ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३९

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३८                                                            ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ४०

पाशुर-३९  putna1

अलगै मुलै सुवैत्तार्क्कु अंबर अडिक्कन्बर
तिलदम एनत तिरिवार तम्मै उलगर पलि
तूट्रिल तुदियागुम तूटादवर इवरै
पोट्रिल अदु पुन्मैये याम

प्रस्तावना: पिछले पाशुर में आचार्य कि महिमा के बारे में विस्तार से चर्चा की गयी। आचार्य के चरण कमल का महत्व और वों ही उसके जीवन के लिये सबकुछ हैं यह जानकार एक मनुष्य उन्हें पकड़कर रखता हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी शिष्य को समझता हैं जिसने अपने आचार्य के चरण कमलों को पकड़ा हैं तो वह व्यक्ति सचमुच हीं समझदार हैं। लोग उस व्यक्ति को जो अपने आचार्य को ही सब कुछ समझता हैं उसकि महिमा को नहीं समझते वह उसके बारें में कुछ इस तरह बात करते हैं, “वह अपने आचार्य को ही सब कुछ मान कर उनके पीछे क्यों जा रहा हैं? वह उन्हें भगवान श्रीमन्नारायण से भी बढ़कर क्यों मानता हैं? वह अपने आचार्य के पीछे-पीछे क्यों घुमाता हैं?” इन लोगों कि जो कुछ भी शिकायत हो परंतु यह पाशुर इन सब प्रश्नों का उत्तर देता हैं। यह लोग जो भी प्रश्न सामने रखे उसमे एक अनुमान कि बात हैं। यहाँ एक समुह के लोग हैं जो भगवान श्रीमन्नारायण के पिछे उनकी महिमा, रूप, श्रेष्ठ गुण, अवतार, कथाएं आदि सुनते जाते हैं। अगर यह समुह जो भगवान के पिछे जाता हैं दूसरे समुह के लोगों को जो आचार्य को ही सब कुछ मानते हैं उन्हें पुंछते हैं कि “आप लोग भगवान श्रीमन्नारायण के पिछे क्यों नहीं चलते हो और केवल एक मनुष्य जिसे आचार्य कहते हैं उनके पिछे जाते हो?” यह पाशुर भगवान के भक्तों से ही इन सब प्रश्नों का उत्तर देता हैं । सांसारिक लोगों से इन आचार्य भक्तोके प्रति कुछ भी निन्दा और जो प्रश्न भगवान के भक्तों ने किये हैं उन्हें उनकी महिमा को समझना होगा ना कि उसे शिकायत / फटकार समझना होगा। इस व्याकरणिक ढाचे को तमिल में “वंजपुगझ्चीयणि” कहते हैं। हम इस पर एक उदाहरण देख सकते हैं। एक समय कि बात हैं श्रीरामानुज स्वामीजी के समय बहुत से लोग श्रीरंगम में पुन्नै पेड़ के नीचे खड़े हुये थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भी वही पर उन सब लोगों के साथ भगवान कि सवारी के शुरू होने के इंतज़ार में वहाँ खड़े थे। श्रीरामानुज स्वामीजी भगवान के निकट खड़े थे। बहुत से भक्त श्रीरामानुज स्वामीजी के समीप आकर उन्हें दण्डवत करके चले गये। चोल राज का एक कवि जो यह सब कुछ उत्सुकता से देख रहा था उसका नाम “उदयार सुब्रमान्यभट्टर” था। इस का कारण जानने के लिये वह श्रीरामानुज स्वामीजी के निकट गया और पूछा, “हे! स्वामी! मैं आप से कुछ जानना चाहता हूँ”। श्रीरामानुज स्वामीजी ने कहा “पूछिये,कृपा करके आप को जो कुछ भी पूछना चाहते हैं उसे पूछिये”। उस कवि ने उत्तर दिया कि “मैंने बहुत से लोगों को देखा जो आपके पास आकर और आप को दण्डवत किया। उन्हें भी यह करने में आनन्द आ रहा था और आप जो भगवान के निकट खड़े थे आप ने भी उन्हें रोकने कि कोशिश नहीं कि और खुशी से उनके दण्डवत को स्वीकार किया। आप ने उन्हे दण्डवत करने से रोका भी नही। आप ने ऐसे क्यों किया जब उन्होंने आप को दण्डवत किया तब आपने उन्हें कुछ भी नही कहा ।” श्रीरामानुज स्वामीजी ने उत्तर दिया “हाँ, यह वह प्रश्न हैं जो कि पुछना चाहिये। यह बहुत अच्छा सवाल हैं। परन्तु मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि यह प्रश्न आप से आया।” वह कवि थोड़ा हैरान हो गया और कहा “मेरे में क्या विशेषता हैं?” श्रीरामानुज स्वामीजी ने उत्तर दिया “आप राज महल में सेवा करते हैं। आपके राजा के पास

बहुत से लोग आते होंगे। अगर किसी व्यक्ति को राजा से कुछ चाहिये तो वह राजा कि चरण पादुका को लेकर उसे अपने सिर पर रखकर उसको सन्मान देगा। राजा को पता हैं कि वह व्यक्ति उनकी चरण पादुका को सिर पर रकखर उन्हे सन्मान दे रहा हैं और यह राजा को लुभाने का एक तरीका हैं।” यह जानकर राजा निश्चित ही कुछ कर देता हैं कि उस व्यक्ति कि इच्छा पूर्ण हो जायेगी। इसक अर्थ उस व्यक्ति का काम क्या उन चरण पादुकाओंने किया? यह तो राजा ने उस व्यक्ति का काम किया नाकि चरण पादुका। यह घटना आपने बहुत बार राजमहल में जब आप होते हो तब देखी होगी। उसी तरह यहाँ भगवान तो राजा हैं और आडिएन भगवान कि चरण पादुका। लोगों को जो भगवान से कुछ भी चाहिये वह भगवान को खुश करने के लिये मुझे दण्डवत करते हैं, मै जो भगवान कि चरण पादुका कि तरह सेवा कर रहा हूँ। भगवान यह निश्चित करते हैं कि जो उनके प्रति प्रेम और आदर भावना रखेगा उसका कार्य पूर्ण हो जाये। इसलिये वह मुझे दण्डवत करते हैं। वह कवि “उदयार सुब्रमान्यभट्टर” श्रीरामानुज स्वामीजी से इतना बहुमूल अर्थ जानकार आनंदित हो गया। अत: यह देखा जाता हैं जो भगवद भक्त (भगवान श्रीमन्नारायण के भक्त) हैं वह आचार्य भक्तों पर करुणा दिखाते हैं। भगवद भक्तों को आचार्य भक्तों कि महिमा समझना चाहिये। अगर वें निष्फल हो जाते हैं परंतु आचार्य भक्तों पर करुणा दिखाते हैं तो आगे चलकर यह आचार्य भक्तों कि महिमा समझने की शुरुवात हो सकती है।

पाशुर अर्थ: अंबर – भक्त जन जो , अंबर अडिक्कन्बर – भगवान श्रीमन्नारायण के चरण कमलों में हैं , सुवैत्तार्क्कु – जिन्होंने पिया , अलगै मुलै – पुतना राक्षसी के छाती से दूध , तिलदम एनत – इन भक्तों का स्वभाव ऐसा हैं कि वह कृष्ण भक्तों को पवित्र मानते हैं क्योंकि उनके ललाट पर तिलक हैं, तिरिवार तम्मै – और इन महान आचार्य भक्त सब जगह फिरते हैं। ऐसे लोगों को अगर , उलगर – यह सांसारिक लोग , पलि तूट्रिल – यह कहते हैं कि यह लोग भगवान के पास जाने के सिवाय एक इन्सान के पिछे घुमते है, तुदियागुम – यह उनके लिये केवल एक प्रशंसा हैं क्योंकि यह उनकी आचार्य में भक्ति और भी दृढ़ करती हैं , अवर – हालाकी वही सांसारिक लोग , तूटादवर – अगर अपमान नहीं करते हैं , इवरै – उन आचार्य भक्तों का और , पोट्रिल – अगर वें प्रशंसा करती हैं, अदु – वह प्रशंसा , पुन्मैये याम – प्रशंसा नहीं अपमान हैं।

स्पष्टीकरण:

अलगै मुलै सुवैत्तार्क्कु: “अलगै” शब्द राक्षसी को संबोधित करता हैं। श्री तिरुवल्लुवर भी कहते हैं “वय्यतुललगय्यावैक्कपदुम”। “अलगै” पुतना राक्षसी को संबोधित करता हैं जो वेष बदलकर यशोदा के पास आयी। उसे कंस ने गोकुल में बड़े हो रहे श्रीकृष्ण को मारने भेजा था। पुतना ने अपने स्तन से जहरीला दूध पिलाकर श्रीकृष्ण को मारने कि कोशिश की। श्रीकृष्ण ने नाही दूध को चूसा बल्कि उसके साथ उसके प्राण भी निकाला लिये। यह कथा बहुत जगह बतायी गयी हैं। श्री परकाल स्वामीजी यह पद इस्तेमाल करते है “पेट्टतैपोलवन्धापेयचि पेरुमालैयूडूयीरैवर्रवाङ्गिउंदवायान “और “कंसोरवेंगुरुधिवंधिझियवेन्धझलपोंल्कून्ध्लालाईमण्स ओरमुलाईयुण्डमा मधलै”।श्री शठकोप स्वामीजी कहते हैं “विदपालमुधागामुधूसेयधित्तमायान”। यह कथा यह बताने के लिये ली गयी हैं कि भक्त अपने आप को भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में डुबा देते हैं। अंबर अडिक्कन्बर: भक्त जन जो इन श्री कृष्ण कथाओं में लीन हो जाते हैं। पुतना कृष्ण के मारने के लिये आयी। जो इन कथाओं के बारें में विचार करते हैं वह कृष्ण के विशेष गुण के बारें में भी विचार करते हैं। श्रीकृष्ण ने पुतना को मारा और सिर्फ उसे मारा ही बल्कि अपने आप को बचाया जो इस संसार पर अपनी निर्हेतुक कृपा करने वाला हैं। अगर श्रीकृष्ण ने उसे नहीं मारा होता तो क्या श्रीकृष्ण हमारे लिये नहीं होते? उनमे ऐसा क्या महान गुण हैं जहाँ वह अपने आप को अपने भक्तों के लिये हमेशा प्राप्त हो। यह करने के लिये वह सभी राक्षसो को मार डालता हैं। भक्त उनके यह गुण के बारें में सोचते हैं और उनमे पूर्णत: लीन हो जाते हैं। तिलदम एनत तिरिवार तम्मै: अत: वह लोग जो अपने “आचार्य” के और अन्य भागवतों के भक्त हैं जो भगवान के भी भक्त हैं उन्हें सच में “महान” कहते हैं। सभी महान पूर्वज उन भक्तों का उत्सव मनाते हैं जो सब जगह घुमकर भागवतों और उनके आचार्यों के गुणों कि प्रशंसा करते रहते हैं। “तिलक” औरतों के माथे पर एक चिन्ह हैं जो वह हमेशा रखती हैं। यह शुभ का संकेत हैं इसलिये यह लोग जो भक्तों के भक्त हैं उनकी प्रशंसा होती हैं और शुभ उत्सव कि तरह मनाया जाता हैं। इस भक्तों के भक्त वाली अवस्था को बहुत से आल्वारों ने अपने पाशुरों में वर्णन किया हैं। विशेषत: श्री शठकोप स्वामीजी अपने सहस्त्रगिती के “पलियुम शुडरालि” और “नेडुमार्कडिमै” के पदों में इसका आनन्द लेते हैं। श्री परकाल स्वामीजी पेरिया तिरुमोझि के “कण्शोरवेङ्गुरूदि” और “नण्णद वाल अवुणर इडै प्पुक्कू” के पदों में इसका आनन्द लिया। श्रीकुलशेखर स्वामीजी पेरुमाल तिरुमोलि के “तेट्टरूम तिरल तेनिनै” के पदों में आनन्द लेते हैं। श्रीभक्ताघ्रिरेणु स्वामीजी “मेम्पोरूल्पोगविट्टु” में आनन्द लेते हैं। इसके अलावा हम इतिहास और पूराणों में बहुत से जगह देख सकते हैं। श्रीवचनभूषण के २२६वें चूर्निकै में भी बहुत अच्छी तरह बताया हैं। उलगर पलि तूट्रिल तुदियागुम: जब एक गृहस्थ एक व्यक्ति पर टिप्पणी करता हैं जो भक्तों का भक्त हैं कि “देखों इस व्यक्ति को, वह और एक व्यक्ति के पीछे बिना उस व्यक्ति के बारें में जाने जा रहा हैं। उसे उसकी जात, अभी कि दशा आदि के बारें में कुछ भी पता नहीं हैं। वह केवल उस व्यक्ति के पीछे जा रहा हैं और उसे अपने मोक्ष का साधन मानता हैं और भगवान को तुच्छ समझता हैं”। अगर यह नकारात्मक टिप्पणी हैं तो, यह नकारात्मक टिप्पणी / शिकायत या निन्दा नहीं हैं बल्कि यह एक कदम आगे बढ़कर उस व्यक्ति के गुण को जो अपने आचार्य और अन्य भागवतों को अपना सब कुछ मानता हैं यह सिद्ध करता हैं। अत: यह कोई अभद्र टीप्पणी या शिकायत नहीं बल्कि प्रशंसा करने लायक हैं।

तूटादवर इवरै पोट्रिल अदु पुन्मैये याम: अब हम सीक्के के दूसरी तरफ का पहलू देखेंगे। यह सम्भावना हैं कि यह सामान्य जन भक्तों के भक्त की बहुत सी प्रशंसा करें। क्या यह प्रशंसा सच में पहिले स्थान पर हैं? अगर नहीं तो इसका क्या मतलब हैं? यह सामान्य जन ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते जो उन्हें पहिले स्थान पर करने कि जरूरत हैं। वह यह सिर्फ करते ही नहीं पर मिथ्या दिखाते भी है। इससे आगे चलकर वह उनकी दिनचर्या को देखकर यह टिप्पणी उन भक्तों के भक्त पर करते हैं और यह कहते हैं “वह केवल शास्त्र का पालन कर रहे हैं”। वह यह टिप्पणी मिथ्या अवलोकन के आधार पर करते हैं और इसलिये इसका कोई अर्थ नहीं हैं। वह यह इसलिये कहते हैं कि दूसरे लोग भी यह सोचे कि वें भी उनके बराबर हैं और दूसरों का सम्मान करते हैं। हालकि असल बात यह हैं कि यह लोग कितना भी मिथ्या प्रशंसा कर ले वह भक्तों के भक्त के यश की बराबरी नहीं कर सकते। बल्कि यह उन पर उल्ठा ही गिरेगा उनका अपमान होगा। अडियारक्कु अदियर (भक्तों के भक्त): भक्तों के भक्तों का पूरा समूह सम्पूर्ण विश्व के यश का कारण है। स्वयं उन भक्तों के लिये “तिलकं” भी कह सकते हैं। अगर सांसारिक लोगों को यह शिकायत करनी हो तो वह भगवान के पास न जाकर लोगों के पास जाते हैं तब वह शिकायत नहीं हो सकती। तब वह केवल प्रशंसा होगी। अत: हमने भक्तों के भक्त कि महिमा देखी।

विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण: श्रीरामायण में श्रीराम, श्रीलक्ष्मण, श्रीभरत और श्रीशत्रुघ्न जब अच्छाई के लिये खड़े हुये और दूसरों के लिये उनके पथ पर चलने का एक उदाहरण बने। चारों में श्रीशत्रुघ्नजी को ही हमारे पूर्वज पूजते हैं। इसका कारण हैं कि श्रीशत्रुघ्नजी अपने भाई भरत जो अपने भाई श्रीराम का बहुत बड़ा भक्त था उनकि भक्त के तरह सेवा कि । श्रीशत्रुघ्न अपने भाई भरत का सब कैंकर्य करते थे और “भक्तों के भक्त” के लिये एक उदाहरण बने। श्रीशठकोप स्वामीजी कहते हैं “तोंडरतोंडरतोंडरतोंडनशठकोपन”, और “अडियार अडियारदियारेङ्कोकल”। श्रीयोगीवाहन स्वामीजी कहते हैं “अडियारक्कु अनैअत्पडुतै”। श्री भक्ताघ्रिणु स्वामीजी कहते “अडियारक्कु अनैअत्पडुतै”। श्री महायोगि स्वामीजी कहते हैं “अड़ीयार्गलेमतम्मविरिकवुंपेरूवार्गले”। श्री कुलशेकर स्वामीजी कहते हैं “तोंडरतोंडरगलानवर”। यह सब एक ही तथ्य को दर्शाते हैं कि सभी आल्वार एक ही श्रेणी “अडियारक्कु अदियर” (भक्तों के भक्त) में रहना चाहते थे। इस ग्रन्थ के लेखक श्री देवराज मुनि स्वामीजी अपने आचार्य श्री रामानुजाचार्य स्वामीजी को सब कुछ मानते थे और उन्ही कि सेवा कि। वह एक व्यक्ति हैं जिन्हें इन पदों से समझाया गया “अंबरडिक्कुअंबर” और “तिलधमेनतिरिवार”। यही कारण हैं कि श्री देवराज मुनि स्वामीजी को “तेरूलारूम्मधुरकविनिलैतेलिन्धोंवाझिए” कि तरह मनाया जाता हैं। हम इसमे और भी उदाहरण देख सकते हैं। स्वामी तिरुवरंगामृतयमूधनार श्री रामानुज स्वामीजी के भक्तों कि सेवा कि और “रामानुजनूत्तन्दादि”यह ग्रन्थ लिखा। इसीतरह श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी और श्री वेदांति स्वामीजी के जीवन चरित्र में भी यह देखा जा सकता हैं।

श्री वरवरमुनि स्वामीजी ने श्रीरामानुज स्वामीजी के भक्तों कि सेवा की और “यतिराज विंशती” को गाया। श्री एरुम्बियप्पा स्वामीजी (श्रीदेवराज स्वामीजी, अष्ट गादि में एक) ने श्री वरवरमुनि स्वामीजी के भक्तों कि सेवा करके “पूर्व दिनचर्या”, “उत्तर दिनचर्या”, “वरवरमुनिशतकम”, “वरवर मुनि काव्यम”, “वरवरमुनिचम्पु” आदि गाया। एक में वह यह कहते हैं “सेरुकिल्लादवर्गळुम् आचार्य निश्टैगळिल् इरुपवरुम्, शास्तिर सारार्तन्गळै अऱिन्दवरुम् पणत्तासै, पेण्णासै मुदलिय आसैयट्रवर्गळुम्, पेरुमयट्रवर्गळुम्, अनैतु उयिर्गळ् इडतिल् अन्बु उडयवर्गळुम्, कोबम्, उलोबम् मुदलिय कुट्रन्गळै कडन्दवरुमान मणवाळ मामुनिगलिन् अडियार्गळोडु अडियॅउक्कु एन्ऱुम् उऱवु उन्डाग वेन्डुम्”। इसका अर्थ यह हुआ कि श्री एरुम्बियप्पा स्वामीजी श्री वरवरमुनि स्वामीजी के उन भक्तों के साथ नित्य सम्बन्ध रखना चाहते हैं जो अच्छे गुणों के स्वभाव के साथ है न घमंड और अभिमान, पूर्ण आचार्य भक्ति, शास्त्र ज्ञान और उसके गुप्त अर्थ, सांसारिक वस्तु मे रुचि न होना जिसमे धन और स्त्री भी शामिल हैं, विख्यात होने कि आश न होना और न पहचाना जाना, सभी जीव के प्रति प्रेम जिसमे पक्षी और जानवर भी शामील है, बुरे स्वभाव के प्रति घृणा रखना जैसे ग़ुस्सा, लालसा आदि। अत: हम यह देख सकते हैं कि सभी आचार्य और आल्वार केवल भक्तों के भक्त कि ही तरह होना चाहते है। यह सभी ज्ञान किसी भी जरिये से मलाई पर मलाई ही हैं। इसलिये यह बात ग्रन्थ के अन्त में हीं कही गयी हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/04/gyana-saram-39-alagai-mulai-suvaitharkku/

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