उत्तरदिनचर्या – श्लोक – १

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः

परिचय                                                                                                                                   श्लोक २

श्लोक १

इति यति कुल धुर्य मेध मानै श्रुति मधुरैउदितै प्रहर्षयन्तं |
वरवर मुनिमेव चिन्ययन्ति मतिरियमेति निरत्ययम प्रसादं ||

शब्दार्थ:

इति                  : “श्रीमाधवांघ्रि” से “विज्ञापनम” तक व्यक्त किये अनुसार
मेध मानै           : नित्य अधिक विकसित होना
श्रुति मधुरै         : सुनने के लिये सुहावना
उदितै                : अभिव्यक्ति
यतिकुल धुर्य     : सन्यासियों में श्रेष्ठ श्रीरामानुज स्वामीजी
प्रहर्शयन्तम      : उनको सुखद करने के समय
वरवर मुनिमेव  : श्रीवरवर मुनि स्वामीजी मे स्थिर करते समय
मतिरियमेति    : मेरा मन चित
निरत्ययम       : स्थायी रूप से
प्रसादम यति    : स्पष्टता प्राप्त करता है

व्याख्या

श्री देवराज स्वामीजी (श्री एरुम्बियप्पा) दिलासा दिये और आनंदित हुए कि उनका मन प्राप्त हो और जो न प्राप्त हो ऐसे विषयों में अभी तक कष्ट में डुबा हुआ था वह अब केवल श्री वरवर मुनि स्वामीजी के बारें में हीं सोचता है जिन्होंने श्रीरामानुज स्वामीजी में खुशी से गोता लगाया और श्री यतिराज विंशति भेंट दि और उनके अशांति से मुक्त हुए और शांति प्राप्त कि। “वरवरमुनि एव” वर्णन करके वह यह कहते हैं यह खुशी उन्हें यतिराज के बारें में विचार करके नहीं बल्कि श्री वरवरमुनि स्वामीजी के बारें में सोचकर हुई है जिन्होंने श्रीयतिराज को अपने स्तोत्र सुनाकर आनंदित किया। भगवान या भागवतों या आचार्यों के विचारों से उपर उठकर श्री वरवरमुनि स्वामीजी जो आचार्य के प्रति भक्ति रखते है की जो श्रेष्ठ और स्थिर है उनके बारे मे सोचकर मानसिक स्पष्टता प्राप्त कर सकते है। हालाकि यह पद्य छोटा हैं केवल २० पदों के साथ यह संपूर्णता “मेध मानै” शब्द से दर्शाया गया है जो अधिक जैसे लगता है परन्तु श्रीरामानुज स्वामीजी के कृपा से जो यह श्रीवरवर मुनि स्वामीजी के हरेक पद को हजार पध्य के समान समझते है।

महात्मा जन हमारा छोटे चीज के लिये भी उनके प्रति प्यार बहुत बड़ा और अमूल्य समझते है।  “प्रहर्शयन्तम” शब्द में हर्ष प्रगट होता है, “हर्ष” शब्द के पिछे “प्र” लगाया गया है जो श्रीरामानुज स्वामीजी का श्रीवरवर मुनि स्वामीजी के प्रति प्रसन्नता को दर्शाता हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी की  प्रसन्नता श्रीवरवर मुनि स्वामीजी के प्रति केवल श्रद्धा है और श्रीवरवर मुनि स्वामीजी अपने आचार्य के प्रसन्नता से कोई सांसारिक लाभ लेनेका सोच भी नहीं सकते। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी “चिन्ययन्ति” शब्द से हमेशा श्रीरामानुज स्वामीजी के बारें में विचार करते है और अनूठे रूप से चिन्ययन्ति जो गोपी है उनके साथ तुलना करते है जो हमेशा भगवान श्रीकृष्ण या श्रीशठकोप स्वामीजी के बारें में सोचती रहती है ज्यो की उनके भगवान के प्रति अगाध प्रेम के कारण दीर्घ चिन्ययन्ति से जाना जाता है । यहाँ शब्दों को तीन भागों में बाँटा गया है… स्रुति मधुरै उदितै। यह स्रुतिमधुरै और उदितै ऐसा भी बाँटा जा सकता हैं जब की रुदीतै का अर्थ रोना है। “अल्पापी मे” छन्द से श्रीवरवर मुनि स्वामीजी ज्यादातर अपनी अज्ञानता, निष्ठा में कमी के बारे में बात कर रहे है और “हा हंत हंत” कहकर रोते है अपना दर्द समझाते है और जैसे रोना हमेशा स्वदीप्तिमान कि तरफ ले जाता है हम “रुदितै” शब्द का इस्तेमाल कर सकते है। मोक्ष के लिये रोना सुनकर श्रीरामानुज स्वामीजी प्रसन्न होंगे यह कहना क्या अवश्यक है? इसलिये श्रीवरवर मुनि स्वामीजी “रुदितै” शब्द का उपयोग करते है। श्रीवरवर मुनि स्वामीजी संस्कृत में जो कहे है उसे यतिराज विंशति और तमिल में आर्ति प्रबन्ध कहते है।

हिंदी अनुवाद – केशव रान्दाद रामानुजदास

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