ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) २३

श्री:
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श्रीमत् वरवरमुनये नम:

ज्ञान सारं

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पासुर – २३

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ऊळि विनैक् कुरुम्बर् ओट्टरुवर् एन्रञ्जि
एळै मनमे इनित् तळरेल् – आळि वण्णन्
तन्नडिक् किळ् वीळ्न्दु सरण् एन्रु .इरन्दोरुकाल्
सोन्नदर् पिन् उण्डो तुयर्

सार : यह पाशूर उन सभी को शान्त करता हैं जो यह सोच कर घबराते हैं की उनके कर्मों का फल उनका पीछा कभी नहीं छोड़ेगा और उन्हे सदा कष्ट पहुँचाएगा | यह पाशूर इस तथ्य पर ज़ोर देता हैं की सम्पुर्ण आत्मसमर्पण(शरणागती) करने के बाद, अतीत में हमारे कर्म के कारण कोई कष्ट नहीं सहना पड़ता |

शब्दशः अर्थ:

ऊळि विनैक् कुरुम्बर् ओट्टरुवर् एन्रञ्जि – पिछले कर्म आपको कष्ट पहुंचाएँगे और भयभीत करेंगे एळै मनमे इनित् तळरेल् -– परंतु बिना ज्ञान वाला हृदय, घबराता नहीं हैं | आळि वण्णन् तन्नडिक् किळ् वीळ्न्दु सरण् एन्रु .इरन्दोरुकाल् – क्यूंकी हम उनके चरणों मे गिर सकते हैं जो समुद्र के रंग वाले हैं और उन्हे कह सकते हैं की सिर्फ़ वे ही हमारे उद्धारकर्ता है| सोन्नदर् पिन् उण्डो तुयर् – उन्हे अपना उद्धारकर्ता कहने के बाद,क्या आप वास्तव में कर्म या किसी भी जुड़े पीड़ा के बारे में चिंता कर सकते हैं? ना!

स्पष्टीकरण:

ऊळि विनैक् कुरुम्बर्: यहाँ पर पिछले कर्मों को रूप और आकार दिया जा रहा हैं | उन्हे एक दुष्ट व्यक्ति के रूप मे देखा जा रहा हैं और “कुरुम्बर” नाम दिया जा रहा हैं | “ऊळ” का अर्थ हैं “पुराना” और “ऊळ विन” का अर्थ हैं पुराने कर्म | अतीत के कर्मों को व्यक्ति के रूप मैं देखने का कारण हैं की वे जिस प्रकार का बुरा प्रभाव व्यक्ति पर डालते हैं,जैसे कहते हैं “अळुगाऱु एन ओरू पावी” | जब भौतिक चीज़ों के अत्याचारों को एक जीवित व्यक्ति के समान देखते हैं तो कहते हैं “कयमै एन्नुम् पण्बुचोल” | अत्याचार इतने अधिक हैं की कई व्यक्तियों के समूह की तुलना की जा सकती हैं |

इसी तरह, एसे लोगों का समूह हैं(कुरुम्बर)जो बहुत शक्तिशाली हैं | अपने बल के प्रयोग से वे पूरे देश को अपना गुलाम बना सकते हैं,अपने मन के अनुसार शासन कर सकते हैं | इसी तरह “कुरुम्बर” नाम का यह व्यक्ति जो पुराने कर्मों का समूह हैं,वे अपने अनुसार व्यक्ति को चलाते हैं | इस तुलना का और एक साक्षी हैं “कन्गुल कुरुम्बर” | यहाँ कांगुल (रात्रि) कुरुम्बर की भूमिका निभा रही हैं | और एक वाक्य होगा “ऐवर” जहाँ पाँच इंद्रियों की तुलना की गई हैं |

ओट्टरुवर् एन्रञ्जि : कुरुम्बर हमारे पीठ पीछे दौड़ते रहता हैं और हमे सताने के लिए | कुरुम्बर हमारे पीठ पीछे दौड़ते रहता हैं और हमे सताने के लिए | “ओट्टरुवर्” शब्द यह सम्बोधित करता हैं की हमारे पुराने कर्मा बहुत तेज़ी से आते हैं जितना के हम सोच भी नहीं सकते |

एळै मनमे : ओह मेरे मूर्ख हृदय !! अरुळाळ पेरुमाळ एम्बेरूमानार स्वामीजी अपने हृदय को मूर्ख इसलिए बोल रहे हैं क्यूंकी उसे नहीं पता (१) की भगवान(पेरुमाळ)कभी भी अपने उन आश्रितों को नहीं त्यागाते जिन्होने केवल उनके चरण कमलों का आश्रय लिया हो(वे अपने हस्त से बताते हैं की “तुम मत डरो”) (२)शरणागती पथ की महानता जो हमे दोष रहित श्रीवैकुण्ठ तक पहुँचाती हैं | (३) शरणागती करने वाले व्यक्ति को जो लाभ होते हैं | इस मूर्ख और दयनीय हृदय को देखते हुए,कुछ सांत्वना पाशूर के अगले वाक्यों मैं दी गई हैं |

इनित् तळरेल् : भले ही किसी को शरणागती करने से पहीले कितना भी भय हो,परंतु शरणागती करने के बाद बिल्कुल भी भयभीत होने की अवष्यकता नहीं हैं | क्यूंकी शरणागती की महानता इतनी हैं की अरुळाळ पेरुमाळ एम्बेरूमानार स्वामीजी अपने हृदय को सांत्वना देते हैं | यह उसी तरह हैं जैसे कृष्‍ण अर्जुन को शांत करते हुए कहते हैं की “भयभीत न हो,मै तुम्हारे लिए यहाँ हूँ” | “इनी” शब्द का अर्थ हैं अब से ,अर्थात शरणागती के बाद वाला समय |

आळि वण्णन् : वह जो सागर की तरह हैं | वह सागर की तरह हैं जिसकी चरित्र की अधिक गहराई हो | वे उस नीले रंग के सागर की तरह हैं जो उन सभी के दुखों को हर लेता हैं जो उसे देखता हैं |

तन्नडिक् किळ् वीळ्न्दु : इस वाक्यांश का अर्थ होगा की “सागर के रंग वाले भगवान के कमल चरणों पर गिरना” | यह उसी तरह हैं जैसे तिरुमन्गै आळ्वार कहते हैं “आळी वण्णन निन अडियिनै अडैन्धेन् ” |

सरण् एन्रु .इरन्दोरुकाल् सोन्नदर् पिन् : शरणागती करने के बाद यह कहते हुए की,”आप एकमात्र शरण हो”,हमे कोई भय नहीं होना चाहिए | यह वाक्य केवल एक बार ही बोलना चाहिए | शरणागती एक से अधिक बार करने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं हैं | यह अपने मुख्य उदेश्य और विषय को ही धरा का धरा कर देता हैं | एसलिए इस तथ्य को हमे जानना ही चाहिए शरणागती एक और ठीक एक बार ही करना चाहिए जहाँ पर व्यक्ति भगवान से प्रार्थना करता हैं की उनके चरण कमाल ही उसके एकमात्र शरण हैं |

उण्डो तुयर् : इस तरह शरणागती के बाद कोई रास्ता हैं की पिछले कर्म हमारे पीछे आए और हमे सताए ? कभी नहीं | जिस समय व्यक्ति भगवान के चरणों का आश्रय ले लेता हैं उसी समय उसके सारे पिछले कर्म और भविष्य के कर्म नष्ट हो जाते हैं जैसे की शास्त्रों मैं बताया गया हैं (गोदम्माजि कहते है”पोय पिळयुम् पुहुधरूवान निन्रवनुम्”) | इस प्रकार पाशूर का सार हैं की उन सभी के लिए जिन्होने शरणागती की हैं ,उनके सारे कर्म उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे अग्नि से कपास | इस प्रकार व्यक्ति के पिछले कर्म अब होंगे ही नही उसे सताने के लिए | इसलिए शरणागती के बाद अपने अतीत के कर्मों से भयभीत होने की कोई अवष्यकता नहीं हैं |

अडियेन् केशव रामानुज दासन्

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-23-uzhi-vinaik-kurumbar/
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