Daily Archives: April 3, 2016

यतिराज विंशति – श्लोक – ८

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श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ७                                                                                                                              श्लोक  ९

श्लोक  ८

दु:खावहोऽहमनिशं तव दुष्टचेष्ट: शब्दादि भोगनिरत: शरणागताख्य: |
त्वत्पादभक्त इव शिष्टजनौघमध्ये मिथ्या चरमि यतिराज ततोऽस्मि मूर्ख: || ८ ||

यतिराज! अहं                       : हे रामानुज! मैं
दुष्ट चेष्ट:                            : बुरे आचरण वाला हूँ;
शब्दादि भोग निरत:              : शब्दादि विषय भोग में रत हूँ;
शरणागताख्य: अनिशं तव     : ‘शरणागत’ अर्थात् ‘प्रपन्न’ नाम धर कर भी सदा आप (के हृदय)
को
दु:खवह:                               : दु:ख पहुँचाता रहता हूँ ;
शिष्ट-जन-ओघ-मध्ये           : शिष्ट लोगों के समूह के मध्य में
त्वत्पाद भक्त इव                 : आपके चरणों के भक्त की तरह
मिथ्या चरमि                       : झूठमूठ घूमता फिरता रहता हूँ
तत: मूर्ख अस्मि                   : इसलिये मैं एक मूर्ख ही हूँ|

हे स्वामीन्! मैं आपका दास हूँ तो भी मैं बुरा चाल चलन रखता हूँ और शब्दादि विषयों के अनुभव करने में लगा हूँ| नाम मात्र के लिए मैं शरणागत हूँ| अपनी इस करनी से मैं सर्वदा मन को दु:ख पहुँचा रहा हूँ| इस प्रकार रहने के कारण यध्यापि आपके भक्त समूह की और झाँकने तक की योग्यता नहीं, तो भी ऐसा ढोंग रचता हूँ मानो मैं आपके चरणों में पारमार्थीक प्रेम रखता हूँ और विलक्षण महापुरूषों की गोष्टी में ढोंगी बनकर ही फिरा करता हूँ| लीजिए, यह मेरी मूर्खता है|

दु:खावहोऽहं आपकी दया के योग्य हूँ| मेरा दु:ख देख कर आप खुद पसीज कर मुझ पर दया कीजिए || ८ ||

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यतिराज विंशति – श्लोक – ७

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श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

श्लोक  ६                                                                                                                               श्लोक  ८

श्लोक  ७

वृत्त्या पशुर्नवपुस्तवहमीद्वशोऽपि श्रुत्यादि सिध्द निखिलात्मगुणा श्रयोऽयम् |
इत्यादरेण कृतिनोऽपि मिथप्रवक्तुमध्यापिवंचनपरोऽत्र यतीन्द्र वर्ते || ७ ||

यतीन्द्र अहं तु                    : हे श्रीरामानुज! मैं तो
नर वपु:                             : मनुष्य शरीर वाला हूँ तो भी
वृत्त्या पशु:                        : अपनी करनी से जानवर ही हूँ
ईद्वश: अपि                      : यध्यपि मैं ऐसा हूँ; तो भी
अत्र अध्य एपीआई             : इस संसार में आज भी
वञ्चनपर: वर्ते                   : इतना वञ्चक ठग हूँ कि
कृतिन: अपि                      : अभिज्ञों महानुभावों को भी
आदरेण                             : आदर के साथ
मिथ: प्रवक्तुम् अयं            : परस्पर यह बोलने को बाध्य करता हूँ कि यह
श्रुति- आदि- सिद्ध-              : श्रुत्यादि में सिद्ध
निखिलात्मगुणाश्रय: इति    : सभी आत्मगुणों का आश्रय है |

पिछले श्लोक में स्वनिकर्ष का अनुसन्धान जो आरब्ध हुआ वह अनुवृत्त होता है| यध्यपि मैं मनुष्य योनि में पैदा होकर मनुष्य शरीर के साथ दिखाई देता हूँ, मेरा आचरण इतना गया बीता है कि उसमें और पशुओं की वृत्ति में कोई भेद नहीं| “ज्ञानेन हीन: पशुभि: समान:” ज्ञान के अनुभव तथा अनुष्ठान के वैकल्य से मैं जानवरों के समान हूँ| यध्यपि वास्तव में यही मेरी स्थिति है, मैं इस तरह का ढोंगी भक्त बना फिरता हूँ कि अभिज्ञ लोग भी मुझे देख कर बोलते हैं कि वेद-वेदान्त-वेदाड्गों में प्रतिपादित सभी आत्मगुणों की ये खान हैं| यह है इनका नैच्यानुसन्धान|

वृत्त्या पशु: – आहार निद्रा आदि में भी कोई नियम मैं नहीं रखता|

कृतिनोऽपि मिथ: प्रवाक्तुम् – यह प्रथमा विभक्ति का बहुवचन नहीं| क्योंकि उसका अन्वय ‘वर्ते’ क्रिया से नहीं हो सकता| इसको कर्म कारक बहुवचन मान कर, ‘प्रवक्तुं’ को (अन्तर्भावित-णिच्) प्रेरणार्थक समझा जा सकता है| ‘प्रवक्तु:’ ऐसा भी पाठ कोई कोई कहते हैं || ७ ||

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यतिराज विंशति – श्लोक – ६

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श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
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श्रीमद् वरवरमुनय् नमः

यतिराज विंशति     

 श्लोक  ५                                                                                                                                   श्लोक  ७

श्लोक  ६

अल्पापि मे न भवदीयपदाब्जभक्तिः शब्दादिभोगरुचिरन्वहमेधते हा।
मत्पापमेव हि निदानममुष्य नान्यत् तद्वारयार्य यतिराज दयैकसिन्धो ॥ ()

दया एक सिंधो यतिराज  :  सागर जैसा अनंत होते हुए भी अतुलनीय दया रखनेवाले यतिराज
आर्य:                            :  आचार्य
मे                                 : मुझे
भवदीयपदाब्जभक्तिः    :  आपके चरणों में भक्ति
अल्पापि मे न                : लेश मात्र नहीं
शब्दादिभोगरुचि            : रूप , रस, स्पर्श, गन्द जैसे अल्पतर वासनाओं से पीड़ित
अंनवहम  एधते             : प्रतिदिन बढ़ता जाता है
हा                                : हाय (शोक और आश्चर्य से)
अमुष्य निदान              :  धार्मिक चिन्तनों से वियुक्तः अल्पतर विषयों से आकर्षित होने वाले इस स्थिति का मूल कारण
मत्पापमेव                   :  मेरा स्वयं अर्जित पापों ही
अन्यत न                    : और कुछ / कोई भी नहीं
तद वारय                    : उस पापों से विमोचन दीजिये

चौथाई श्लोक में प्रार्थना किये थे कि प्रतिदिन अपने मन श्री रामानुजाचार्य के दिव्य स्वरुप में ही लगाते रहेँ | लेकिन इस श्लोक में अपना मन अभी भी उसके विरुद्ध अन्यत्र विषयों में भटकते रहने को इंगित करते हैं | इस विपरीत स्थिति को हटाने के लिए इस श्लोक में उसका मूल कारण होने वाले अपने असंख्य पापों को हटाने की प्रार्थना करते हैं |

दया माने – अन्यों का कष्ट देख्कर निस्स्वार्थ उससे दुखी होना | श्री रामानुजाचार्य उस दया स्वभाव का सागर होते हैं | “अतुलनीय” का गोपनीय अर्थ होता है कि भगवान श्रीमन नारायण का दया को भी कोई सीमा होगा लेकिन श्री यतिराज के दया का कोई सीमा नहीं |

आर्य माने –

  1. आचार्य शब्ध के समानार्थक मानकर तत्व, हित , पुरुषार्थ को स्पष्टीकरण करनेवाले यानि मोक्षप्राप्ति कारणात्मक श्री रामानुजाचार्य !
  2. “आराध याति इति आर्य” – इस व्युत्पत्ति से वेद में नियमित धर्मी पथ के पास और उससे विरुद्ध अधर्मी पथ से दूर लेनेवाले श्री रामानुजाचार्य!
  3. अरयते – प्राप्यते – सर्व जनों से पुरुषार्थ स्वरूप में प्राप्य लायक श्री रामानुजाचार्य !

हा (शोक और आश्चर्य) माने –

  • शोक का कारण – धार्मिक चिन्तनों से वियुक्तः अल्पतर विषयों से आकर्षित होने वाले स्थिति
  • आश्चर्य का कारण – सीमित सुख देनेवाले शब्दादि विषयों में प्रीति और असीमित सुख देनेवाले यतिराज से अप्रीति करना

मत्पापमेव ही  निदान माने – जो कोई लोग भक्तिमान बन जाते हैं, उनका मोक्षप्राप्ति के लिए भगवान उनका पाप को उनके विरोधियों से लदवाते हैं | मामुनिजी कहते हैं कि उनका पाप ऐसे वाले पाप नहीं जो भगवान अपने स्वतंत्रा से या मुझसे खेलने के लिए लाद लिया गया है, मगर वो सब स्वयं अर्जित किया पाप है | इसका कारण और कोई व्यक्ति या भगवान नहीं |

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పూర్వ దినచర్య – శ్లోకం 3 – సుధానిధి

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శ్రీ:
శ్రీమతే శఠకోపాయ నమ:
శ్రీమతే రామానుజాయ నమ:
శ్రీమద్వరవరమునయే నమ:

శ్రీ వరవరముని దినచర్య

శ్లోకం 3

సుధానిధి మివ స్వైర స్వీక్రుతో దగ్ర విగ్రహం !

ప్రసన్నార్క ప్రతికాశ  ప్రకాశ పరివేష్టితం ! !

ప్రతి పదార్థము:

స్వైర స్వీక్రుత ఉదగ్ర విగ్రహం _  తనకిష్టమైన స్వరూపమును తానే స్వీకరించిన అందమైన విగ్రహ రూపుడైన

సుధానిధి మివ (సతితం) _పాల కడలి వంటి తెల్లని వర్ణము గల వాడు

ప్రతికాశ  ప్రకాశ పరివేష్టితం _ (రెప్ప వేయ కుండా చూడవలసిన) ప్రకాశాముగాను చల్లగాను, ఉండే సూర్యుని (అటువంటి వాడొకడుంటే )వంటి కాంతి స్వరూపుడు

భావము:

శిష్యుడు ఆచార్యుని దేహమును పాదాది కేశ పర్యంతము ధ్యానించాలి అని, శిష్యుడు ఆచార్యుని దేహమునకు సేవ చేసుకోవాలి అన్న సూత్రమునకు నిరూపణగా ఇక్కడ ఆచార్యుల దేహమును వర్ణిస్తున్నారు. మామునులు తెల్లని అనంతుని అవాతరమగుట వలన  తనకిష్టమైన స్వరూపమును తానే స్వీకరించిన అందమైన విగ్రహ రూపుడుగా వర్ణింప బడ్డారు .పాల కడలి  ప్రకాశము పరిమితమైనందున   సూర్యుని  కాంతిని మామునులకు  ఉపమానముగా గ్రహించారు. సూర్యుని  కాంతి ఉగ్రముగా వుంటుంది కావున ఆదోషమును తొలగించడానికి ‘ప్రసన్న ‘  అనే విశేషణమును స్వీకరించారు. అనగా తేటగా, చల్లగా ఉండే సూర్యుడొకడుంటే ఆయన లాగా మామునులున్నారని అతిశయోక్తి అలంకారమును ప్రయోగించారు.

అడియేన్ చూడామణి రామానుజ దాసి

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/09/purva-dhinacharya-tamil-3/

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