यतिराज विंशति – श्लोक – १

श्रीः
श्रीमते शटकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

तनियन्                                                                                              श्लोक  २

 

श्लोक १                                                      

श्रीमाधवाङ्घ्रि जलजद्वयनित्यसेवा प्रेमाविलाशयपरांकुश पादभक्तम् ।
कामादि दोषहरमात्म पदाश्रितानां रामानुजं यतिपतिं प्रणमामि मूर्ध्ना ॥ १ ॥

श्रीमाधवाङ्घ्रि जलजद्वय                : भगवान के कमल रूपी चरणों की
जलजद्वयनित्यसेवा प्रेमाविलाशय  : नित्य सेवामें प्रेम से जो व्याकूलित हैं
परांकुश पादभक्तम्                        : ऐसे श्री शठकोप मुनि के चरणोंके भक्त
आत्म पदाश्रितानाम्                       : अपने चरणोंका आश्रय लेने वालों के
कामादि दोषहरं                              : काम आदि दोषोंकों नष्ट करने वाले
यतिपतिं रामानुजं                          : यतिराज श्री रामानुज मुनि को
मूर्ध्ना प्राणमामि                            : सिर से प्रणाम करता हूँ ।

श्रीशठकोप मुनि के चरणों के अनुरागी, अपने चरणानुरागियों के दोषों का निवारण करने वाले श्री रामानुज मुनि को प्रणाम करता हूँ। यद्यपि श्री रामानुज मुनि में उनकी महत्ता को व्यक्त करनेवाली अनेकों विशेषतायें मिलती हैं तथापि उन सब में उनका श्रीशठकोप मुनि के चरणों का रसिक होना बढ़ कर है। श्रीरग़ांमृत कवि एवं आचार्य हृदयकार ने इसका उल्लेख किया है। श्रीमद्वरवरमुनी ने  परांकुशपादभक्तम् कह कर इसी का निर्देश किया है।

श्री शठकोप मुनि कैसे थे ? इस प्रश्न का उत्तर श्लोक के पूर्वार्ध में मिलता है। भगवान के चरण कमलों को ही वे अपना परम प्राप्तव्य समझते थे। उनमें उनकी सतत प्रेमव्याकुलता थी। कर्म जनित व्याकुलता हेय होती है। चरणों की उपादेयता का संकेत यहाँ पर हैं। श्रीवचनभूषण और उसकी व्याख्या में बताये गये सिद्धोपाय का यहाँ पर स्मरण किया जा सकता है।

इस श्लोक में ‘ परांकुश ’ नाम से श्री शठकोप मुनि का उल्लेख किया गया है। ‘ परांकुश ’ शब्द की व्युत्पति दो प्रकार की होती है। पर अर्थात दूसरे लोगों के अंकुश तथा पर अर्थात परमतत्व के अंकुश। दूसरे लोगों से तात्पर्य उन लोगों का है जो परमात्मा परमतत्व को निर्गुण, निराकार एवं विभूतिहीन समझते हैं। श्री शठकोप अपनी दिव्य सूक्तियों के द्वारा उन पर अंकुश के रूप में स्थित हैं और उनकी प्रतिगामिता को रोकते हैं। परात्पर भगवान के अंकुश होने का तात्पर्य यह है कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान स्वयं उनके वशीभूत हैं। यह श्रीशठकोप मुनि ने सहस्त्रगीति में स्वयं स्वीकार किया है।

श्लोक के उत्तरार्ध का आरम्भ कामादि दोषहर  से हुआ है। ‘आदि’ से क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, अज्ञान, असूया अभिप्रेत है। ‘कामादि हरम्’ न कह कर ‘कामादि दोष हरं’ कहने का तात्पर्य यह है कि नियमित कामना दोष नहीं। नियमानुकूल विहित कामना का प्रवेश गुणों कि कोटी में होता है। भगवान के सम्बन्ध में कामना, भगवान एवं भागवतों के विरोधी के प्रति क्रोध, मात्सर्य आदि गुण हैं, दोष नहीं। काम आदि दोषों के निवारण का सामर्थ्य होने के कारण ‘दोष हरं’ कहा गया है। नतमस्तक होकर प्रणाम करने कि बात ‘मुर्ध्ना प्रणमामि’ से व्यक्त होती है। मस्तक झुकाने के प्रयोजन आलवार – सूक्तियों में वर्णित हैं ॥ १ ॥

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