ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २५

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

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पासुर – २५

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अट्रम उरैक्किल अडैन्दवर पाल अम्बुयैकोन
कुट्रम उणर्न्दिगलुम कोलगैयनो – एट्रे
कनिर् न उडम्बिन वलुवनोर् कादलिप्पदु
अनर् दनै ईनर् गन्द आ

सार : पिछले पाशुर में श्री देवराज स्वामीजी ने यह समझाया कि कैसे भगवान अपने भक्तों कि गलतियों पर ध्यान नहीं देते हैं। अगर कोई व्यक्ति उन गलतियों कि तरफ बतलाता भी हैं तो भगवान उसे दोष नहीं मानते हैं। बजाए उसे भगवान आनन्द का खजाना सोचेंगे। इसका कारण यह हैं कि भगवान में मुख्य गुण हैं जिसे “वात्सल्य” कहते हैं। इस गुण के कारण उन्हें “वत्सलन” कहते हैं। इस गुण के कारण ही वह दोषों को कृपा के जैसे वर्णन करते हैं। वह किसी व्यक्ति के पिछले गलतियों / दोषों को खजाने ने कि तरह रखते हैं जिससे उनको बहुत आनन्द आता हैं। इसलिए कोई अगर भगवान के विरुध्द तर्क-वितर्क करना भी चाहता हैं तो कुछ गलतियों पर जिसे उन्हें ध्यान देना चाहिये भगवान उन दोषों कि तरफ ध्यान न देकर उसे “कृपा” समझते हैं और किसी को इससे अपने पिछले कर्मों के लिए डरने कि भी जरूरत नहीं हैं। यहीं इस पाशुर में दर्शाया गया हैं।

शब्दशः अर्थ :

अट्रम उरैक्किल अडैन्दवर पाल अम्बुयैकोन- अगर कोई निसंदेह रूप से कहना चाहता हैं कि जो भी भगवान के चरणों के शरण हुआ हैं वह जो कमल पुष्प के उपर विराजमान उनके स्वामी हैं,

कुट्रम उणर्न्दिगलुम कोलगैयनो? – अपने भक्तों कि गलतियों को देखते हैं और उसरे पसन्द भी नहीं करते, क्या यह सत्य हो सकता हैं?

एट्रे कनिर् न उडम्बिन वलुवनोर् कादलिप्पदु-  नहीं! वैसे ही जैसे गौ माता खुशी से अपने बछड़े के शरीर से गंदगी साफ करती हैं।

अनर् दनै ईनर् गन्द आ– तुरन्त बछड़े को जन्म देने के पश्चात

अट्रम उरैक्किल: इस पद का मतलब हैं कि “अगर कोई निश्चित रूप से कहता हैं”, यानि अगर कोई निश्चित रूप से इसे दृढ़ और अन्त समझता हैं, वह इधर ही हैं।

अडैन्दवर पाल: श्री देवराज स्वामीजी भागवान श्रीमन्नारायण के भक्तों को प्रार्थना करते हैं जिनके प्रति भगवान का अलग ही व्यवहार हैं जिसे आनेवाले पद में बताया गया हैं।

अम्बुयैकोन: भागवान श्रीमन्नारायण को बहुत से विशेषण से संबोधित करते हैं जैसे माता लक्ष्मीजी के स्वामी, श्रीलक्ष्मणजी के बड़े भाई आदि। “पाल” शब्द तमिल में दशा का अन्त हैं जिसका मतलब है “समीप”। अत: इदर “अम्बुयैकोन” यानि अगर भक्त अम्माजी के पुरुषकार से भगवान के पास जाते हैं तो भगवान उन्हें जरूर अपनाते हैं। भगवान उनके भक्तों को अपनाते हैं क्योंकि भक्त उनके शरण में अम्माजी के पुरुषकार से आते हैं तो भगवान उनके गलतियों कि तरफ ध्यान नहीं देते हैं। क्योंकि यह अम्माजी का स्वाभाविक गुण हैं। किसी को अपनाने के बाद अम्माजी यह देखती हैं कि भगवान उन्हें मन से अपनाया हैं कि केवल उनका मन रखने के लिए। भगवान भक्तों को उनके पापों के लिए उसे अस्वीकार करते हैं क्या यह देखने के लिए कि वह भगवान से उस भक्त के सारे पापों के बारें में बात करती हैं। परन्तु भगवान कभी भी ऐसा नहीं करेंगे। वह अम्माजी को यह उत्तर देंगे “एं आडियार अधु सेय्यार” (मेरे भक्त ऐसी गलतियाँ कर सकते है क्या)। इसका यहीं अर्थ हैं कि भगवान उसे पूरी हार्दिकता से अपनाते हैं और उसे कभी नहीं छोड़ेंगे क्योंकि वह अम्माजी के पुरुषकार के जरिए आये हैं। वह एक कदम आगे बढ़कर यह कहते हैं कि “अगर वह गलती करता भी हैं जैसे आप ने बताया हैं तो भी वह एक बड़े और अच्छे कार्य के लिए होगा। अत: में उसे शुरू में गलती न समझुंगा क्योंकि अंत में वह एक अच्छे कार्य के लिए समाप्त हुआ हैं”। यह भगवान और अम्माजी के बीच में संवाद हैं जीसे श्री विष्णुचित्त स्वामीजी के तिरुमोझी पाशुर ४.१०.२ में कहा गया हैं।

कुट्रम उणर्न्दिगलुम कोलगैयनो?: श्रीदेवराजमुनि स्वामीजी प्रश्न पुछकर कुछ बात कि जाँच करते हैं। वह यह पुँछते हैं कि क्या भगवान एसे हैं कि जो अपने भक्तों को उनके अनगिनत गलतियों के लिए उनसे घृणा करेंगे? पहिले यह प्रश्न पुँछने का कारण हैं कि पाठक गण यह जान ले कि यह पुछकर इसमें नि:संदेह अस्वीकारनिय हैं। “कोलगैय” भगवान का खुद का स्वभाव हैं कि अपने भक्तों को स्वीकार करें क्योंकि यह अम्माजी की सिफारीश हैं। वह अपने भक्तों के दोषों को कभी नहीं जानते हैं। अगर अम्माजी खुद भी कहे कि उसे जांचले फिर भी भगवान नहीं जाँचते यहीं कहेंगे कि यह गलतियाँ तो आनन्द की वस्तु हैं। वह कभी भी उस व्यक्ति से उसकी गलतियों के कारण नफरत कि भावना नहीं रखेंगे। यह उनका स्वाभाविक गुण हैं और इसी “वात्सल्यं” गुण के कारण ही उन्हें “वत्सलन” कहा जाता हैं। दोषों को उपाय करके कृपा करना “वात्सल्यं” हैं। “वत्सम” एक बछड़े कि तरह हैं जिसने अभि जन्म लिया हैं और उसकी माँ का उसके प्रति प्रेम हीं “वात्सल्यं” कहा जाता हैं। भगवान को “वत्सलन” कहते हैं और उनके इसी गुण के कारण जिसे आगे एक उदाहरण के साथ हम देखेंगे। यहाँ श्री देवराज मुनि स्वामीजी सभी प्रश्नों के उत्तर देते हैं कि इस गुण को उन्होंने लौकिक जगत में कहाँ देखा हैं।

एट्रे कनिर् न उडम्बिन वलुवनोर् कादलिप्पदु अनर् दनै ईनर् गन्द आ: “एर्रे” चिल्लाहट हैं। जिन्हें “वात्सल्यं” गुण के बारें में पता नहीं होता हैं वह यह समझते हैं कि भगवान जो दोषी होते हैं उनके प्रति घृणा भावना रखते हैं। अरुळाळ पेरुमळ एम्बेरुमानार् स्वामीजी बहुत ही विस्मय से यह पूछते हैं की पहले तो क्या कोई ऐसा मौजूद हैं जिसे उसके(भगवान) के वात्सल्य के बारे मैं न पता हो ? “वात्सल्यं” गुण के स्वभाव को एक उदाहरण के जरिए समझाया गया हैं। एक गाय कभी भी मैला घास का सेवन नहीं करती हैं यानि वह घास जिसे किसीने कुचला हो। परन्तु जब उसने एक बछड़े को जन्म दिया हो तब वह अपने बछड़े के शरीर में सब मैला चाट डालती हैं और मजेसे चाटती हैं। जैसे सब कहते हैं “इंरा पोझुदिन पेरिढुवक्कुम” एक गाय माता अपने बछड़े पर पूर्ण प्रेम बरसाती हैं उसी तरह भगवान भी अपने भक्तों के अनगिनत दोषों को खुशी कि वस्तु कि तरह समझते हैं। जैसे एक गाय अपने बछड़े पर घृणा नहीं करती हैं वैसे ही वह कभी भी उन पर घृणा नहीं करेंगे। जब भी हमारे पूर्वाचार्य भगवान के इस गुण के बारें में बात करते हैं वह यह गाय का उदाहरण के बारें में बात करते हैं। “वात्सल्यं” बछड़े कि तरह हैं और जैसे पहिले देखा गया हैं उस गाय का उसके प्रति प्रेम को “वात्सल्यं” जानते हैं। यह गुण केवल भगवान में देखा जा सकता हैं और किसी में नहीं। इसलिए यह गुण को भगवान का ऐसा कहा जाता हैं। श्रीदेवराज मुनि स्वामीजी इस गुण से बहुत प्रभावित हुए इसलिए उन्होंने “एर्रे” यानि चिल्लाहट का प्रयोग किया।

हिन्दी अनुवादक – केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-25-arram-uraikkil/
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