ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ५

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नम:
श्रीमते रामानुजाय नम:
श्रीमत् वरवरमुनये नम:

 ज्ञान सारं

ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ४                                                                             ज्ञान सारं – पासुर (श्लोक) ६

पासुर ५

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तीर्थ मुयन्ड्ऱाडुवदुम् सेइ तवन्गळ् सेइवनवुम्
पार्त्तनै मुन् कात्त पिरान् पार्प्पदन् मुन् – सीर्तुवरै
मन्नन् अडिययोम् एन्नुम् वाल्वु नम्कीन्ददर्पिन्
एन्न कुऱै वेण्डुमिनि

 

प्रस्तावना:

श्री द्वय महामंत्र के प्रथम खण्ड का महत्त्वपूर्ण संदेश है की भगवान के चरणारविन्द में शरणागति करना। यह “सिद्धोपाय वरण” है। “सिद्धोपाय” का अर्थ है उपाय (भगवान) जो हमेशा उपाय बननेके लिए तैय्यार होते हैं। भगवान हरक्षण हमारी शरणागति स्वीकार करनेके लिए तैय्यार होते हैं। वही “सिद्धोपाय” हैं।जब हम ऐसे सिद्धोपाय भगवान की शरणागति करके यह कहते हैं, “आप ही मेरे उपाय हो”, उस समय हम और किसी भी उपाय (उपायान्तर) का अवलंब नहीं करना चाहिए। केवल सम्पूर्ण रूप से उपायान्तर त्याग करनेके बाद ही भगवान के चरणारविन्द की शरणगति करनी चाहिये। यह उपायान्तर का त्याग अनिवार्य है। तो उपायान्तर त्याग करना यह शरणागति करनेका एक भाग है।यह श्रीमद्भगवत् गीता चरम श्लोक में स्पष्ट रूप से वर्णित है।जब कोई चरम श्लोक को गहराई से समझ लेता है उसे उपायान्तर में कोई रुचि ही नहीं रहेगी। वो अपने शेषत्व स्वरूप के अनुसार रहेंगे, और अपना सभी भार भगवान पर छोड़कर खुद सभी समय शांति में रहेंगे।” हमारे योगक्षेम की पूरी ज़िम्मेदारी भगवान की है, हमे उससे कोई मतलब नहीं” यह भाव मन में अति शांति उत्पन्न कर देता है। श्री देवराज मुनी स्वामीजी कहते हैं की वो भी ऐसे ही एक शरणागत हैं और इस पाशूर में वो ऐसे जीव के मन की परिस्थिति का वर्णन करते हैं।

 अर्थ
तीर्थ मुयन्ड्ऱाडुवदुम्: गंगा, कावेरी, ई. नदीयोंमें हम महात्प्रयास से स्नान करके अपने आप को पापोंसे मुक्त करनेका प्रयत्न कराते हैं। (हम ऐसा शरणागत होने से पहले करते थे), सेइ तवन्गळ्: अपने शरीर को अति कष्ट देकर विविध प्रयश्चित्त करना, सेइवनवुम्: पुण्य कमाने के लिए पुण्य कर्म करना, पार्प्पदन् मुन्: भगवान की कृपा को हम समझने से पहले (अथवा भगवान की कृपा दृष्टी हमपर पड़ने से पहले) (हममें उपरोक्त बाते थी), पार्त्तनै मुन् कात्त पिरान्: पहले भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को भगवत् गीता देकर उसकी और हमारी रक्षा की, सीर्तुवरै मन्नन्: बादमें द्वारकानाथ श्री कृष्ण भगवान ने, नमक्कु: हम जैसे आश्रितोंकों दीया है, अडिययोम् एन्नुम् वाल्वु: भगवान के नित्य किंकरोंके लिए सबसे बड़ा उपहार, नम्कीन्ददर्पिन्: ऐसा श्रीवैष्णव जन्म मिलने के बाद, एन्न कुऱै वेण्डुमिनि: हमे भगवान उपाय रूप में मिलने और उनका नित्य केंकर्य उपेय/फल के रूप में मिलने के बाद हमे किस बात की चिंता करनी चाहिए?(इसका अर्थ हैं हमे कोई चिंता करनेकी जरूरत नहीं।)

विवरण

तीर्थ मुयन्ड्ऱाडुवदुम्: लोग अपने पाप कर्मोंसे मुक्त होने के लिए महत्प्रयत्न से गंगा, यमुना, सरस्वती, कावेरी आदि पुण्य नदियोंमें अच्छी तरह से डुबकी लगाते हैं।

सेइ तवन्गळ् सेइवनवुम्: लोग अपने शरीर को अत्यंत कष्ट देकर दुष्कर प्रायश्चित्त करते हैं। आल्वारोनें ऐसे दुष्कर प्रायश्चित्त से अपने पापोंको धोने का प्रयत्न करनेवाले लोगोंका खूब वर्णन किया है। श्री देवराज मुनी स्वामीजी ने “तवन्गळ् सेइवनवुम्:” यह अनेक वचन से दान, यज्ञ इत्यादी पुण्य कर्मोंकों संबोधित किया है जो उपाय के स्वरूप में किए जाते हैं।

पार्त्तनै मुन् कात्त पिरान् पार्प्पदन् मुन्: भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म, ज्ञान, भक्ति जैसे इतर उपाय/मार्ग बताएं जो उसे उन श्रीकृष्ण भगवान तक पहुंचा सकते हैं।उन सब का श्रवण करनेके बाद अर्जुन को उनकी दुष्करता का पता चला की यह सभी उपाय से भगवान को प्राप्त करने के लिए कितने प्रयत्न करने पड़ेंगे, और यह स्वप्रयत्न करना शेषत्व स्वरूप के विरोधी भी हैं।अर्जुन को ऐसे उलझे हुये और दु:खी अवस्था में देखकर भगवान श्री कृष्ण बोले, “हे अर्जुन!, मेंने पहले बताए कर्म, ज्ञान, भक्ति इन उपायोंकों तुम्हें करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है।जो मेंने पूर्व में बताया उन सभी बातोंकों पूर्ण रूप से भूल जाओ, लवलेश भी याद नहीं रखना। में सभी कल्याण गुणोंसे युक्त महासागर हूँ और साथ में जो मुझपर और केवल मुझपर ही विश्वास करते हैं उनके लिए सुलभ भी हूँ। में मेरे आश्रितोंके पापोंका दण्ड उन्हें नहीं दूँगा। में खुशी से मेरे आश्रितोंके पापोंको भूल जाऊंगा। में सर्वज्ञ भी हूँ और सर्व समर्थ भी हूँ। तो सभी गुणोंके भंडार ऐसे मुझ को शरण आजा। ऐसा करते समय यह सोचना की,”कृष्ण को मुझसे कुछ नहीं चाहिए, हमारे पास उसे देने के लिए कुछ है भी नहीं।” और मुझको सभी कल्याण गुणोंसे पूर्ण जानकार मेरे चरणोंमें शरण हो जा। अगर तुम ऐसा कर सकते हो तो में जो बल, सामर्थ्य, वीर्य, सौलभ्य, सौशील्य आदि दिव्य गुणोंसे परिपूर्ण हूँ तुम्हारे अज्ञान, दुर्बलता, असामर्थ्य, ई ऐसा तुम्हारे बारेमें विचार करूंगा। मैं तुम्हारी असहाय परिस्थिति जिसमे तुमने मुझे सब कुछ समर्पित कर दिया है उसका भी विचार करूंगा। तुम्हारी इस असहाय परिस्थिति में मैं तुम्हें कभी भी नही छोडुंगा और सदैव तुम्हारे साथ तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा।मेरी शरणागति करने के मार्ग में तुम्हारे बहोत पाप तुम्हारा रास्ता रोकते हैं।में तुम्हें आश्वासन देता हूँ की वो सभी पाप दूर हो जाएँगे और मेरे शरणागति का मार्ग तुम्हारे लिए साफ होजाय। तो तू चिंता मत कर।”इस तरह भगवान श्री कृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से अर्जुन का उलझन और दु:ख दूर किया।श्री देवराजमुनी स्वामीजी कहते हैं “पार्प्पदन् मुन्” याने, भगवान ने हमे कृपा करके यह ज्ञान देने से पहले और हम इस बात को समझने से पहले के समय का संदर्भ देते हैं। (जब हम उपायान्तर में पड़े हुये थे)

सीर्तुवरै मन्नन्: आल्वार कहते हैं, “भगवान श्री कृष्ण केवल द्वारका के राजा नहीं थे बल्कि अपने पत्नियोंके राजा भी थे जिन्हे कृष्ण छोडकर और कुछ नही चाहिए था।

अडिययोम् एन्नुम् वाल्वु: जीवात्मा को यह अहसाह होना चाहिये की वो भगवान का नित्य किंकर है। यह अहसास होने के बाद उसने अपनी रक्षा/उद्धार के सभी उपायोंकों त्याग देना चाहिए और भगवान एकही मेरे रक्षक/उद्धारक हैं यह विश्वास करना चाहिए।जब जीवात्मा को यह ज्ञान हो जाता है, तब ही उसे सच्चा धन प्राप्त हो जाएगा।जब भगवान के जीवात्मा को ऐसा धन प्रदान कर दिया तो फिर जीवात्मा को चिंता करनेका कोई कारण ही नहीं।एक जीवात्मा आनंद, ज्ञान, शेषत्व आदि अनेक गुणोंसे सम्पन्न होता है। इनमेसे उसे शेषत्व का विशेष रूप से स्मरण होना चाहिए, जो उसकी पहचान है और जिस के लिए उसे अभिमान होना चाहिए। जब उसे अपने नीत्य किंकरत्व (शेषत्व) का स्मरण हो जाता है तो वो फिर अपने आप को बचाने के लिए कोई भी प्रयत्न नही करता और अपने वैयक्तिक सुख/संतुष्टि के लिए भी वो कुछ नहीं करता।जब ऐसी उस जीवात्मा के परिस्थिति होजाती है तभी वो जीवित माना जा सकता है।

नम्कीन्ददर्पिन्: अपने स्वामी का दास बनाना यह कोई नई बनाई हुयी बात नहीं है।भगवान के साथ सभी ९ अलग अलग संबंध सनातन हैं। जीवात्मा सभी संबंध भूल गया था। जब जीवात्मा समझता है और यह संबंध स्वीकार करता है उस समय का संदर्भ इस पाशूर में है। यह भी समझना जरूरी है की इस ज्ञान प्राप्त होने का कारण भी भगवान की निर्हेतुक कृपा ही है। संक्षेप में, “भगवान ने जीवात्मा को, “जीवात्मा भगवान का नित्य दास है” यह ज्ञान प्रदान करने का समय निश्चित किया है।

एन्न कुऱै वेण्डुमिनि: जब उन्होने आप ही यह ज्ञान हमे प्रदान किया है तो फिर और कोई उपायान्तरोंकी चिंता हमे करनेकी क्या आवश्यकता है? जब भगवान ने अर्जुन को “मा शुच:” कहा है, तो हमे किसी भी बात की चिंता करने के आवश्यकता नही। इसलिए शांति से भगवान को प्राप्त करनेका कोई भी प्रयत्न करनेकी अथवा ज़िम्मेदारी लेनेकी किसी भी चिंता से दूर रहो।

Source: http://divyaprabandham.koyil.org/index.php/2015/02/gyana-saram-5-thirtha-muyandraduvadhum/

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