ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३८

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३७                                                             ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३९

पाशुर-३८

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तेनार कमलत् तिरुमामगल कोलुनन
ताने गुरुवागित तन अरूलाल मानिडर्क्का
इन्निलत्ते तो न्रु दलाल यार्क्कुम अवन तालिणैयै
उन्नुवदे साल उरुम

प्रस्तावना: “आचार्य कि कीर्ति और महत्व” का मनोभाव २६वें पाशुर (तप्पिल गुरू अरूलाल) में २७वें पाशुर (पोरुलूं उयिरूम) के जरिये बताया गया। २६वें पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी एक व्यक्ति कि परिस्थिती समझाते हैं जिसने भगवान श्रीमन्नारायण कि शरणागति अपने आचार्य कि सहायता से कि हैं। यह व्यक्ति परमपदधाम जाता हैं और वहाँ भगवान और उनके भक्तों कि निरन्तर सेवा करता हैं। अगले २७वें पाशुर में श्री देवराज मुनि स्वामीजी उन लोगों के बारें में चर्चा करते हैं जिन्होंने शरणागति नहीं कि हैं और उनकी अवस्था को दु:खदायी बताते हैं क्योंकि वह इस संसार में हमेशा के लिये व्यवहार करते रहेंगे। २९वें पाशुर में वह उस व्यक्ति कि चर्चा करते हैं जिसको अपने आचार्य कि कृपा प्राप्त हुयी हैं दु:खों का समुन्दर पार कर लेगा, जन्म और मृत्यु का बाँध तोड़ देगा और अन्त में परमपदधाम पहुँच जायेगा। ३०वें पाशुर में स्वामीजी इस बात कि चर्चा करते हैं कि किस तरह शास्त्र हमें इस बात के लिये रोकता हैं कि हमें उस व्यक्ति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए जो अपने आचार्य का सम्मान नहीं करता हैं। ३१वें पाशुर में यह कहते हैं कि किस तरह वेद कहते हैं कि आचार्य के चरण कमल हीं एक व्यक्ति के एक मात्र उपाय हैं। ३२वें पाशुर में उस व्यक्ति के बारे में समझाते हैं कि जो अपने आचार्य को केवल एक व्यक्ति समझता हैं उसे नरक जाना पड़ता हैं। ३३वें और ३४वें पाशुर में वह किसी व्यक्ति के क्रिया / कर्म को “अज्ञानी/मुर्ख” बताते हैं जब वह व्यक्ति अपने नजदीक रहने वाले अपने आचार्य को तुच्छ मानता हैं और भगवान कि तलाश में निकलता हैं जो हमारे पहूंच से बाहर हैं। ३५वें पाशुर यह समझाते हैं कि किस तरह भगवान स्वयं उस व्यक्ति को जलाते हैं जो अपने आचार्य के सम्बन्ध से दूर हो जाता हैं। ३६वें पाशुर में शिष्य को कैसे रहना चाहिये यह समझाते हैं। खासकर वह यह समझाते हैं कि १०८ दिव्य देशों के भगवान अपने आचार्य के चरण कमलों में ही विराजते हैं और इसलिये हमें भगवान के दर्शन के लिये और कहीं भटकने कि आवश्यकता नहीं हैं। ३७वें पाशुर में अच्छे शिष्य का एक और स्वभाव समझाया जहां एक शिष्य अपने आचार्य को हीं अपना सबकुछ मानता हैं। उपर जहाँ “सबकुछ” बताया हैं उसमें धन, आत्मा और शरीर आदि शामिल हैं। एक व्यक्ति को जो कुछ भी चाहिये धन, लंबी आयु, घर, अच्छा शरीर, अच्छे गुण आदि सब कुछ उसे आचार्य ही दे सकते हैं।

कुलम तरुम शेल्वम तन्दिडुम अडियार पडु तुयर आयिन एल्लाम
निलम तरम शेय्युम नील्विशुम्बरुलुम अरूलोडु परुनिलम अलिक्कुम
वलम तरुम मटुम तन्दिडुम पेट तायिनुम आयिन शय्युम
नलन्दरूम शाल्लै नान कण्डु काण्डेन नारायणा एन्नुम नामम” (पेरिय तिरुमोळि १-१-९)

इस पाशुर में यह बताया गया हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण वह सब कुछ उस व्यक्ति को देते हैं जो उनका नाम “नारायण” का अनुसन्धान करता है। उसी प्रकार आचार्य भी अपने शिष्य को सब कुछ देते हैं। अत: यह देखा जाता हैं कि आचार्य और कोई नहीं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण ही है। इसलिये आचार्य के चरण कमल कितने उपकारी हैं यह हमें सोचना हैं। इस सोच के साथ श्री देवराज मुनि स्वामीजी अपना कार्य पूर्ण करते हैं।

पाशुर ३८ अर्थ: साल उरुम – सबसे अच्छा कार्य करना, यार्क्कुम – जीवन के सभी क्षेत्र में लोग, उन्नुवदे – नित्य उसके बारें में विचार करते हैं, अवन तालिणैयै – अपने आचार्य के चरण कमल, तो न्रु दलाल – मनुष्य का अवतार लेना, इन्निलत्ते – इस धरती पर, तन अरूलाल – उनकी अनगिनत कृपा से, मानिडर्क्का – उन लोगों को बराबर करना जो गलती कर रहे हैं, ताने – ऐसे महान, कोलुनन – आचार्य और कोई नहीं भगवान श्रीमन्नारायण ही हैं, उनके स्वामी हैं, कमलत् – जो कमल पुष्प के उपर विराजते हैं, तेनार – जो शहद को बहाते है, तिरुमामगल – और जिन्हें पेरिया पिराट्टियार कहते हैं

स्पष्टीकरण:

तेनार कमलत् तिरुमामगल कोलुनन : क्योंकि अम्माजी भगवान श्रीमन्नारायण के वक्षस्थल में विराजती हैं, उनके निरन्तर स्पर्श से उनका हृदय सुन्दर हो जाता हैं। और जिस कमल पुष्प पर वें नित्य विराजते हैं वहाँ से शहद बहता हैं उससे उनका हृदय और भी सुन्दर हो जाता हैं। अत: भगवान को जो कमल पुष्प को सुन्दरता प्रदान करती हैं उनके पति ऐसे समझाया गया हैं। अम्माजी को “तिरु” भी कहते हैं जो संस्कृत शब्द “श्री” के बराबर हैं। तिरुप्पावै में श्रीआण्डाल ने

भगवान को “तिरुवेतुयिल्येझै” ऐसा समझाया हैं। क्योंकि वह “श्री” के पति हैं इसलिये उनसे बराबर या उनसे बड़ा कोई हो ही नहीं सकता जो आगे इस कविता में देखेंगे:

तिरुवुदयार्तेवरेनिलतेवर्कुंतेवन
मरुवु तिरुमंगै मगिझ नं कोज़्हूनं ओरुवने
अल्लोर्तलैवरेनल, अंबिनाल्मेमरंधु
पुल्लोंरैनल्लारेनल्पों

मदुरै तमिल बदला पुलवर्तीरुन॰ अप्पनयन्नगार

ताने गुरुवागित: श्रीमन्नारायण के पास अपनी पहचान को गुप्त रखने के लिये और आचार्य रूप में आने के लिये एक कारण हैं । ज्यो की आगे पाशुर में समझाया गया हैं। तन अरूलाल: इसका कारण और कुछ नहीं उनकी अपार दया हैं जो उनके निर्हेतुक निमित्त से आती है। इसीलिये उनके आचार्य रूप लेने के कारण के लिये कोई तहक़ीक़ात करने की आवश्यकता नहीं है। वह किस पर अपनी दया बरसाते हैं?

मानिडर्क्का: यह दया पूर्णत: सभी लोगों के प्रति हैं जिन्होंने इस संसार में जन्म लिया हैं, जो शास्त्र का पालन करते हैं और जो यह चाहते हैं कि उन्हें इस संसार के बन्धन से मुक्त करें।

इन्निलत्ते तो न्रु दलाल: अगर कोई बालक कुवें में गिर जाता हैं तो उसकी माँ भी उसकी रक्षा के लिये कुवे में गिर जाती हैं। उसी तरह इस संसार कि माँ और हम सब कि माँ यानि श्रीमन्नारायण इस संसार में हम सब कि रक्षा के लिये आते हैं जहाँ हम गिरे हैं।

यार्क्कुम: वह केवल एक वर्ग के लोगों कि रक्षा नहीं करते। वह सभी कि रक्षा करते हैं जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र आदि। वह हर अवस्था जैसे ब्रम्ह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ और सन्यास सभी की रक्षा करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों कि भी रक्षा करते हैं। वह सब कि रक्षा करते हैं।

अवन तालिणैयै उन्नुवदे: “अवन” यहाँ भगवान श्रीमन्नारायण कि बढाई का सक्षेप में वर्णन करते हैं। भगवान सभी जीवात्मा के सिर्फ एक ही मार्गदर्शक, एक ही रक्षा स्थान और एक ही लाभप्रद हैं। सभी जीवात्मा को प्राप्त करने का लक्ष्य और सबसे खास सबसे पहिले उसे प्राप्त करने का जरिया सिर्फ उनके चरण कमल हीं है। यह सभी जीवात्मा को भगवान श्रीमन्नारायण के इस गुण को सोचने के लिये कहता हैं। “उन्नुवदे” पद का निवारक अर्थ यह हैं कि भगवान के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहिये।

साल उरुम: इसका अर्थ बहुत योग्य हैं। “साल” का अर्थ अधिक और “उरुम” का अर्थ उचित हैं। इस पद का अर्थ यह हैं कि अगर जीवात्मा श्रीमन्नारायण के बारें में विचार करता हैं जैसे इस पद “अवन तालिणैयै उन्नुवदे” में बताया गया हैं वह करने के लिये सबसे निपुण और योग्य विषय होगा । अपने निर्हेतुक अनुकम्पा से संसार के जीवों का उद्दार करने हेतु भगवान श्रीमन्नारायण जो कि पेरिय पिराट्टी के स्वामी हैं आचार्य बनकर मनुष्य रूप में आते हैं। वह अकेले सभी जीवात्मा के लिये मार्गदर्शक, शरण और लक्ष्य हैं। ऐसे भगवान के चरण कमल सभी जीवात्मा के पाने का लक्ष्य हैं। और इसके साथ चरण कमल हीं इसका पाने का जरिया हैं। एक जीवात्मा को यह सब तथ्य हमेशा अपने दिमाग में रखना चाहिये। यही करना एक जीवात्मा के लिये सही हैं । यह न करके और इसके सिवाय कोई दूसरा उपाय करना व्यर्थ हैं। इसलिये आचार्य भगवान श्रीमन्नारायण के प्रतिनिधित्व करते हैं जो मनुष्य योनि के उद्दार के लिये अवतार लिये हैं। ऐसे आचार्य के बारें में विचार करना एक आत्मा के लिये बहुत सही हैं। पुराने तमिल साहित्य में इस पद का उल्लेख हैं।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/04/gyana-saram-38-thenar-kamala-thirumamagal/

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