रदान नहीं करेंगे जो उनसे मोक्ष के याचना करते है ?

आपत सखा – विपदा के समय में मित्र, अर्थात सहायक । यद्यपि रक्षा के समय माता- पिता और संबंधियों के द्वार भी बंद हो जाते है, परंतु भगवान ऐसा कभी नहीं करते (काकासुर की कथा) ।

श्रीमन्श्रीदेवीजी के स्वामी। यहाँ जिस संदर्भ को श्रीरामानुज स्वामीजी प्रदर्शित कर रहे है वह यह है कि यद्यपि भगवान हमारी त्रुटियों/ अपराधों के कारण हमसे क्रोधित हो सकते है, परंतु श्रीअम्माजी (श्रीदेवीजी) पुरुष्कार भूतै के रूप में हमारी सिफारिश करती है और भगवान से हमारी विनती की पूर्ति कराती है। इसलिए श्रीमन् 

नारायणश्रीदेवीजी के “पुरुष्कार भूतै” रूप से पूर्व, जब भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की क्या तब वह हमारे रक्षक नहीं थे? – श्रीरामानुज स्वामीजी हमें भगवान् के उस रूप के विषय में स्मरण कराते है।

अशरण्य शरण्य – उन प्राणियों को भी आश्रय प्रदान करते है जिनकी रक्षा के लिए अन्य कोई साधन नहीं है। क्या उनके समान कोई है?- श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है।

अनन्यशरणोहम् – अब मेरे पास कोई अन्य आश्रय नहीं है।

त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये – त्वत – आपके; पाद – चरण; अरविंदम – कमल समान (श्री चरणों की उपमा कमल से यह दर्शाने के लिए की गयी है कि वे मधुर है और सेवा करके उनकी मधुरता का आनंद प्राप्त किया जा सकता है) ; युगलं – जोड़ी; शरणं – समर्पित/ साष्टांग; प्रपद्ये – मान्सिक स्मरण। यहाँ श्रीरामानुज स्वामीजी कहते है कि वे स्वयं को भगवान के युगल कमल के समान कोमल श्रीचरणों में समर्पित करते है और द्वय महामंत्र का सदा जाप करते है (द्वय महामंत्र के विषय में अधिक जानकारी के लिए पाठकों से निवेदन है कि वे सद्गुरु आचार्य की शरण ले)

शरणागति मात्र एक बाह्य क्रिया अथवा प्रार्थना मात्र नहीं है। अपितु यह एक मान्सिक क्रिया है जिसके द्वारा शरणागति करने वाला प्राणी यह निश्चित प्रकार से स्वीकार करता है कि भगवान ही उसके रक्षक है और भगवान से विनती करता है कि उसे अपनी शरण में लेकर उसे भगवान और अम्माजी का नित्य अनंत अत्यंत आनंददायी दासत्व प्रदान करे।

अत्र द्वयं यह प्रकट करता है कि हमें इस समय में द्वय महामंत्र का जप करते रहना चाहिए (अनुकर्णीय रूप से, इस मंत्र का जप धीमे स्वर में ही किया जाना चाहिए, उतना कि वाचक उसका श्रवण कर सके)।

इसके साथ ही चूर्णिका 5 यहाँ समाप्त होती है। अगले अंक में हम चूर्णिका 6 को देखेंगे।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-5/

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 4

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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आईये अब हम उन अष्ट गुणों और अन्य कल्याण गुणों के विषय में जानने का प्रयास करेंगे है, जिनका वर्णन भगवद श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान की शरणागति करने के पूर्व करते है।

सत्यकाम !सत्यसंकल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम ! महाविभूते ! श्रीमन् ! नारायण ! श्रीवैकुंठनाथ ! अपारकारुण्य सौशील्य वात्सल्य औदार्य ऐश्वर्य सौंदर्य महोदधे ! अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर ! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विधित निखिल भूत जात याथात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियमन निरत ! अशेष चिदाचिदवस्तु शेषीभूत ! निखिल जगधाधार !अखिल जगत् स्वामिन् ! अस्मत् स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! श्रीमन् ! नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत् पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये II

आठ में से प्रथम चार गुण जिनका वर्णन आगे किया जायेगा, वे सभी जगत् की रचना करने की भगवान की योग्यता को दर्शाते है। अगले चार गुण शरणागति के मार्ग अर्थात् यह कि एक मात्र भगवान ही हमें मोक्ष  (श्रीवैकुंठ) प्रदान कर सकते है, इसे दर्शाते है। इसके अतिरिक्त सत्यकाम, सत्यसंकल्प और परब्रह्मभूत (जो अष्ट गुणों में से कुछ गुण है), वे चूर्णिका के लीला विभूति भाग (लौकिक जगत् / जिस संसार में हम रहते है) से संबंधित है। पुरुषोत्तम और नारायण उनके गुणों से संबंधित है। महाविभूते और श्रीवैकुंठनाथ  उनकी नित्य विभूति (श्रीवैकुंठ) से संबंधित है। श्रीमन्  दिव्य महिषियों (पट्टरानियाँ) से संबंधित चूर्णिका से संबध्द है। हमने इन आठ शब्दों का अर्थ पूर्व में भी देखा है।

सत्यकामकाम शब्द के बहुत से अर्थ है। इसका आशय उस से है, जो कुछ अभिलाषा करता है; इसका आशय अभिलाषा की वस्तु से भी है। इसके अतिरिक्त, काम अर्थात आकांक्षा भी है। पहले, श्रीरामानुज स्वामीजी ने काम  शब्द का प्रयोग नित्य विभूति (श्रीवैकुंठ) के संदर्भ में किया था। परंतु यहाँ वे इसका उपयोग भगवान के संदर्भ में करते है, जो प्रकृति, पुरुष और काल के स्वामी है और अपनी अभिलाषा की पूर्ति हेतु इनके साथ क्रीड़ा करते है (जैसा की हमने पूर्व कतिपय अनुच्छेदों में देखा), अर्थात् पूर्व में वह अभिलाषा के विषय में बताता है और यहाँ उसका संदर्भ स्वयं अभिलाषा से है। सत्य अर्थात् उनका नित्य स्वरुप। सृष्टि की वस्तुयें, आत्माएं, उसके आनंद-उपभोग की वस्तुयें, उपकरण जिनसे वह आनंद प्राप्त किया जाता है, समय – जो निर्धारित करता है कि वह आनंद का भोग कब और कैसे करेंगे – यह सब भगवान के लिए क्रीड़ा है। हम सोच सकते है कि जो वस्तु हमें इस संसार से बांधती है (लौकिक संसार), जो हमारे लिए मोक्ष प्राप्त करना दुष्कर बना देती है और जो भगवान को आवरित करके रखती है, वह वस्तु भगवान के आनंद के लिए कैसे है। परंतु यदि भगवान् इन सबकी रचना नहीं करते तब हम कल्पों (युगों) तक अचित्त पदार्थ के साथ उनके दिव्य विग्रह से सदा के लिए लिपटे रहते, उनके निवास, श्रीवैकुंठ तक पहुँचने की कोई आशा किये बिना। क्यूंकि वे संसारों को निर्मित करते रहते है, इसलिए ही वशिष्ट, शुक, वामदेव, आदि संत श्रीवैकुंठ पहुँचने में समर्थ हुए। हम भी यह आशा कर सकते है कि एक दिन इस लौकिक देह को त्यागकर और उनकी कृपा प्राप्त कर श्रीवैकुंठ पहुँच कर उनके श्रीचरणों में कैंकर्य प्राप्त करे। एक कृषक, अनेकों बार विभिन्न कारणों से हानि होने के पश्चाद भी अपनी भूमि पर कृषि करना नहीं छोड़ता। वह उसे इस आशा से करता रहता है कि किसी फसल से तो उसे लाभ प्राप्त होगा, उसी प्रकार जैसे पहले भी कभी हुआ था। भगवान द्वारा सृष्टि रचना/ पालन/ संहार का पुनरावृत्ति कार्य भी उसी समान है।

सत्यसंकल्प – अपने आश्रितों की अभिलाषा पूर्ति के लिए उनके आनंद हेतु अपने संकल्प मात्र से ही विषय की रचना करने की योग्यता। यहाँ सत्य  शब्द अपने आश्रितों को कभी निराश न करने की उनकी योग्यता को दर्शाता है। इस कार्य को करने के लिए उनके मार्ग में कोई बाधाएं नहीं है। जब ब्रह्मा (भगवान् की पहली रचना) ने सनक, सनतकुमार आदि की रचना की और उनसे सृष्टि रचना में सहायता मांगी, तब उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। इसप्रकार ब्रह्मा की रचना व्यर्थ हो गयी। उसीप्रकार जब ब्रह्मा से लुप्त हुए सभी वेद असुरों को प्राप्त हुए, ब्रह्मा ने भगवान के चरणों में गिरकर वेदों की रक्षा और पुनः प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। परंतु भगवान की रचना कभी व्यर्थ नहीं होती।

आईए अब हम 8 गुणों के विषय में देखते है।

सत्यकाम – इस शब्द से आशय, भगवान् का सभी नित्य वस्तुओं के स्वामित्व से है, वे वस्तुयें जो उस सृष्टि रचना में सहायक है या उसके पूरक है, जहाँ जीवात्मा भगवान् को प्राप्त करने के पूर्व विभिन्न रूप में जन्म लेती है।

सत्यसंकल्प – अपने संकल्प में दृढ़ रहना, जो कभी व्यर्थ नहीं होता। जब भगवान निश्चय करते है कि इस जीवात्मा को श्रीवैकुंठ प्रदान करना है, तब उनकी इच्छा पूर्ति में कोई बाधक नहीं हो सकता। जीवात्मा की इसमें एक भूमिका है, वह यह कि जीवात्मा को श्रीवैकुंठ प्राप्ति की त्वरित उत्कंठा होना चाहिए।

परब्रह्मभूत – भगवान् की विशालता कल्पना से परे है। वे कितने विशाल है? सम्पूर्ण ब्रह्मांड, अपनी समस्त आकाशगंगाओं सहित भगवान् के दिव्य विग्रह को सूचित करता है (उन्हें ब्रह्म  भी कहा जाता है; ब्रह्म  शब्द को ब्रह्मा  शब्द के साथ भ्रम नहीं करना चाहिए। ब्रह्मा, भगवान् के निर्देशानुसार सृष्टि की रचना करते है, परंतु ब्रह्म स्वयं भगवान् का संबोधन है)। वे इसप्रकार अत्यंत विशाल है। प्रलय के समय में, सभी चित और अचित को अपनी शरण लेते है। सृष्टि के समय वे यह संकल्प लेते है कि “मुझे बहुसंख्यक रूप प्राप्त हो” और इस प्रकार वे स्वयं विभिन्न विषय रूपों में विभाजित हो जाते है, जैसा की हम पहले देख चुके है (प्रकृति, पुरुष, काल, आदि)। यह सभी वस्तुयें उनके दिव्य विग्रह का अंश है। इससे हमें एक कल्पना प्राप्त होती है कि वे कितने विशाल है।

पुरुषोत्तम – पुरुषानाम उत्तम: अर्थात् पुरुषों (चित) में उत्तम। तीन प्रकार के पुरुष होते है – पुरुष:, उत्पुरुष:, उत्तर पुरुष:, और फिर भगवान जो उत्तम पुरुष: है। पुरुष: अर्थात बद्धात्मा, जो इस संसार में बंधे हुए है (लौकिक संसार)। उत्पुरुष: अर्थात मुक्तात्मा, जो इस संसार सागर से छूटकर श्रीवैकुंठ पहुंचे है। उत्तर पुरुष: अर्थात नित्यात्मा, वह जो संसार में कभी जन्मे नहीं और सदा ही श्रीवैकुंठ में निवास करते है (आदिशेषजी, विष्वक्सेनजी, गरुड़जी, आदि)। उत्तम पुरुष: अथवा पुरुषोत्तम, भगवान है, सभी पुरुषों में श्रेष्ठ। यद्यपि वे सभी तीन प्रकार के चित्त जीवों में निवास करते है (बद्ध, मुक्त, और नित्य जीवात्मा) और तीन प्रकार की अचित अवस्थाओं में भी (शुद्ध सत्व, मिश्र सत्व अर्थात सत्व, रज और तम का मिश्रण और काल तत्व अर्थात समय), इनकी अशुद्धता उन्हें प्रभावित नहीं करती। वे अपने आश्रितों की सभी अशुद्धताओं को दूर करते है। इसके अतिरिक्त वे हम सभी में व्याप्त है, वे हम सभी को संभालते है और वे सभी के स्वामी है। वे हमें वह सभी प्रदान करते है जिसकी हम चाहना करते है। वे ही पुरुषोत्तम है।

महाविभूते – सभी विभूतियों (संसारों) के स्वामी। हम पहले ही उनकी विभूतियों के विषय में चर्चा कर चुके है। तब फिर से उन्हें दोहराने का क्या उद्देश्य? पहले हमने देखा विभूतियों में क्या क्या सम्मिलित है। अब वे इस बात पर बल देते है कि भगवान अपनी सभी संपदा प्रदान करेंगे (हम यह गुण पहले औदार्य  में देख चुके है)। जब एक आश्रित उनकी चाहना करता है तब भगवान् उसे सब कुछ प्रदान करते है, यहाँ तक की स्वयं को भी प्रदान करते है। वे आश्रित के साथ, श्रीवैकुंठ में, सदा विराजमान रहते है, उसे कैंकर्य अनुभव प्रदान करते है (भगवान के कैंकर्य का उत्तम अनुभव)।

श्रीमन् – भगवान् और श्रीजी दोनों का ही कैंकर्य किया जाता है। जीवात्मा के श्रीवैकुंठ पहुँचने पर और मुक्तामा होने पर, वह भगवान और श्रीजी दोनों का ही कैंकर्य का आनंद प्राप्त करता है।

नारायण – असंख्य कल्याण गुणों के धारक, दोष रहित और इन गुणों को अपने आश्रितों को प्रदान करने वाले जिससे आश्रितों को आनंद और कैंकर्य की प्राप्ति हो। इसलिए, कैंकर्य सदा दिव्य दंपत्ति (भगवान् और श्रीजी) के लिए किया जाता है।

श्रीवैकुंठनाथ – श्रीवैकुंठ के स्वामी, जो कैंकर्य के लिए उपयुक्त स्थान।

उपरोक्त 8 गुणों में से, प्रथम 4 गुण (सत्यकाम, सत्यसंकल्प, परब्रह्मभूत, पुरुषोत्तम) भगवान् के सृष्टि रचना की योग्यता का गुणगान करते है और अगले 4 (महाविभूते, श्रीमन, नारायण, श्रीवैकुंठनाथ) यह महत्त्व बताते है कि भगवान् ही वह परमात्मा है, जिन्हें प्राप्त करना और कैंकर्य के द्वारा प्रसन्न करना ही जीवात्मा का धर्म है। इसप्रकार वे ही रचयिता और आनंद के विषय भी है । अब श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान की शरणागति के पहले उनके अन्य 24 गुणों का उल्लेख करते है। अन्य 24 गुणों के वर्णन की क्या आवश्यकता है, जब वे पहले ही इतने सारे गुणों का वर्णन कर चुके है? इसका उत्तर है कि हम उनकी ही शरणागति करते है, जो महान गुणों के धारक है। जिनके शरणागत होना है यदि वे गुण रहित है, तब हम कैसे शरणागति कर सकते है? इसलिए शरणागति से पहले ही उनके सभी गुणों की चर्चा करना प्रथागत है। यहाँ तक कि द्वय महामंत्र  में (रहस्य त्रय का एक भाग, जो हमारे आचार्यजन पीढ़ियों से हमें सिखाते है), हम कहते है कि हम श्रीमन्नारायण भगवान् की शरणागति करते है, जहाँनारायण  से आशय है वे जिनमें सभी महान गुण विद्यमान है। इसलिए भगवान के गुणों का बारम्बार गुणगान करना असंगत नहीं है।

अगले गुणों में (अपार कारुण्य, सौशील्य, वात्सल्य, औदार्य, ऐश्वर्य सौन्दर्य महोदधे), “अपार ” (महान / असीमित) शब्द का उपयोग सभी 6 गुणों के साथ किया गया है।

अपार कारुण्यकारुण्य अर्थात कृपालु – जो दूसरों की पीढ़ा को सहन न कर सके। यही अपार कारुण्य कहलाता है, जब भगवान् रावण जैसे राक्षस पर भी कृपा करते है (श्रीलंका में राक्षसों का राजा, जिसने सीताजी का हरण कर प्रभु श्रीराम और सीताजी को अलग किया)– यह दृष्टान्त श्री रामायण में वर्णित है कि जब विभीषण सिन्धु पार कर श्रीराम की शरणागति करने आते है, तब श्रीराम के मित्र वानरराज सुग्रीव कहते कि श्रीराम को विभीषण की मित्रता स्वीकार नहीं करनी चाहिए क्यूंकि विभीषण भी एक राक्षस है और रावण का भाई है। श्री राम उन्हें यह कहकर विश्वास दिलाते है कि यदि स्वयं रावण भी उनकी शरणागति करता, तब वे उसे भी स्वीकार करते। यहाँ पेरियावाच्चान पिल्लै, श्री आचार्य जिन्होंने गद्यत्रय के लिए व्याख्यान की रचना की, उल्लेख करते है कि श्रीरामानुज स्वामीजी यहाँ ऐसा भाव प्रकट करते है कि भगवान् ने उन पर ऐसी कृपा वृष्टि की जिससे उन जैसे निम्न मनुष्य भी गद्यत्रय जैसे रत्न की रचना करने में योग्य हुए (यद्यपि यह पूर्णतः असत्य है, परंतु फिर भी हमारे गुरु आचार्यजन, बिना अपवाद के, स्वयं को निम्न जानते-मानते है, यह एक गुण है जिसे नैच्यानुसंधान कहा जाता है अर्थात् स्वयं को सबसे निम्न जानना-मानना, यद्यपि यह सत्य नहीं है)।

सौशील्य – ऐसी उदारता प्रकट करना जिसमें एक श्रेष्ठ व्यक्ति अपने से निम्न की मित्रता स्वीकार करता है। रामावतार में भगवान ने गुह, सुग्रीव और विभीषण से मित्रता की। यह “अपार सौशील्य “ कहलाता है जब भगवान् मत्स्यावतार, कूर्मावतार, वराहावतार में मत्स्य, कूर्म, वराह क्रमशः आदि से मित्रवत होते है, स्वयं को उन के समान प्रकट करने के लिए।

वात्सल्य – भगवान् का वह गुण जिसमें वे अपने आश्रितों के दोषों को भी उनके सद्गुण जान कर उनसे प्रीति करते है। अपार वात्सल्य  से यहाँ संदर्भ है उस गुण से जिसके कारण भगवान् अपने शत्रुओं से भी वात्सल्य  से व्यवहार करते है। उदहारण के लिए, भगवान ने युद्ध में रावण का संहार किया जिससे वह और अपराध न कर सके ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक माता शीघ्रता से अपने बलाक के हाथ से छड़ी छुडा लेती है ताकि बालक स्वयं को चोट न लगा ले।

औदार्यभगवान अपने स्वरुप अनुसार ही अपने आश्रितों (जो उनके शरणागत है) को उनके सभी इच्छित प्रदान करते है। अपार औदार्य अर्थात् इतना सब इच्छित प्रदान करने के पश्चाद भी यह ग्लानी करना की वे अपने आश्रितों को कुछ भी प्रदान नहीं कर पाए। कृष्णावतार में भी उन्होंने यह गुण प्रकट किया और ग्लानिभाव से कहते है कि धृतराष्ट्र की सभा में वस्त्र हीन होने पर शरणागति करने वाली द्रौपदी के लिए कुछ न कर सके। भगवान् ने उनके पतियों (पांच पांडवों) का पक्ष लेकर उन्हें उनका राज्य लौटाया। परंतु फिर भी वे ग्लानी भाव से कहते है उसके रुदन के उपरान्त भी वे उसकी सहायता नहीं कर सके।

ऐश्वर्य – ऐसी संपत्ति जिससे वे अपने आश्रितों को उनके इच्छित प्रदान करते है। अपार ऐश्वर्य अर्थात् अपने आश्रितों को इतना अधिक प्रदान करना जिससे वे आश्रितजन अन्य की भी सहायता कर पायें।

सौंदर्यम् – सुंदरता। अपार सौन्दर्यं अर्थात् ऐसी सुंदरता की शत्रु भी मोहित हो जाये (जैसे रामावतार में सुर्पनखा, रावन की बहन)। जब श्रीराम विभिन्न ऋषियों से भेंट करने के लिए वन वन विचरण करते है (14 वर्ष के वनवास में) तब ऋषिजन उनके रूप पर मोहित हो जाते थे। ऐसा उनका सौंदर्य था। वे अपने रूप से सभी देखनेवालों के मन और विचारों को चुरा लेते थे।

महोदधे – महान सिन्धु। भगवान में ऐसे गुण है जो सबसे बड़े सिन्धु से भी अधिक बड़े है।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 3

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

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पिछले अंकों में हमने भगवान के स्वरुप (प्रकृति), रूप गुण (दिव्य विग्रह के गुण), आभूषणों, आयुधों, और महिषियों के विषय में किये गए वर्णन को देखा। अब हम श्रीवैकुण्ठ और लीला विभूति में उनके आश्रितों के विषय में जानेंगे।

आईए हम चूर्णिका के उस भाग को पुनः देखते हैं जिसमें इन द्वय विभूति में उनके आश्रितों के विषय में चर्चा की गयी है –

स्वच्छन्दानुवर्ती स्वरूपस्थिति प्रवृत्ति भेद अशेष शेषतैकरतिरूप नित्य निरवद्य निरतिशय ज्ञानक्रियैश्वर्याद्यनन्त कल्याण गुणगण शेष शेषासन गरुड़ प्रमुख नानाविधानन्त परिजन परिचारिका परिचरित चरणयुगल ! परमयोगी वाङ्गमनसा परिच्छेद्य स्वरूप स्वभाव स्वाभिमत विविध विचित्रानन्त भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्ध अनन्ताश्चर्य अनन्त महाविभव अनन्त परिमाण नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुण्ठनाथ ! स्वसंकल्प अनुविधायि स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति स्वशेषतैक स्वभाव प्रकृति पुरुष कालात्मक विविध विचित्रानन्त भोग्य भोक्तृ वर्ग भोगोपकरण भोगस्थानरूप निखिल जगदुदय विभव लय लील !

वर्णन: 

स्वच्छन्दानुवर्ती – अब श्रीरामानुज स्वामीजी श्रीवैकुण्ठ में निवास करने वाले जीवों के विषय में बताते है, जिनके जीवन का सार ही भगवान और श्रीजी के चरणों का कैंकर्य है। नित्यसुरिजन (सदा श्रीवैकुण्ठ में निवास करते है और जिन्होंने कभी लीला विभूति में जन्म नहीं लिया) मात्र भगवान के मुख को निहारते (भगवद्मुखोल्लास) हुए कैंकर्य करते है, यह जानते हुए कि भगवान की अभिलाषा क्या है, बद्धात्माओं के विपरीत जिन्हें भगवान द्वारा यह बताने की आवश्यकता होती है कि वे किस प्रकार का कैंकर्य करे।

स्वरुप स्थिति प्रवृत्ति भेदभगवान ऐसे अधिकारी का निर्णय करते है, जिन्हें वे कैंकर्य प्रदान करेंगे। उन अधिकारियों के स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति के विषय में यहाँ चर्चा की गयी है। स्वरुप से आशय है उन अधिकारी का मूल स्वभाव, स्थिति से आशय है उनका आधार (जो उनके जीवन का आधार है) और प्रवृत्ति से आशय से है उनके कार्य। भेद अर्थात इन सभी में अंतर स्थापित करना।

नित्यसूरियों के संदर्भ में, भगवान की इच्छा अनुसार उनका कैंकर्य करना ही उनका स्वरुप है। उनकी स्थिति यह है कि भगवान का कैंकर्य करना ही उनका जीवन है (कैंकर्य ही उन्हें आधार प्रदान करता है) और प्रवृत्ति उस कैंकर्य में तत्परता से लीन होना । वे ये सभी कैंकर्य भगवान के मुखारविंद के भावों को ध्यान में रखकर, उनके प्रेम के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए और यही उस स्थान पर उनका धर्म है, ऐसा जानकार करते है। हमारी तरह उन्हें उनके कैंकर्य के लिए स्मरण नहीं कराना पड़ता।

अशेष शेषतैकर अतिरूप – अत्यंत प्रेम और श्रद्धा से अभिभूत, सभी कैंकर्य करने वाले, कुछ न छोड़ने वाले अवतार के समान। जब भगवान चाहते है कि यह कैंकर्य हो, तब नित्यसूरी सम्पूर्णत: तन्मयता से उस कैंकर्य में रत हो जाते है, जिससे ज्ञात होता है कि वे उस निष्ठा के प्रतीक है, जिस निष्ठा से कैंकर्य किया जाना चाहिए।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी उन नित्यसूरियों के गुणों के विषय में बताते है जो ऐसे कैंकर्य करते है।

नित्य – मुक्तात्माओं से पृथक, (जो संसार से श्रीवैकुण्ठ जाते है), नित्यसूरियों को ज्ञान आदि जैसे गुण भगवान द्वारा नित्य के लिए प्रदान किये जाते है।

निरवद्य– बिना किसी दोष के। कैंकर्य भगवान की प्रसन्नता के लिए है, नित्यसूरियों के आनंद के लिए नहीं।

निरतिशय ज्ञान – नित्यसूरियों में शेष/ सेवक होने का ज्ञान है, वे कैंकर्य करने के लिए निर्मित है, वे अनुयायी है और भगवान ही एकमात्र स्वामी है; वे भगवान की संपत्ति है और भगवान ही उनके नाथ है; नित्यसुरियों में यह ज्ञान पुर्णतः उदित और प्रशस्त है।

क्रिया – अपने कार्यों द्वारा यह प्रकट करना कि वे वास्तव में भगवान के शेष/ सेवक है। इसमें प्रथम भाग यह ज्ञान है कि हम सेवक है। द्वितीय भाग है कैंकर्य के लिए भगवान से विनय करना और तृतीय भाग है कैंकर्य करना। तृतीय भाग से वह पूर्ण होता है।

ऐश्वर्य – अन्य नित्यसुरियों और मुक्तात्माओं को कैंकर्य के प्रति निर्देशित करना। यद्यपि श्रीवैकुण्ठ में सभी मुक्तात्मा यह भली प्रकार समझते है कि क्या कैंकर्य करना चाहिए, तथापि वे ऐसी अपेक्षा करते है कि उन्हें आज्ञा हो कि कैंकर्य कैसे किया जाना है। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि ऐसी आज्ञा प्राप्त करने के पश्चाद ही उनके स्वरुप की पुष्टि होती है।

आदि – बहुत से अन्य ऐसे गुण, जो इस शब्द द्वारा संकेतिक है, परंतु विशेषतः उनका वर्णन नहीं किया गया है।

अनंत – उनके द्वारा किये जाने वाले कैंकर्य की कोई गिनती नहीं है।

गुणगण – गुणों का भण्डार

शेष – तिरुवनन्ताल्वान। शेषनागजी – भगवान के आसन।

शेषासन – विष्वक्सेनजी। भगवान की सेना के सेनाधिपति।

गरुड़ – पक्षिराज। भगवान के वाहन।

प्रमुख – इन नित्यसूरियों से प्रारंभ करके

नानाविध – विभिन्न कैंकर्य करने पर आधारित विभिन्न प्रकार की श्रेणी के नित्यसूरीगण। इस शब्दावली में श्रीवैकुण्ठ की बाहरी और भीतरी परिधि के सभी संरक्षकगण, सेना के संरक्षक आदि निहित है।

अनंत परिजनश्रीवैकुण्ठ में अनंत कैंकर्यपरारगण है जैसे शेषजी, शेषासनजी, गरुडजी, आदि जिस प्रकार वहां अनंत गुण है।

परिचारक परिचरित चरणयुगल – उन दिव्य युगल चरणों के धारक (चरणयुगल) जिनका ऐसे नित्यसुरिजन, अपने सहचरियों सहित असीम अनंत कैंकर्य करते है।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान के निवास, श्रीवैकुण्ठ का वर्णन करते है।

परमयोगी – महान संत (जैसे सनक, सनातन, आदि)

वांगमानस – उनके वचन और मानस।

अपरिछेद्य – जिस तक पहुंचा नहीं जा सकता।

स्वरूप स्वभाव –  महान संत कहते है कि श्रीवैकुण्ठ पांच उपनिषदों, (पवित्र/ शुद्ध/ अध्यात्मिक तत्वों) अथवा पूर्ण शुद्धसत्व से निर्मित है। परंतु वे उसके स्वरुप अथवा स्वभाव का पूर्ण रूप से वर्णन नहीं कर सकते। श्रीवैकुण्ठ नित्य है परंतु भगवान अपने संकल्प मात्र से उसे परिवर्तित कर सकते है। वह पांच उपनिषदों से निर्मित है और उसे विशेष तत्व द्वारा निर्मित नहीं समझा जाना चाहिए। क्यूंकि यह विशेष तत्व से निर्मित नहीं है, इसे नित्य जानना चाहिए।

स्वाभिमत – भगवान द्वारा पसंद किया जाने वाला और उनके ह्रदय के अत्यंत समीप

विविध विचित्र – विभिन्न प्रकार के

अनंत – जिसका कोई अंत नहीं है

भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्धभोग्य अर्थात वह तत्व जिसका आनंद लिया जाता है (जैसे दिव्य संगीत अथवा दिव्य भोजन अथवा पुष्पों से दिव्यसुगंध)। भोगोपकरण अर्थात वह उपकरण जिसके द्वारा किसी तत्व का आनंद प्राप्त किया जाता है (उपरोक्त उदहारणो में उल्लेखित दोषरहित वाणी, गलमाल)। भोगस्थान अर्थात वह स्थान जहाँ उस तत्व का भोग किया जाता है। वह कोई मण्डप हो सकता है अथवा कोई बागीचा। श्रीवैकुण्ठ इन सब तत्वों से परिपूर्ण है।

अनंत आश्चर्य – वहां ऐसी अगणित अद्भुत वस्तुएँ है। वे नयी प्रतीत होती है परंतु वे वहां अनंत समय से है।

अनंत महाविभव – अगणित संपत्ति (यहाँ संपत्ति का आशय श्रीवैकुण्ठ में विद्यमान नदियाँ, ताल, तलाब, बागीचे, आदि से भी है)

अनंत परिमाण – ऐसे परिमाणों से निर्मित जिसकी कोई कल्पना नहीं कर सकता।

नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुंठनाथभगवान जो इस स्थान (श्रीवैकुण्ठ) के स्वामी है, जो नित्य, दोषरहित और अद्भुत है।

श्रीरामानुज स्वामीजी अगले भाग में लीला विभूति में श्रीभगवान की संपत्ति के विषय में वर्णन करते है और फिर द्वय विभूतियों (श्रीवैकुण्ठ और लौकिक संसार) के नायक श्रीभगवान के चरणों में शरणागति करते है।

स्वसंकल्प– लीला विभूति में सभी कार्य भगवान के संकल्प के द्वारा होते है। इसके विपरीत श्रीवैकुण्ठ के लिए श्रीरामानुज स्वामीजी स्वछंदानुवर्ती शब्द का उपयोग करते है (उनके मनोभावों के अनुसार कार्य करते है), और हम यह जानते है इन दोनों विभूतियाँ, नित्य और लीला और यहाँ निवास करने वाले प्राणी एक दुसरे से अत्यंत भिन्न है। अन्य शब्दों में, हम लीला विभूति में मात्र भगवान के आदेशानुसार कार्य करते है, उनके मनोभाव के अनुसार नहीं। उनकी नित्य विभूति मात्र उनके आनंद और प्रसन्नता के लिए है और वहीँ लीला विभूति उनके आनंद के लिए है। इसीलिए वे लीला विभूति में रचना और संहार करते है (मध्य में रक्षण भी) यद्यपि नित्य विभूति सदा एक समान रहती है, जैसा की उसके संबोधन में नित्य कहा गया है।

अनुविधाई – उनके संकल्प का पालन करना।

स्वरुप स्थिति प्रवृत्ति – हम पहले भी देख चुके है कि स्वरुप मूलभूत प्रवृत्ति है; स्थिति वह है जिससे उनका आधार है और प्रवृत्ति उनकी क्रिया है।

श्रीरामानुज स्वामीजी अब (तीन स्थितियों) प्रकृति, पुरुष और काल तत्व के विषय में त्रय विशेषताओं का वर्णन करते है। प्रकृति मूलभूत अचित तत्व है। पुरुष से आशय सभी जीवात्माओं से है और काल अर्थात समय। हमें इन तीन स्थितियों के स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति के विषय में आगे देखना चाहिए।

प्रकृति- सत्व, रज, और तमस से निर्मित है। उसकी परिमित असीमित है, अद्भुत है (वह निरंतर परिवर्तित होती रहती है– वह एक दिन विद्यमान रहती है और अगले ही दिन अदृश्य हो जाती है, वह कभी एक समय सत्य का दर्शन कराती है और वहीँ अन्य समय असत्य का भी)।

प्रकृति का स्वरुप अचित है, वह सत्व, रज, तम, तत्वों से निर्मित है।

प्रकृति की स्थिति – इस भौतिक संसार में जीवात्मा के आनंद उपभोग अथवा इस लौकिक जगत से मोक्ष प्राप्त कर आध्यात्मिक जगत (श्रीवैकुण्ठ) तक पहुँचने का साधन है। अन्य शब्दों में, प्रकृति जीवात्मा को ऐसी स्थिति प्रदान करती है जहाँ वह अपने पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से वह सब आनंद प्राप्त करता है जो वह चाहता है और निरंतर जन्म मरण के चक्र में चलता रहता है अथवा उस स्थान का सदा भगवान के ध्यान/ चिंतन में उपयोग करता है, उनके श्रीचरणों में शरणागति करता है और श्रीवैकुण्ठ को प्राप्त करता है।

प्रकृति की प्रवृत्ति – ऐसे स्थानों को प्रदान करना है जैसे दिव्य देश अथवा निदियाँ और ऐसे जीवात्माओं को प्रदान करना, जो अराधना करे अथवा भगवान का ध्यान मनन करे। यह जीवात्मा को सभी कार्य करने के लिए आवश्यक सामग्री प्रदान करती है।

जीवात्मा का स्वरुप, अचित तत्व से भिन्न है। अचित निरंतर परिवर्तनशील है यद्यपि जीवात्मा परिवर्तनशील नहीं है। अचित में कोई ज्ञान नहीं यद्यपि जीवात्मा में है। हालाँकि जीवात्मा सदा अचित से सम्बंधित है।

जीवात्मा की स्थिति – भोजन और जल है। जीवात्मा को अपने पोषण हेतु एक भौतिक देह की आवश्यकता है और उस देह के पोषण के लिए भोजन और जल की। देह के बिना जीवात्मा की स्थिति नहीं है।

जीवात्मा की प्रवृत्ति – उन कार्यों में रत होने की है जिनका परिणाम पाप या पुण्य है।

काल स्वरुप अचित है; वह ज्ञान रहित है। उसे सत्य शुन्य भी कहा जाता है

काल की स्थिति यह है कि वह चित और अचित दोनों को ही परिवर्तन हेतु दिशा और गति प्रदान करता है। इससे यह प्रतीत होता है कि एक जीवात्मा उस देह को त्यागती है और एक फूल उस पेड़ से गिरकर सुख जाता है।

काल की प्रवृत्ति – स्वयं को पल, क्षण, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, अयन, वर्ष आदि (समय के विभिन्न माप) के द्वारा प्रकट करना है

स्वशेषतैक स्वभाव – सदा भगवान के नियंत्रण में रहना और मात्र उनके ही सेवक बनकर रहना और किसी के नहीं।

प्रकृति पुरुष कालामक – जैसा की उपरोक्त उल्लेखित है, प्रकृति, जीवात्मा और काल, प्रत्येक अवस्था का अपना स्वरुप, स्थिति और प्रवृत्ति है।

विविध – विभिन्न प्रकार के

विचित्र – अद्भुत

अनंत – जिसका कोई अंत नहीं है

भोग्य – उपभोग के लिए उपयुक्त

भोकथ्रूवर्ग – उपभोग आनंद हेतु विभिन्न प्रकार की सामग्री की उपलब्धता

भोगोपकरण – विभिन्न उपकरण जिनके द्वारा इन्हें प्रयुक्त किया जाता है

भोगस्थान – स्थान जहाँ सामग्री का उपभोग किया जाता है

रूप – लीला विभूति का रूप उपरोक्त वर्णित सभी वस्तुओं से निर्मित है

निखिल जगत उदय विभव लय लीला – सभी जगत के रचयिता, पालक और संहारक है, यह सब उनकी लीला का अंश है

इसके साथ श्रीरामानुज स्वामीजी नारायण शब्द के अर्थ के वर्णन को पूर्ण करते है। संक्षेप में, वे प्रथम चूर्णिका में श्रीजी की शरणागति करते है। अगली चूर्णिका में वे परभक्ति, परज्ञान और परम भक्ति (भगवान के साथ होने पर उदित अवस्था में और भगवान से वियोग होने पर उदासीन, उनके साक्षात दर्शन करना और उनके साथ रहने पर ही जीवित रहना, क्रमशः) के साथ नित्य कैंकर्य की विनती करते है। तृतीय और चतुर्थ चूर्णिका के माध्यम से, श्रीजी उनकी विनती सुन उन्हें सभी कुछ प्रदान करती है। पंचम चूर्णिका में, वे उन परमात्मा का वर्णन करते है, जिनके चरणों में शरणागति की जानी चाहिए। जिसप्रकार वेद कहते है कि सृष्टि, पोषण और संहार के एक मात्र कारक, भगवान का निरंतर ध्यान करना चाहिए, श्रीरामानुज स्वामीजी भी देखते है कि उन सभी महान गुणों के धारक कौन है और इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि वह परमात्मा सिर्फ नारायण ही है, क्यूंकि सभी प्राणी जिन्हें “नारा:” शब्द से संबोधित किया जाता है: वे उनकी ही शरण लेते है (अयन)। फिर वे वर्णन करते है कि “नारा:” किन शब्दों के से निर्मित है और भगवान का स्वरूप, रूप और गुण क्या है। फिर हमने भगवान के गुणों को देखा, उनके दिव्य विग्रह, उनके गुण, उनके आभूषणों, उनके आयुधों आदि के विषय में वर्णन को देखा। फिर, श्रीरामानुज स्वामीजी उनकी दिव्य महिषियों के विषय में वर्णन करते है जो भगवान के सम्पूर्ण आभायमान गुण और स्वरुप का सदैव रस पान करती है। तद्पश्चाद वे श्रीवैकुण्ठ में निवास करने वाले सभी जीवों का वर्णन करते है (नित्यसुरीजन), श्रीवैकुण्ठ की विशेषताएं, उस जगत की विशेषताएं जिसकी रचना/ पालन/संहार भगवान ही करते है (इस भाग में अभी तक जो हमने देखा)। अब जो शेष है वह है शरणागति करना। शरणागति को सुगम बनाने हेतु वे “अपार कारुण्य” से प्रारंभ होने वाले गुणों का वर्णन करते है। इसके मध्य वे अष्ट गुणों को भी अंकित करते है। अब तक उन परम/ श्रेष्ठ गुणों और उस विशेष तत्व के स्वरुप को वे भली प्रकार से जान चुके है जिनकी शरण उन्हें प्राप्त करनी है, फिर वे इन गुणों का वर्णन किसलिए करते है? इसका कारण है कि यह अष्ट गुण उन गुणों के पूरक है, जो शरणागति करने के लिए आवश्यक है (“अपार कारुण्य “ से प्रारंभ करके)। इसके अतिरिक्त उन्होंने पहले भगवान के विभिन्न गुणों का वर्णन किया है (जैसे गांभीर्य, औधार्य, मार्धव, आदि)। आगे कहे जानेवाले आठ गुण इस उपरोक्त गुणों के परिष्कृत रूप का वर्णन करते है, सत्यकाम, सत्य संकल्प आदि से प्रारम्भ करते हुए। इसके अतिरिक्त जिनकी शरण हमें होना है, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा और गहरा विश्वास प्राप्त करने हेतु हमें यह जानना आवश्यक है कि वे इन सभी गुणों को धारण करने वाले है, जो इस कार्य में समर्थक होंगे। उस आठ गुण वह कार्य करते है, ऐसा श्रीरामानुज स्वामीजी समझाते है।

भगवान ने लीला विभूति की रचना की उस समय से लेकर जिस समय तक जीवात्मा कैंकर्य प्राप्त कर भगवान के चरणों तक नहीं पहुँच जाता, उस समय तक अष्ट गुणों के माध्यम से भगवान सभी नियंत्रित करते है। आईये अब चूर्णिका 5 के अगले भाग में हम इन अष्ट गुणों के वर्णन और श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा शरणागति करने के विषय में देखते है।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-3/

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 2

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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अब हम उनके स्वरुप के गुणों के विषय में जानेंगे। जिस प्रकार उनके रूप (विग्रह) के गुण, रूप के सुंदर आभूषणों के समान है, उसी प्रकार उनके स्वरुप के गुण भी उनके स्वरुप के आभूषणों के समान है।

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स्वाभाविक – प्राकृतिक; जिस प्रकार जल का निमित्त स्वभाव ठंडा है, उसी प्रकार भगवान के विषय में भी उनके स्वरुप के सभी गुण प्राकृतिक, नैसर्गिक है।

अनवधिकातिशय – उनके गुण अपरिमित है, जिनकी कोई सीमा नहीं है और अद्भुत है। प्रारम्भ में श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान के 6 मूलभूत गुणों के विषय में चर्चा करते है – ज्ञान, बल….

ज्ञान– भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी घटनाक्रमों को एक ही समय देखने का सामर्थ्य, जैसे वे अभी उनके नेत्रों के सामने ही घटित हो रहे हो।

बल– अपने संकल्प मात्र से सभी प्राणियों का संधारण करना (प्रलय के पश्चाद)

ऐश्वर्य – सभी प्राणियों का अनुरक्षण करना, उन्हें नियंत्रित कर उनका मार्गदर्शन करना

वीर्य – यद्यपि प्रलय के समय सभी प्राणियों का संधारण करने में अथवा नए युग के आरंभ में समस्त सृष्टि की रचना करते हुए, वे कभी भी थकते नहीं, न ही उनके विग्रह से स्वेदजल प्रवाह होता है। उनकी मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता।

शक्ति – यह उनकी शक्ति है, जो जीवात्माओं से उनके कर्मों के अनुसार कार्य करवाती है। जिन्हें एक साथ बांधा नहीं जा सकता ऐसी वस्तुओं को जोड़ना भी शक्ति कहलाता है। वे इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना का मूल तत्व भी है और इसे भी शक्ति के रूप में संबोधित किया जाता है।

तेज – उनमें सभी को जीतने का सामर्थ्य है। इस गुण को तेज कहा जाता है।

अपने आश्रितों के हेतु (जो उनके चरणों में शरण लेते है) वे अनेकों गुणों का दर्शन प्रदान करते है। उनमें से कुछ श्रीरामानुज स्वामीजी ने यहाँ दर्शाये है।

सौशील्य – ऊँच- नीच का भेदभाव न देखना ही सौशील्य है। भगवान के संदर्भ में सौशील्य यह है कि वे कभी अपनी श्रेष्ठता के विषय में नहीं सोचते। जिस सुगमता के साथ वे निषादराज, केवट, वानरराज सुग्रीव अथवा राक्षस विभीषण आदि के साथ मित्रता किये (मात्र मित्रता नहीं, अपितु उन्हें भ्राता का पद भी प्रदान किया) या ग्वालों से घनिष्ट मित्रता किये, यह सभी उनके सौशील्य के उदहारण है।

वात्सल्य – वह स्नेह, जो एक गैय्या (गाय) अपने अभी जन्मे बछड़े को करती है और उसके शरीर की गंदगी को अपनी जीभ से चाट कर साफ़ करती है। भगवान के संदर्भ में वात्सल्य यह है कि वे अपने आश्रितों के दोषों को भी उनके सद्गुण समझ कर क्षमा करते है।

मार्दव – ह्रदय से अत्यंत कोमल। विग्रह की कोमलता को सौकुमार्य  कहते है जैसा की हमने पहले अंक में देखा । मार्दव अर्थात ह्रदय की कोमलता/ सरसता । उनके लिए अपने आश्रितों से एक क्षण का वियोग भी असहनीय है।

आर्जव – जब भगवान अपने आश्रितों के साथ होते है, उनके मन, वचन और कर्म एक समान हो जाते है और वह पुर्णतः स्वयं को आश्रितों को सौंप देते है। इस गुण का वर्णन करने लिए अन्य शब्द सत्यता है।

सौहार्द्र – ह्रदय से उत्तम/ श्रेष्ठ। वे सदा सभी की भलाई का सोचते है (शुभचिन्तक)।

साम्यजीवात्मा के जन्म या उसके गुणों से परे, सभी जीवात्माओं के समान होकर रहते है। उन्होंने केवट और शबरीजी से सदा समानता का व्यवहार किया, बिना किसी भेदभाव के।

कारुण्य – किसी को विपत्ति में देखकर, उसकी सहायता करना, स्वयं के लाभ का न सोचते हुए, यह कारुण्य है।

माधुर्य – यद्यपि कोई शस्त्र से भगवान को हानि पहुंचाने की सोचे, वह उनके नेत्रों के स्नेह और प्रेम को देखकर शस्त्र त्याग देगा।

गांभीर्य – अत्यंत गहरा; भगवान आश्रितों के लिए सदैव हितकारी करते है, परंतु आश्रितों को यह ज्ञात नहीं कि भगवान क्या करेंगे, कैसे करेंगे और कितना करेंगे। वे अपने देने के सामर्थ्य और प्राप्त करने वाले की दीनता का कभी विचार नहीं करते।

औदार्य – प्रदान करने का गुण, अत्यंत उदारता। वे अपने आश्रितों को बिना मांगे ही प्रदान करते है। और वे कभी विचार नहीं करते कि किसे कितना दिया। उनके इस गुण और उपरोक्त वर्णित गुण, गांभीर्य में एक सूक्ष्म अंतर है। औदार्य वह गुण है जिसमें उनके प्रदान करने के गुण को दर्शाया गया है और गांभीर्य  वह गुण है जिसमें यह बताया गया है कि प्राप्त करने वाले को यह ज्ञात नहीं होता कि भगवान उसे कितना, कब और कैसे प्रदान करेंगे।

चातुर्य – ऐसी चतुराई जिसके फलस्वरूप श्रीजी भी उनके आश्रितों के दोषों को नहीं जान पाती। वे आश्रितों के मानस से उनकी रक्षा की शंका को दूर कर, उनकी रक्षा करते है। उदाहरण के लिए, जब सुग्रीव को श्रीराम के बाली से युद्ध करने के सामर्थ्य पर संदेह हुआ, तब उसने अपनी संतुष्टि के लिए भगवान से शौर्य सिद्ध करने के लिए कहा, और भगवान ने उसका रक्षण किया।

स्थैर्य – एक बार अपने आश्रित के रक्षण का निर्णय लेने पर भगवान फिर कभी अपने वचनों से पीछे नहीं हटते, फिर चाहे लाखों शत्रु उस आश्रित से एक साथ युद्ध के लिए आ जाये। वे अपने निर्णय पर दृढ़ता से स्थिर रहते है।

धैर्य– अपने उपरोक्त वर्णित गुण के समर्थन हेतु ह्रदय का साहस।

शौर्य – अपने आश्रितों के सभी शत्रुओं का विनाश करने का सामर्थ्य।

पराक्रम – लाखों शत्रुओं का एकसाथ सामना करने पर भी किंचित थकान नहीं होना।

सत्यकाम – उन गुणों को धारण करना, जो उनके आश्रितजन उनमें देखना चाहते है। यह सब उनके दिव्य गुण है और असीमित संपत्ति है।

सत्यसंकल्प – अपने संकल्प के द्वारा ऐसी रचना करना, जो व्यर्थ न जाये। यह दोनों गुण, उनके रक्षत्व गुण है (वे रचयिता है, रक्षक है और संहारक है)।

कृतित्व – जब आश्रित अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त करते है, तब भगवान को ऐसा अनुभव होता है जैसे वह उन्हें ही प्राप्त हुआ है। वह इतना प्रसन्न होते है।

कृतज्ञता – एक बार आश्रित द्वारा शरण में आने पर, वे उस आश्रित के सभी दोषों और अपराधों का विचार न करके, मात्र उसके द्वारा की गयी शरणागति के विषय में ही विचार करते है। यद्यपि आश्रितों को सभी कुछ प्रदान करने के पश्चाद भी, वे सदा उनके सत्कर्मों की और ही देखते है और यह विचार करते है कि उस आश्रित को और अधिक कैसे दिया जा सकता है। और कभी जब वे आश्रितों को इच्छित प्रदान नहीं कर पाते, तो वे सदैव इसी विषय में ही विचार किया करते है (जैसे रामावतार में उन्होंने वन से राज्य में वापस लौटने की भरत की प्रार्थना अस्वीकार की)।

आदि – उपरोक्त वर्णित गुणों के अतिरिक्त भी और अधिक गुण उनमें निहित है।

असंख्येय – ऐसे सभी गुण भगवान में अगणित/ असंख्य है।

कल्याण – उनमें निहित सभी गुण अत्यंत दिव्य/ मंगलकारी है।

गुण गणौघ – यह सभी गुण अनेकों है और विशाल समूहों में है। हमारे संदर्भ में क्रोध एक बुरा गुण है। परंतु भगवान के संदर्भ में जब वे अपने आश्रितों से क्रोधित होते है, उसे भी सद्गुण कहा जाता है क्यूंकि वह आश्रित के हित में है, उसके लिए उचित है।

महार्णव – यह सभी गुण विशाल साग़र के सिन्धु है। यद्यपि हमें ब्रह्मा के चार मुख भी प्राप्त हो जाये तब भी हम उनके अनंत दिव्य गुणों का सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकते।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी उनके आभूषणों और उनके शस्त्रों के बारे में चर्चा करते है।

स्वोचित – उनके अनुरूप। जिनमें उपरोक्त सभी गुण विद्यमान है अर्थात भगवान। श्रीरामानुज स्वामीजी अब उनके आभूषणों का वर्णन करते है। जैसे ज्ञान, बल, ऐश्वर्य आदि गुण उनके स्वरुप की सुंदरता को बढाते है, उसी प्रकार श्रीरामानुज स्वामीजी उन आभूषणों के गुणों का वर्णन करते है, जो भगवान के दिव्य विग्रह की सुंदरता को बढाते है।

विविध – यह आभूषण विभिन्न प्रकार के है। मोती अथवा मूंगा अथवा अन्य रत्नों से निर्मित।

विचित्र – यह आभूषण अनेकों प्रकार के है, किरीट (मुकुट) से प्रारंभ होकर नुपुर (पायल) तक

अनंत आश्चर्य – जो हमें अनंत आश्चर्य में डाल दे। यद्यपि वे विभिन्न रत्नों से सुसज्जित आभूषणों को धारण करते है, परंतु हम उनमें से किसी की भी शोभा/ सुंदरता को पूर्णतः आत्मसात नहीं कर सकते। वे सभी अत्यंत अद्भुत है। यदि हम उनकी हीरे की माला को देखें, हमारे नेत्र उसे त्यागकर उनके कर्ण आभूषण की और देखने में समर्थ नहीं है। यद्यपि हम उनके कर्ण आभूषण की और देखे, हम माला या कर्णफूल दोनों में से किसी की भी शोभा को पुर्णतः आत्मसात नहीं कर पायेंगे।

नित्यय निर्वद्य – इन अभूषणों में कोई दोष नहीं है, ये न बढ़ते है न ही क्षीण होते है। यह आभूषण सदा निरंतर कांतिमय रहते है। और, क्यूंकि यह आभूषण स्वभाव/ प्रकृति से चित्त है (हमारे द्वारा पहने जाने वाले आभूषणों के विपरीत), वे स्वयं के लिए न होकर भगवान की सेवा और कैंकर्य के लिए है।

निरतिशय सुगंध – उनके आभूषण भी मधुर सुंगंध युक्त है। हमें यह अद्भुत प्रतीत हो सकता है कि आभूषणों किस प्रकार से सुगंध प्रदान करते है। क्यूंकि भगवान का दिव्य विग्रह स्वयं ही अति दिव्य मधुर सुगन्धित है, तो उनके आभूषण से भी उसी प्रकार मधुर सुगंध प्रवाहित होती है। पुष्पों द्वारा भगवान का श्रृंगार मधुर सुगंध हेतु नहीं अपितु उनके दिव्य स्वरुप की शोभा बढाने हेतु है।

निरतिशय सुकस्पर्श – यह आभूषण भगवान को कोई कष्ट नहीं देते अपितु यह आभूषण उनके दिव्य विग्रह पर अत्यंत कोमल है। शयन अवस्था में भी उन्हें आभूषण निकालने की आवश्यकता नहीं है।

निरतिशय औज्ज्वल्य – उनके दिव्य विग्रह से स्वतः ही कांति का प्रवाह होता है। इन आभूषणों से उनके दिव्य विग्रह की कांति को आवरण प्रदान करते है, ऐसी उनकी महिमा है।

अब तक श्रीरामानुज स्वामीजी आभूषणों के गुणों का वर्णन कर रहे थे। अब वे शीष पर धारण करने वाले किरीट से प्रारम्भ कर पैरों की नुपुर तक, इन आभूषणों की सूचि का वर्णन करते है।

किरीटकिरीट. वह आभूषण है जिसे शीष पर धारण किया जाता है, कपाल के थोडा उपर।

मकुट – मकुट, ताज है जिसे किरीट के उपर धारण किया जाता है।

चुडाचुडा, वह आभूषण है जिसे कपाल से लेकर केशों के मध्य भाग तक धारण किया जाता है।

अवतंस – वह आभूषण जिसे कानों के उपर, सम्पूर्ण कानों को आवरित करते हुए पहना जाता है।

मकर कुंडल – मत्स्य की आकृति वाले कर्ण आभूषण।

ग्रैवेयक – कंठ के चरों और पहना जाने वाला वृत्तिय आभूषण।

हार– वक्ष स्थल में धारण की गयी माला।

केयूर – कंधे पर धारण किया जाने वाला आभूषण।

कटक – भुजा पर धारण किया जाने वाला कंकण।

श्रीवत्स – यह विशेषतः कोई आभूषण नहीं नहीं, अपितु विग्रह के तिल पर केशों का समूह है। जब श्रीजी, भगवान के वक्ष स्थल में विराजती है. तब यह श्रीवत्स उनके आसन को भी संबोधित करता है। अन्य आभूषणों से विपरीत जिन्हें विग्रह से प्रथक किया जा सकता है, श्रीवत्स उनके दिव्य विग्रह का ऐसा भाग है जो विग्रह से अविभाज्य है।

कौस्तुभ – वक्ष स्थल के मध्य में धारण किया गया एक हार, जो पञ्च रत्न जडित है। यह सभी जीवात्माओं का प्रतीकात्मक है।

मुक्ताधाम – मोती की माला, तीन अथवा पांच तार वाली।

उदर बंधन – कमर और उदार के मध्य पहना जाने वाला आभूषण। प्रलय के समय भगवान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रक्षा हेतु उन्हें अपने उदार में स्थान प्रदान करते है। यह आभूषण उनके इस महान कार्य के लिए पुरस्कार स्वरुप है। यह पडोसी से माखन और दही चुराने के कृत्य का उपहार है। एक ही आभूषण उनके स्वामित्व (जगत के स्वामी) और उनके सौलाभ्यता (सुगमता से प्राप्त होने वाले) दोनों को प्रदर्शित करता है।

पीताम्बर – पीले रंग का वस्त्र, जिसे धारण करना उनके सर्वेश्वर (सभी चित और अचित प्राणियों के स्वामी) स्वरुप को प्रदर्शित करता है, और जो उनकी कमर की शोभा को बढाता है।

काञ्चीगुण – पीताम्बर को यथा स्थान रखने के लिए पर कमर में पहने जाने वाला सूत्र।

नुपुर – पायल। भगवान के दिव्य चरण कमलों में विभूषित जो उनके आश्रितों/ शरणागतों के लिए एकमात्र आश्रय है।

आदि – उपरोक्त वर्णित आभूषणों के समान ही और बहुत से आभूषण। श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान द्वारा धारण किये गए सभी आभूषणों का वर्णन करने में असमर्थ है इसलिए “आदि” कहते है।

अपरिमित – अगणित। उनके द्वारा धारण किये हुए आभूषणों की कोई गिनती नहीं है।

दिव्य भूषण – दिव्य आभूषण। उनके दिव्य अंगों और उन अंगों में धारण किये जाने वाले उनके आभूषणों के मध्य एक अनुरूपता है।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान के दिव्य आयुधों का वर्णन करते है।

स्वानुरूप – उनके रूप (दिव्य विग्रह) के अनुरूप। उनके आयुध उनके आश्रितों को आभूषणों के समान प्रतीत होते है और उनके शत्रुओं को वह शस्त्रों के समान प्रतीत होते है।

अचिंत्य शक्ति – उनके आयुधो की शक्ति हमारी कल्पना के परे है।

शंख चक्र गदा सारंग – यह उनके पांच मुख्य आयुध है। शंख, चक्र, गदा और सारंग (धनुष)। यह उनके कृपाण का भी वर्णन करता है, जिसे असी  कहा जाता है।

आदि– और भी अनेकों इसी प्रकार के आयुध।

असंख्येय – अगणित। जिस प्रकार उनके आभूषण अगणित है, उसी प्रकार उनके आयुध भी। श्रीवेदान्ताचार्य स्वामीजी ने उनके 16 आयुधों पर एक श्लोक की रचना की है।

नित्य – स्थायी, जिसमें बढ़ने या क्षीण होने के लक्षण न हो।

निरवद्य – जिसमें कोई दोष न हो। आयुधों में किस प्रकार का दोष हो सकता है? सामान्य शस्त्रों के विपरीत यह दिव्य आयुध भगवान के दिव्य विग्रह में शोभायमान होते है जैसे ही भगवान उनका स्मरण करते है। जब यह आयुध किसी शत्रु का वध करते है, वे ऐसा विचार नहीं करते कि उन्होंने शत्रु का संहार किया, अपितु इस भाव से कार्य करते है कि वे भगवान का अंग है और भगवान की इच्छानुरूप उन्होंने अपना कर्तव्य निवाह किया। नित्य निरवद्य का एक अर्थ यह भी है कि समय के साथ कुंद न होकर, वे शत्रुओं के विनाश के लिए और प्रखर होते है।

निरतिशय कल्याण – भगवान के साथ रहते हुए यह आयुध स्वभाव से मंगलकारी हो जाते है। वे अद्भुत भी है क्यूंकि भगवान द्वारा आदेश देने के पहले ही वे शत्रुओं के संहार का अपना कार्य पूर्ण करते है। भगवान के संकल्प/ विचार मात्र से वे अपना कार्य पूर्ण करते है।

दिव्यायुध – वे उन पञ्च तत्वों से निर्मित नहीं है, जिनके विषय में हम जानते है, अपितु स्वभाव से अप्राकृत (प्राकृत वस्तुओं से निर्मित नहीं) है।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी उनकी महिषियों के विषय में वर्णन करते है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी बताते है भगवान की अनंत लावण्य और सुंदरता के साथ उनके अनंत गुणों, आभूषणों और आयुधों के सौंदर्य का आनंद लेने के लिए किसी की आवश्यकता है। वे आगे बताते है कि यह उनकी दिव्य महिषियों है, जो नित्य निरंतर भगवान के सौंदर्य का आनंद प्राप्त करती है। श्रीरामानुज स्वामीजी ने श्रीजी के गुणों का वर्णन प्रथम चुर्णिका में किया है। फिर वे उन्हीं गुणों का संबोधन दोबारा यहाँ क्यूँ कर रहे है? श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा ऐसा कहने से तात्पर्य मात्र हमें निर्देश देना नहीं है अपितु डंका घोष से यह प्रकट करना है कि वे भगवान और श्रीजी के स्वरुप (विशेषताएं) और रूप (दिव्य विग्रह) में क्या आनंद अनुभूति प्राप्त करते है। क्यूंकि उनके शब्द भगवान और श्रीजी के प्रति उनके प्रगाढ़ प्रेम के सूचक है, हमारा द्वारा इसे पुनरावृत्ति समझना उचित नहीं है। और, पहले (प्रथम चूर्णिका में), उन्होंने अपने द्वारा श्रीजी के चरणकमलों में की गयी शरणागति की भूमिका के रूप में श्रीजी के इन गुणों का वर्णन किया था और यहाँ वे यह देखकर आनंदित प्रसन्नचित हो रहे है कि भगवान और श्रीजी एक दुसरे के साथ किस प्रकार अति उत्तम दिखाई देते है। हम उन शब्दों के अर्थों को संक्षेप में देखेंगे जिन्हें हमने चूर्णिका 1 में देखा था:

स्वाभिमत – भगवान द्वारा पसंद किया जाना

नित्य निरवद्य – कसी भी समय, बिना किसी दोष के

अनुरूप – रूप सौंदर्य में भगवान के ही समान

स्वरुप–भगवान के समान ही विशेषताएं

गुण – अनेकों सदगुणों के साथ

विभव – अकल्पनीय धन संपत्ति के स्वामी

ऐश्वर्य – सभी चित और अचित जीवों को नियंत्रित और निर्देशित करने का सामर्थ्य

शील – अवर प्राणियों से भी समान व्यवहार करना

आदि– और बहुत से गुण

अनवधिक अतिशय – कभी न क्षीण होने वाला और अद्भुत

असंख्येय – अगणित

कल्याण – मंगलकारी

गुणगण – ऐसे कल्याण गुणों का समूह।

अब हम विस्तार से इस चूर्णिका के उन शब्दों का अर्थ जानेंगे जिनका उल्लेख पहले नहीं हुआ है।

श्रीवल्लभा – श्री देवी (श्रीमहालक्ष्मीजी) के प्रति प्रेम। श्रीजी से अत्यंत प्रगाढ़ प्रेमावास्था। श्रीजी के स्वामी जिनके ऐसे महान उच्च दिव्य गुणों का वर्णन उपर किया गया है। जिसप्रकार एक लम्बे समय से भूखा व्यक्ति तीव्र इच्छा से भोजन की और देखता है, उसी प्रकार भगवान भी श्रीजी के स्वरुप को प्रेम से निहारते है।

एवं भूता – उपरोक्त वर्णित श्रेष्ठ गुणों को समान रूप से धारण करनेवाली।

भूमि नीला नायक – भूमि देवी और नीला देवी; यद्यपि यहाँ उनका उल्लेख भिन्न किया गया है, परंतु स्वरुप और रूप के संदर्भ में वे श्रीमहालक्ष्मीजी के समरूप ही है। यहाँ, भगवान को नायक संबोधन किया गया है और श्रीजी को वल्लभानायक वह है जिसके अधिकार का मान हो और जो आचार और नियमों के अनुसार व्यवहार करता है, यद्यपि वल्लभा वह है जिनके सभी कार्य प्रेम और स्नेह जनित है। ऐसा कहा गया है कि भूमि देवी और नीला देवीजी ने भगवान और श्रीजी के दासत्व को स्वीकार किया है और वे उनके प्रति इस कैंकर्य से अत्यंत संतुष्ट और प्रसन्न है।

अगले श्रीरामानुज स्वामीजी आगे बढ़ते हुए श्रीवैकुंठ में नित्य सूरियों का वर्णन करते है। नित्यसूरी, वे है जो सदा श्रीवैकुण्ठ में निवास करते है और जिन्होंने कभी लीला विभूति में जन्म नहीं लिया। आदि शेषजी, विष्वक्सेनजी, गरुडजी, नित्यसूरियों के समूह के अंग है। पंचम चूर्णिका के अगले भाग में हम इसे देखेंगे।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/12/saranagathi-gadhyam-5-part-2/

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शरणागति गद्य – चूर्णिका 5 – भाग 1

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श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नम:

शरणागति गद्य

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अवतारिका (भूमिका)

5 चूर्णिका में श्रीरामानुज स्वामीजी उन परमात्मा को स्थापित करते है, जिनकी शरणागति सभी को करनी चाहिए। श्रीरामानुज स्वामीजी प्रभावी रूप से यह बताते है कि “नारायण” ही परमात्मा है। हम पहले देख चुके है कि “नारायण” शब्द दो खण्डों से निर्मित है, नारा: (विभिन्न प्रकार के चित और अचित तत्वों का संग्रह) और अयन  (निवास स्थान)। नारा: के विवरण को आगे के वाक्यांशों के लिए रखकर, इस भाग में वे परमात्मा के स्वरुप का विवरण करते है।

क्यूंकि यह चूर्णिका बहुत बड़ी है, हम इसके विवरण को पांच भागों में पूर्ण करेंगे – प्रथम भाग में हम श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा भगवान के स्वरुप के विवरण तक के खंड को देखेंगे।

पहले सम्पूर्ण चूर्णिका को यहाँ देखते है :

अखिलहेय प्रत्यनिक कल्याणैकथान स्वेतर समस्त वस्तु विलक्षण अनंत ज्ञानानंदैक स्वरुप ! स्वाभिमतानुरूप एकरूप अचिंत्य दिव्याद्भुत नित्य निरवद्य निरतिशय औज्ज्वल्य सौंदर्य सौगंध्य सौकुमार्य लावण्य यौवनाद्यनंत गुणनिधि दिव्यरूप ! स्वाभाविकानवधिकातिशय ज्ञानबलैश्वर्य वीर्यशक्तितेज: सौशील्य वात्सल्य मार्तधवार्जव सौहार्द साम्य कारुण्य माधुर्य गांभीर्य औधार्य चातुर्य स्थैर्य धैर्य शौर्य पराक्रम सत्यकाम सत्यसंकल्प कृतित्व कृतज्ञात्यसंख्येय कल्याणगुणागणौघ महार्णव ! स्वोचित विविध विचित्रानंदाश्चर्य नित्य निरवद्य निरतिशय सुगंध निरतिशयसुखस्पर्श निरतिशय औज्ज्वल्य किरीट मकुट चुडावतम्स मकरकुंडल ग्रैवेयक हार केयूर कटक श्रीवत्स कौस्तुभ मुक्ताधाम उदरबंधन पीताम्बर कांचीगुण नुपुराध्यपरिमिता दिव्य भूषण ! स्वानुरूपाचिंत्य शक्ति शंख चक्र गदा (असी) सारंगाध्यसंख्येय नित्य निरवद्य निरतिशय कल्याण दिव्यायुध ! स्वाभिमत नित्य निरवद्यानुरूप स्वरुप रूप गुण विभवैश्वर्य शीलाध्यनवधिकातिशय असंख्येय कल्याणगुणगण श्रीवल्लभ ! एवंभुत भूमि नीलानायक ! स्वच्छंदानुवर्ती स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति भेद अशेष शेषतैकरतिरुप नित्य निरवद्य निरतिशय ज्ञानक्रियैश्वर्याध्यनंत कल्याण गुणगण शेष शेषासन गरुड़ प्रमुख नानाविधानंत परिजन परिचारिका परिचरित चरणयुगल ! परमयोगी वांगमनसा परिच्छेद्य स्वरुप स्वभाव स्वाभिमत विविध विचित्रानंत भोग्य भोगोपकरण भोगस्थान समृद्ध अनंताश्चर्य अनंत महाविभव अनंत परिमाण नित्य निरवद्य निरतिशय वैकुंठनाथ ! स्वसंकल्प अनुविधायी स्वरुपस्थिति प्रवृत्ति स्वशेषतैक स्वभाव प्रकृति पुरुष कलात्मक विविध विचित्रानंत भोग्य भोक्तरूवर्ग भोगोपकरण भोगस्थानरूप निखिल जगादुधय विभव लय लीला ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! परब्रह्मभूत ! पुरुषोत्तम ! महाविभुते ! श्रीमन ! नारायण ! श्रीवैकुंठनाथ ! अपारकारुण्य सौशील्य वात्सल्य औधार्य ऐश्वर्य सौंदर्य महोधधे ! अनालोचित विशेष अशेषलोक शरण्य ! प्रणतार्तिहर! आश्रित वात्सल्यैक जलधे ! अनवरत विदित निखिल भूत जात यातात्म्य ! अशेष चराचरभूत निखिल नियम निरत !अशेष चिदचिद्वस्तु शेषीभूत ! निखिल जगदाधार ! अखिल जगत स्वामिन् ! अस्मत स्वामिन् ! सत्यकाम ! सत्यसंकल्प ! सकलेतर विलक्षण ! अर्थिकल्पक ! आप्तसक ! श्रीमन् ! नारायण ! अशरण्यशरण्य ! अनन्य शरण: त्वत पादारविंद युगलं शरणं अहं प्रपद्ये I

शब्दार्थ:

अखिलहेय – वह सब जो दोषयुक्त है

प्रत्यनिक – बिलकुल विपरीत

कल्याणैकथान – केवल शुभ कल्याण गुणों से युक्त

स्वेतर – स्वयं के अलावा

समस्त – सभी

वस्तु – पदार्थ (प्राणी)

विलक्षण – श्रेष्ठ

अनंत – जिसका कोई अनंत न हो

ज्ञान – ज्ञान/ विद्या

आनंदैक – आनंद से पूर्ण

स्वरुप – मौलिक/ मूलभूत प्रकृति

स्वाभिमत – उपयुक्त

अनुरूप – आकर्षक बाह्य रूप

एकरूप – एक बाह्य रूप

अचिंत्य – जिसे विचार नहीं किया जा सकता

दिव्य – उत्कृष्ट

अद्भुत – चमत्कारिक

नित्य – स्थायी

निरवद्य – बिना दोष के/ त्रुटिहीन

निरतिशय – अतुलनीय

औज्ज्वल्य – अत्यंत उज्जवल

सौंदर्य – अंगों में सुंदरता

सौगंध्य – मधुर गंध

सौकुमार्य – कोमल

लावण्य – सम्पूर्ण सौंदर्य

यौवन – युवा

आदि – प्रारम्भ करके

अनंत – जिसका अंत न हो

गुण – विशिष्ट लक्षण

निधि – निधि

दिव्यरूप – उत्कृष्ट रूप

स्वाभाविक – प्राकृतिक

अनवधिक – असीम; बहुतेरे

अतिशय – अद्भुत

ज्ञान – ज्ञान/ विद्या

बल – शक्ति

ऐश्वर्य – नियंत्रित करने की क्षमता

वीर्य – कभी न शिथिल होने वाले

शक्ति – ऊर्जा/ ताकत

तेज – प्रभा/ कांति

सौशील्य – जो स्तरों (दूसरों की तुलना के संदर्भ से) में भेद का विचार नहीं करते; सभी को समान मानने वाले

वात्सल्य – माता के स्नेह- ममता सा (जिसप्रकार एक गोमाता अपने बछड़े के प्रति स्नेह प्रदर्शित करती है)

मार्ध्व – ह्रदय से कोमल

आर्जव – सच्चा, नेक, निष्कपट

सौहार्द – सत ह्रदय वाला

साम्य – समान

कारुण्य – दया

माधुर्य – सदय, कृपालु

गांभीर्य – गहरा, प्रगाढ़

औधार्य – उदार प्रकृति के

चातुर्य – चतुर

स्थैर्य – दृढ़

धैर्य – साहस

शौर्य – शत्रुओं को हराने वाले

पराक्रम – जो थके न

सत्यकाम – जिनमें आकर्षक, सुंदर गुण हो

सत्यसंकल्प – स्वयं की अभिलाषा अनुसार संरचना करने की क्षमता

कृतित्व – करते हुए

कृतज्ञात – कृतज्ञ

असंख्येय – अगणित

कल्याण – मंगलमय, शुभ

गुण – विशिष्ट लक्षण

गणौघ – संग्रह

महार्णव् – विशाल सागर

स्वोचित – स्वयं के लिए उचित

विविध – बहुत प्रकार से

विचित्र – एक विशेष प्ररूप में बहुत से प्रकार

अनंताश्चर्य – अद्भुत जिसका कोई अंत न हो

नित्य – सदा / नित्य

निरवद्य – त्रुटिहीन/ दोष विहीन

निरतिशय सुगंध – मधुर सुगंध उत्सर्जित करना

निरतिशय सुखस्पर्श – भगवान के विग्रह पर मोलायम/ कोमल

निरतिशय औज्ज्वल्य – कांति फैलाते हुए

किरीट –शीश का परिधि युक्त/ चक्र समान आभूषण

मकुट – किरीट पर मुकुट के समान पहना जाने वाला

चुडा – ललाट पर पहना जाने वाला

अवतम्स – कानों पर पहना जाने वाला

मकर – मत्स्य (मछली) के समान

कुंडल – कानों की बाली

ग्रैवेयक – गले का हार

हार – हार

केयूर – कन्धों पर पहना जाने वाला

कटक – बाहं पर धारण की जाने वाली चूड़ी/ भुजबंद

श्रीवत्स – तिल के समान

कौस्तुभ – मध्य/ केंद्र का मणि

मुक्ताधाम – मोती के आभूषण

उदरबंधन – कमर और उदार के मध्य पहना जाने वाला

पीताम्बर – पीले वस्त्र

कांचीगुण – कमर की कर्दानी

नुपुर – पायल

आदि – और ऐसे ही बहुत

अपरिमित – अगणित

दिव्यभूषण – दिव्य आभूषण

स्वानुरूप – अपने स्वरुप के अनुसार

अचिंत्य – सोच के परे

शक्ति – प्रबल

शंख – शंख

गदा – गदा

अशी – तलवार

सारंग – धनुष

आदि – इसी प्रकार के बहुत से शस्त्र

असंख्येय – अगणित

नित्य – स्थायी

निरवद्य – दोष रहित

निरतिशय – अद्भुत

कल्याण – मंगलमय

दिव्यायुध – दिव्य शस्त्र

स्वाभिमत – उनकी पसंद के अनुरूप

नित्य निरवद्य – स्थायी, दोष रहित

अनुरूप – उनके सौंदर्य के सदृश

स्वरुप – मूलभूत विशेषताएं

रूप – बाह्य रूप

गुण – विशेषता

विभव – संपत्ति

ऐश्वर्य – नियंत्रित/ निर्देशित करना

शील – श्रेष्ठ व्यक्ति, जो अवर व्यक्ति से भी बिना किसी भेदभाव के व्यवहार करते है

आदि – इसी प्रकार के बहुत से गुण

अनवधिक – कभी कम/ क्षीण न होने वाली

अधिशय – अद्भुत

असंख्येय – अगणित

कल्याण – मंगलमय

गुण गण – गुणों का भण्डार

श्री – महालक्ष्मीजी – श्रीजी

वल्लभ – स्नेही; प्रिया

एवं भूत – समान गुणों वाली

भूमि नीला नायक – श्रीभूदेवी और श्रीनीलादेवीजी के नाथ / स्वामी

क्यूंकि यह चूर्णिका बहुत ही बड़ी है, शेष चूर्णिका के शब्दशः अर्थों को हम अगले अंक में जानेंगे।

विस्तृत व्याख्यान

अखिलहेय– अयोग्यता/ दोष। सभी भिन्न प्राणियों में कुछ दोष निहित है। अचित के संदर्भ में, उसका निरंतर परिवर्तनिय स्वरुप ही उसकी अयोग्यता है। बद्धात्मा (संसार बंधन में बंधे) के संदर्भ में, दोष यह है कि देह धारण करने के पश्चाद वह अपने पूर्व पाप और पुण्यों के अनुसार सतत सुखों और दुखों का अनुभव करता है। मुक्तात्मा (संसार बंधन से मुक्ति प्राप्त कर श्रीवैकुंठ में पहुंचे जीव) के संदर्भ में दोष यह है कि मुक्त होने के पहले वे भी संसार में सुखों और दुखों को निरंतर अनुभव किया करते थे। नित्यात्मा (परमपद के नित्य निवासी जैसे अनंतजी, विष्वक्सेनजी, गरुड़जी, आदि) के संदर्भ में अयोग्यता यह है कि उनमें निहित सभी शुभ विशेषताएं उनकी स्वयं की नहीं, अपितु भगवान की निर्हेतुक कृपा द्वारा प्राप्त है, अर्थात वे स्वतंत्र नहीं है। सिर्फ परमात्मा के लिए ही कोई योग्यता/ दोष नहीं है, वे सभी में सक्षम है।

प्रत्यनिक – बिलकुल विपरीत; इसका आशय है कि भगवान उन सभी के विपरीत है, जो सभी दोषयुक्त है। अन्य शब्दों में, भगवान सभी दोषों/ अयोग्यताओं से मुक्त है।

कल्याणैकथान – सभी कल्याण गुणों को धारण करने वाले एकमात्र स्वामी। भगवान न केवल सभी दोषयुक्त के विपरीत है, अपितु सभी अच्छे के प्रतीक भी है।

स्वेतर समस्त वस्तु विलक्षण – सभी प्राणियों (चेतन और अचित) की तुलना में वे श्रेष्ठ/ सर्वोत्तम है। इसे इस बात के स्वाभाविक परिणाम के रूप में भी देखा जा सकता है कि वे सभी दिव्य गुणों के स्वामी है और सभी दोषपूर्ण से विहीन है।

अनंत – जिसका कोई अंत न हो। हम सभी प्राणी स्थान, समय और भौतिक व्यवस्था के द्वारा सिमित है; अर्थात हम केवल एक ही स्थान पर रहते है, एक विशिष्ट समय जैसे 100 वर्ष या 120 वर्ष तक जीवित रह सकते है परंतु सदा के लिए नहीं और हम एक ही देह को धारण करते है। परंतु भगवान इनमें से किसी से भी परिमित नहीं है। वे एक ही समय पर बहुत से स्थानों पर हो सकते है, नित्य है और एक से अधिक देह को धारण करते है। क्यूंकि हम सभी उन्हीं में निवास करते है, वे सर्वव्यापी है और सभी देहों में विद्यमान है। प्रलय के समय में भी, एक मात्र वे ही विद्यमान रहते है। इसलिए उन्हें अनंत कहा जाता है।

ज्ञान आनंदैक स्वरुप भगवान स्वयं प्रकाशित है, उन्हें अन्य किसी प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। यह आत्मा के लिए भी सत्य है। इसे स्वयंप्रकाशत्व कहा जाता है। भगवान ज्ञान से परिपूर्ण है, उस ज्ञान से आनंद की उत्पत्ति होती है। इसलिए ज्ञान और आनंद उनके स्वरूप है। अब तक श्रीरामानुज स्वामीजी, भगवान के स्वरुप की महिमा का वर्णन कर रहे है। अब वे उनके रूप (तिरुमेणी/ विगृह) का वर्णन करते है। पांच तत्वों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) से बनी हमारी भौतिक देह के विपरीत, भगवान का विग्रह शक्ति और पांच उपनिषदों से बना है।

स्वाभिमत – उनके गुणों के अनुरूप/ उपयुक्त। उनका रूप उपरोक्त वर्णित उनके स्वरुप के गुणों से अधिक आभायमान है और उन्हें प्रिय है। इसलिए, उनके रूप के गुणों का वर्णन करने से पहले, वे उनके विग्रह/ शरीर (भगवान की तिरुमेणी) का वर्णन करते है। जैसा की महर्षि पराशर ने विष्णु पुराण (18 पुराणों में से एक) में उल्लेख किया, यह ऐसा विग्रह है जो वे स्वयं की इच्छानुरूप धारण करते है। उनका यह रूप उनका बहुत प्रिय है। जीवात्माओं को शुद्ध करने के उद्देश्य से, जब सभी अन्य उपाय विफल होते है, तब अंततः वे अपने विग्रह के दर्शन प्रदान कर उस जीवात्मा को अपने मार्ग पर लाते है।

अनुरूप – उनका दिव्य विग्रह बहुप्रकार से उनके स्वरुप के पूरक है (जैसा की हम पहले देख चुके है)। हमारे विषय में, हमारी आत्मा ज्ञान से ज्ञान और आनंद से पूर्ण है। यद्यपि हमारी देह, आत्मा के इस स्वरुप को आच्छादित कर देती है, परंतु भगवान के संदर्भ में उनके बाह्य रूप उनके स्वरुप के गुणों की शोभा और अधिक बढ़ाते है।

एकरूप – केवल एक रूप (बाह्य रूप)। हमारे जीवन में भी हमें एक ही शरीर प्राप्त होता है। तब फिर भगवान के एकरूप से क्या आशय है? जीवन चक्र में हमारा शरीर 6 विभिन्न प्रकार के परिवर्तनों से गुजरता है– निर्माण होता है, जन्म होता है, परिवर्तन होता है, बढता है, क्षीण होता है और फिर एक दिन वह समाप्त हो जाता है। इसे शठ विधा भाव कहा जाता है (6 विभिन्न प्रकार के रूप)। भगवान के संदर्भ में, उनकी विग्रह में ऐसे कोई परिवर्तन नहीं होते। उनका एक ही विग्रह है और वह सदा एक समान रहता है।

अचिंत्य – उनके रूप का स्मरण रखना हमारे मानस के सामर्थ्य के परे है। मंदिर में रहते हुए उनके दिव्य विग्रह के घंटों दर्शन करने के बाद, जब हम घर पहुँच कर उनकी पोषक, माला के फूलों के रंग अथवा उनके द्वारा पहने हुए विभिन्न प्रकार के आभूषणों का स्मरण करते है, तो हम उसे पुर्णतः स्मरण नहीं कर पाते।

दिव्य – यद्यपि हम कितने भी प्रयास करले, हम उनके समान किसी को भी खोज नहीं पाएंगे। उन्हें अप्राकृत संबोधन किया जाता है जबकि हमारी देह प्राकृत है जो 5 विभिन्न तत्वों से निर्मित है और भगवान का रूप इन सामान्य तत्वों से निर्मित नहीं है।

अद्भुत – निरंतर परिवर्तित होने वाला। कुछ शब्दों पहले हमने देखा भगवान एकरूप है (अपरिवर्त्य) और उनका रूप सदा एकसमान रहता है और परिवर्तित नहीं होता है। परंतु अब ऐसा कैसे है कि हम कह रहे है वे परिवर्तित होते है? यहाँ अद्भुत से आशय है – जैसे हम प्रतिदिन भगवान के एक ही विग्रह के मंदिर में दर्शन करते है, फिर भी हम सदा उनके रूप में कुछ नया अनुभव करते है। उनके आभूषण, उनकी पोषकें और मालाएं, श्रृंगार आदि सदा परिवर्तित होते है। इसप्रकार वे कभी पिछले दिन या पिछले सप्ताह के समान प्रतीत नहीं होते। प्रत्येक क्षण वे भिन्न प्रकट होते है और इन सभी रूपों में वे अद्भुत नज़र आते है।

नित्य निरवद्यअवद्य से आशय है दोष/ अशुद्धि। निरवद्य अर्थात जिसमें कोई दोष अथवा अशुद्धि न हो। नित्य निरवद्य अर्थात किसी भी समय में कभी भी जिसमें कोई दोष न हो अर्थात जो नित्य ही दोषरहित हो। वे कभी यह नहीं सोचते कि उनका रूप, विग्रह उनके लिए है। उनका रूप उनके सभी भक्तों के हितार्थ है। यह निरवद्य का एक और अन्य अर्थ है।

निरतिशय औज्ज्वल्यऔज्ज्वल्य से आशय है पूर्ण चमक/ कांति। उनकी चमक ऐसी है कि ब्रह्माण्ड के सबसे अधिक चमकते सितारे भी उनके विग्रह के तुलना में अन्धकारमय नज़र आते है। अब तक श्रीरामानुज स्वामीजी उनके बाह्य सुंदर रूप के विषय में चर्चा कर रहे थे। अब वे भगवान के रूप की विशेषताओं का वर्णन प्रारंभ करते है।

सौंदर्य – दिव्य देह के सभी अंगों का सौंदर्य। जब किसी देह को दूर से देखा जाता है तब वह पूर्ण रूप से सुंदर नज़र आ सकती है परंतु पास आने पर उनमें से कुछ अंग उतने सुंदर नहीं है और वे और भी अधिक श्रेष्ठ हो सकते थे, ऐसा अनुभव होता हैl भगवान के संदर्भ में, शरीर के अंग संपुर्णतः सुंदर प्रतीत होते है।

सौगंध्य – मनभावन मधुर गंध। और अन्य वस्तुओं को भी सुगंध प्रदान करने का सामर्थ्य।

सौकुमार्य – अत्यंत सुकोमल। उनका विग्रह इतना सुकोमल है कि यदि श्रीजी उनकी और देख ले, तो वह अंग लाल रंग का हो जाता है, वह इतना सुकोमल है।

लावण्य – उनके रूप की सम्पूर्ण सुंदरता। इसकी तुलना सौंदर्य से करे, जिस गुण का वर्णन उपर किया गया है। यद्यपि सौंदर्य अंगों की सुंदरता के लिए प्रयोग किया गया है, लावण्य सम्पूर्ण रूप के सौंदर्य को दर्शाता है। हमारे नेत्र अपने जीवनकाल में उनके शरीर के प्रत्येक अंग को देखने और सराहने में समर्थ नहीं है; इसीलिए उनमें लावण्य का गुण भी विद्यमान है, जिसके द्वारा हमारे नेत्र उनके सम्पूर्ण रूप के सौंदर्य के दर्शन कर सके।

यौवन – उनकी युवा अवस्था को प्रदर्शित करता है। युगों युगांतर बीतने पर भी वे सदा ही इसी यौवन की अवस्था में ही रहते है। वे कभी वय नहीं होते।

आदि – उपरोक्त गुणों से प्रारम्भ होकर, ऐसे और बहुत से गुण है।

अनंत गुण निधि – ऐसी अनंत सद्गुणों के निधि।

दिव्य रूप – उनका रूप जो श्रीवैकुंठ में है, वह इस लीला विभूति (लौकिक जगत) में न रखने योग्य रूप में उपस्थित है।

अब तक हमने भगवान के स्वरुप, रूप और रूप के गुणों के विषय में देखा। अब चूर्णिका 5 के द्वितीय भाग में हम उनके स्वरुप के गुणों, उनकी दिव्य महिषियों, नित्यसुरियों, श्रीवैकुंठ, लीला विभूति आदि के विषय में चर्चा करेंगे, जो उनके नारायण संबोधन के “नारा” खंड को समझाती है।

हिंदी अनुवाद- अडियेन भगवती रामानुजदासी

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