उत्तरदिनचर्या – निष्कर्ष

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय

श्लोक १४

निष्कर्ष

दिनचर्या शब्द नित्यानुष्ठान को सूचित करती हैं।

आराधनीय भगवान , आराधना करनेवाले मनवालाममुनि के प्रति ,  आराधन-रूप  इन  अनुष्ठानो  के   प्रति    अतीत    भक्ति के सात इस ग्रन्थ को हमेशा अनुसंधान करनी हैं।

परमपद –  नित्य विभूति जो  ऊंची  स्थान  हैं।

अण्डों और उनसे  ऊंचे प्रस्तुत महथाधियो और उनसे भी ऊँचे और अद्वितीय लोक जो श्रीवैकुण्ट हैं।

प्राप्नोति – प्रकर्षेण आप्नोति , सिद्ध होना।  भगवान , नित्यसूरिया ,और मुक्तात्माये , इन तीनो  को  कैंकर्य    करने वाले  तीन  फलो की  सिद्धि के लिए  निर्विग्न स्थान को प्रकर्ष ,एवं गर्व संग आचार्य पर्यंत कैंकर्य  को  सिद्ध करता हैं ,.

भगवद आराधन रूप , यह पंचकालीय कर्म, मोक्ष की  ओर  सीधे  उपाय  हैं। लक्ष्मी तंत्र कहती हैं  की,   एक के बाद एक पधारने वाले इन अनुष्ठानों  के समय को जान कर , उन  अनुष्ठानो  की  पूर्ती करने  वाली ताखतमंद  और   बुद्धिशाली  जन अपने   सौ     प्रायो    के पश्चात  शीग्र  ही परमपद प्राप्थ करते हैं।   सर्व मोक्षोपायो  को छोड़ , इन पाँच  अनुष्ठानो को निभानेवाले, एक से एक जुड़े हुए कर्मग्ननभक्ति  जैसे उपायो से भी मुक्त ,  एम्बेरुमान  और परमपद  को प्राप्त  करते है, यह चांडिल्य स्मृति में भी उपस्तित सच्चाई हैं।

फिर भी भरद्वाज जैसे बड़ो के कहने से यह माँननीय है की , एम्बेरुमान  को सिद्धोपय मानने   वालो  को  फलरूप ही  ( भगवतकैंकर्य रूप ही) करनी चाहिए।

प्रपन्न को अपनाने वाले धर्मों को बताते हुए , “ पहले अभिगमन करके,  फिर उपाधान  जो भगवदराधन  केलिए   उचित वस्तुवो को इकट्ठा करके ,  फिर भगवान की आराधना  इग्न को अनुष्ठान करके , अच्छे ग्रन्थ की स्वाध्याय करके , अंत में भगवान की ध्यान करके इन पांच कालो को संतुष्ट भिताना  हैं” ,  बताया गया है की संतोष , फलानुभव के समय  पर हैं।  इस से निश्चित कर सकते है की, इन पाँचो को उपायरूप में नहीं, पर फलरूप में ही निभाना  हैं।

इस पर, पराशर मुनि की उत्तेजना भी सोचनीय हैं, “ कर्म , ज्ञान, भक्ति, प्रपत्ति  इन चारो  को  मोक्षोपाय के रूप में  अनुष्ठान न करके, चारो फलो  में से ममता  रहित , इन पांचकालीय  अनुष्ठानो  को केवल परमात्मा  के संतुष्टि  की प्रयोजन केलिए कैंकर्य रूप में करनी हैं”.

श्री देवराज गुरु कहलाने वाले एरुम्बियप्पा के प्रसादित श्री वरवरमुनि दिनचर्या  एवं उस की , वादूल  वीर राघव गुरु के नाम   से जाने वाले तिरुमलीसै अन्नवप्पय्यंगर स्वामी से लिखित संस्कृतत व्याख्यान पर आधारित  ति अ   कृष्णमाचार्य  दास  की तमिल टिप्पणियाँ पूर्ण हुई।

जैसे प्रस्तावना में ही सूचित हैं , श्री वरवरमुनि दिनचर्या  पूर्वदिनचर्य, मनवालाममुनि  की प्रसादित यतिराज  विंसति एवं उत्तरदिनचर्य ,ऐसे तीन भागों में हैं।  दोनों दिनचर्यो की केवल अन्नावप्पय्यंगर स्वामी के संस्कृत व्याख्यान ही  छपाई में हैं।  यतिराज विंसति की अन्नावप्पय्यंगर स्वामी के संस्कृत व्याख्यान के सात शुद्धसत्वं दोड्डेयाचार्य स्वामी तथा पिल्लैलोकम जीयर स्वामी के लिखित मणिप्रवाळ व्याख्यान भी हैं।  मणिप्रवाळ व्याख्यानों में प्रस्तुत विषयो की ज्ञान अनेकों को होने के कारण उनको छोड़  , अन्नावप्पय्यंगर स्वामी से लिखित इन तीनो की संस्कृत व्याख्यानों पर आधारित ही इसको मैंने लिखा हैं।  संस्कृत व्याख्यान में उपस्तित विस्तारपूर्वक कुछ विषयों को मैंने छोड़ दिया।  पुस्तक की विस्तीर्ण   के शंका और मेरे अज्ञान के  कारण इस पुस्तक में घटित अपराधो की क्षमा प्रार्थना करता हूँ।

हिंदी अनुवाद – प्रीति रामानुज दासि

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