यतिराज विंशति – श्लोक – १९

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति

श्लोक  १८                                                                                                                  श्लोक  २०

श्लोक  १९

श्रीमन् यतीन्द्र! तव दिव्य पदाब्जसेवां श्रीशैलनाथकरूणा परिणामदत्ताम् |
तामन्वहं मम विवर्धय नाथ तस्या: कामं विरूद्धमखिलं च निवर्त्तय त्वम्| १९ | 

नाथ श्रीमन् यतीन्द्र                        : हमारे नायक आचार्य श्रीरामानुज!
श्रीशैलनाथ करूणा परिणाम दत्ताम् : (मेरे आचार्य) श्रीशैलनाथ ने अपनी करूणा के परिवाह से जिसको दिया था
तां तव दिव्य                                 : आपके उन सुन्दर
पदाब्ज सेवां अन्वहं                       :  चरणकमलों की सेवा को प्रति दिन
मम विवर्धय                                 :  मेरे लिये अभिवृद्धि बना इच्छाओं को
त्वं निवर्तय                                  :  इस संसार में (जहाँ उसकी महिमा जान कर उसकी भक्ति   वाला कोई नहीं

आपके आचार्य श्रीशैलनाथ ने श्रीरामानुज की मूर्ति दिखा कर कहा कि इनके विषय में एक स्तोत्र की रचना करो| उसके फलस्वरूप यह स्तुति निकली| इसका उल्लेख करते हुए एक प्रार्थना करते हैं इस श्लोक में| आचार्य श्रीरामानुज! आपके चरणकमलों का दर्शन मैं स्वयं नहीं कर पाया| आचार्य के कृपया दिखाने के कारण देख सखा| इसलिए वह विषय जेपी परमप्राप्य है आज मुझे नया नहीं मिला, लेकिन पहले ही से प्राप्य है अगर आपको मिल गया है तो अब आपको क्या चाहिए? उसकी शक्ति तो आप में पर्याप्त मात्रा में विध्यामान है| अन्तिम पाद से यह प्राथना भी की जाती है कि उसके विरोधिभूत कामनाओं को भी दूर कीजिए|

“तस्या विरूद्धमखिलञ्च कामं निवर्तय ” इसका भाव है कि सब कामों को दूर कीजिए चाहे भगवत्काम हो या विषयान्तरकाम | जैसे भगवद्विषय में रात भक्तों को विषयान्तरकाम हेय हैं, वैसे ही आचार्यविषय में बैठे रहने वालों को भगवत्काम भी त्याज्य ही होगा|

अगर बात यह है तो विषयान्तरों की तरह भगवद्विषय से दूर रहना चाहिए न ? वैसे तो लोग नहीं देखते| यह इसलिए कि भगवान आचार्य के उपास्य हैं; यदि हम भगवान से प्रेम करें तो वह भी आचार्य के मुखोल्लास का ही कारण होगा| इसलिए भगवान को बिल्कुल छोड़ नहीं देते| जैसे कहा है “शत्रुघ्नो नित्यशत्रुघ्न:” अर्थात् श्रीरामचन्द्र पर अपनी इंद्रियों को विहरने न देकर भरत से ही लगे रहने वाले शत्रुघ्न भी कभी-कभी रामचन्द्र की सेवा करें तो वह भी अपने देवता भरत की तृप्ति ही के लिए || १९ ||

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