रामानुस नूट्रन्ददि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या – पाशुर 81 से 90

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रामानुस नूट्रन्दादि (रामानुज नूत्तन्दादि) – सरल व्याख्या

<< पाशुर 71 से 80 

पाशुर ८१: वों स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी को समर्पण करते हैं कि वों कैसे श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा संशोधित किए गये हैं और कहते हैं उनके कृपा के समान ओर कुछ नहीं हैं।

सोर्वु इन्ऱि उन्दन् तुणै अडिक्कीळ्त् तोण्डुपट्टवर् पाल्
सार्वु इन्ऱि निन्ऱ एनक्कु अरन्गन् सेय्य ताळ् इणैगळ्
पेर्वु इन्ऱि इन्ऱु पेऱुत्तुम् इरामानुस इनि उन्
सीर् ओन्ऱिय करुणैक्कु इल्लै माऱु तेरिवुऱिले

मैं उन जनों से जूड़ा हुआ नहीं था जो आपके चरण कमलों के दास हैं और जो अपने मन को और कहीं नहीं लगाते थे। हे श्रीरामानुज ! जिन्होने आज मुझे श्रीरंगनाथ भगवान के लाल दिव्य चरण कमल दिये जो एक दूसरे को पूरक हैं और जो उनके दिव्य काले रूप के रंग से पूर्ण भिन्न हैं। इस बात का विवेचन करने पर यही सिद्ध होता है कि आपकी कृपा सर्वथा उपमानरहित है ।

पाशुर ८२: श्रीरंगामृत स्वामीजी बड़े प्रसन्नता से कहते हैं कि श्रीरामानुज स्वामीजी, जिन्होंने उन्हें ,श्रीरंगनाथ भगवान से जुड़ जानेकी निर्देश दिया, वे  धर्मनिष्ठ मानव हैं।

तेरिवु उऱ्ऱ ज्ञानम् सेऱियप् पेऱादु वेम् ती विनैयाल्
उरु अऱ्ऱ ज्ञानत्तु उळल्गिन्ऱ एन्नै ओरु पोळुदिल्
पोरु अऱ्ऱ केळ्वियनाक्कि निन्ऱान् एन्न पुण्णीयनो
तेरिवु उऱ्ऱ कीर्त्ति इरामानुसन् एन्नुम् सीर् मुगिले

सुप्रसन्न विवेक से विरहित होकर अतिक्रूरपापों के फलतया कृत्याकृत्यविवेक खोकर दुःख पानेवाले मुझको एक क्षण भर में अन्यादृश बहुश्रुत (माने बहुत उपदेश सुनकर ज्ञानी बननेवाला) बनानेवाले, सुप्रसिद्ध कीर्तियुत और कालमेघसदृश परमोदार श्री रामानुज स्वामीजी अनुपम परम धार्मिक हैं। सर्वथा पापी व अज्ञानी मुझको एक क्षण में विलक्षण ज्ञानी बनानेवाले श्री स्वामीजी का यश,औदार्य और धार्मिकत्व दूसरे व्यक्ति में नहीं देखे जा सकते।

 पाशुर ८३: श्रीरामानुज स्वामीजी उन्हें पूछते हैं कि “क्या शरणागति करना सामान्य नहीं हैं?” श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं कि वें उन जनों में नहीं हैं जो भगवान के शरण हुए हैं और श्रीवैकुंठ प्राप्त करतें  हैं । परन्तु वें आपके उदारता से आपके दिव्य चरण कमलों में शरण होकर मोक्ष प्राप्त करता हैं।

सीर् कोण्डु पेर् अऱम् सेय्दु नल् वीडु सेऱिदु एन्नुम्
पार् कोण्ड मेन्मैयर् कूट्टन् अल्लेन् उन् पदयुगमाम्
एर् कोण्ड वीट्टै एळिदिनिल् एय्दुवन् उन्नुडैय
कार् कोण्ड वण्मै इरामानुस इदु कण्डु कोळ्ळे

हे श्रीरामानुज स्वामिन्! शमदम इत्यादि आत्मगुणोपेत होकर, शरणागतिरुप श्रेष्ठ धर्म का अनुष्ठान कर, फलतया मोक्षरूप परमपुरुषार्थ पानेके दृढ़ निश्चयवाले, प्रसिद्ध प्रभाववाले महात्माओं की गोष्ठी में मैं नहीं मिलूंगा; किंतु बडी सरलता से आपके उभयपादारविंदरूप परमविलक्षण मोक्ष पाऊंगा। मेरा यह अध्यवसाय भी आपके सीमातीत औदार्य का फल है; यह तो आप ही स्वयं जानते हैं।

 पाशुर ८४: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं उन्हें भविष्य में और भी लाभ प्राप्त करना हैं परन्तु अभी तक जो लाभ प्राप्त हुये हैं उसका कोई अन्त हीं नहीं हैं।

कण्डु कोण्डेन् एम् इरामानुसन् तन्नै काण्डलुमे
तोण्डु कोण्डेन् अवन् तोण्डर् पोन् ताळिल् एन् तोल्लै वेम् नोय्
विण्डु कोण्डेन् अवन् सीर् वेळ्ळ वारियै वाय् मडुत्तु इन्ऱु
उण्डु कोण्डेन् इन्नम् उऱ्ऱन ओदिल् उलप्पु इल्लैये

मैंने आज श्री रामानुज स्वामीजी के दर्शन किये; (अर्थात् उनके स्वरूप स्वभावादियों को ठीक जान लिया;) दर्शन के समय ही उनके भक्तों के मनोहर श्रीपादों की भक्ति पायी; और (उससे) अपने समस्त पाप खो लिए; उन आचार्य-सार्वभौम के कल्याण गुणामृतसागर का आस्वादन भी किया। इस प्रकार मेरे उपलब्ध-कल्याण परंपरा सत्य ही वर्णनातीत है।

 पाशुर ८५: “आपने कहा कि आपने श्रीरामानुज स्वामीजी को जैसे हैं वैसे देखा हैं। आपने यह भी कहा कि आप उनके दासों के श्रीचरण  कमलों में दास हैं। आप इन दोनों में किसमे अधिक शामिल हैं?” वें कहते हैं उनके आत्मा का श्रीरामानुज स्वामीजी के चरण कमलों को छोड़कर और कोई शरण नहीं हैं। 

ओदिय वेदत्तिन् उट्पोरुळाय् अदन् उच्चि मिक्क
सोदियै नादन् एन अऱियादु उळल्गिन्ऱ तोण्डर्
पेदैमै तीर्त्त इरामानुसनैत् तोळुम् पेरियोर्
पादम् अल्लाल् एन्दन् आरुयिर्क्कु यादु ओन्ऱुम् पऱ्ऱिल्लैये

पठ्यमान वेदों के परम तत्पर्यभूत और वेदों के शिरोभूत उपनिषदों से प्रतिपाद्य परंज्योतिस्वरूप (अथवा उपनिषदों में स्पष्टतया प्रतिपाद्य) श्रीमन्नारायण को सर्वशेषि जानने में अशक्त, और अत एव देवतान्तरभजन करनेवाले पामरों का अज्ञान मिटानेवाले श्री रामानुज स्वामीजी के भक्तों के सिवाय मेरी दूसरी कोई गति नहीं है। परंतु यह अर्थ समझने में अशक्त मुर्खलोग देवतान्तरों की सेवा करने लगे। श्री रामानुज स्वामीजी ने इनकी यह मूर्खता मिटा दी।

 पाशुर ८६: यह स्मरण करना कि वें उन लोगों से प्रीतिमय थे जो सांसारिक सुखों की ओर शामिल थे, वें कहते हैं कि अब वें ऐसे नहीं करेंगे और जो श्रीरामानुज स्वामीजी का ध्यान करेंगे वें उन पर राज्य करने योग्य हैं।

पऱ्ऱा मनिसरैप् पऱ्ऱी अप्पऱ्ऱु विडादवरे
उऱ्ऱार् एन उळन्ऱु ओडि नैयेण् इनि ओळ्ळिय नूल्
कऱ्ऱार् परवुम् इरामानसनैक् करुदुम् उळ्ळम्
पेऱ्ऱार् यवर् अवर् एम्मै निन्ऱु आळुम् पेरियवरे

क्षुद्र मानवों का आश्रयण करके, एक क्षण भर के लिए भी उनका संग नहीं छोड़ते हुए, उनको ही परमबांधव मान कर, उनके पीछे पीछे ही दौडते हुए, उनकी सेवा कर मैंने अब तक जो दुःख पाया ऐसा दुःख अबसे नहीं पाऊंगा । श्रेष्ठ शास्त्रों के वेत्ता महात्माओं से संस्तुत श्रीरामानुज स्वामीजी का ही अपने मन से ध्यान करनेवाले महात्मा लोग ही अब सदा के लिए हमारे शेषी हैं।

 पाशुर ८७: जब स्मरण किया गया कि यह कलियुग हैं और वह उन्हें स्थिर नहीं रहने देगा वें कहते हैं कि कली उन्हीं  पर प्रहार करेगा जो श्रीरामानुज स्वामीजी द्वारा प्रदान किए गये ज्ञान में निरत नहीं रहते हैं।

पेरियवर् पेसिलुम् पेदैयर् पेसिलुम् तन् गुणन्गट्कु
उरिय सोल् एन्ऱुम् उडैयवन् एन्ऱु एन्ऱु उणर्विल् मिक्कोर्
तेरियुम् वण् कीर्त्ति इरामानुसन् मऱै तेर्न्दु उलगिल्
पुरियुम् नल् ज्ञानम् पोरुन्दादवरैप् पोरुम् कलिये

“ज्ञानी लोग स्तुति करें, अथवा अल्पज्ञ स्तुति करें”, गुरुजी के शुभगुण उनकी वाणी के अनुगुण ही होते हैं, यों कहते हुए महात्मा लोग जिनका यशोगान करते हैं, ऐसे श्रीरामानुज स्वामीजी से वेदों का विवेचनपूर्वक इस धरातल पर उपदिष्ट श्रेष्ठ ज्ञान नहीं पानेवाले भाग्यहीन मानव कलिपुरुष से पीड़ित होते हैं। श्री रामानुज स्वामीजी का यशोगान करने के विषय में अज्ञप्राज्ञविभाग होता ही नहीं। दोनों की स्तुति एक समान ही प्रतीत होगी; क्योंकि उनकी महिमा सागर की भांति अथाह रहती है और कोई भी उसको पार नहीं कर सकता। फिर अज्ञकृत स्तुति की अपेक्षा विशेषज्ञ कृत स्तुति में कौनसी विशेषता रह सकेगी? कुछ नहीं। ऐसे महावैभववाले उन्होंने समस्त वेदों का ठीक विवेचन करके सबके योग्य श्रेष्ठ उपदेश दिया। परंतु कोई कोई, कलिपुरुष के भक्त उस उपदेश से लाभ नहीं लेना चाहते। अहो उनकी भाग्यहीनता!

पाशुर ८८: श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं, वें श्रीरामानुज स्वामीजी की प्रशंसा करेंगे, जो सिंह के समान हैं, जो इस संसार में कुदृष्टिवालों (जो वेदों को गलत तरीके से व्याख्या करते हैं) जो बाघ के समान हैं, उनका नाश करने हेतु अवतार लिए हैं ।

कलि मिक्क सेन्नेल् कळनिक् कुऱैयल् कलैप् पेरुमान्
ओलि मिक्क पाडलै उण्डु तन् उळ्ळम् तडित्तु अदनाल्
वलि मिक्क सीयम् इरामानुसन् मऱै वादियराम्
पुलि मिक्कदु एन्ऱु इप् पुवनत्तिल् वन्दमै पोऱ्ऱुवने

अत्यधिक धान उपजनेवाले “कुरैयल” नामक स्थल में अवतीर्ण अप्रतिमविद्वान कलिवैरीसूरी( श्री परकालसूरी) से अनुगृहीत दिव्यश्रीसूक्तियों का अनुभव करके उससे पोषितचित्त एवं सम्प्राप्तज्ञानवाले श्रीरामानुजस्वामीजी नामक सिंहराज, यों कहते हुए कि,” इस धरातल पर वेदों का अपार्थ करनेवाले दुर्वादी रूप बाघ बहुत बढ़ गये”, (उन्हें दंड देने के लिए) यहां अवतीर्ण हुए। आपके इस यशका कीर्तन करूँगा। लोक में बहुत बढे हुए दुर्मतों का विनाश करने के लिए श्रीरामानुज नामक सिंह का अवतार हुआ। उन्होंने, “तिरुक्कुरैयलूर” नाम से प्रसिद्ध दिव्यक्षेत्र में अवतीर्ण, अप्रतिम विद्वत्सार्वभौम, श्री परकालसूरी से अनुगृहीत छे दिव्यप्रबंधों का ठीक अध्ययन कर उससे ज्ञान-वैशद्य प्राप्त किया।

 पाशुर ८९: पिछले पाशूर में श्रीरंगामृत स्वामीजी कहते हैं, वें श्रीरामानुज स्वामीजी कि प्रशंसा करेंगे। वें श्रीरामानुज स्वामीजी को उनके प्रशंसा के संभन्ध में अपने भय के विषय को बताते हैं।

पोऱ्ऱु अरुम् सीलत्तु इरामानुस निन् पुगळ् तेरिन्दु
साऱ्ऱुवनेल् अदु ताळ्वु अदु तीरिल् उन् सीर् तन्नक्कु ओर्
एऱ्ऱम् एन्ऱे कोण्डु इरुक्किलुम् एन् मनम् एत्ति अन्ऱि
आऱ्ऱगिल्लादु इदऱ्केन् निनैवाय् एन्ऱिट्टन्जुवने

यथार्थ स्तुति करने को अशक्य शीलगुण-परिपूर्ण, हे श्रीरामानुज स्वामिन्! मैं तो यह अर्थ ठीक समझ सकता हूं कि यदि मैं आपके दिव्यगुण जान कर उनकी स्तुति करूं तो (मुझ नीच से कीर्तित होने के कारण) आपको दोष लगेगा, और यदि मैं स्तुति न करूं, तो ही आपके गुणों की महिमा बढ़ेगी। तथापि मेरा मन (आपके गुणों की) स्तुति किये विना शांत न हो सकता है। यह सोचता हुए  कि इस विषय में आपका अभिप्राय कौन-सा होगा, मैं बहुत भयभीत हो रहा हूं।

 पाशुर ९०: श्रीरंगामृत स्वामीजी को भय से मुक्त करने हेतु श्रीरामनुज स्वामीजी उन्हें बहुत करुणा भरी नेत्रों से देखते हैं। भय मुक्त होने के पश्चात उन्हें खेद होता हैं कि जिनके पास अच्छा ज्ञान हैं वें स्वयं को श्रीरामानुज स्वामीजी कि मन, वाखी और शरीर से प्रशंसा कर ऊपर नहीं उठाते हैं और इस संसार के जन्म मरण के चक्कर में फंसे हुए रहते हैं।

निनैयार् पिऱवियै नीक्कुम् पिरानै इन्नीळ् निलत्ते
एनै आळवन्द इरामानुसनै इरुन्गविगळ्
पुनैयार् पुनैयुम् पेरियवर् ताळ्गळिल् पून्दोडैयल्
वनैयार् पिऱप्पिल् वरुन्दुवर् मान्दर् मरुळ् सुरन्दे

जो मानव, संसार दुःख मिटानेवाले परमोपकारक, और मेरा उद्धार करने के लिए ही इस भूतल पर अवतीर्ण, श्रीरामानुज स्वामीजी का ध्यान नहीं करते, उनकी स्तुति नहीं करते और ऐसी स्तुति करनेवाले सज्जनों की पुष्पमालाओं से अर्चना नहीं करते, ऐसे भाग्यहीन जन अत्यधिक अज्ञान से समावृत होकर, संसार में ही पडे रहकर दुःख भोगेंगे।

आधार : http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2020/05/ramanusa-nurrandhadhi-pasurams-81-90-simple/

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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