श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्लोक ३१
अब्जासनस्थमवदातसुजातमूर्तिं आमीलितक्षमनुसंहितमन्त्ररत्नम् ।
आनम्रमौलिभिरुपासितमन्तरंगैः नित्यम् मुनिम् वरवरम् निभृतो भजामि ॥ ३१॥
शब्दार्थ –
अब्जासनस्थम् – (वह) जो भगवान का ध्यान करने हेतु पद्मासन मे बैठे हुए है,
अवदात सुजात मूर्तिम् – (वह) जिसका शरीर अत्यन्त सुन्दर और रमणीय है और जिसका रंग गाढे दूध के समान है,
आमीलित लक्षम् – जिनके नेत्र थोडे थोडे बन्द है (जो भगवान का दिव्यमंगलस्वरूप के ध्यान करने के कारण अपने नेत्रों को थोडा सा बन्द किया है और यही उनके नेत्रों को शामक दे रहा है),
अनुसम्हित मन्त्ररत्नम् – ध्यानावस्था मे धीरे और गुप्त रूप से मन्त्ररत्न (द्व्यमहामन्त्र) का जप कर रहे है,
आनम्रमौलिभिः – (जिसने) पूजा करते समय पूर्ण रूप से अपने मस्तिष्क को झुका दिया है,
अन्तरंगैः – अपने आन्तरिक भगवद्बन्धुवों (जैसे कोइल् अण्णन्, प्रतिवादिभयन्करम् अण्ण और अन्य शिष्यों) के साथ,
उपसितम् – (जो) हर वक्त पूजा कर रहे है, वरवरम् मुनि – मणवाळमहामुनि,
निभृतस्सन् – गंभीरता/दृढता से,
नित्यम् भजामि – नित्य भजता हूँ
भावार्थ (टिप्पणि) –
यहा ज्ञात किया जा रहा है की विश्वामित्रजी ने योग के विषय मे इस प्रकार कहा है – कि एक योगी को ऐसी जगह मे योगसिद्ध करना चाहिये जहाँ ज़्यादा तेज़ हवा ना चलती हो, जहाँ उतार चढाव ना हो, और वह जगह सुन्दर सुशील हो । वहाँ लकडी के आसन को रखकर अपने सर्वांगों को नियन्त्रित कर आसन पर स्वच्छ कपडे, मृगचर्म और घास को फैलाकर उसपर बैठकर भगवद्ध्यान करना चाहिये । धर्मशास्त्र के अनुसार एक योगी को अपने दोनो नेत्रों को अपने नाक के अग्रभाग मे केन्द्रित कर ध्यान करना चाहिये । श्री विष्णु तत्व मे कहा गया है – (ऐसे) योगी (जो) परमात्मा रूपी भगवान के दिव्य गुणों से संबन्धित मन्त्रों के ध्यान से मन्त्रमुग्ध होकर जिसके नेत्र अश्रु से भर गये हो और अश्रु की धारा बह रही हो, (जो) भगवान के अधीन हो, और ऐसी अनुभूति का रसास्वादन कर रहा हो वह सदैव हर किसी से देखने योग्य है ।
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