ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३४

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३३                                                            ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ३५

पाशुर-३४

पट्रु गुरूवैप परन अन्रेन इगलन्दु
मट्रोर परनै वलिप्पडुदल एट्रे तन
कैप्पोरूल विट्टारे नुम आसिनियिल ताम पुदैत्त
अप्पोरूल तेडित तिरिवानट्रू

प्रस्तावना:

हर शिष्य को उसके आचार्य उसके लिये बहुत ही सुलभता से प्राप्त होते हैं और उसके पहुँच में भी होते हैं। हालाकि अगर शिष्य वह मनुष्य हैं इस भाव के साथ आचार्य का अनादर करता है और एक कदम आगे बढ़कर यह सोचकर कि हमारे बुरे वक्त में भगवान ही काम आयेंगे तथा भगवान को देखने के लिये योगं आदि जैसे बहुत कठिन कार्य करता हैं, यह कार्य और कुछ नहीं बल्कि नादानी हैं। यह साधारण बात इस पाशुर में उदाहरण के साथ दरशाई गयी है।

अर्थ:

पट्रु गुरूवैप – अगर कोई व्यक्ति अपने आचार्य का जिनके शरण में जाना हैं उनका अनादर करता हैं| परन अन्रेन – व्यक्ति के जैसे जो भगवान नहीं हैं | इगलन्दु – और अपने आचार्य का अनादर करता हैं | मट्रोर परनै– आगे बढ़कर एक और भगवान के पास जाता हैं (जो और कोई नहीं स्वयं भगवान हैं) | वलिप्पडुदल – और भगवान को हीं केवल अपना उपाय समझते हैं। यह कार्य वैसे हीं हैं जैसे कि कोई व्यक्ति जो अस्वीकार करता हैं | तन कैप्पोरूल – हाथ में पैसा | विट्टारे – जिसकी किमत कम हैं और | आरेनुम ताम – जाकर देखता हैं अगर कोई| पुदैत्त – उस “धन” को दफनाया / रखा | आसिनियिल – भूमी में | अप्पोरूल – और धन के पीछे पागलों कि तरह जाता हैं (यह जाने बिना कि वह धन पहिले स्थान पर कहाँ हैं और हैं भी या नहीं) | तेडित तिरिवानट्रू – ऐसा इन दोनों व्यक्तियों का कार्य हैं जो समान हैं | एट्रे – कैसा मूर्ख / अनजान कार्य हैं!!!

स्पष्टीकरण:

पट्रु गुरूवैप: यह एक आचार्य के गुणों को समझाता हैं जिनके चरण कमलों में एक व्यक्ति शरण लिया हैं। आचार्य वह हैं जिनके पास आसानी से पहुँचा जा सकता हैं, वह जो हम सब के साथ मित्रता पूर्वक हिल मिल जाते हैं, वह जो बात करने के लिये मनोहर हैं और जो हमारी रक्षा करते हैं।

परन अन्रेन इगलन्दु: आचार्य और कोई नहीं भगवान रूप में स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण ही हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने आचार्य को अस्वीकार कर एक इन्सान समझता हैं और भगवान का स्वरूप नहीं हैं ऐसे अनादर करता हैं इस मूर्खता का प्रभाव इस पाशुर में विस्तृत रूप से बताया गया हैं।

मट्रोर परनै वलिप्पडुदल: अपने आचार्य को छोड़ दूसरे कि पूजा करना। यहाँ दूसरे का अर्थ हैं स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण। उनको खुद के परिश्रम से पाना बहुत मुश्किल है। वह अपने नेत्रों से दिखाई नहीं देते। वह योगं आदि से भी आसानी से प्राप्त नहीं होते। स्वामीजी श्री देवराज मुनि कहते हैं कि यह मूर्खता है कि अगर कोई व्यक्ति ऐसे भगवान के पीछे जाता हैं और अपने आचार्य का अनादर करता हैं जो उसकी सदैव रक्षा करेगा, जो उसके साथ बात करने के लिये मनोहर हैं ।

एट्रे!: यह एक विस्मय करने वाला वाक्य हैं। आचार्य जिनका उस व्यक्ति ने बहिष्कार किया और भगवान इन दोनों कि तुलना स्वामीजी श्री देवराज मुनि करते हैं और एक गहरी श्वास लेते हैं और इस व्यक्ति कि मूर्ख परिस्थिती देखते हैं जिसने अपने आचार्य का अनादर किया हैं। वह “एट्रे” उस व्यक्ति कि ओर बहुत दर्द और निराशा के साथ कहते हैं। वह आगे बढ़कर इस परिस्थिती को एक समानता देते हैं।

तन कैप्पोरूल विट्टारे: एक व्यक्ति अपने जेब में जो धन हैं उसे फेंख देता हैं। जब की वह उसे अपने जेब में बचाकर रखा था ताकि जब उसकी जरूरत होगी तो इस्तेमाल करेगा।

नुम आसिनियिल ताम पुदैत्त: यह व्यक्ति आगे बढ़कर उस धन कि तलाश करता हैं जो वह सोचता हैं कि उसने धन को जमीन में रखा है। वह यह विश्वास करता हैं कि कोई किसी समय पहिले उस धन को जमीन के अंदर गाढा हैं और इसलिये वह गड्डा खोदता हैं ताकि उस प्राप्त धन से वह अपनी रोजमर्रा कि जिन्दगी में इस्तेमाल कर सके।

अप्पोरूल तेडित तिरिवानट्रू: अत: उस व्यक्ति का कार्य जो “धन” के उदाहरण में दिया गया हैं उसे उस व्यक्ति के कार्य से तुलना किया हैं जिसने अपने आचार्य का अनादर किया हैं और आगे बढ़कर भगवान श्रीमन्नारायण कहीं ढूँढता हैं। “तिरिवान” का अर्थ कठोरता से इन्सान हैं परन्तु इस प्रसङ्ग में वह उस व्यक्ति का कार्य का दर्जा बताता हैं नाकि वह स्वयं व्यक्ति को। तमिल व्याकरण में इसे “तोझिल उवमां” कहते हैं। अत: हम यह देख सकते हैं कि अगर कोई व्यक्ति अपने आचार्य का निरादर करता है और भगवान श्रीमन्नारायण को अपने स्वयं के कोशिश से प्राप्त करना चाहता है, यह उसी तरह मूर्खता है जैसे कि धन प्राप्त करने के लिये जमीन खोदना जब कि सच्चाई यह हैं कि अपने जरूरत के समय धन अपने हाथ में तैयार होता हैं। यह हम श्रीवचन भूषण में देख सकते हैं, “कैपट्टा पोरुलै कैविट्टु कणिसिक्का कदवन अल्लन” (#४४८)

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source:  http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-34-parru-guruvai/

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